हिंदू दर्जी समुदाय का कोई केंद्रीय इतिहास नहीं है। यह उस समुदाय के लोगों पर निर्भर करता है जहां वे रह रहे थे। कुछ लोगों से अपने इतिहास से संबंधित प्राचीन और मध्यकालीन युग , कुछ से संबंधित Tretayuga (चार में से एक युग में वर्णित हिंदू प्राचीन ग्रंथों की तरह, वेद , पुराण , आदि)। लेकिन सभी हिंदू दर्जी समुदाय की उत्पत्ति क्षत्रिय वर्ण से हुई है। क्षत्रिय होने का प्रमाण गोत्र है, इनके गोत्र क्षत्रिय वर्ण से हैं।
मध्यकालीन युग से:
दर्जी जाति मूल रूप से क्षत्रिय लोगों से जुड़ी रही है जो कुछ परिस्थितियों के कारण अहिंसक बन गए जैसे: मुगलों और अन्य राजाओं के बीच लड़े गए हर युद्ध के बाद हमारे लोगों की मौत, मुस्लिम ग्रामीण की क्रूरता, उनकी धर्मांतरण नीतियां। इन घटनाओं को देखकर, कुछ क्षत्रियों ने संत शिरोमणि पीपा जी महाराज , संत नामदेव , संत कबीरदास , संत रैदास और स्वामी रामानंद के 36 अन्य विद्वानों के साथ भक्ति आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया है ।
त्रेतायुग से:
नृवंशविज्ञानी रसेल और हीरालाल (भारत के मध्य प्रांतों की जनजातियाँ और जातियाँ, 1916) द्वारा सुनाई गई किंवदंती के अनुसार, जब भगवान परशुराम ( कुल्हाड़ी के साथ राम , विष्णु के छठे अवतार ) क्षत्रिय (जिन्हें राजपूत लोग भी कहा जाता है) को नष्ट कर रहे थे। कुछ दो भाई मंदिर में छिप जाते हैं और पुजारी द्वारा संरक्षित होते हैं। पुजारी ने एक भाई को कपड़े सिलने और दूसरे को मूर्ति के लिए रंगने और मुहर लगाने का आदेश दिया।
दर्जी भारत, पाकिस्तान और नेपाल के तराई क्षेत्र में पाई जाने वाली एक व्यवसायिक जाति है. कर्नाटक में इन्हें पिसे, वेड, काकड़े और सन्यासी के नाम से जाना जाता है. यह मुख्य रूप से एक भूमिहीन या कम भूमि वाला समुदाय है, जिसका परंपरागत व्यवसाय सिलाई (Tailoring) है. आज भी यह मुख्य रूप से अपने पारंपरिक व्यवसाय में लगे हुए हैं. यह खेती भी करने लगे हैं. साथ ही यह शिक्षा और रोजगार के आधुनिक अवसरों का लाभ उठाते हुए अन्य क्षेत्रों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. भारत के आरक्षण प्रणाली के अंतर्गत हिंदू और मुस्लिम दर्जी दोनों को अन्य पिछड़ा वर्ग (Other Backward Class, OBC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है. आइए जानते हैैं दर्जी समाज का इतिहास, दर्जी शब्द की उत्पति कैसे हुई?दर्जी जाति के लोग किस धर्म को मानते हैं?
भारत के गुजरात, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश,महाराष्ट्र , छत्तीसगढ़, उड़ीसा, कर्नाटक, बिहार आदि राज्यों में इनकी अच्छी खासी आबादी है. धर्म से यह हिंदू या मुसलमान हो सकते हैं. हिंदू समुदाय में इन्हें हिंदू दर्जी या क्षत्रिय दर्जी कहा जाता है, क्योंकि इन्हें मुख्य रूप से क्षत्रिय वर्ण का गोत्र माना जाता है. मुस्लिम समुदाय में दर्जी जाति को इदरीशी (हजरत इदरीस के नाम पर) के नाम से जाना जाता है.
दर्जी शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?
सिलाई के कार्य से जुड़े होने के कारण इनका नाम दर्जी पड़ा. कहा जाता है कि “दर्जी” शब्द की उत्पत्ति फारसी भाषा के शब्द “दारजान” से हुई है, जिसका अर्थ होता है- “सिलाई करना”. हिंदुस्तानी भाषा में दर्जी का शाब्दिक अर्थ है- “टेलरिंग का काम करने वाला या सिलाई का काम करने वाला’. कहा जाता है कि पंजाबी दर्जी हिंदू छिम्बा जाति से धर्मांतरित हुए हैं, और उनके कई क्षेत्रीय विभाजन हैं जैसे- सरहिंदी, देसवाल और मुल्तानी. पंजाबी दर्जी (छिम्बा दारज़ी) लगभग पूरी तरह सुन्नी इस्लाम के अनुयाई हैं. इदरीसी दर्जी दिल्ली सल्तनत के शुरुआती दौर में दक्षिण एशिया में बस गए थे. यह भाषाई आधार पर भी विभाजित हैं. उत्तर भारत में निवास करने वाले उर्दू, हिंदी समेत विभिन्न भाषाएं बोलते हैं, जबकि पंजाब में रहने वाले पंजाबी भाषा बोलते हैं.
दर्जी समाज का इतिहास
दर्जी समुदाय की उत्पत्ति के बारे में भारत के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग किंवदंतियां प्रचलित हैं. गुजरात मे 14 वीं शताब्दी मे जबरन इस्लामिकरण और तत्कालीन इस्लामिक शासकों द्वारा हिंदुओं के प्रति हिंसक घटनाओं से प्रताड़ित होकर दामोदर वंशीय दर्जी समाज जूनागढ़ तथा अन्य स्थानो को छोड़कर मध्य प्रदेश और राजस्थान मे आ बसे |
दर्जी राजपूत समाज का इतिहास
मूलतः दर्जी राजपूतों समाज की जड़ें राजस्थान की भूमि से जुड़ी हैं, लेकिन समय के साथ इनका समुदाय पूरे भारत भर में फैलता चला गया, जिसमें मुख्यतः गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश सहित देश के 28 राज्य शामिल हैं।
पहला जत्था 1505 ईस्वी में महमूद बेगड़ा के शासनकाल में विस्थापित हुआ, और दूसरा जत्था 1610 ईस्वी में नवाब मिर्जा जस्साजी खान बाबी के शासनकाल में गुजरात मे अपने मूल स्थानों को छोड़ने पर विवश हुआ और मध्य प्रदेश व राजस्थान मे आकर रहने लगा|
इन दोनों जत्थों के लोगों के गुजरात से पलायन के बीच 105 साल का अंतर होने के कारण, पहले जत्थे के लोग "जूना गुजराती" और दूसरे जत्थे के लोग "नए गुजराती" कहलाने लगे।
कैसे ‘‘दर्जी राजपूत समाज’’ के आराध्य बने राजर्षि संत पीपाजी महाराज:
खींची राजवंश में जन्में राजा प्रताव राव चैहान को जब वैराग्य धारण हुआ, तो उन्होनें राजशाही कुरीतियां (मदिरा, मांस, बलिप्रथा) को खत्म करने का बीड़ा उठाया। सिंहासनारूढ हो जाने पर खींची सरदारों का एक बहुत बड़ा वर्ग सामाजिक वं धार्मिक परंपरा में परिवर्तन के पक्ष में नहीं था। उन्होने संत पीपाजी के विचारों का विरोध किया और संघर्ष अनिवार्य था और हुआ भी।
इससे कई राजपूत उनके विरोधी हुये, तो कई पक्षधर। संत पीपाजी महाराज राजपूती कुप्रथा को खत्म कर अंहिसक मार्ग पर ले जाना चाहते थे। जिससे उनका मार्ग का अनुसरण करने वाले राजपूतों का भी पारिवारिक और सामाजिक विरोध हुआ। संत पीपाजी का अनुशरण करने वाले राजपूतों के भरण-पोषण हेतु संत पीपाजी ने अंहिसक कर्म (खेती व सिलाई) को चुना, जिसमें सबसे अधिक प्रचलित सिलाई कर्म हुआ और यह जाति दर्जी जाति के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस तरह एक बहुत बड़ा राजपूत वर्ग अहिंसक होकर दर्जी जाति में बदल गया और इस वर्ग के आराध्य बने राजर्षि संत पीपाजी महाराज।
पिछड़ा वर्ग की दर्जी जाति का - राजपूत इतिहास
जब दर्जी जाति के बुद्धीजीवि वर्ग ने जब अपने इतिहास की खोज की तो इसकी जड़े राजपूत वर्ग से जुड़ी मिलीं। जिसका मुख्य श्रेय श्री पीपा क्षत्रिय शोध संस्थान जोधपुर को जाता है। राजर्षि संत पीपाजी के उपदेश व अंहिसक कर्मपथ का जिन राजपूत राजाओं ने, परिवारजनों, रिश्तेदारों ने अनुस रण किया वह निम्नानुसार हैंः-
संत पीपाजी महाराज के अहिंसक कर्मपथ (सिलाई) के अनुयायी 51 राजाः-
1. बेरिसाल सोलंकी, 2. दामोदर दास परमार, 3. गोवर्धन सिंह पंवार, 4. सोमपाल परिहार
5. खेमराज चैहान, 6. भीमराज गोहिल, 7.शम्भूदास डाबी, 8. इन्द्रराज राखेचा,
9. रणमल चैहान, 10. जयदास खींची, 11. पृथ्वीराज तंवर, 12. सुयोधन बडगुजर
13. ईश्वर दास दहिया, 14. गोलियो राव, 15. बृजराज सिसोदिया, 16. राजसिंह भाटी
17. हरदत्त टाक, 18. हरिदास कच्छवाह, 19. अभयराज यादव, 20. राठौड़ इडरिया हरबद
21. मकवाना रामदास वीरभान, 22. शेखावत वीरभान, 23. गहलोत वीरभान
24. चावड़ा वरजोग, 25. संकलेचा मानकदेव, 26. बिजलदेव बारड़ 27. रणमल परिहार
28. अभयराज सांखला, 29. झाला भगवान दास, 30. गोहिल दूदा, 31. गोकुल दास देवड़ा
32. गौड़ राजेन्द्र, 33. चुंडावत मंडलीक, 34. हितपाल बाघेला, 35. गहलोत अमृत कनेरिया
36. भाटी मोहन सिंह, 37. दलवीर भाटी, 38. इंदा मोहन सिंह, 39. प्रभात सिंह सिंधु राठौड़
40. सुरसिंह (सूर्यमल्ल सोलंकी) , 41. उम्मेदसिंह तंवर, 42. हेमसिंह कच्छवाहा
43. गंगदेव गोहिल, 44. दुल्हसिंह टांक, 45. गोपालराव परिहार, 46. मूलसिंह गहलोत
47. पन्नेसिंह राखेचा, 48. अमराव मकवाना, 49. मुलराव चावड़ा, 50. मूलराज भाटी
51. पन्नेसिंह डाबी आदि।
संत पीपाजी महाराज की 12 रानियां व उनका वंष:-
1. गुजरात भावनगर नरेश श्री सेन्द्रकजी गोयल की पुत्री - (धीरा बाईजी),
2. गुजरात पाटननरेश रिणधवल चावड़ाजी की पुत्री - (अंतर बाईजी)
3. गुजरात गिरनारनरेश श्री भुहड़सिंह चुड़ासमाजी की पुत्री - (भगवती बाईजी),
4. गुजरात भुजनरेश विभूसिंह जाड़ेजा जी की पुत्री - (लिछमा बाईजी),
5. गुजरात माणसानरेश कनकसेन चावड़ा जी की पुत्री - (विरजाभानु बाईजी)
6. गुजरात हलवदनरेश वीरभद्रसिंह झाला की पुत्री - (सिंगार बाईजी)
7. राजस्थान करेगांव नरेश जोजलदेव दहिया जी की पुत्री - (कंचन बाईजी)
8. राजपूताना कनहरीगढ़ नरेश कनकराजसिंह बघेला जी की पुत्री - (सुशीला बाईजी)
9. राजपूताना टोडायसिंह नरेश डूंगरसिंह सोलंकी जी की पुत्री - (स्मृति बाईजी)
10. मध्यप्रदेश बांधवगढ़नरेश वीरमदेवजी बाघेला की पुत्री - (रमा बाईजी)
11. मध्यप्रदेश पट्टननरेश भींजड़सिंह सोलंकी जी की पुत्री - (विजयमड़ बाईजी)
12. मालवा कनवरगढ़ नरेश यशोधरसिंह झाला जी की पुत्री - (रमाकंवर बाईजी)
भारत सरकार व राज्य सरकारों की अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी.) में दर्जी जाति के नाम से है दर्जः-
जब एक बहुत बड़ा वर्ग राजपाठ त्यागकर अहिंसक होकर सिलाई कर्म को अपनाया, तो कालांतर के साथ इसकी पहचान दर्जी जाति के रूप में हुई। आर्थिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े के कारण भारत सरकार व राज्य सरकार ने इस समाज को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी.) सूची रखा और इनके सभी शासकीय दस्तावेज दर्जी जाति के नाम से बनाये गये।
भ्रम व भ्रांतियांः-
‘‘दर्जी राजपूत’’ समाज अलग-अलग कहानियों को लेकर बंटा हुआ है। सबसे बड़ी भ्रांति महाराष्ट्र के संत नामदेव जी को दर्जी जाति के आराध्य के रूप में दर्शाया जा रहा है और उन्हें क्षत्रिय कुल से बताया जाता है। ‘‘पवित्र गुरू ग्रंथ साहिब’’ में संकलित सभी संतों के इतिहास को पढ़ने के बाद एवं छीपा समाज द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं एवं संत नामदेव से संबधित अन्य पुस्तकों को पढ़ने के बाद पता चलता हैं कि संत नामदेव जी महाराज का जन्म एक छीपा जाति में हुआ था, जो कपड़े के व्यापार से जुड़े थे तथा संत पीपाजी महाराज एक राजपूत थे, जिन्होने अहिंसक सिलाई कर्म को अपनाया। इस तरह पीपा दर्जी जाति एक राजपूत वर्ग है और नामदेव छीपा जाति (छपाई करने वाले) से पूरी तरह भिन्न है और इनके बीच किसी प्रकार का मेल-मिलाप नहीं है, लेकिन सिलाई कार्य को लेकर दोनों जातियो में भ्रम की स्थिति बनी हुई है।
Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।