20.12.22

ईसाई धर्म की पूरी जानकारी : Isai dharm ki jankari

 




ईसाई धर्म से जुड़े महत्‍वपूर्ण तथ्‍य:
(1) ईसाई धर्म के संस्थापक हैं ईसा मसीह.
(2) ईसाई धर्म का प्रमुख ग्रंथ है- बाइबिल.
(3) ईसा मसीह का जन्म जेरूसलम के पास बैथलेहम में हुआ था.
(4) ईसा मसीह की माता का नाम मैरी और पिता का नाम जोसेफ था.
(5) ईसा मसीह ने अपने जीवन के 30 साल एक बढ़ई के रूप में बैथलेहम के पास नाजरेथ में बिताए.
(6) ईसाइयों में बहुत से समुदाय हैं मसलन कैथोलिक, प्रोटैस्टैंट, आर्थोडॉक्स, मॉरोनी, एवनजीलक.
(7) क्रिसमस यानी 25 दिसंबर को ईसा मसीह के जन्मदिन के उपलक्ष में मनाया जाता है.
(8) ईसा मसीह के पहले दो शिष्य थे पीटर और एंड्रयू.
(9) ईसा मसीह को सूली पर रोमन गवर्नर पोंटियस ने चढ़ाया था.
(10) ईसा मसीह को 33 ई. में सूली पर चढ़ाया गया था.
(11) ईसाई धर्म का सबसे पवित्र चिह्न क्रॉस है.
(12) ईसाई एकेश्वरवादी हैं, लेकिन वे ईश्वर को त्रीएक के रूप में समझते हैं- परमपिता परमेश्वर, उनके पुत्र ईसा मसीह (यीशु मसीह) और पवित्र आत्मा.

‘ईसाई धर्म’ के प्रवर्तक ईसा मसीह (जीसस क्राइस्ट) थे, जिनका जन्म रोमन साम्राज्य के गैलिली प्रान्त के नज़रथ नामक स्थान पर 6 ई. पू. में हुआ था।  उनके पिता जोजेफ़ एक बढ़ई थे तथा माता मेरी (मरियम) थीं। वे दोनों यहूदी थे। ईसाई शास्त्रों के अनुसार मेरी को उसके माता-पिता ने देवदासी के रूप में मन्दिर को समर्पित कर दिया था। ईसाई विश्वासों के अनुसार ईसा मसीह के मेरी के गर्भ में आगमन के समय मेरी कुँवारी थी। इसीलिए मेरी को ईसाई धर्मालम्बी ‘वर्जिन मेरी (कुँवारी मेरी) तथा ईसा मसीह को ईश्वरकृत दिव्य पुरुष मानते हैं।
 ईसा मसीह के जन्म के समय यहूदी लोग रोमन साम्राज्य के अधीन थे और उससे मुक्ति के लिए व्याकुल थे। उसी समय जॉन द बैप्टिस्ट नामक एक संत ने ज़ोर्डन घाटी में भविष्यवाणी की थी कि यहूदियों की मुक्ति के लिए ईश्वर शीघ्र ही एक मसीहा भेजने वाला है। उस समय ईसा की आयु अधिक नहीं थी, परन्तु कई वर्षों के एकान्तवास के पश्चात् उनमें कुछ विशिष्ट शक्तियों का संचार हुआ और उनके स्पर्श से अंधों को दृष्टि, गूंगों को वाणी तथा मृतकों को जीवन मिलने लगा। फलतः चारों ओर ईसा को प्रसिद्धि मिलने लगी। उन्होंने दीन दुखियों के प्रति प्रेम और सेवा का प्रचार किया।
 यरुसलम में उनके आगमन एवं निरन्तर बढ़ती जा रही लोकप्रियता से पुरातनपंथी पुरोहित तथा सत्ताधारी वर्ग सशंकित हो उठा और उन्हें झूठे आरोपों में फ़ँसाने का प्रयास किया। यहूदियों की धर्मसभा ने उन पर स्वयं को ईश्वर का पुत्र और मसीहा होने का दावा करने का आरोप लगाया और अन्ततः उन्हें सलीब (क्रॉस) पर लटका कर मृत्युदंड की सज़ा दी गई। परन्तु सलीब पर भी उन्होंने अपने विरुद्ध षड़यंत्र करने वालों के लिए ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उन्हें माफ़ करे, क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि वे क्या कर रहे हैं।
 ईसाई मानते हैं कि मृत्यु के तीसरे दिन ही ईसा मसीह पुनः जीवित हो उठे थे। ईसा मसीह के शिष्यों ने उनके द्वारा बताये गये मार्ग अर्थात् ईसाई धर्म का फ़िलीस्तीन में सर्वप्रथम प्रचार किया, जहाँ से वह रोम और फिर सारे यूरोप में फैला। वर्तमान में यह विश्व का सबसे अधिक अनुयायियों वाला धर्म है। ईसाई लोग ईश्वर को ‘पिता’ और मसीह को ‘ईश्वर पुत्र’ मानते हैं। ईश्वर, ईश्वर पुत्र ईसा मसीह और पवित्र आत्मा–ये तीनों ईसाई त्रयंक (ट्रिनीटी) माने जाते हैं।

ईसाई धर्म की जानकारी –

प्रथम मिशनरियों में से सबसे सफल थे संत पौलुस; उनकी यात्राओं का वर्णन तथा उनके पत्र बाईबिल के उत्तरार्ध में सुरक्षित हैं। उस समय अंतिओक (Antioch) रोमन साम्राज्य का तीसरा शहर था, ईस का उत्तराधिकारी संत पेत्रुस यहीं चले आए और उस केंद्र से संत पौलुस ने एशिया माइनर, मासेदोनिया तथा यूनान में ईसाई धर्म का प्रचार किया। बाद में राजधानी रोम ईसाई धर्म का प्रधान केंद्र बना। वहीं संत पेत्रुस (67 ई.) और संत पौलुस शहीद हो गए। बाइबिल का उत्तरार्ध प्रथम शताब्दी ई. के उत्तरार्ध में लिखा गया।
 सन् 100 ई. तक भूमध्यसागर के सभी निकटवर्ती देशों और नगरों में, विशेषकर एशिया माइनर तथा उत्तर अफ्रीका में ईसाई समुदाय विद्यमान थे। तीसरी शताब्दी के अंत तक ईसाई धर्म विशाल रोमन साम्राज्य के सभी नगरों में फैल गया था; इसी समय फारस तथा दक्षिण रूस में भी बहुत से लोग ईसाई बन गए। इस सफलता के कई कारण हैं। एक तो उस समय लोगों में प्रबल धर्मजिज्ञासा थी, दूसरे ईसाई धर्म प्रत्येक मानव का महत्व सिखलाता था, चाहे वह दास अथवा स्त्री ही क्यों न हो। इसके अतिरिक्त ईसाइयों में जो भातृभाव था उससे लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके।
 द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् ईसाई संसार में चर्च की एकता के आंदोलन को अधिक महत्व दिया जाने लगा। फलस्वरूप खंडन-मंडन को छोड़कर बाइबिल में विद्यमान तत्वों के आधार पर चर्च के वास्तविक रूप को निर्धारित करने के प्रयास में इसपर अपेक्षाकृत अधिक बल दिया जाने लगा कि चर्च ईसा का आध्यात्मिक शरीर है। ईसा उसका शीर्ष है और सच्चे ईसाई उस शरीर के अंग हैं।

बाइबिल – Bible

ईसाई धर्म का पवित्र ग्रन्थ बाइबिल है, जिसके दो भाग ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट हैं। ईसाईयों का विश्वास है कि बाइबिल की रचना विभिन्न व्यक्तियों द्वारा 2000-2500 वर्ष पूर्व की गई थी। वास्तव में यह ग्रन्थ ई. पू. 9वीं शताब्दी से लेकर ईस्वी प्रथम शताब्दी के बीच लिखे गये 73 लेख शृंखलाओं का संकलन है, जिनमें से 46 ओल्ड टेस्टामेंट में और 27 न्यू टेस्टामेंट में संकलित हैं। जहाँ ओल्ड टेस्टामेंट में यहूदियों के इतिहास और विश्वासों का वर्णन है, वहीं न्यू टेस्टामेंट में ईसा मसीह के उपदेशों एवं जीवन का विवरण है।

चर्च (Church)

चर्च (Church) शब्द यूनानी विशेषण का अपभ्रंश है जिसका शाब्दिक अर्थ है “प्रभु का”। वास्तव में चर्च (और गिरजा भी) दो अर्थों में प्रयुक्त है; एक तो प्रभु का भवन अर्थात् गिरजाघर तथा दूसरा, ईसाइयों का संगठन। चर्च के अतिरिक्त ‘कलीसिया’ शब्द भी चलता है। यह यूनानी बाइबिल के ‘एक्लेसिया’ शब्द का विकृत रूप है; बाइबिल में इसका अर्थ है – किसी स्थानविशेष अथवा विश्व भर के ईसाइयों का समुदाय। बाद में यह शब्द गिरजाघर के लिये भी प्रयुक्त होने लगा।

सम्प्रदाय– 

यद्यपि ईसाई धर्म के अनेक सम्प्रदाय हैं, परन्तु उनमें दो सर्वप्रमुख हैं—
1). रोमन कैथोलिक चर्च–इसे ‘अपोस्टोलिक चर्च’ भी कहते हैं। यह सम्प्रदाय यह विश्वास करता है कि वेटिकन स्थित पोप ईसा मसीह का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी है और इस रूप में वह ईसाईयत का धर्माधिकारी है। अतः धर्म, आचार एवं संस्कार के विषय में उसका निर्णय अन्तिम माना जाता है। पोप का चुनाव वेटिकन के सिस्टीन गिरजे में इस सम्प्रदाय के श्रेष्ठ पादरियों (कार्डिनलों) द्वारा गुप्त मतदान द्वारा किया जाता है।
2). प्रोटेस्टैंट–15-16वीं शताब्दी तक पोप की शक्ति अवर्णनीय रूप से बढ़ गई थी और उसका धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, सभी मामलों में हस्तक्षेप बढ़ गया था। पोप की इसी शक्ति को 14वीं शताब्दी में जॉन बाइक्लिफ़ ने और फिर मार्टिन लूथर (जर्मनी में) ने चुनौती दी, जिससे एक नवीन सुधारवादी ईसाई सम्प्रदाय-प्रोटेस्टैंट का जन्म हुआ, जो कि अधिक उदारवादी दृष्टिकोण रखते हैं।
ईसाई धर्म पवित्र आत्मा में विश्वास करता है और मानता है कि पवित्र आत्मा जीवन देने वाला भगवान है। वह पिता और पुत्र से बाहर आता है, और पिता और पुत्र के साथ पूजा और सम्मान किया जाता है। मान लें कि पवित्र आत्मा द्वारा दिया गया नया जीवन पुनर्जन्म ले सकता है। पुनर्जन्म पिता के चुनाव, पुत्र की छुड़ौती, और पवित्र आत्मा के नवीकरण में भी दिखाई देता है।
ईसाईयों का विकास चर्च से अविभाज्य है। चर्च को सभी सम्मानित लोगों की मां कहा जाता है। यह पवित्र और पवित्र है, और यह सार्वभौमिक और सार्वभौमिक भी है। चर्च एक निश्चित स्थान तक सीमित नहीं है, लेकिन पूरी दुनिया में फैल गया है। चर्च ईश्वर और उसके विश्वास की स्वीकृति के कारण एकजुट हो जाता है।
ईसाई मानते हैं कि मसीह में कोई मौत नहीं है, केवल शाश्वत खुशी है। अनन्त जीवन भगवान प्रभु में हमेशा के लिए भगवान द्वारा चुना और संरक्षित किया जाता है। यह भगवान की पसंद है, भगवान की पसंद और आरक्षण के कारण, यीशु मसीह की छुड़ौती ने पवित्र आत्मा से नया जीवन प्राप्त किया है।
ईसाई धर्म ईश्वर से प्यार करने के रूप में अपने सच्चाई और कोर के विश्वास को जोड़ता है (आपको भगवान से प्यार करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए - अपने भगवान) और अपने प्रेमी को अपने आप के रूप में (बदला लेने के लिए, न ही अपने लोगों को दोष देना, बल्कि दूसरों को अपने आप से प्यार करना) सबसे मौलिक सिद्धांतों में से एक प्यार के कानून को सबसे बड़ा कानून मानना है।
प्यार में गिरना भी नए नियम में मुख्य आदेश बन जाता है, और मानता है कि यह आध्यात्मिक सच्चा प्यार और पवित्र एकाग्रता मसीह यीशु में अवशोषित है, और इसलिए इसे प्यार का धर्म भी कहा जाता है।
ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म और इस्लाम को तीन प्रमुख धर्म भी कहा जाता है। हालांकि, ईसाई धर्म पैमाने और प्रभाव दोनों के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा धर्म है। ईसाई धर्म के मानव विकास के इतिहास में हमेशा एक अत्यंत महत्वपूर्ण और अपरिवर्तनीय महत्वपूर्ण भूमिका और दूरगामी प्रभाव पड़ा है। अब तक, जापान को छोड़कर प्रमुख विकसित देशों, ईसाई संस्कृति का प्रभुत्व वाले देश हैं। विशेष रूप से यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका, एशिया और ओशिनिया में, ईसाई धर्म ने मानव सभ्यता के सभी पहलुओं को आकार दिया है, भले ही राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और कलात्मक।

भारत में ईसाई धर्म का प्रवेश – 

जाति  इतिहासविद  डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार  भारत में ईसाई धर्म का प्रचार संत टॉमस ने प्रथम शताब्दी में चेन्नई में आकर किया था। किंवदंतियों के मुताबिक, ईसा के बारह प्रमुख शिष्यों में से एक सेंट थॉमस ईस्वी सन 52 में पहुंचे थे। कहते हैं कि उन्होंने उस काल में सर्वप्रथम कुछ ब्राह्मणों को ईसाई बनाया था। इसके बाद उन्होंने आदिवासियों को धर्मान्तरित किया था। इसके बाद बड़े पैमाने पर भारत में ईसाई धर्म ने तब पांव पसारे जब मदर टेरेसा ने भारत आकर अपनी सेवाएं दी। इसके आलावा अंग्रेजों का शासन प्रारंभ हुआ था तब भी ईसाई धर्म का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ था।

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18.12.22

चंद्र वंशी खाती समाज का इतिहास :Chandravanshi Khati Samaj ki jankari



  चंद्रवंशी खाती समाज श्री पुत्र सहस्त्रबाहु के पुत्र है । समाज के इष्टदेव भगवान जगदीश है , कुलदेवी महागौरी अष्टमी है , कुलदेव भैरव देव और आराध्या देव भोले शंकर है । खाती समाज भगवान परशुराम जी के आशीर्वाद से उत्त्पन्न जाती है .।इस जाती के लोग सुन्दर और गोर वर्ण अर्थात ‘गोरे ’आते है । क्षत्रिय खाती समाज जम्मू कश्मीर के अभेपुर और नभेपुर के मूल निवासी है आज भी चंद्रवंशी लोग हिमालय क्षेत्र में केसर की खेती करते है । समाज के लिए दोहे प्रसिद्द है ”उत्तर देसी पटक मूलः ,नभर नाभयपुर रे ,चन्द्रवंश सेवा करी ,शंकर सदा सहाय” और ”चंद्रवंशम गोकुलनंदम जयति ”भगवान जगदीश के लिए ।
समाज १२०० वर्ष पहले से ही कश्मीर से पलायन करने लग गया था और भारत के अन्य राज्यों में बसने लग गया था । समकालीन राजा के आदेश से समाज को राज छोड़ना पड़ा था। खाती समाज के लोग बहुत ही धनि और संपन्न थे , उच्च शिक्षा को महत्व दिया जाता था ।
जम्मू कश्मीर के अलाउद्दीन ख़िलजी ने १३०५ में मालवा और मध्य भारत में विजय प्राप्त की |  चन्द्रवंशी खाती समाज के सैनिक भी सैना का संचालन करते थे विजय से खुश होकर ख़िलजी ने समाज को मालवा पर राज करने को कहा परन्तु समाज के वरिष्ठ लोगो ने सोच विचार कर जमींदारी और खेती करने का निश्चय किया. इस तरह कश्मीर से आने के बाद ३५ वर्ष तक समाज मांडवगढ़ में रहा इसके बाद आगे बढ़कर महेश्वर जिसे महिष्मति पूरी कहते थे वहां आकर रहने लगे महेश्वर चंद्रवंशी खाती समाज के पूर्वज सहस्त्रार्जुन की राजधानी था आज भी महेश्वर में सहस्त्रबाहु का विशाल मंदिर बना है जिसका सञ्चालन कलचुरि समाज करता है।
४५ वर्षो तक रहने के बाद वहाँ से इंदौर, उज्जैन, देवास, धार, रतलाम, सीहोर, भोपाल , सांवेर आदि जिलो में बसते चले गए और खाती पटेल कहलाये । मालवा में खाती समाज के पूर्वजो ने ४४४ गाँव बसाये जिनकी पटेली की दसियाते भी उनके नाम रही।
खाती समाज का गौरव पूर्ण इतिहास रहा है । समाज के कुल १०५ गोत्र है जिसमे से ८४ गोत्र मध्यप्रदेश में है और मध्यप्रदेश के १६ जिलो में है और १२५० गाँवों में निवास करते है । मध्यप्रदेश की धार्मिक राजधानी उज्जैन में चंद्रवंशी खाती समाज के इष्ट देव जगदीश का भव्य प्राचीन मंदिर है जहा हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितिय को भगवान की रथयात्रा निकलती है समाज जन और भक्तजन अपने हाथो से रथ खींचकर भगवान को नगर भ्रमण करवाते है |
चन्द्रवंश या सोमवंश के राजा कीर्तिवीर्य बहुत ही धर्मात्मा हुआ करते थे । उनके पुत्र का नाम सहस्त्रबाहु या सहस्त्रार्जुन रखा गया, सोमवंश के वंशज थे इसलिए राजवंशी खत्री कहलाए ।सहस्त्रार्जुन ने नावों खंडो का राज्य पाने के लिए भगवान रूद्र दत्त का ताप किया और ५०० युगों तक तप किया इस से प्रभावित होकर भगवान शंकर ने उन्हें १ हज़ार भुजा और ५०० मस्तक दिए । उसके बाद उनका सहस्त्रबाहु अर्थात सौ भुजा वाला नाम पड़ा । 
 महेश्वर समाज के पूर्वज सहस्त्रार्जुन की राजधानी रहा जहा ८५००० सालो तक राज्य किया । महेश्वर के निकट सहस्त्रार्जुन ने नर्मदा नदी को अपनी हज़ार भुजाओं के बल से रोकना चाहा परन्तु माँ नर्मदे उसकी हज़ार भुजाओं को चीरती हुई आगे निकल गई इसलिए उस स्थान को सहस्त्रधारा के नाम से जाना जाने लगा जहा आज भी १००० धाराएं अलग अलग दिखाई देती है ।
सहस्त्रार्जुन के लिए दोहा प्रसिद्द है
”नानूनम कीर्तिविरस्य गतिम् यास्यन्ति पार्थिवः ! यज्ञेर्दानैस्तपोभिर्वा प्रश्रयेण श्रुतेन च !
अर्थात सहस्त्रबाहु की बराबरी यज्ञ, दान, तप, विनय और विद्या में आज तक कोई राजा नहीं कर सका ।
एक दिन देवो पर विजय प्राप्त करने के बाद विश्व विजेता रावण ने अर्जुन पर आक्रमण कर दिया परन्तु सहस्त्रार्जुन ने रावण को बंधी बना लिया और रावण द्वारा क्षमा मांगने पर महीनो बाद छोड़ा फिर भगवान नारायण विष्णु के छटवे अंश ने परशुराम जी का अवतार धारण किया और सहस्त्रबाहु का घमंड चूर किया । इस युद्ध स्थल में १०५ पुत्रों को उनकी माता लेकर कुलगुरु की शरण में गई । राजा श्री जनक राय जी ने रक्षा का वचन दिया और १०५ भाइयों को क्षत्रिय से खत्री कहकर अपने पास रख लिया और ब्राह्मण वर्ण अपना कर सत्य सनातन धर्म पर चलने का वादा किया । १०५ भाइयों के नाम से उनका वंश चला और खाती समाज के १०५ गोत्र हुए | चन्द्रवंश की १०५ शाखाये पुरे भारत में राजवंशी खत्री भी कहलाते है । देश में समाज की जनसँख्या २ करोड़ से अधिक मप्र में जनसँख्या ५० लाख भारत के राज्यों में । समाज दिल्ली , हरयाणा, पंजाब, जम्मू कश्मीर, राजस्थान,उत्तर प्रदेश,हिमाचल प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम आदि ….
  विदेशो में समाज नेपाल, तजफिस्टन, चिली, अमेरिका, फ्रांस, कनाडा और थाईलैंड में है । चंद्रवंशी क्षत्रिय खाती समाज के इष्टदेव भगवान जगन्नाथ है।जो साधना के देदीप्यमान नक्षत्र है जिनका सत्संग और दर्शन तो दूर नाम मात्र से ही जीवन सफल हो जाता है।
हिन्दू धर्म के चारधाम में एक धाम जगन्नाथपुरी उड़ीसा में है और खाती समाज का भव्य पुरातन व बहुत ही सुन्दर मंदिर पतित पावनि माँ क्षिप्रा के तट पर है ।
  भगवान महाकाल की नगरी अवंतिकापुरी उज्जैन देश की केवल एक मात्र नगरी है जहा संस्कार और संस्कृति का प्रवाह सालभर होता रहता है।यहाँ पर डग डग पर धर्म और पग पग पर संस्कृति मौजूद है ।
खाती समाज का एक महापर्व भगवान जगदीश की रथयात्रा है इस अवसर पर समाज के इष्टदेव भगवान जगन्नाथ पालकी रथ पर विराजते है और नगर भ्रमण करते है ।हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल २ को निकलती है ।इस दिन उज्जैन जगन्नाथपुरी सा दिखाई पड़ता है । भगवान जगन्नाथ भाई बलभद्र , बहिन सुभद्रा की मूर्तियों का आकर्षक श्रृंगार किया जाता है और मंदिर की विद्युत सज्जा की जाती है ।
लाखो हज़ारो भक्तजन भगवान के रथ को खींचकर धन्य मानते है । इस पर्व को लेकर समाज में बहुत उत्साह रहता है भक्तो का सैलाब धार्मिक राजधानी की और बढ़ता है।
इस अवसर पर मंदिर में रातभर विभिन्न मंडलियों द्वारा भजन किये जाते है । रथ के साथ बैंडबाजे ऊंट, हाथी, घोड़े, ढोलक की ताल, अखाड़े,डीजे, झांकिया रथयात्रा की शोभा बढाती है और इस तरह भगवान की शाही यात्रा उज्जैन घूमकर पुनः मंदिर पहुचती है मंदिर में सामूहिक भोज भंडारा भी खाती समाज द्वारा किया जाता है जो भगवान का प्रसाद माना जाता है फिर महा आरती के साथ पुनः भगवान मंदिर में विराजते है कहते है इस दिन भगवान् अपनी प्रजा को देखने के लिए मंदिर से निकलते है जो भी भक्त भगवान् तक नहीं पहुंच सका भगवान खुद उसे दर्शन देने निकलते है ।
महाभारत का युद्ध के बाद भगवान कृष्ण अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ रथ में बैठकर द्वारिका पूरी जाते है और गोपिया उनके रथ को खींचती है ।
जगन्नाथ पूरी में भगवान के रथ को राजा सोने की झाड़ू से रथ को भखरते अर्थात सफाई करते थे उस समय केवल नेपाल के और पूरी के राजा जो की चंद्रवंशी थे वे ही केवल मंदिर की मूर्तियों को छू सकते थे क्योंकि वे चन्द्र कुल अर्थात चन्द्रवंश से थे ।
जाति इतिहासविद डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार खाती समाज की कुलदेवी महागौरी है जो दुर्गाजी का आठवा रूप है ।इसे समाज की शक्ति उपासना का पर्व माना जाता है ।महिनो पहले से ही गौरी माँ की पूजन की तैयारिया शुरू हो जाती है । देश विदेश से लोग अष्टमी पूजन के लिए घर आ जाते है इस उत्सव को विशेष महत्व दिया जाता है भगवान वेदव्यास जी ने कहा है की ”है माता तू स्मरण मंत्र से ही भयो का विनाश कर देती है। ” माता महागौरी की पूजा गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेध से की जाती है ममता, समता और क्षमता की त्रिवेणी का नाम माँ है | पुत्र कुपुत्र हो सकता है माता कुमाता नहीं पूजा के अंत में क्षमा मांगी जाती है।
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धोबी ,रजक जाती का इतिहास:Dhobi jati ka Itihas





धोबी समाज का जन्म मूलनिवासियों मे हुआ था । ऐसा कहा जाता है कि जब भारत पर आर्यों का आक्रमण हुआ इससे पहले धोबी समाज खेती , पशुपालन ही किया करते थे । भारतीय हिंदू ग्रंथ में भी धोबी समाज के बारे में बताया गया है । भारत देश में कई जाति के लोग निवास करते हैं उन्ही जातियों में एक धोबी समाज भी निवास करती है ।

रजक समाज का इतिहास संक्षिप्त मे

रजक समाज भारत के मूलनीवासी समुदायो मे से एक है और इसका जन्म भी मूलनीवासीयो से ही हुआ है. रजक समाज के लोग अन्य मूलनीवासीयो की तरह बराबरी मे भरोसा करने वाले लोग थे और वे सब बिना भेदभाव के मिलजुलकर रहते थे.
रजक समाज के लोग भारत देश के विभिन्न प्रांतो मे आर्यो के आक्रमण से पहले से रहते चले आ रहे हैं . आर्य आक्रमण से पहले रजक समाज के लोग अन्य मूलनीवासीयो की तरह खेती और पशु पालन का कम किया करते थे लेकिन आर्यो ने अपने बेहतर हथियारो और घोड़ो के बल पे भारत के मूलनीवासीयो को अपना घर बार खेती बड़ी छोड़ कर जंगल मे रहने के लिए मजबूर कर दिया. स्वाभिमानी मूलनीवासीयो ने सेकडो सालो तक आर्यो से हार नही मानी और वे अपने पशु धन और खेती के लिए आर्यो से लड़ते रहे. आर्यो ने उन्हे राक्षस, दैत्या, दानव इत्याति नाम दिए और उनकी पराजय की झूठी कहानिया लिखी जो आज ब्राह्मण धरम के ग्रंथ बन गये है.
मूलनीवासीयो और आर्यो की लड़ाई सेकडो सालो तक चलती रही और धीरे धीरे आर्यो को यह समझ आने लगा की लड़ाई कर के मूलनीवासीयो को हराया नही जा सकता इसलिए उन्होने अंधविशवास का सहारा लिया और देवी देवताओ के नाम पर मूलनीवासीयो को डरना शुरू कर दिया. भोले भले लोग कपटी ब्राह्मानो की चाल को ना समझ सके और धीरे धीरे उनके झाँसे मे आगये .
 
 ब्राह्मनो ने मन घड़ंत कहानिया बनाई और सब लोगो मे फैला दी. सालो तक मूल नीवासी इस झूठ को समझकर इस से बचते रहे लेकिन जब झूठ भी सालो तक बोला जाए तो वो सही लगने लगता है इसी तरह मूल नीवासीयो को भी भरोसा होने लगा ब्राह्मानो के भगवान पर. ब्राह्मानो ने मूल नीवासीयो के देवताओ को झूठा कहा और उन्हे डरा डरा कर ब्राह्मानो के देवताओ को मानने के लिए राज़ी कर लिया.
  भोले भले मूल नीवासी एक बार जहाँ चालक ब्राह्मानो की बातो मे आ गए तो फिर ब्रह्मनो ने धीरी धीरे खुद को भगवान के बराबर और मूलनीवासीयो को जानवर के बराबर बताकर उन्हे जर जर ज़िंदगी जीने पर मजबूर कर दिया. इस तरह मूलनीवासी आर्य ब्राह्मानो के गुलाम बन कर रह गये.
ब्राह्मणों ने मूलनीवासीयो मे फुट डालने के लिए और हमेशा के लिए उन्हे दबाकर रखने के लिए जाती प्रथा को शुरू किया और अपने हिसाब से अपने हित के लिए सारे काम मूलनिवासियो मे बाँट दिए और उनमे उच नीच का भाव भर दिया ताकि वे खुद एक दूसरे से उपर नीचे के लिए लड़ते रहे और ब्राह्मण राज करते रहे. यह आज तक चला आ रहा है.
 डॉ. दयाराम आलोक के अनुसार, रजक समाज का उद्गम उन मूल निवासियों से हुआ जिन्हें लोगों को पाप मुक्त करने का काम सौंपा गया था। शुरुआत में, यह काम बहुत सम्मानजनक था, और लोग अपनी शुद्धि और मुक्ति के लिए रजक समाज के लोगों के घर जाते थे।
उनके मतानुसार, रजक समाज के लोग लोगों को पाप मुक्त करने के लिए घर का पानी छिड़ककर उन्हें पवित्र और पाप मुक्त कर देते थे। लेकिन धीरे-धीरे, रजक समाज की इज्जत बढ़ने लगी, और ब्राह्मणों को लगा कि उनसे गलती हो गई है।
इसके परिणामस्वरूप, ब्राह्मणों ने रजक समाज के लोगों का तिरस्कार करना शुरू कर दिया, झूठी कहानियां लिखकर और लोगों को भड़काकर। सदियों बाद, रजक समाज के लोगों को पाप मुक्ति दाता से कपड़े धोने वाला बनाकर रख दिया गया।
यह डॉ. आलोक के शोध और अध्ययन पर आधारित है, जो जाति इतिहास के क्षेत्र में एक प्रमुख विद्वान हैं। उनके अनुसार, रजक समाज के लोगों का तिरस्कार करना एक ऐतिहासिक गलती है जिसे सुधारने की आवश्यकता है
लेकिन आज सभी मूलनीवासीयो की तरह रजक समाज के लोग भी पढ़ लिख गये है और ब्राह्मानो की चाल को समझ गये है . वे ये समझ गये है की वे किसी से कम नही है और कुछ भी कर सकते है. जो काम उन्हे बेइज़्ज़त करने के लिए उनपर थोपा गया था आज वो काम छोड़कर डाक्टर इंजिनियर कलेक्टर बन रहे है. वे ब्राह्मानो की चाल को समझ गये है की किस तरह मंदिर भगवान के नाम पर उनसे काम कराया जाता रहा , उन्हे अपमानित किया जाता रहा, अब वे और अपमान नही सहने वाले. सम्मान से जीना हर इंसान का हक़ है और वे ये हक लेकर रहेंगे.
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भारत के  मन्दिरों और मुक्ति धाम हेतु शामगढ़ के समाजसेवी  द्वारा दान की विस्तृत श्रृंखला 



24.11.22

सबसे शक्तिशाली ऋषि कौन है:shaktishali rishi Vishwamitra

 

भारतीय पौराणिक कथाओं में सबसे शक्तिशाली ऋषि कौन है?

विश्वामित्र सनातन धर्म के सबसे शक्तिशाली ब्रह्मर्षि थे।



उन्होंने बिना सांस लिए हजारों वर्षों तक तपस्या की और लगभग पूरे ब्रह्मांड और सभी अमर देवताओं को अपनी सौंदर्य योग्यता से जला दिया:

“वह प्रख्यात संत एक और हजार वर्षों तक बिना श्वसन के रहे, और फिर उनकी सांस को नियंत्रित करने वाले ऋषि के सिर से धुंआ निकलना शुरू हो गया, जिससे धुएँ के रूप में दुनिया की त्रयी ऐसी लग रही थी जैसे कि यह जल रहा हो, और इसने सभी दुनिया को चौंका दिया। "

अमर देवता उससे डरते थे और ब्रह्मा से उनकी तपस्या रोकने की भीख माँगते थे

अब तो उसमें एक अगोचर अपूर्णता भी प्रकट नहीं होती, परन्तु यदि उसकी हार्दिक इच्छा पूरी न हुई तो वह अपनी तपस्वी शक्ति से तीनों लोकों का नाश कर देगा।

ब्रह्मर्षि बनने से पहले ही उन्होंने सभी देवताओं के साथ ब्रह्मांड की रचना की और अमरता भी प्रदान की:

इस पर क्रोधित विश्वामित्र सितारों और आकाशगंगाओं के नक्षत्र के साथ ब्रह्मांड को दोहराने लगते हैं, और वह देवताओं को भी क्लोन करने के लिए आगे बढ़ते हैं

विश्वामित्र न केवल त्रिशंकु के प्रकरण में एक और ब्रह्मांड बनाते हैं, वह अपनी तपस्वी शक्ति से नश्वर को दीर्घायु, या यहां तक ​​​​कि मृत्यु भी प्रदान करते हैं।

विश्वामित्र के पास मानव जाति के लिए अज्ञात सभी अस्त्र और शास्त्र भी थे। उनके पास गायत्री भजनों के साथ अस्त्रों को दोहराने और बनाने की शक्ति भी है।

विश्वामित्र सनातन धर्म के सबसे शक्तिशाली और शक्तिशाली ऋषि हैं।


भारत के  मन्दिरों और मुक्ति धाम हेतु शामगढ़ के समाजसेवी  द्वारा दान की विस्तृत श्रृंखला 



20.10.22

दर्जी जाति की उत्पत्ति और इतिहास की जानकारी :history of darji caste

 




   दर्जी वस्त्र सीने की विशिष्ट योग्यता रखने वाला व्यक्ति होता है। वह व्यक्ति के शरीर की माप के अनुसार कपड़ा सीकर उसे वस्त्र का रूप देता है।

इतिहास:

 हिंदू दर्जी समुदाय का कोई केंद्रीय इतिहास नहीं है। यह उस समुदाय के लोगों पर निर्भर करता है जहां वे रह रहे थे। कुछ लोगों से अपने इतिहास से संबंधित प्राचीन और मध्यकालीन युग , कुछ से संबंधित Tretayuga (चार में से एक युग में वर्णित हिंदू प्राचीन ग्रंथों की तरह, वेद , पुराण , आदि)। लेकिन सभी हिंदू दर्जी समुदाय की उत्पत्ति क्षत्रिय वर्ण से हुई है। क्षत्रिय होने का प्रमाण गोत्र है, इनके गोत्र क्षत्रिय वर्ण से हैं।

मध्यकालीन युग से:

दर्जी जाति मूल रूप से क्षत्रिय लोगों से जुड़ी रही है जो कुछ परिस्थितियों के कारण अहिंसक बन गए जैसे: मुगलों और अन्य राजाओं के बीच लड़े गए हर युद्ध के बाद हमारे लोगों की मौत, मुस्लिम ग्रामीण की क्रूरता, उनकी धर्मांतरण नीतियां। इन घटनाओं को देखकर, कुछ क्षत्रियों ने संत शिरोमणि पीपा जी महाराज , संत नामदेव , संत कबीरदास , संत रैदास और स्वामी रामानंद के 36 अन्य विद्वानों के साथ भक्ति आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया है ।

त्रेतायुग से:

   नृवंशविज्ञानी रसेल और हीरालाल (भारत के मध्य प्रांतों की जनजातियाँ और जातियाँ, 1916) द्वारा सुनाई गई किंवदंती के अनुसार, जब भगवान परशुराम ( कुल्हाड़ी के साथ राम , विष्णु के छठे अवतार ) क्षत्रिय (जिन्हें राजपूत लोग भी कहा जाता है) को नष्ट कर रहे थे। कुछ दो भाई मंदिर में छिप जाते हैं और पुजारी द्वारा संरक्षित होते हैं। पुजारी ने एक भाई को कपड़े सिलने और दूसरे को मूर्ति के लिए रंगने और मुहर लगाने का आदेश दिया।

दर्जी  भारत, पाकिस्तान और नेपाल के तराई क्षेत्र में पाई जाने वाली एक व्यवसायिक जाति है. कर्नाटक में इन्हें पिसे, वेड, काकड़े और सन्यासी के नाम से जाना जाता है. यह मुख्य रूप से एक भूमिहीन या कम भूमि वाला समुदाय है, जिसका परंपरागत व्यवसाय सिलाई (Tailoring) है. आज भी यह मुख्य रूप से अपने पारंपरिक व्यवसाय में लगे हुए हैं. यह खेती भी करने लगे हैं. साथ ही यह शिक्षा और रोजगार के आधुनिक अवसरों का लाभ उठाते हुए अन्य क्षेत्रों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. भारत के आरक्षण प्रणाली के अंतर्गत हिंदू और मुस्लिम दर्जी दोनों को अन्य पिछड़ा वर्ग (Other Backward Class, OBC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है. आइए जानते हैैं दर्जी समाज का इतिहास, दर्जी शब्द की उत्पति कैसे हुई?

दर्जी जाति के लोग  किस धर्म को मानते हैं?

भारत के गुजरात, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश,महाराष्ट्र  , छत्तीसगढ़, उड़ीसा, कर्नाटक, बिहार आदि राज्यों में इनकी अच्छी खासी आबादी है. धर्म से यह हिंदू या मुसलमान हो सकते हैं. हिंदू समुदाय में इन्हें हिंदू दर्जी या क्षत्रिय दर्जी कहा जाता है, क्योंकि इन्हें मुख्य रूप से क्षत्रिय वर्ण का गोत्र माना जाता है. मुस्लिम समुदाय में दर्जी जाति को इदरीशी (हजरत इदरीस के नाम पर) के नाम से जाना जाता है.

दर्जी शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?

सिलाई के कार्य से जुड़े होने के कारण इनका नाम दर्जी पड़ा. कहा जाता है कि “दर्जी” शब्द की उत्पत्ति फारसी भाषा के शब्द “दारजान” से हुई है, जिसका अर्थ होता है- “सिलाई करना”. हिंदुस्तानी भाषा में दर्जी का शाब्दिक अर्थ है- “टेलरिंग का काम करने वाला या सिलाई का काम करने वाला’. कहा जाता है कि पंजाबी दर्जी हिंदू छिम्बा जाति से धर्मांतरित हुए हैं, और उनके कई क्षेत्रीय विभाजन हैं जैसे- सरहिंदी, देसवाल और मुल्तानी. पंजाबी दर्जी (छिम्बा दारज़ी‍‌‌) लगभग पूरी तरह सुन्नी इस्लाम के अनुयाई हैं. इदरीसी दर्जी दिल्ली सल्तनत ‌के शुरुआती दौर में दक्षिण एशिया में बस गए थे. यह भाषाई आधार पर भी विभाजित हैं. उत्तर भारत में निवास करने वाले उर्दू, हिंदी समेत विभिन्न भाषाएं बोलते हैं, जबकि पंजाब में रहने वाले पंजाबी भाषा बोलते हैं.

दर्जी समाज का इतिहास

 दर्जी समुदाय की उत्पत्ति के बारे में भारत के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग किंवदंतियां प्रचलित हैं. गुजरात मे 14 वीं शताब्दी मे जबरन इस्लामिकरण और तत्कालीन इस्लामिक शासकों द्वारा हिंदुओं के प्रति हिंसक घटनाओं से प्रताड़ित होकर  दामोदर वंशीय दर्जी समाज जूनागढ़ तथा अन्य स्थानो को  छोड़कर मध्य प्रदेश और राजस्थान मे आ बसे | 
  राजस्थान में निवास करने वाले दर्जी राजपूत से अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं और खुद को लोकनायक श्री पीपा जी महाराज का वंशज बताते हैं, जो बाद में भारत में भक्ति आंदोलन के दौरान संत बन गए. जैसे-जैसे समय बीतता गया, कई कारणों से इस समुदाय के लोग अपने मूल स्थान से रोजी-रोटी की तलाश में शहरों में चले गए और इस तरह से पूरे भारत में फैल गए. भारत में निवास करने वाले हिंदू दर्जी अनेक कुलों में विभाजित हैं. इनके प्रमुख कुल हैं- काकुस्त, दामोदर वंशी, टैंक, रोहिल्ला, जूना गुजराती. उड़ीसा में यह महाराणा, महापात्र आदि उपनामो का प्रयोग करते हैं. मुस्लिम दर्जी कुरान और बाइबिल में वर्णित हजरत इदरीस (Prophet Idris) के वंशज होने का दावा करते हैं. इनकी मान्यताओं के अनुसार, हजरत इदरीस सिलाई का काम सीखने वाले पहले व्यक्ति थे. उनका मानना है कि हजरत इदरीसी असली शिक्षक थे, जिनसे उनके पूर्वजों ने सिलाई की कला सीखी थी. उत्तर प्रदेश में निवास करने वाले मुस्लिम दर्जी खय्यात के नाम से भी जाने जाते हैं.

दर्जी राजपूत समाज का इतिहास   

वे राजपूत जिन्होने राजर्षि संत पीपाजी के उपदेश पर अथवा अहिंसक कर्मपथ का अनुसरण करते हुये अंहिसा का मार्ग अपनाया, उन राजपूतों का समुदाय आज दर्जी जाति के नाम से जाना जाता है। कालांतर के साथ इनकी पहचान दर्जी जाति से होने लगी और यह समुदाय वर्तमान में दर्जी राजपूत कहलाता है|
मूलतः दर्जी राजपूतों समाज की जड़ें राजस्थान की भूमि से जुड़ी हैं, लेकिन समय के साथ इनका समुदाय पूरे भारत भर में फैलता चला गया, जिसमें मुख्यतः गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश सहित देश के 28 राज्य शामिल हैं।

दामोदर वंशी  क्षत्रीय दर्जी समाज 
दामोदर दर्जी समाज का इतिहास

  इतिहासकारों के मतानुसार जूनागढ़ के मुस्लिम शासकों द्वारा प्रताड़ित होने ,जोर- जुल्म -अत्याचारों और जबरन इस्लामीकरण की वजह से दामोदर वंशीय दर्जी समाज के दो जत्थे गुजरात को छोड़कर मध्य प्रदेश और राजस्थान में विस्थापित हुए।
पहला जत्था 1505 ईस्वी में महमूद बेगड़ा के शासनकाल में विस्थापित हुआ, और दूसरा जत्था 1610 ईस्वी में नवाब मिर्जा जस्साजी खान बाबी के शासनकाल में गुजरात मे अपने मूल स्थानों को छोड़ने  पर विवश हुआ और मध्य प्रदेश व राजस्थान मे आकर रहने लगा| 
   यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी जिसने कई हिंदू दर्जी परिवारों को अपने घरों और मूल स्थानों को छोड़ने के लिए मजबूर किया। उन्हें अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए एक नए स्थान पर बसना पड़ा, जो उनके लिए एक चुनौतीपूर्ण और दर्दनाक अनुभव था।
  इन दोनों जत्थों के लोगों के गुजरात  से पलायन  के बीच 105 साल का अंतर होने के कारण, पहले जत्थे के लोग "जूना गुजराती" और दूसरे जत्थे के लोग "नए गुजराती" कहलाने लगे।
  दामोदर वंशी दर्जी समाज के परिवारों की गौत्र क्षत्रियों की है, जिससे यह ज्ञात होता है कि इनके पुरखे क्षत्रिय थे। जूना गुजराती समाज के लोग "सेठ" उपनाम का उपयोग करते हैं, जो उनकी वंशावली और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
 इंदौर ,उज्जैन,रतलाम मे दामोदर वंशी जूना गुजराती दर्जी अधिक संख्या मे हैं। नया गुजराती दामोदर वंशी क्षत्रिय दर्जी समाज संख्या के हिसाब से छोटा है और अधिकांशत: ग्रामीण क्षेत्रों मे बसा हुआ है लेकिन धीरे धीरे यह समुदाय शामगढ़ ,भवानी मंडी ,रामपुरा, डग ,मंदसौर आदि कस्बों का रुख कर रहा है। नया और जूना गुजराती दर्जी समाज मे फिरका परस्ती छोड़कर परस्पर विवाह होने की कई घटनाएं प्रकाश मे आई हैं
Meta Al जानकारी देता है -                                                                                                 आपका आलेख दामोदर वंशी क्षत्रीय दर्जी समाज के इतिहास और उनके संघर्षों के बारे में एक महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती है। यह जानकारी न केवल इस समाज के लोगों के लिए बल्कि समाज के अन्य वर्गों के लिए भी उपयोगी हो सकती है।
इस जानकारी से पता चलता है कि कैसे दामोदर वंशी दर्जी समाज को अपने घरों और मूल स्थानों को छोड़ने के लिए मजबूर किया गया और वे मध्य प्रदेश और राजस्थान में बस गए। यह जानकारी उनके संघर्षों और उनकी संस्कृति की रक्षा के लिए उनके संघर्षों को दर्शाती है।
इससे  यह भी पता चलता है कि कैसे दामोदर वंशी दर्जी समाज के लोगों ने अपनी वंशावली और संस्कृति को बनाए रखा और कैसे वे आज भी अपनी संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं।
डॉ. दयाराम आलोक के सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक अनुष्ठानों का इतिवृत्त समझने से यह समाज अपने अभ्युत्थान के लिए प्रेरित हो सकता है और अपनी संस्कृति को और अधिक मजबूती से बनाए रखने में सक्षम हो सकता है।
     
दर्जी राजपूत समुदाय का क्षेत्र:

कैसे ‘‘दर्जी राजपूत समाज’’ के आराध्य बने राजर्षि  संत पीपाजी महाराज:

खींची राजवंश में जन्में राजा प्रताव राव चैहान को जब वैराग्य धारण हुआ, तो उन्होनें राजशाही कुरीतियां (मदिरा, मांस, बलिप्रथा) को खत्म करने का बीड़ा उठाया। सिंहासनारूढ हो जाने पर खींची सरदारों का एक बहुत बड़ा वर्ग सामाजिक वं धार्मिक परंपरा में परिवर्तन के पक्ष में नहीं था। उन्होने संत पीपाजी के विचारों का विरोध किया और संघर्ष अनिवार्य था और हुआ भी।
 इससे कई राजपूत उनके विरोधी हुये, तो कई पक्षधर। संत पीपाजी महाराज राजपूती कुप्रथा को खत्म कर अंहिसक मार्ग पर ले जाना चाहते थे। जिससे उनका मार्ग का अनुसरण करने वाले राजपूतों का भी पारिवारिक और सामाजिक विरोध हुआ। संत पीपाजी का अनुशरण करने वाले राजपूतों के भरण-पोषण हेतु संत पीपाजी ने अंहिसक कर्म (खेती व सिलाई) को चुना, जिसमें सबसे अधिक प्रचलित सिलाई कर्म हुआ और यह जाति दर्जी जाति के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस तरह एक बहुत बड़ा राजपूत वर्ग अहिंसक होकर दर्जी जाति में बदल गया और इस वर्ग के आराध्य बने राजर्षि  संत पीपाजी महाराज।

पिछड़ा वर्ग की दर्जी जाति का - राजपूत इतिहास

जब दर्जी जाति के बुद्धीजीवि वर्ग ने जब अपने इतिहास की खोज की तो इसकी जड़े राजपूत वर्ग से जुड़ी मिलीं। जिसका मुख्य श्रेय श्री पीपा क्षत्रिय शोध संस्थान जोधपुर को जाता है। राजर्षि  संत पीपाजी के उपदेश व अंहिसक कर्मपथ का जिन राजपूत राजाओं ने, परिवारजनों, रिश्तेदारों ने अनुस रण किया वह निम्नानुसार हैंः-

संत पीपाजी महाराज के अहिंसक कर्मपथ (सिलाई) के अनुयायी 51 राजाः-


1. बेरिसाल सोलंकी, 2. दामोदर दास परमार, 3. गोवर्धन सिंह पंवार, 4. सोमपाल परिहार

5. खेमराज चैहान, 6. भीमराज गोहिल, 7.शम्भूदास डाबी, 8. इन्द्रराज राखेचा,

9. रणमल चैहान, 10. जयदास खींची, 11. पृथ्वीराज तंवर, 12. सुयोधन बडगुजर

13. ईश्वर दास दहिया, 14. गोलियो राव, 15. बृजराज सिसोदिया, 16. राजसिंह भाटी

17. हरदत्त टाक, 18. हरिदास कच्छवाह, 19. अभयराज यादव, 20. राठौड़ इडरिया हरबद

21. मकवाना रामदास वीरभान, 22. शेखावत वीरभान, 23. गहलोत वीरभान

24. चावड़ा वरजोग, 25. संकलेचा मानकदेव, 26. बिजलदेव बारड़ 27. रणमल परिहार

28. अभयराज सांखला, 29. झाला भगवान दास, 30. गोहिल दूदा, 31. गोकुल दास देवड़ा

32. गौड़ राजेन्द्र, 33. चुंडावत मंडलीक, 34. हितपाल बाघेला, 35. गहलोत अमृत कनेरिया

36. भाटी मोहन सिंह, 37. दलवीर भाटी, 38. इंदा मोहन सिंह, 39. प्रभात सिंह सिंधु राठौड़

40. सुरसिंह (सूर्यमल्ल सोलंकी) , 41. उम्मेदसिंह तंवर, 42. हेमसिंह कच्छवाहा

43. गंगदेव गोहिल, 44. दुल्हसिंह टांक, 45. गोपालराव परिहार, 46. मूलसिंह गहलोत

47. पन्नेसिंह राखेचा, 48. अमराव मकवाना, 49. मुलराव चावड़ा, 50. मूलराज भाटी

51. पन्नेसिंह डाबी आदि।

संत पीपाजी महाराज की 12 रानियां व उनका वंष:-

1. गुजरात भावनगर नरेश श्री सेन्द्रकजी गोयल की पुत्री  - (धीरा बाईजी), 

2. गुजरात पाटननरेश रिणधवल चावड़ाजी की पुत्री  - (अंतर बाईजी)

3. गुजरात गिरनारनरेश श्री भुहड़सिंह चुड़ासमाजी की पुत्री - (भगवती बाईजी), 

4. गुजरात भुजनरेश विभूसिंह जाड़ेजा जी की पुत्री  - (लिछमा बाईजी), 

5. गुजरात माणसानरेश कनकसेन चावड़ा जी की पुत्री  - (विरजाभानु बाईजी) 

6. गुजरात हलवदनरेश वीरभद्रसिंह झाला की पुत्री  - (सिंगार बाईजी)

7. राजस्थान करेगांव नरेश जोजलदेव दहिया जी की पुत्री  - (कंचन बाईजी) 

8. राजपूताना कनहरीगढ़ नरेश कनकराजसिंह बघेला जी की पुत्री - (सुशीला बाईजी)

9. राजपूताना टोडायसिंह नरेश डूंगरसिंह सोलंकी जी की पुत्री  - (स्मृति बाईजी) 

10. मध्यप्रदेश बांधवगढ़नरेश वीरमदेवजी बाघेला की पुत्री  - (रमा बाईजी) 

11. मध्यप्रदेश पट्टननरेश भींजड़सिंह सोलंकी जी की पुत्री  - (विजयमड़ बाईजी)

12. मालवा कनवरगढ़ नरेश यशोधरसिंह झाला जी की पुत्री  - (रमाकंवर बाईजी)

भारत सरकार व राज्य सरकारों की अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी.) में दर्जी जाति के नाम से है दर्जः-

जब एक बहुत बड़ा वर्ग राजपाठ त्यागकर अहिंसक होकर सिलाई कर्म को अपनाया, तो कालांतर के साथ इसकी पहचान दर्जी जाति के रूप में हुई। आर्थिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े के कारण भारत सरकार व राज्य सरकार ने इस समाज को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी.) सूची रखा और इनके सभी शासकीय दस्तावेज दर्जी जाति के नाम से बनाये गये।

भ्रम व भ्रांतियांः-

‘‘दर्जी राजपूत’’ समाज अलग-अलग कहानियों को लेकर बंटा हुआ है। सबसे बड़ी भ्रांति महाराष्ट्र के संत नामदेव जी को दर्जी जाति के आराध्य के रूप में दर्शाया जा रहा है और उन्हें क्षत्रिय कुल से बताया जाता है। ‘‘पवित्र गुरू ग्रंथ साहिब’’ में संकलित सभी संतों के इतिहास को पढ़ने के बाद एवं छीपा समाज द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं एवं संत नामदेव से संबधित अन्य पुस्तकों को पढ़ने के बाद पता चलता हैं कि संत नामदेव जी महाराज का जन्म एक छीपा जाति में हुआ था, जो कपड़े के व्यापार से जुड़े थे तथा संत पीपाजी महाराज एक राजपूत थे, जिन्होने अहिंसक सिलाई कर्म को अपनाया। इस तरह  पीपा दर्जी जाति एक राजपूत वर्ग है  और  नामदेव छीपा जाति (छपाई करने वाले) से पूरी तरह भिन्न है और  इनके बीच किसी प्रकार का मेल-मिलाप नहीं है, लेकिन सिलाई कार्य को लेकर दोनों जातियो में भ्रम की स्थिति बनी हुई है।

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