13.1.21

ओशो रजनीश की जीवन गाथा:Osho jeevan Gatha






भगवान श्री रजनीश साधारणतः ओशो आचार्य रजनीश और रजनीश के नाम से भी जाने जाते है, वे एक भारतीय तांत्रिक और रजनीश अभियान के नेता थे। अपने जीवनकाल में उन्हें एक विवादास्पद रहस्यवादी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक माना गया था। 1960 में उन्होंने सार्वजनिक वक्ता के रूप में पुरे भारत का भ्रमण किया था और महात्मा गाँधी और हिन्दू धर्म ओथडोक्सी के वे मुखर आलोचक भी थे। मानवी कामुकता पर भी वे सार्वजनिक जगहों पर अपने विचार व्यक्त करते थे, इसीलिए अक्सर उन्हें “सेक्स गुरु” भी कहा जाता था, भारत में उनकी यह छवि काफी प्रसिद्ध थी, लेकिन बाद में फिर इंटरनेशनल प्रेस में लोगो ने उनके इस स्वभाव को अपनाया और उनका सम्मान किया।


आरंभिक जीवन :

        एक बार ओशो के जन्म के समय उनके माता पिता को उनके ज्योतिष ने कहा था कि ये बालक सात वर्ष से अधिक जीवित रह गया तो वो उसकी जन्म कुंडली बनायेंगे क्योंकि उनके अनुसार ओशो साथ वर्ष से अधिक जीवित नही रह सकते थे और यदि जीवित रहते है तो हर साथ वर्ष में उनको मौत का सामना करना पड़ेगा | इसलिए उनके माता पिता हमेशा उनकी चिंता करते रहते थे | इसी कारण जब वो 14 वर्ष के हुए थे तब वो एक मन्दिर में जाकर मौत का इंतजार करने लगे | सात दिनों तक एक वक़्त का खाना खाकर मौत का इंतजार किया लेकिन उनका बाल भी बांका नही हुआ था |
        1953 में 21 वर्ष की आयु में ओशो को मौलश्री वृक्ष के नीचे प्रबोध प्राप्त हुआ | उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से दर्शन में स्नातक और स्नातकोत्तर की उपाधि ली | उसके बाद वो रामपुर संस्कृत कॉलेज और जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र पढ़ाने लगे | इसी दौरान उन्होंने पुरे देश का भ्रमण किया और गांधी व् समाजवाद पर भाषण दिया | 1962 में उनका पहला ध्यान शिविर आयोजित हुआ | दो वर्ष बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और ध्यान के मार्ग पर चल दिए | ओशो ने हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख , इसाई , सूफी , जैन जैसे कई धर्मो पर प्रवचन दिया था और वो अक्सर येशु ,मीरा नानक , कबीर ,गौतम बुद्ध  ,दादू ,रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे कई महापुरुषों के रहस्यों के बारे में प्रवचन देते थे |
        1970 में रजनीश ने ज्यादातर समय बॉम्बे में अपने शुरुवाती अनुयायीओ के साथ व्यतीत किया था, जो “नव-सन्यासी” के नाम से जाते थे। इस समय में वे ज्यादातर आध्यात्मिक ज्ञान ही देते थे और दुनियाभर के लोग उन्हें रहस्यवादी, दर्शनशास्त्री, धार्मिक गुरु और ऐसे बहुत से नामो से बुलाते थे। 1974 में रजनीश पुणे में स्थापित हुए, जहाँ उन्होंने अपने फाउंडेशन और आश्रम की स्थापना की ताकि वे वहाँ भारतीय और विदेशी दोनों अनुयायीओ को “परिवर्तनकारी उपकरण” प्रदान कर सके। 1970 के अंत में मोरारी देसाई की जनता पार्टी और उनके अभियान के बीच हुआ विवाद आश्रम के विकास में रूकावट बना।1981 में वे अमेरिका में अपने कार्यो और गतिविधियों पर ज्यादा ध्यान देने लगे और रजनीश फिर से ऑरेगोन के वास्को काउंटी के रजनीशपुरम में अपनी गतिविधियों को करने लगे।


अध्यात्मिक जीवन :

        वे 1958 में जबलपुर यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के लेक्चरर बने और बाद में 1960 में उन्हें प्रोफेसर के पद पर प्रमोट कर दिया गया। अपने शिक्षक होने के साथ-साथ वे पुरे भारत के राज्यों में “आचार्य रजनीश” के रूप में जाकर अपने अध्यात्मिक भाषण दिया करते थे। उन्होंने समाजवाद का विरोध किया और महसूस किया कि भारत मात्र पूंजीवाद, विज्ञानं, प्रोद्योगिकी और जन्म नियंत्रण के माध्यम से ही समृद्ध हो सकता है। उन्होंने अपने भाषणों में कई प्रकार के मुद्दों को उठाया जैसे उन्होंने रुढ़िवादी भारतीय धर्म और अनुष्ठानों की आलोचना की और कहा सेक्स(Osho Quote on Sex) अध्यात्मिक विकास को प्राप्त करने की दिशा में पहला कदम है।
        इस भाषण के कारन उनकी बहुत आलोचना हुई पर इसकी वजह से उन्होंने और भी लोगों को अपने विचारों की ओर आकर्षित किया। उसके बाद आमिर व्यक्ति उनसे अध्यात्मिक विकास पर विचार करने के लिए आने लगे और उन्होंने बहुत दान भी किया और साथ ही उनके इस कार्य में भी वृद्धि हुई। 1962 में वे 3-10 दिन के ध्यान शिविर(Osho Meditation) करने लगे और जल्द ही ध्यान केन्द्रित करना उनकी शिक्षाओं में जाना-जाने लगा।
         अगर हम खुले मन से सोचें तो वे एनी अध्यात्मिक नेताओं पूरी तरीके से अलग थे। 1960 के दशकों तक वे एक प्रमुख अध्यात्मिक गुरु बन गए थे और 1966 में उन्होंने अपने शिक्षण नौकरी को छोड़ कर खुद को पूर्ण रूप से आध्यात्मिकता के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया। 1970 में उन्हें हिन्दू नेताओं नेंकंद के तहत भारतीय प्रेस द्वारा “सेक्स गुरु” का नाम करार दिया।
        जून 1964 में रणकपुर शिविर में पहली बार ओशो के प्रवचनों को रिकॉर्ड किया गया और किताब में भी छापा गया। इसके बाद ओशो ने सैकड़ों पुस्तकें लिखीं, हजारों प्रवचन दिए। उनके प्रवचन पुस्तकों, ऑडियो कैसेट तथा वीडियो कैसेट के रूप में उपलब्ध हैं। उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों से दुनियाभर के वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, और साहित्यकारों को प्रभावित किया। 1969 में ओशो के अनुयायियो ने उनके नाम पर एक फाउंडेशन बनाया जिसका मुख्यालय मुंबई था। बाद में उसे पुणे के कोरेगांव पार्क में स्थानांतरित कर दिया गया। वह स्थान “ओशो इंटरनेशनल मैडिटेशन रिसोर्ट ” के नाम से जाना जाता है। 1980 में ओशो “अमेरिका” चले गए और वहां सन्यासियों ने “रजनीशपुरम” की स्थापना की।
        ओशो ने हर एक पाखंड पर चोट की। सन्यास की अवधारणा को उन्होंने भारत की विश्व को अनुपम देन बताते हुए सन्यास के नाम पर भगवा कपड़े पहनने वाले पाखंडियों को खूब लताड़ा। ओशो ने सम्यक सन्यास को पुनरुज्जीवित किया है। ओशो ने पुनः उसे बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बांसुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती दी है। सन्यास पहले कभी भी इतना समृद्ध न था जितना आज ओशो के संस्पर्श से हुआ है। इसलिए यह नव-संन्यास है। उनकी नजर में संन्यासी वह है जो अपने घर-संसार, पत्नी और बच्चों के साथ रहकर पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए ध्यान और सत्संग का जीवन जिए। उनकी दृष्टि में एक संन्यास है जो इस देश में हजारों वर्षों से प्रचलित है।
        ओशो ने हजारों प्रवचन दिये। उनके प्रवचन पुस्तकों के रूप में उपलब्ध है, आडियो कैसेट तथा विडियो कैसेट के रूप में उपलब्ध हैं। अपने क्रान्तिकारी विचारों से उन्होने लाखों अनुयायी और शिष्य बनाये। अत्यधिक कुशल वक्ता होते हुए इनके प्रवचनों की करीब ६०० पुस्तकें हैं। संभोग से समाधि की ओर इनकी सबसे चर्चित और विवादास्पद पुस्तक है। इनके नाम से कई आश्रम चल रहे है। अमेरिका के लोगों की तो उनके प्रति अटूट भक्ति-भावना थी । सन् 1966 से सन् 197० तक रजनीश के अनुयायी उन्हें आचार्य कहते थे, परंतु सन् 1970 के बाद वे भगवान रजनीश हो गए । नाम के आगे भगवान शब्द जुड़ने के कारण उनकी काफी आलोचना हुई । उन्होंने अपनी सफाई में कहा-‘भगवान शब्द का अर्थ ईश्वर नहीं है, प्रत्येक उस व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता है, जो उरानंद की अवस्था में पहुंच चुका है ।’


विचार :

• अगर आप सत्य देखना चाहते हैं तो न सहमती में राय रखिये और न असहमति में.
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केवल वह लोग जो कुछ भी नहीं बनने के लिए तैयार हैं वह प्रेम कर सकते हैं.
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जेन लोग बुद्ध से इतना प्रेम करते हैं कि वो उनका मज़ाक भी उड़ा सकते हैं. यह अथाह प्रेम कि वजह से है, उनमे डर नहीं है.
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किसी से किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता नहीं है. आप स्वयं में जैसे भी हैं एकदम सही हैं. खुद को स्वीकार करिए.
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सवाल यह नहीं है कि कितना सीखा जा सकता है बल्कि इसके उलट, सवाल यह है कि कितना भुलाया जा सकता है.
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दोस्ती शुद्ध प्रेम है. यह प्रेम का सर्वोच्च रूप है जहाँ कुछ भी नहीं माँगा जाता, कोई भी शर्त नहीं होती, जहां बस देने में आनंद आता है.
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प्रसन्नता सदभाव की छाया है, वो सदभाव का पीछा करती है. प्रसन्न रहने का कोई और तरीका नहीं है.
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जीवन कोई दुखद घटना नहीं है, यह एक हास्य है. जीवित रहने का मतलब है हास्य का बोध होना.
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अगर आप एक दर्पण बन सकते हैं तो आप एक ध्यानी भी बन सकते हैं. ध्यान दर्पण में देखने की कला है.
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आत्मज्ञान एक समझ है कि यही सबकुछ है, यही बिलकुल सही है, बस   यही है. आत्मज्ञान यह जानना है कि ना कुछ पाना है और ना कहीं जाना है.
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जेन एकमात्र वह धर्म है जो एकाएक आत्मज्ञान सीखाता है. इसका कहना है कि आत्मज्ञान में समय नहीं लगता, ये बस कुछ ही क्षणों में हो सकता है.
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आप जितने लोगों को चाहें उतने लोगों को प्रेम कर सकते हैं- इसका ये मतलब नहीं है कि आप एक दिन दिवालिया हो जायेंगे, और कहेंगे, “अब मेरे पास प्रेम नहीं है”. जहाँ तक प्रेम का सवाल है आप दिवालिया नहीं हो सकते
म्रुत्यू :
        आचार्य रजनीश ने मुंबई और पूना में अपने आश्रम बनवाए । उन्होंने 1981 में अपने शिष्यों सहित अमेरिका जाकर रजनी-पुरम की स्थापना की, लेकिन अमेरिका सरकार ने उनके कुछेक शिष्यों को गैर-कानूनी कार्यों के कारण उन्हें वहां से जाने पर विवश कर दिया । उसके बाद आचार्य रजनीश भारत लौट उगए और फिर यही उन्होंने अपने अनुयायियों को शिक्षा दी । 19 जनवरी 1990 को उगचार्य रजनीश ने अंतिम समाधि ले ली । उनके अनुयायियों को इस समाचार से काफी दुख हुउग । ओशो तो चले गए, परंतु उनके द्वारा दिए ज्ञान की राह पर चलकर उगज भी मानव जीवन को सफल बनाया जा सकता है ।
विकिपेडिया अनुसार-
ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश,या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलोचक रहे। उन्होंने मानव कामुकता के प्रति एक ज्यादा खुले रवैया की वकालत की, जिसके कारण वे भारत तथा पश्चिमी देशों में भी आलोचना के पात्र रहे, हालाँकि बाद में उनका यह दृष्टिकोण अधिक स्वीकार्य हो गया।
चन्द्र मोहन जैन का जन्म भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन शहर के कुच्वाडा गांव में हुआ था। ओशो शब्द की मूल उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई धारणायें हैं। एक मान्यता के अनुसार, खुद ओशो कहते है कि ओशो शब्द कवि विलयम जेम्स की एक कविता 'ओशनिक एक्सपीरियंस' के शब्द 'ओशनिक' से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'सागर में विलीन हो जाना। शब्द 'ओशनिक' अनुभव का वर्णन करता है, वे कहते हैं, लेकिन अनुभवकर्ता के बारे में क्या? इसके लिए हम 'ओशो' शब्द का प्रयोग करते हैं। अर्थात, ओशो मतलब- 'सागर से एक हो जाने का अनुभव करने वाला'। १९६० के दशक में वे 'आचार्य रजनीश' के नाम से एवं १९७० -८० के दशक में भगवान श्री रजनीश नाम से और १९८९ के समय से ओशो के नाम से जाने गये। वे एक आध्यात्मिक गुरु थे, तथा भारत व विदेशों में जाकर उन्होने प्रवचन दिये।
रजनीश ने अपने विचारों का प्रचार करना मुम्बई में शुरू किया, जिसके बाद, उन्होंने पुणे में अपना एक आश्रम स्थापित किया, जिसमें वे विभिन्न प्रकार के उपचारविधान पेश किये जाते थे. तत्कालीन भारत सरकार से कुछ मतभेद के बाद उन्होंने अपने आश्रम को ऑरगन, अमरीका में स्थानांतरण कर लिया। १९८५ में एक खाद्य सम्बंधित दुर्घटना के बाद उन्हें संयुक्त राज्य से निर्वासित कर दिया गया और २१ अन्य देशों से ठुकराया जाने के बाद वे वापस भारत लौटे और पुणे के अपने आश्रम में अपने जीवन के अंतिम दिन बिताये।
उनकी मृत्यु के बाद, उनके आश्रम, ओशो इंटरनॅशनल मेडिटेशन रेसॉर्ट को जूरिक आधारित ओशो इंटरनॅशनल फाउंडेशन चलाती है, जिसकी लोकप्रियता उनके निधन के बाद से अधिक बढ़ गयी है।
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11.1.21

स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय:Dayanand sarswati jeevan parichay




आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती एक महान देशभक्त व उच्च श्रेणी के समाजसेवी थे। उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व और असीम ज्ञानकोश उन्हें इतिहास में विशेष स्थान प्रदान करता है। ज्ञान गुणवान सर्व सम्पन्न स्वामीजी का सम्पूर्ण जीवन समाज कल्याण कार्यों में बीता था। वे मूर्तिपूजा में आस्था नहीं रखते थे। बाल्यकाल से ही उन्होंने सभी वेद और उपनिषदों का निरंतर अभ्यास किया। स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक धर्म के प्रबल समर्थक रहे, उनका जीवनचरित्र अत्यंत रोचक व प्रशंसनीय है।

संक्षिप्त परिचय
नाम महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (मूल शंकर तिवारी)
जन्म 12 फ़रवरी, 1824 टंकारा, गुजरात
मृत्यु 30 अक्टूबर, 1883 (59 वर्ष), अजमेर
माता / पिता अमृत बाई / करशनजी लालजी तिवारी
कार्यक्षेत्र समाज सुधारक, देशभक्त, सन्यासी, महान चिंतक
उपलब्धि आर्य समाज के संस्थापक। ‘स्वराज्य’ का नारा देने वाले पहले व्यक्ति , जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया. रुढ़िवादी सोच को बदला तथा कई कुरीतियों को मिटाने के प्रयत्न किये।
स्वामी दयानंद सरस्वती जीवनी व इतिहास
स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी व इतिहास
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती एक महान देशभक्त व उच्च श्रेणी के समाजसेवी थे। उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व और असीम ज्ञानकोश उन्हें इतिहास में विशेष स्थान प्रदान करता है। ज्ञान गुणवान सर्व सम्पन्न स्वामीजी का सम्पूर्ण जीवन समाज कल्याण कार्यों में बीता था। वे मूर्तिपूजा में आस्था नहीं रखते थे। बाल्यकाल से ही उन्होंने सभी वेद और उपनिषदों का निरंतर अभ्यास किया। स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक धर्म के प्रबल समर्थक रहे, उनका जीवनचरित्र अत्यंत रोचक व प्रशंसनीय है।

संक्षिप्त परिचय

नाम महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (मूल शंकर तिवारी)
जन्म 12 फ़रवरी, 1824 टंकारा, गुजरात
मृत्यु 30 अक्टूबर, 1883 (59 वर्ष), अजमेर
माता / पिता अमृत बाई / करशनजी लालजी तिवारी
कार्यक्षेत्र समाज सुधारक, देशभक्त, सन्यासी, महान चिंतक
उपलब्धि आर्य समाज के संस्थापक। ‘स्वराज्य’ का नारा देने वाले पहले व्यक्ति , जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया. रुढ़िवादी सोच को बदला तथा कई कुरीतियों को मिटाने के प्रयत्न किये।

प्रारंभिक जीवन

एक समृद्ध ब्राहमण परिवार में जन्मे स्वामी दयानंद सरस्वती का बचपन का नाम मूलशंकर था। उनके पिताजी एक टैक्स-कलेक्टर व माताजी गृहणी थीं। स्वामी जी का बचपन सुविधा-सम्पन्न था और उन्हें किसी प्रकार का अभाव न था। प्रारम्भ से ही उन्होंने वेदों-शाश्त्रों, धार्मिक पुस्तकों व संस्कृत भाषा का अध्यन किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती के जीवन में परिवर्तन लाने वाली घटना
बचपन से पिता के साथ धार्मिक क्रिया-कलापों में सक्रिय शामिल होने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती (मूलशंकर तिवारी) के पिता शिव-भक्त थे। एक बार शिवरात्रि पर जब उपवास, व्रत और जागरण के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती अपने पिता के साथ शिव मंदिर में थे तब अर्धरात्री में उन्होने देखा की कुछ चूहों का समूह शिवजी का प्रसाद खा रहे थे। तब स्वामी दयानंद सरस्वती के बालमन ने सोचा कि-
जब ईश्वर अपने भोग की रक्षा नहीं कर सकते हैं तो वह हमारी रक्षा कैसे करेंगे।
इस प्रसंग के बाद स्वामी दयानंद सरस्वती का विश्वास मूर्ति पूजा से उठ गया था। और युवा अवस्था में आते-आते उन्होंने ज्ञान प्राप्ति हेतु घर त्याग दिया था।

ज्ञान प्राप्ति की खोज

स्वामी जी के माता-पिता उनका विवाह कर देना चाहते थे। पर उनकी सोच तो कुछ और ही थी, और वे 1846 में अपना घर-बार छोड़ कर भाग गए। अगले 25 साल उन्होंने हिमालय की पहाड़ियों में भटकते, ज्ञानार्जन करते और अपने गुरु की सेवा करते हुए बिताये।

स्वामी दयानंद सरस्वती के गुरु श्री विरजानंद

स्वामी जी ने योग विद्या एवं शास्त्र ज्ञान श्री विरजानंद से प्राप्त किया था। ज्ञान प्राप्ति के उपरांत जब स्वामी दयानंद सरस्वती नें गुरुदक्षिणा देने की बात कही तब उनके गुरु विरजानंद ने समाज में व्याप्त कुरीति, अन्याय, और अत्याचार के विरुद्ध कार्य करने और आम जनगण में जागरूकता फ़ैलाने को कहा। यही श्री विरजानंद की गुरुदक्षिणा थी।
स्वामी विरजानंद नें स्वामी दयानंद सरस्वती को ज्ञान तो दिया पर उसका मोल मांगने की बजाये स्वामी जी को समाज कल्याण का रास्ता बता दिया जिसके कारण स्वरूप आज भी हम स्वामी दयानंद सरस्वती को याद करते हैं। उनका सम्मान करते हैं। गुरु श्रेष्ठ श्री विरजानंद को हमारा हार्दिक नमन।

आर्यसमाज स्थापना

स्वामी दयानंद सरस्वती नें गुड़ी पड़वा दिवस पर मुंबई में, सन 1875 में आर्य समाज की स्थापना की थी। इसकी नीव परोपकार, जन सेवा, ज्ञान एवं कर्म के सिद्धांतों को केंद्र में रख कर बनाई गयी थी। स्वामीजी का यह कल्याणकारी ऐतिहासिक कदम मील का पत्थर साबित हुआ। शुरूआत में बड़े-बड़े विद्वान और पंडित, स्वामी दयानंद सरस्वती के विरोध में खड़े हुए। परंतु स्वामी जी के सटीक तार्किक ज्ञान और महान समाज कल्याण उद्देश की लहर के आगे विरोधाभासियों को भी नतमस्तक होना पड़ा।
 स्वामी जी का मिशन मानव जाति को वेदों में बताये गए सार्वभौमिक भाईचारे का संदेश देना था।
स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा बताए गए दर्शन के चार स्तंभ
कर्म सिद्धान्त
पुनर्जन्म
सन्यास
ब्रह्मचर्य

स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा उठाए गए समाज कल्याण के मुद्दे

1. पति की मृत्यु के बाद पत्नी को अपने पति की चिता के साथ जीवित ही प्राण त्यागने की अमानवीय कुप्रथा (सती प्रथा) का पुरज़ोर विरोध।
2. शास्त्रज्ञान अनुसार जीवन के प्रथम पच्चीस वर्ष अविवाहित रह कर ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिए। इसी तर्क से प्रोत्साहित हो कर स्वामीजी नें बालविवाह प्रथा के विरुद्ध मुहिम छेड़ी थी।
3. स्वामी दयानंद सरस्वती नारी जाति को समृद्ध समाज का आधार मानते थे। इसी कारण महिला शिक्षा और सुरक्षा की ओर उनका विशेष ध्यान रहा था। उनका यह भी मानना था की महिलाओं को पुरुष समकक्ष अधिकार मिलने चाहियें।
4. उनके समय में पति की मृत्यु के बाद स्त्री की स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती थी, उन्हें प्राथमिक सामान्य मानवीय अधिकारों से भी उन्हे वंचित कर दिया जाता था। स्वामी दयानंद सरस्वती नें इसका प्रखर विरोध किया।
5. स्वामी जी के द्वारा जातिवाद और वर्णभेद की कुप्रथा का भी प्रखर विरोध किया गया था। उन्होने समस्त वर्ग के लोगों को समान अधिकार देने की अपील की थी।
6. अंदरूनी लड़ाई का लाभ शत्रु ले जाता है। इसीलिए स्वामी दयानंद सरस्वती का यह नारा था कि, सभी धर्म के अनुयायी एक ध्वज तले एकत्रित हो जाएँ ताकि आपसी गृहयुद्ध की स्थिति से बचा जा सके। और देश में एकता की भावना बनी रहे।
7. स्वामी दयानंद सरस्वती हिन्दी भाषा के समर्थक और प्रचारक भी थे। स्वामी जी वैदिक भाषा संस्कृत में भी प्रवीण थे। बाल्यकाल से संस्कृत का अभ्यास होने के कारण उनकी वक्तृत्व शैली अत्यंत सुदृढ़ और प्रभावी थी।
  स्वामीजी सनातन (हिन्दू) धर्म ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों चाहे वो इस्लाम हो या ईसाई, सभी में व्याप्त बुराइयों व कुरीतियों का विरोध करते थे। उनके महाग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में हम विभिन्न धर्मों के बारे में उनके विचारों को जान सकते हैं।
1857 क्रांति (विप्लव) में स्वामी दयानंद सरस्वती का योगदान
स्वामी जी जब देश का भ्रमण कर रहे थे तब उन्होने देखा की ब्रिटिश सरकार भारतीय लोगों पर बहुत ज़ुल्म कर रही है। उन्होने इस अनीति और अत्याचार के विरुद्ध लोगों को जागरूक करना शुरू किया। और पूर्ण स्वराज हासिल करने के लिए लोगों को एकजुट करना शुरू किया।
1857 की क्रांति असफल रही थी। तब स्वामीजी नें कहा था-
इस हार से निराश होने की ज़रूरत नहीं है। यह तो खुश होने की बेला है। आने वाले समय में बहुत जल्द एक और आज़ादी की लड़ाई की लहर उठेगी। जो ज़ालिम अंग्रेजी हुकूमत को किनारे लगा देगी।
स्वतंत्रता संग्राम में स्वामी दयानंद सरस्वती के योगदान को देखते हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा था-
भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।
वीर सावरकर ने भी महर्षि दयानन्द सरस्वती को स्वाधीनता संग्राम का सर्वप्रथम योद्धा माना था।
स्वामी दयानंद सरस्वती की हत्या का षड्यंत्र
स्वामी जी एक ऐसी हस्ती थे जिनके हर एक बोल में तर्क छुपा होता था। उनके वक्तव्य आम लोगों के मन पर गहरा असर छोड़ते थे। स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रभाव से ब्रिटिश हुकूमत भी खौफ खाती थी। उनके देशप्रेम, निडरता और जोशीलापन अंग्रेजों की आँख में खटकने लगा था। इसीलिए उन्हे विष दे कर मारने का षड्यंत्र किया गया था। हठ योगविद्या में निपुण होने के कारण स्वामीजी विष प्रभाव से सुरक्षित रहे।
  माना जाता है कि एक बार कुछ लोगों ने स्वामी जी को नदी में डुबो कर मारने की कोशिश की पर न वे सिर्फ उनसे बचे बल्कि उनपर हावी हो गए किन्तु क्षमाशील व विशाल ह्रदय वाले स्वामी जी ने उन्हें क्षमा कर दिया।

स्वामी दयानंद सरस्वती की मृत्यु

राजा यशवंतसिंह जब जोधपुर की गद्दी पर थे। तब स्वामी जी उनके मेहमान बने थे। यशवंतसिंह का संबंध तब एक नन्ही जान नाम की नर्तकी के साथ थे। स्वामी दयानंद सरस्वती नें जब यह दृश्य देखा तो उन्होने राजा यशवंतसिंह को बड़ी विनम्रता से इस अनैतिक संबंध के गलत और असामाजिक होने की बात उन्हे समझाई। स्वामी दयानंद सरस्वती के नैतिक ज्ञान से राजा की आँखें खुल गयी और उन्होंने नर्तकी नन्ही जान से अपने गलत रिश्ते खत्म कर के उस पर सदैव के लिए पूर्ण विराम लगा दिया।
राजा से संबंध टूटने के कारण नर्तकी नन्ही जान इस कदर नाराज़ हुई कि उसने रसोईये से मिल कर स्वामी दयानंद सरस्वती के भोजन में काँच के बारीक टुकड़े मिलवा दिये। उस भोजन को ग्रहण करने के उपरांत स्वामीजी की तबियत खराब होने लगी। जांच पड़ताल होने पर रसोइये ने अपना गुनाह कुबूल कर लिया। और तब विराट हृदय वाले स्वामी दयानंद सरस्वती नें उसे भी क्षमा कर दिया। इस घात से स्वामी जी बच नहीं पाये। उन्हे विशेष उपचार हेतु 26 अक्टूबर के दिन अजमेर लाया गया। परंतु 30 अक्टूबर के दिन उनका स्वर्गवास हो गया।
स्वामी जी के अंतिम शब्द: “प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।”

लेखन व साहित्य

स्वामी जी के नाम से शिक्षण संस्थान
रोहतक में महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय
अजमेर में महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय
जालंधर डीएवी विश्वविद्यालय
DAV कॉलेज प्रबंध समिति के अंतर्गत 800 से अधिक स्कूलों का संचालन

स्वामी दयानंद सरस्वती विशेष

समाज में व्याप्त कुरीति और दूषणों से लोहा लेने वाले युगपुरुष स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवनचरित्र अत्यंत प्रेरणादायी था। स्वामीजी ने समाज के नैतिक जीवन मूल्यों का जतन करने के साथ-साथ उनमें मौजूद अन्यायपूर्ण क्षतियां दूर करने के लिए प्रयास किए। मानवतावाद, समानता, नारी विकास, एकता और भाईचारे की भावना को बल दिया। देश की आज़ादी के लिए निडरता से कटाक्ष पूर्ण भाषण दिये। पूरा भारत देश और मानवसमाज स्वामी दयानंद सरस्वती के अमूल्य योगदान के लिए उनका आभारी रहेगा।
हम ऐसी महान शख्सियत को शत-शत नमन करते हैं।

पाटीदार जाति की जानकारी