26.3.25

परशुराम ने क्यों किया सहस्रबाहु का वध ? रोचक पौराणिक कहानी



                                     


सहस्त्रबाहु अर्जुन चंद्रवंशी राजा थे, जिन्होंने अपने जीवन काल में कई युद्ध लड़े, परंतु उनमें से दो युद्ध काफी उल्लेखनीय है... पहला युद्ध असुर सम्राट रावण के साथ और दूसरा क्षत्रीय गुरु परशुराम के साथ।
सहस्त्रबाहु का मूल नाम कार्तवीर्य अर्जुन था। वह बड़ा प्रतापी तथा शूरवीर था। उसने अपने गुरु दत्तात्रेय को प्रसन्न करके वरदान के रूप में उनसे हज़ार भुजाएँ प्राप्त की थीं। हज़ार भुजाएँ होने के कारण ही कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु के नाम से भी जाना गया था। उसने सभी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। सहस्त्रबाहु ने परशुराम के पिता जमदग्नि से उनकी कामधेनु गाय माँगी थी। जमदग्नि के इन्कार करने पर उसके सैनिक बलपूर्वक कामधेनु को अपने साथ ले गये। बाद में परशुराम को सारी घटना विदित हुई, तो उन्होंने अकेले ही सहस्त्रबाहु की समस्त सेना का नाश कर दिया और साथ ही सहस्त्रबाहु का भी वध कर दिया।

रावण से सामना

सहस्रबाहु को अपने बल और वैभव का बड़ा गर्व था। एक बार वह गले में वैजयंतीमाला पहने हुए नर्मदा नदी में स्नान कर रहा था। उसने कौतुक ही कौतुक में अपनी भुजाओं में फैलाकर नदी के प्रवाह को रोक लिया। लंकाधिपति रावण को, जो उसी समय नर्मदा में स्नान कर रहा था, सहस्त्रबाहु का यह कार्य बड़ा ही अनुचित और अन्यायपूर्ण लगा। उसे भी अपने बल का बड़ा गर्व था। वह सहस्त्रबाहु के पास जाकर उसे खरी-खोटी सुनाने लगा। सहस्त्रबाहु उसकी खरी-खोटी सुनकर क्रुद्ध हो उठा। उसने उसे देखते-ही-देखते बंदी बना लिया। सहस्त्रबाहु ने बंदी रावण को अपने कारागार में बंद कर दिया। किंतु पुलस्त्य ॠषि ने दयालु होकर उसे मुक्त करा दिया। फिर भी रावण के मन का अभिमान दूर नहीं हुआ। वह अभिमान के मद में चूर होकर ही ऋषियों और मुनियों पर अत्याचार किया करता था।
कामधेनु का हरण

सहस्त्रबाहु के अभिमान का तो कहना ही क्या था। वह तो सदा अभिमान के यान पर बैठकर गगन में उड़ा करता था। एक बार सहस्त्रबाहु उस वन में आखेट के लिए गया, जिस वन में परशुराम के पिता जमदग्नि का आश्रम था। सहस्त्रबाहु अपने सैनिकों के साथ उनके आश्रम में उपस्थित हुआ। जमदग्नि ने अपनी गाय कामधेनु की सहायता से सहस्त्रबाहु और उसके सैनिकों का राजसी स्वागत किया और उनके ख़ान-पान का प्रबंध किया। कामधेनु का चमत्कार देखकर सहस्त्रबाहु उस पर मुग्ध हो गया। उसने जमदग्नि से कहा कि वे अपनी गाय उसे दे दें। किंतु जमदग्नि कामधेनु को क्यों देने लगे? उन्होंने इन्कार कर दिया। उनके इन्कार करने पर सहस्त्रबाहु ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे कामधेनु को बलपूर्वक अपने साथ ले चलें।

सहस्त्रबाहु का वध

सहस्त्रबाहु कामधेनु को अपने साथ ले गया। उस समय आश्रम में परशुराम नहीं थे। परशुराम जब आश्रम में आए, तो उनके पिता जमदग्नि ने उन्हें बताया कि किस प्रकार सहस्त्रबाहु अपने सैनिकों के साथ आश्रम में आया था और किस प्रकार वह कामधेनु को बलपूर्वक अपने साथ ले गया। घटना सुनकर परशुराम क्रुद्ध हो उठे। वे कंधे पर अपना परशु रखकर माहिष्मती की ओर चल पड़े, क्योंकि सहस्त्रबाहु माहिष्मती में ही निवास करता था। सहस्त्रबाहु अभी माहिष्मती के मार्ग में ही था, कि परशुराम उसके पास जा पहुंचे। सहस्त्रबाहु ने जब यह देखा के परशुराम प्रचंड गति से चले आ रहे हैं, तो उसने उनका सामना करने के लिए अपनी सेनाएँ खड़ी कर दीं। एक ओर हज़ारों सैनिक थे, दूसरी ओर अकेले परशुराम थे, घनघोर युद्ध होने लगा। परशुराम ने अकेले ही सहस्त्रबाहु के समस्त सैनिकों को मृत्यु के मुख में पहुँचा दिया। जब सहस्त्रबाहु की संपूर्ण सेना नष्ट हो गई, तो वह स्वंय रण के मैदान में उतरा। वह अपने हज़ार हाथों से हज़ार बाण एक ही साथ परशुराम पर छोड़ने लगा। परशुराम उसके समस्त बाणों को दो हाथों से ही नष्ट करने लगे। जब बाणों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा, तो सहस्त्रबाहु एक बड़ा वृक्ष उखाड़कर उसे हाथ में लेकर परशुराम की ओर झपटा। परशुराम ने अपने बाणों से वृक्ष को तो खंड-खंड कर ही दिया, सहस्त्रबाहु के मस्तक को भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया। वह रणभूमि में सदा के लिए सो गया।

पितृभक्त परशुराम

परशुराम सहस्त्रबाहु को मारने के पश्चात् कामधेनु को लेकर अपने पिता की सेवा में उपस्थित हुए। महर्षि जमदग्नि कामधेनु को पाकर अतीव हर्षित हुए। उन्होंने परशुराम को हृदय से लगाकर उन्हें बहुत-बहुत आशीर्वाद दिए। परशुराम अपने पिता के अनन्य भक्त थे। वे उन्हें परमात्मा मानकर उनका सम्मान किया करते थे। जमदग्नि बहुत बड़े योगी थे। उन्होंने योग द्वारा सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। सवेरे का समय था, जमदग्नि की पूजा का समय हो गया था। परशुराम की माँ रेणुका जमदग्नि के स्नान के लिए जल लाने के लिए सरोवर पर गईं। संयोग की बात, उस समय एक यक्ष सरोवर में कुछ यक्षिणियों के साथ जल-विहार कर रहा था। रेणुका सरोवर के तट पर खड़ी होकर यक्ष के जल-विहार को देखने लगीं। वे उसके जल-विहार को देखने में इस प्रकार तन्मय हो गईं कि यह बात भूल-सी गईं, कि उसके पति के नहाने का समय हो गया है और उन्हें शीघ्र जल लेकर जाना चाहिए।
  कुछ देर के पश्चात् रेणुका को अपने कर्तव्य का बोध हुआ। वे घड़े में जल लेकर आश्रम में गईं। घड़े को रखकर जमदग्नि से क्षमा मांगने लगीं। जमदग्नि ने अपनी योग दृष्टि से यह बात जान ली, कि रेणुका को जल लेकर आने में देर क्यों हुईं। जमदग्नि क्रुद्ध हो उठे। उन्होंने अपने पुत्रों को आज्ञा दी, कि रेणुका का सिर काटकर धरती पर फेंक दें। किंतु परशुराम को छोड़कर किसी ने भी उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया। परशुराम ने पिता की आज्ञानुसार अपनी माँ का मस्तक तो काट ही दिया, अपने भाइयों का भी मस्तक काट दिया। जमदग्नि परशुराम के आज्ञापालन से उन पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उनसे वर मांगने को कहा। परशुराम ने निवेदन किया, 'पितृश्रेष्ठ, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मेरी माँ और मेरे भाइयों को जीवित कर दें।' परशुराम की माँ और उनके भाई पुनः जीवित हो उठे।

तीर्थ-भ्रमण

कामधेनु को पाने पर जमदग्नि को अतीव प्रसन्नता तो हुई थी, किंतु उन्हें यह जानकर बड़ा दु:ख भी हुआ कि परशुराम ने सहस्त्रबाहु का वध कर दिया है। उन्होंने परशुराम की ओर देखते हुए कहा, 'बेटा, तुमने सहस्त्रबाहु का वध करके अच्छा नहीं किया। हम ब्राह्मणों की शोभा क्रोध से नहीं, क्षमा से बढ़ती है। क्षमा से ही ब्रह्मा ब्रह्म पद को प्राप्त हुए हैं। राजा ब्राह्मण के सदृश होता है। तुमने सहस्रबाहु का वध करके ब्राह्मण की हत्या की है। तुम्हें हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए एक वर्ष तक तीर्थों में भ्रमण करना चाहिए।' पिता की आज्ञा मानकर परशुराम तीर्थों की यात्रा पर चले गए। वे पूरे वर्ष भर तीर्थों में ही भ्रमण करते रहे। उनके पिता ने इसके लिए हर्ष तो प्रकट किया ही था, उन्हें आशीर्वाद भी दिया था।

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25.3.25

मेनका ने जब भंग की विश्वामित्र की तपस्या



मेनका -विश्वा मित्र के प्रेम प्रसंग का विडिओ देखें 
                                       

               

मेनका और विश्वामित्र की प्रेम कहानी !
Love story of Menka And Vishwamitra.

विश्वामित्र वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। उनके ही काल में ऋषि वशिष्ठ थे जिसने उनकी अड़ी चलती रहती थी, अड़ी अर्थात प्रतिद्वंद्विता। विश्वामित्र के जीवन के प्रसंगों में मेनका और त्रिशंकु का प्रसंग भी बड़ा ही महत्वपूर्ण है। प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे। विश्वामित्रजी उन्हीं गाधि के पुत्र थे।

ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है।

माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज है, उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ट होकर एक अलग ही स्वर्गलोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मंत्र की रचना की, जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है। राम और लक्ष्मण ने गुरु महर्षि विश्वामित्र का आश्रम बक्सर (बिहार) में स्थित था। इस स्थान को गंगा-सरयू संगम के निकट बताया गया है। विश्वामित्र के आश्रम को 'सिद्धाश्रम' भी कहा जाता था।

मेनका ने जब भंग की विश्वामित्र की तपस्या

मेनका अप्सरा देवलोक में रहने वाली अनुपम, अति सुंदर, अनेक कलाओं में दक्ष, तेजस्वी और अलौकिक दिव्य स्त्री है। वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है कि देवी, परी, अप्सरा, यक्षिणी, इन्द्राणी और पिशाचिनी आदि कई प्रकार की स्त्रियां हुआ करती थीं। उनमें अप्सराओं को सबसे सुंदर और जादुई शक्ति से संपन्न माना जाता है। मेनका स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा थी। महान तपस्वी ऋषि विश्वामित्र ने नए स्वर्ग के निर्माण के लिए जब तपस्या शुरू की तो उनके तप से देवराज इन्द्र ने घबराकर उनकी तपस्या भंग करने के लिए मेनका को भेजा।

ऋषि को तपस्या में लीन देखकर अप्सरा सोचने लगी। मगर विश्वामित्र का तप भंग करना आसान कार्य नहीं था मगर अप्सरा ने विश्वामित्र को अपनी ओर आकर्षित करने का हर संभव प्रयास किया। वह कभी मौका पाकर ऋषि विश्वामित्र की आंखों का केंद्र बनती हैं तो कभी कामुकता पूर्वक होकर अपने वस्त्र को हवा के साथ उड़ने देती हैं। स्वर्ग की अप्सरा मेनका के निरंतर प्रयासों से ऋषि के शरीर में धीरे धीरे बदलाव आने लगा और ऋषि अपनी तपस्या को भूलकर उठ खड़े हुए अपने फैसले को भूलकर उस स्त्री के प्यार में मगन हो गए थे जो कि स्वर्ग की एक सुंदर अप्सरा मेनका थी।

मेनका ने अपने रूप और सौंदर्य से तपस्या में लीन विश्वामित्र का तप भंग कर दिया। विश्वामित्र सब कुछ छोड़कर मेनका के ही प्रेम में डूब गए। उन्होंने मेनका के साथ सहवास किया। ऋषि विश्वामित्र का तप अब टूट तो चुका था लेकिन फिर भी मेनका वापस इन्द्रलोक नहीं लौटी। क्योंकि ऐसा करने पर ऋषि फिर से तपस्या आरंभ कर सकते थे। ऐसे में मेनका से विश्वामित्र ने विवाह कर लिया और मेनका से विश्वामित्र को एक सुन्दर कन्या प्राप्त हुई जिसका नाम शकुंतला रखा गया। मेनका क्यों शकुंतला और विश्वामित्र को छोड़कर चली गई? कुछ वर्षों साथ रहने के बाद मेनका के दिल में प्यार के साथ एक चिंता भी चल रही थी और वो थी इंद्रलोक की चिंता। वह जानती थी कि उसकी अनुपस्थिति में अप्सरा उर्वशी, रम्भा, आदि इंद्रलोक में आनंद उठा रही होंगी। दरअसल, मेनका का धरती पर समय बिताने का वक्त पूरा हो गया था और उसे जो लक्ष्य दिया था वह भी पूरा हो चुका था।

   इसलिए जब  शकुंतला छोटी ही थी, तभी एक दिन मेनका उसे और विश्वामित्र को छोड़कर फिर से इंद्रलोक चली गई। मेनका के छोड़कर चले जाने के बाद शकुंतला का लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा ऋषि कण्व ने किया था इसलिए वे उसके धर्मपिता थे। इसी पुत्री का आगे चलकर सम्राट दुष्यंत से प्रेम विवाह हुआ, जिनसे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। यही पुत्र राजा भरत थे। पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित 16 सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है।




राजपाट छोड़ राजा विश्वामित्र कैसे बने एक ऋषि



                              

   ऋषि विश्वामित्र के बारे में तो ज्यादातर लोग जानते ही हैं, क्या आपको यह पता है कि असल में वह एक ऋषि नहीं बल्कि एक राजा हुआ करते थे, लेकिन सवाल ये है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक राजा अपना राजपाट छोड़कर एक साधु ऋषि बन गया. आइए जानते हैं.

ऋषि विश्वामित्र वैदिक काल के एक महान तथा विख्यात ऋषि माने जाते हैं साथ ही ऋषि विश्वामित्र और मेनका की कहानी भी आपको पता होगी, लेकिन आज हम बताने वाले हैं कि आखिर एक महान पराक्रमी राजा ने साधु जीवन क्यों अपनाया. वैसे तो आमतौर पर यह माना जाता है कि किसी वस्तु का लालच लोगों में बदलाव ले आता है. देखा जाए तो एक राजा के पास किसी भी वस्तु की कमी नहीं होती, लेकिन ऐसे कौन से लोभ के चलते राजा विश्वामित्र, ऋषि विश्वामित्र बन गए?

जाने कौन थे राजा विश्वामित्र

राजा कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे और विश्वामित्र जी उन्हीं गाधि के पुत्र थे. विश्वामित्र शब्द विश्व और मित्र से बना है जिसका अर्थ सबके साथ मित्रता तथा प्रेम रखने वाला होता है. विश्वामित्र के पिता गाधि ने उनका राजतिलक कर गद्दी पर बैठा दिया और खुद वानप्रस्थ जाने का फैसला ले लिया. उसके बाद राजा विश्वामित्र ने बहुत अच्छे से राज-काज को संभाला और प्रजा भी उनसे बहुत खुश थी.

पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार राजा विश्वामित्र अपनी सेना को लेकर जंगल की ओर निकले, रास्ते में ऋषि वशिष्ठ का आश्रम था. राजा विश्वामित्र, ऋषि वशिष्ठ से मिलने के लिए अपनी सेना के साथ वहीं ठहर गए. ऋषि वशिष्ठ और उनके शिष्यों ने राजा और उनकी सेना की खूब आवभगत की साथ ही स्वादिष्ट भोजन खिलाया. यह सब देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुए और पूछा की एक ऋषि होते हुए भी आपने हमारा इतना सत्कार कैसे किया? ऋषि वशिष्ठ ने उत्तर देते हुए कहा कि मेरे पास एक नंदिनी नाम की गाय है जो स्वर्ग में रहने वाली कामधेनु गाय की पुत्री है. मुझे यह गाय स्वयं इंद्रदेव ने भेंट की है, यह चमत्कारी गाय एक साथ लाखों लोगों के भोजन का प्रबंध करके दे सकती है.


विश्वामित्र ने किया ऋषि वशिष्ठ पर आक्रमण

नंदनी गाय के चमत्कारों को सुनकर राजा के मन में लोभ उत्पन्न हो गया जिसके फलस्वरुप राजा ने अपनी सेना सहित ऋषि वशिष्ठ और उनके शिष्यों पर आक्रमण कर दिया. यह देखकर नंदनी गाय ने राजा विश्वामित्र ने पूरी सेना को हरा दिया और राजा को बंदी बनाकर ऋषि वशिष्ठ के सामने ले गई. ऋषि वशिष्ठ ने राजा के सिर्फ एक पुत्र को छोड़कर सभी को मृत्यु का श्राप दे दिया. सभी पुत्रों की मृत्यु होने के बाद राजा ने बचे हुए एक पुत्र राजपाट सौंप दिया और सालों भगवान शिव की तपस्या की. राजा विश्वामित्र की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने कई दिव्य अस्त्र मांगे और भगवान शिव उन्हें दिव्यास्त्र दे दिए.

भगवान शिव से दिव्यास्त्र का वरदान लेकर राजा विश्वामित्र दोबारा ऋषि वशिष्ठ के पास पहुंचे और उनपर आक्रमण कर दिया. महर्षि वशिष्ठ के पास भी कई दिव्य शक्तियां थी जिससे उन्होंने राजा विश्वामित्र के दिव्यास्त्रों को नष्ट कर दिया. फिर ऋषि ने क्रोध में आकर ब्रह्माण्ड अस्त्र छोड़ दिया. जिससे पूरे संसार में हलचल मच गई. सब ऋषि-मुनि उनसे प्रार्थना करने लगे कि आपने विश्वामित्र को परास्त कर दिया है. अब आप ब्रह्माण्ड अस्त्र से उत्पन्न हुई ज्वाला को शांत करें. इस प्रार्थना से द्रवित होकर उन्होंने ब्रह्माण्ड अस्त्र को वापस बुलाया और उसे शांत किया.

पश्चाताप ने बनाया महान ऋषि

राजा को यह एहसास हुआ कि उसके पास दिव्यास्त्र होने के बावजूद वह ऋषि वशिष्ठ से जीत नहीं सकें, साथ ही यह भी पता चला कि चाहे वह कितनी भी शक्ति हासिल कर लें, लेकिन ऋषि वशिष्ठ से नहीं जीत सकते. राजा वापस जंगल की ओर चले और तपस्या करने लगे. उनकी तपस्या से इंद्र देव प्रसन्न हुए और प्रकट होकर राजा विश्वामित्र को ब्रह्मत्व प्रदान किया और राजा विश्वामित्र ब्रह्मर्षि बन गए, लेकिन इसके बावजूद भी राजा विश्वामित्र के मन में महर्षि बनने की इच्छा थी जिसके लिए उन्होंने फिर से तपस्या शुरू की और काम, क्रोध पर विजय पाकर महर्षि का पद प्राप्त किया.

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कब और कैसे हुई चंद्र देव की उत्पत्ति? जिन्हें महादेव ने सिर पर किया था धारण

चन्द्रमा   की उत्पत्ति  की कथा  का विडिओ देखें-  



Origin Of Moon: चंद्रमा की उत्पत्ति कैसे हुई? जानें उनके जन्म से जुड़ी यह पौराणिक कथा

Moon Birth Story: ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को ग्रह और देव दोनों माना गया है. चंद्रमा की उत्पत्ति को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. जानते हैं इन कथाओं के बारे में.
Moon Story: चंद्रमा नवग्रहों में से एक माना जाता है. वैदिक ज्योतिष में चंद्रमा को मन, मां और सुंदरता का कारक माना गया है. कुंडली में चंद्रमा की स्थिति शुभ हो तो जीवन में प्रसन्नता और सुख आता है. इसकी कृपा से माता का स्वास्थ्य बेहतर रहता है और अच्छा जीवन साथी प्राप्त होता है. वहीं चंद्रमा के अशुभ प्रभाव से मानसिक विकार, मन का भटकना, माता को कष्ट आदि परेशानी आती है.
ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को विशेष स्थान प्राप्त है. इसे ग्रह और देव दोनों माना गया है. चंद्रमा की उत्पत्ति को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. आइए जानते हैं इस प्रचलित कथा के बारे में.

ऐसे हुई चंद्रमा की उत्पत्ति


ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को सोम कहा गया है, जो मन का कारक है. अग्नि ,इंद्र ,सूर्य आदि देवों के समान ही सोम की स्तुति के मन्त्रों की रचना भी ऋषियों द्वारा की गई है. चंद्रमा के बारे में मत्स्य, पद्म, अग्नि और स्कन्द पुराण में विस्तार से बताया गया है.
पद्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी ने अपने मानस पुत्र अत्रि को सृष्टि का विस्तार करने की आज्ञा दी. महर्षि अत्रि ने अनुत्तर नाम का तप आरम्भ किया. ताप काल में एक दिन महर्षि के नेत्रों से जल की कुछ बूंदें टपक पड़ी जो बहुत प्रकाशमय थीं. दिशाओं ने स्त्री रूप में आ कर पुत्र प्राप्ति की कामना से उन बूंदों को ग्रहण कर लिया जो उनके उदर में गर्भ रूप में स्थित हो गया.
हालांकि दिशाएं उस प्रकाशमान गर्भ को धारण न रख सकीं और त्याग दिया. उस त्यागे हुए गर्भ को ब्रह्मा ने पुरुष रूप दिया जो चंद्रमा के नाम से प्रख्यात हुए. देवताओं,ऋषियों और गन्धर्वों आदि ने उनकी स्तुति की. उनके ही तेज से पृथ्वी पर दिव्य औषधियां उत्पन्न हुई. ब्रह्मा जी ने चन्द्र को नक्षत्र,वनस्पतियों,ब्राह्मण व तप का स्वामी नियुक्त किया.
वहीं स्कन्द पुराण के अनुसार, जब देवों और दैत्यों ने क्षीर सागर का मंथन किया था तो उस में से चौदह रत्न निकले थे. चंद्रमा उन्हीं चौदह रत्नों में से एक है जिसे भगवान शंकर ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया. हालांकि ग्रह के रूप में चन्द्र की उपस्थिति मंथन से पूर्व भी सिद्ध होती है.
मत्स्य पुराण में लिखा है कि जब सृष्टि के रचनाकार ब्रह्माजी ने मानस पुत्रों को प्रकट किया तो उनमें से एक पुत्र ब्रह्म ऋषि ‘अत्रि’ हुए. उनका विवाह कर्दम ऋषि की पुत्री अनुसुइया से हुआ था. अनुसुइया पतिव्रता स्त्री थीं. जब त्रिदेवों ने अनुसुइया की परीक्षा ली तो उस समय दुर्वासा ऋषि, दत्तात्रेय व सोम का जन्म हुआ, वही सोम चंद्रमा हैं.
चंद्र देव की उत्पति को लेकर स्कंद पुराण में भी वर्णन किया गया है। पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन के समय चौदह रत्न निकले थे, जिनमें चंद्रमा भी था। समुद्र मंथन से निकला विष महदेव ने पी लिया, जिसकी वजह से उनका शरीर गर्म हो गया। ऐसे में शीतलता के लिए भगवान शिव ने अपने सिर पर चंद्रमा धारण किया। धार्मिक मान्यता है कि तभी से उनके मस्तक पर चंद्रमा विराजमान हैं।
शिव पुराण में सूर्य और चंद्र की उत्पत्ति

शिव पुराण में सूर्य और चंद्रमा की उत्पत्ति का कारण शिव-पार्वती के आनंद तांडव को कहा गया है. जब शिव और पार्वती आनंद तांडव करते हुए एक होने लगे तब शिवजी के नेत्रों से निकली ऊर्जा सूर्य बन गई और देवी पार्वती की कांतिमान देह से चंद्रदेव आकाश में स्थापित हो गए. ब्रह्नवैवर्त पुराण इसकी एक और व्याख्या करते हुए कहता है कि, जब श्रीहरि विष्णु के नाभिकमल पर बैठे ब्रह्मा जी ने आंखें खोलीं तो देखा कि कहीं कुछ भी नहीं है. तब उनके मन में यह भाव जागा कि वह एक हैं और अकेले हैं. वेदों में इसे एको अहं कहा गया है, यानी कि 'एक हूं पर बहुत होना चाहता हूं.' तब ब्रह्मदेव ने अपने हृदय पर हाथ रखा तो उनके मन से निकलकर एक शीतल पिंड सामने आया. साफ, सफेद और शांति के इस प्रतीक पिंड ने ब्रह्मदेव को बहुत शांति और शीतलता का अनुभव कराया. यही पिंड चंद्रमा बनकर आकाश में स्थापित हुआ.
27 कन्याओं से विवाह
इसके बाद ब्रह्म लोक में देवता, गंधर्व और औषधियों ने सोमदैवत्व नामक वैदिक मंत्रों से चंद्रमा की पूजा की. इससे चंद्रमा का तेज और अधिक बढ़ गया. तब उस तेज समूह से पृथ्वी पर दिव्य औषधियां प्रगट हुई. तब से चंद्रमा ओषधीश कहलाए. इसके बाद दक्ष प्रजापति ने चंद्रमा को अपनी 27 कन्याएं पत्नी रूप में प्रदान की. चंद्रमा ने 10 लाख वर्षों तक भगवान विष्णु की तपस्या की. उससे प्रभावित होकर भगवान ने उन्हें इंद्र लोक विजयी होने सहित कई वरदान दिए थे.

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महापुरुषों की जीवन कहानी 

24.3.25

गणेश भगवान को क्यों लगाना पड़ा था गज मुख? क्या है पौराणिक कथा



भगवान गणेश के अनेक नामों में एक नाम गजानन और गजमुख है। इनके इस नाम के पीछे वजह यह है कि इनका धड़ तो मनुष्य का है लेकिन मुख गज का है। गणेश पुराण सहित दूसरे अन्य पुराणों में उल्लेख मिलता है कि भगवान गणेश जन्म से गजमुख नहीं थे। आरंभ में इनका मुख मनुष्य के समान था लेकिन बाद में एक ऐसी घटना हुई जिससे गणेशजी का मनुष्य वाला सिर कट गया और गज का मुख लगाकर इन्हें फिर से जीवित किया गया।

  हिंदू देवी- देवताओं में गणपति का विशेष महत्व है. किसी भी शुभ काम की शुरुआत से पहले गणेश भगवान की आराधना की जाती है. पुराणों में गणपति के जन्म से लेकर उनके शारीरिक बनावट के संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं.
गणेश भगवान का मुंह हाथी का है इसलिए उन्हें गजमुख भी कहा जाता है. आइए जानते हैं कि आखिर क्यों गणेश जी को हाथी का सिर मिला. शिवजी तो जंगल में निवास करते थे और वो किसी भी जानवर का सिर उन्हें लगा सकते थे फिर भी उन्होंने हाथी का मुख ही गणपति को क्यों लगाया. आइए जानते हैं इस कहानी के बारे में.
गणेश जी का सिर हाथी का है. उनके इस सिर के पीछे एक असुर की कहानी है. गज और असुर के संयोग से एक असुर का जन्म हुआ. इस असुर का मुख गज जैसा होने के कारण उसे गजासुर कहा जाने लगा.
  कूर्मपुराण के अनुसार गजासुर शिवजी का बड़ा भक्त था और दिन-रात उनकी आराधना में लीन रहता था. उसकी भक्ति से भोले भंडारी प्रसन्न हो गए और उससे इच्छानुसार वरदान मांगने को कहा
गजासुर ने वरदान में शिव को ही मांग लिया. गजासुर ने कहा कि प्रभु यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो कैलाश छोड़कर मेरे पेट में ही निवास करें. शिव जी बहुत भोले थे इसलिए वो गजासुर की ये बात मान गए और उसके पेट में समा गए.
   जब माता पार्वती ने शंकर भगवान को खोजना शुरू किया लेकिन वह कहीं नहीं मिले. उन्होंने विष्णुजी का स्मरण कर शिवजी का पता लगाने को कहा. इसके बाद विष्णु जी ने एक योजना बनाई. अपनी लीला से विष्णु भगवान सितारवादक बने, ब्रह्मा जी को तबला वादक और नंदी को नाचने वाला बैल बनाया. तीनों ने मिलकर गजासुक के महल में नाच किया.
बांसुरी की धुन पर नंदी के अद्भुत नृत्य से गजासुर बहुत प्रसन्न हो गया और उसने वरदान में कुछ भी मांगने को कहा. मौका मिलते ही नंदी ने भोलेनाथ गजासुर से उन्हें अपने पेट से निकालकर वापस करने को कहा. गजासुर समझ गया कि ये कोई आम लोग नहीं बल्कि साक्षात प्रभु के अवतार हैं. अपने वचन का मान रखते हुए उसने भगवान शिव को वापस कर दिया.वचन पूरा करने पर विष्णु भगवान गजासुर से प्रसन्न हुए और उसे मनचाहा वर मांगने को कहा. तब गजासुर ने कहा की वो चाहता है सभी उसके गजमुख को याद रखें और हमेशा सब इसकी पूजा करें. भगवान ने तथास्तु कहा और उसकी ये इच्छा पूरी की. उन्होंने कहा कि समय आने पर तुम्हें ऐसा ही सम्मान मिलेगा.
जब भगवान शिव ने पार्वती के बनाये पुत्र की गर्दन को अलग किया तो श्रीहरि गजासुर के शीश को ही काट कर लाए और गणपति के धड़ से जोड़कर उन्हें जीवित किया था. इस तरह वह शिवजी के प्रिय पुत्र के रूप में प्रथम आराध्य हो गया.

गणेशजी को गज का मुख लगाए जाने का रहस्य गणेश पुराण में मिलता है। इस पुराण में बताया गया है कि नारद मुनि के द्वारा जब यह प्रश्न पूछा गया कि गणेशजी को गज का ही मुख क्यों लगा तो नारायण ने इसका रहस्य बताया। नारायण ने बताया कि पाद्म कल्प में देवराज इंद्र की एक भूल की वजह से गणेशजी को गज का सिर लगाना पड़ा।
एक समय देवराज इंद्र पुष्पभद्रा नदी के तट पर टहल रहे थे। उस निर्जन वन में कोई जीव जंतु नहीं था। संयोगवश रंभा नामकी अप्सरा उस समय वन में आराम कर रही थी। देवराज इंद्र ने जब रंभा को देखा तो उनके मन में काम भाव जागृत हो गया। दोनों एक-दूसरे को आकर्षित होकर देख रहे थे। संयोगवश उस वन में दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ बैकुंठ से होकर लौट रहे थे। देवराज इंद्र ने जैसे ही दुर्वासा को देखा तो सकुचा गए और तुरंत ही प्रणाम किया। दुर्वासा ने आशीर्वाद स्वरूप भगवान विष्णु द्वारा प्राप्त पारिजात पुष्प देवराज इंद्र को दे दिया और कहा यह पुष्प जिसके मस्तक पर होगा वह तेजस्वी, परम बुद्धिमान होगा। देवी लक्ष्मी की उस पर कृपा रहेगी और वह भगवान विष्णु के समान ही पूजित होगा।
लेकिन देवराज ने पुष्प का अनादर किया और उसे हाथी के सिर पर रख दिया। ऐसा करते ही देवराज इंद्र का तेज समाप्त हो गया। अप्सरा रंभा भी इंद्र को वियोग में छोड़कर चली गई। हाथी मतवाला होकर इंद्र को छोड़कर चला गया। वन में एक हथिनी उस हाथी पर मोहित हो गई और उसके साथ रहने लगी। हाथी अपने मद में वन के प्राणियों को पीड़ित करने लगा। इस हाथी के मद को कम करने के लिए ही ईश्वरीय लीला हुई और उस हाथी का सिर काटकर गणेशजी के धड़ से लगाया गया और पारिजात पुष्‍प को प्राप्त वरदान गणेशजी को मिला।

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23.3.25

माँ गंगा की उत्पत्ति की रोचक कथा | Interesting story of the origin of Mother Ganga

गंगा उत्पत्ति का विडिओ देखें -



माँ गंगा की उत्पत्ति (Ganga River Story) की कहानी बहुत रोचक और प्रेरणादायी है। यह बात उस समय की है जब श्री हरि विष्णु ने देवमाता अदिति के पुत्र के रूप में अपना वामन अवतार लिया था। उस समय धरती और स्वर्ग लोग के अधिपति दैत्यराज बलि थे। वह अपने गुरु शुक्राचार्य के बताए मार्ग पर चलते हुए निरंतर चलने वाले यज्ञ करवाते थे और गरीबों एवं ब्राह्मणो को दान देते थे। उन्हें अपने दानवीर होने का अहंकार था। उनके राज्य काल में देवताओं के लिए बुरा समय चल रहा था। उनके राज्य में असुरों को उनकी सुरक्षा प्रदान थी जिस से आम जन को कष्ट भी भोगने पड़ रहे थे। तब प्रभु ने इस समस्या को हल करने हेतु वामन अवतार लिया।

वामन देव का बलि के दरबार में आगमन
बालक ब्राह्मण रुपी वामन देव दैत्यराज बलि के यज्ञ स्थान पर पहुंचे। जब बलि की नजर उन पर पड़ी तो बलि ने उनसे उनकी इच्छा पूछी। यह सुन वामन देव ने कहा “राजन! आपकी बहुत प्रशंसा सुनी है। आप दानवीर हैं, मुझे केवल उतनी भूमि चाहिए जितनी भूमि मेरे तीन पग (कदम) में नप जाये। यह सुन सभी लोग वामन देव पर हसने लगे। महाराज बलि भी अहंकार में आकर हंस पड़े। फिर हाथ जोड़ कर वामन देव से और भी कुछ मांगने का आग्रह किया परन्तु वामन देव तीन पग भूमि पर अड़े रहे। ब्राह्मण बालक से महाराज बलि ने कहा ” दान के लिए आशवस्त कर मैं पीछे नहीं हटूंगा आखिर मैं दानवीर हूँ। ऐसा तो आपने भी कहा है भगवन! मैं आपको आपकी नापी हुई तीन पग भूमि दान करने का संकल्प लेता हूँ।

वामन देव का विकराल रूप

जैसे ही राजा ने संकल्प लिया वैसे ही वामन देव ने विराट रूप धरा। लोग भयभीत होकर इधर उधर भागने लगे। वामन देव ने एक पग में धरती और दूसरे पग में आकाश को नाप दिया और फिर तीसरे पग के लिए अपने पैर उठाये और बालि की ओर देखा। तभी बलि ने हाथ जोड़ कर अपने घुटनों पर बैठ कर कहा “हे प्रभु! तीसरे पग में आप मुझे नाप लें और मुझपर भी स्वामित्व स्थापित कर ले, यह रहा मेरा मस्तक आपकी सेवा में..आप मेरे मस्तक पर पग धरें।

गंगा की उत्पत्ति

जब प्रभु आकाश को नाप रहे थे तभी उनके पैर का अंगूठा ब्रह्माण्ड में टकराया और वहीं से दिव्य जल बहने लगा, जिससे प्रभु श्री हरी के चरण कमल धुले। वो दिव्य जल की धारा जैसे ही प्रभु के चरण धो कर नीचे की ओर गिरा तभी ब्रह्मा जी ने उस जल की धारा को अपने कमण्डल में धारण कर लिया। और यही जल धारा ब्रम्हा जी की पुत्री गंगा कहलायीं। ये जल धारा श्री हरि विष्णु के पैर यानि पद से टकरा कर निकली इसलिए देवी गंगा को विष्णुपदी भी कहते हैं।

भागीरथी

महाराज भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर देवी गंगा के पिता भगवान ब्रम्हा जी ने उन्हें धरती पे अवतरित होने की आज्ञा दी। किन्तु देवी गंगा की जल धारा के वेग को सहने की क्षमता धरती में नहीं थी इसलिए कैलाशपति प्रभु शिव ने उन्हें अपने जटाओं में धारण किया। और इसलिए देवादि देव महादेव को गंगाधर भी कहते हैं। महाराज भागीरथी की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने अपनी एक जटा खोल देवी गंगा को धरती पर आने दिया। माता गंगा ने धरती पर आकर भागीरथी के पूर्वजों को मुक्ति दी और माता गंगा की सकारात्मक ऊर्जा से पूर्ण अमृत तुल्य जल धारा मनुष्यों के लिए कल्याणमयी सिद्ध हुई। माता गंगा को देवनदी भी कहतें हैं। 

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