23.5.25

जैन पंथ के 24 तीर्थंकर: जैन धर्म के सिद्धांत और महत्व

            जैन पंथ के 24 तीर्थंकर: जैन धर्म के सिद्धांत और महत्व
                                                               





मित्रों ,धर्म -आध्यात्म के विडिओ प्रस्तुत करने की शृंखला मे आज हम "जैन पंथ के 24 तीर्थंकर: जैन धर्म के सिद्धांत और महत्व : की चर्चा कर रहे हैं -
जैन धर्म श्रमण संस्कृति से निकला धर्म है। इसके प्रवर्तक  २४ तीर्थंकर हैं, जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) तथा अन्तिम तीर्थंकर भगवान वर्धमान महावीर हैं। जैन धर्म की अत्यन्त प्राचीनता सिद्ध करने वाले अनेक उल्लेख साहित्य और विशेषकर पौराणिक साहित्यों में प्रचुर मात्रा में हैं।
 श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन धर्म के दो सम्प्रदाय हैं। 
समयसार एवं तत्वार्थ सूत्र आदि इनके प्रमुख ग्रन्थ हैं। 
जैनों के प्रार्थना - पूजास्थल, जिनालय या मन्दिर कहलाते हैं।
'जैन' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित '। जो 'जिन' के अनुयायी हैं उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है संस्कृत के 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' का अर्थ   जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी तन, मन, वाणी को जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त अर्हंत भगवान को जिनेन्द्र या जिन कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म। जिन का अन्य पर्यायवाची शब्द अर्हत/अर्हंत भी है प्राचीन काल में जैन धर्म को आर्हत् धर्म कहा जाता था।
अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। इसे बड़ी सख्ती से पालन किया जाता है खानपान आचार नियम मे विशेष रुप से देखा जा सकता है‌। जैन दर्शन में कण-कण स्वतंत्र है इस सृष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ताधर्ता नही है। सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है। जैन दर्शन में भगवान न कर्ता और न ही भोक्ता माने जाते हैं। जैन दर्शन मे सृष्टिकर्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया है। जैन धर्म में अनेक शासन देवी-देवता हैं पर उनकी आराधना को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता। जैन धर्म में तीर्थंकरों जिन्हें जिनदेव, जिनेन्द्र या वीतराग भगवान कहा जाता है इनकी आराधना का ही विशेष महत्व है। इन्हीं तीर्थंकरों का अनुसरण कर आत्मबोध, ज्ञान और तन और मन पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है 

जैन धर्म में भगवान

   जैन ईश्वर को मानते हैं जो सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नही | जैन धर्म में जिन या अरिहन्त और सिद्ध को ईश्वर मानते हैं। अरिहंतो और केवलज्ञानी की आयुष्य पूर्ण होने पर जब वे जन्ममरण से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त करते है तब उन्हें सिद्ध कहा जाता है। उन्हीं की आराधना करते हैं और उन्हीं के निमित्त मंदिर आदि बनवाते हैं। जैन ग्रन्थों के अनुसार अर्हत् देव ने संसार को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि बताया है। जगत का न तो कोई कर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देनेवाला है। अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं। जीव या आत्मा का मूल स्वभान शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंदमय है, केवल पुदगल या कर्म के आवरण से उसका मूल स्वरुप आच्छादित हो जाता है। जिस समय यह पौद्गलिक भार हट जाता है उस समय आत्मा परमात्मा की उच्च दशा को प्राप्त होता है।

तीर्थंकर

जैन धर्म मे 24 तीर्थंकरों को माना जाता है। तीर्थंकर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते है। इस काल के २४ तीर्थंकर है-
क्रमांक तीर्थंकर


1 ऋषभदेव- इन्हें 'आदिनाथ' भी कहा जाता है


2 अजितनाथ
3 सम्भवनाथ
4 अभिनंदन जी
5 सुमतिनाथ जी
6 पद्मप्रभु जी

                                                        पद्मप्रभु जी भगवान 



7 सुपार्श्वनाथ जी
8 चंदाप्रभु जी
9 सुविधिनाथ- इन्हें 'पुष्पदन्त' भी कहा जाता है
10 शीतलनाथ जी
11 श्रेयांसनाथ

                                                    Bhagwan Shreyansnath 




12 वासुपूज्य जी
13 विमलनाथ जी
14 अनंतनाथ जी
15 धर्मनाथ जी
16 शांतिनाथ

                                                           शांतिनाथ  भगवान 


17 कुंथुनाथ
18 अरनाथ जी
19 मल्लिनाथ जी
20 मुनिसुव्रत जी
21 नमिनाथ जी                                                    
22 अरिष्टनेमि जी - इन्हें 'नेमिनाथ' भी कहा जाता है। जैन मान्यता में ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे।



23 पार्श्वनाथ
24 वर्धमान महावीर - इन्हें वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर भी कहा जाता है।

जैन पन्थ के सिद्धान्त:-

रागद्वेषी शत्रुओं पर विजय पाने के कारण 'वर्धमान महावीर' की उपाधि 'जिन' थी। अतः उनके द्वारा प्रचारित धर्म 'जैन' कहलाता है। जैन पन्थ में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है। महावीर ने अपने शिष्यों तथा अनुयायियों को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इन्द्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैन पन्थ में सच्ची अहिंसा बताया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवन है, अतएव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी इस धर्म में निषेध है।

जैन धर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कर्म महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है। जैनधर्म में ईश्वर को जगत् का कर्त्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है। यहाँ नित्य, एक अथवा मुक्त ईश्वर को अथवा अवतारवाद को स्वीकार नहीं किया गया। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अन्तराय, आयु, नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है तो वह ईश्वर बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाने के कारण वह सृष्टि के प्रपंच में नहीं पड़ता।

जैन धर्म के मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं 

श्वेताम्बर (उजला वस्त्र पहनने वाला)और
 दिगम्बर (नग्न रहने वाला) ।
जैनधर्म में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नाम के छ: द्रव्य माने गए हैं। ये द्रव्य लोकाकाश में पाए जाते हैं, अलोकाकाश में केवल आकाश ही है। 
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध सँवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व है। 
इन तत्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन के बाद सम्यग्ज्ञान और फिर व्रत, तप, संयम आदि के पालन करने से सम्यक्चारित्र उत्पन्न होता है। इन तीन रत्नों को मोक्ष का मार्ग बताया है। 
जैन सिद्धान्त में रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त कर लेने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। 
ये 'रत्नत्रय ' हैं-सम्यक् दर्शन ,सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र्य।
मोक्ष होने पर जीव समस्त कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है, और ऊर्ध्वगति होने के कारण वह लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला पर अवस्थित हो जाता है। उसे अनंत दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य की प्राप्ति होती है और वह अनन्तकाल तक वहाँ निवास करता है, वहाँ से लौटकर नहीं आता।
अनेकान्तवाद जैन पन्थ का तीसरा मुख्य सिद्धान्त है। इसे अहिंसा का ही व्यापक रूप समझना चाहिए। राग द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत न होकर दूसरे के दृष्टिबिन्दु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकान्तवाद है। इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी मत या सिद्धान्त को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितयों और समस्याओं को लेकर उद्भूत हुआ है, अतएव प्रत्येक मत में अपनी अपनी विशेषताएँ हैं। अनेकान्तवादी इन सबका समन्वय करके आगे बढ़ता है।
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18.5.25

महाभारत की कथा सिर्फ 8 मिनिट मे



                        महाभारत की संक्षिप्त कथा 



मित्रों ,पौराणिक कहानियाँ  के विडिओ प्रस्तुत करने की शृंखला मे आज "महाभारत की संक्षिप्त  कथा "पर चर्चा कर रहे हैं 
महाभारत प्राचीन भारत का एक विशाल और प्रसिद्ध महाकाव्य है, जिसकी कथा पांडवों और कौरवों के बीच हुए युद्ध से संबंधित है | यह कथा हस्तिनापुर की गद्दी के लिए हुए संघर्ष को दर्शाती है। इस महाकाव्य के रचयिता वेदव्यास हैं, जिन्हें कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास के नाम से भी जाना जाता है।
महाभारत की रचना वेदव्यास के सबसे मूल्यवान कार्यों में से एक है जो युगों से लोगों को प्रबुद्ध कर रहा है।
यह कई महत्वपूर्ण तथ्यों के साथ बनाया गया है जो एक व्यक्ति को समृद्ध जीवन के लिए
आवश्यक मानव और नैतिक और नैतिक मूल्यों को सीखने और बनाए रखने के लिए सिखाता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे समाज के नियमों का पालन करना चाहिए।



यह तथ्य महाभारत की लघु कथाओं में स्पष्ट रूप से स्थापित है।
महाभारत अनंत ज्ञान और जीवन जीने के तरीके का स्रोत है।
यह चचेरे भाइयों के बीच निरंतर घृणा और प्रतिशोध के इर्द-गिर्द घूमती है,
जो अंततः कुरुक्षेत्र की सबसे बड़ी लड़ाई की ओर ले जाती है।
अब हम  बच्चों के लिए संक्षेप में महाभारत की कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं  
हस्तिनापुर के राजा शांतनु का विवाह सुंदर नदी देवी गंगा से हुआ है,
जो एक बुद्धिमान और मजबूत राजकुमार देवव्रत (भीष्म) को जन्म देती हैं।
आखिरकार, शांतनु व्यास की मां सत्यवती से शादी करता है,
शांतनु वादा करता है  सत्यवती से कि उसका भविष्य का बेटा राजा होगा।
सत्यवती से शांतनु के दो पुत्र हैं, लेकिन दोनों अल्पायु हैं।
सत्यवती अपने बड़े पुत्र व्यास से अपने मृत पुत्र विचित्रवीर्य की विधवाओं अंबिका और
अम्बालिका के साथ बच्चों को जन्म देने के लिए कहती है।
अंबिका एक अंधे बच्चे को जन्म देती है, जिसका नाम धृतराष्ट्र और
उसकी बहन अम्बालिका ने एक बच्चे को जन्म दिया जिसका नाम पांडु  था| 
धृतराष्ट्र, अपने अंधेपन के कारण, सिंहासन लेने के लिए अयोग्य हो जाता है,
और उसका सौतेला भाई पांडु राजा बन जाता है।
पांडु को श्राप है कि यौन संबंध बनाने पर उसकी मृत्यु हो जाएगी।
पांडु की पहली पत्नी कुंती को संतान प्राप्ति का विशेष वरदान प्राप्त है और वह गुणी युधिष्ठिर,
अत्यधिक मजबूत भीम और महान योद्धा अर्जुन को जन्म देती है। पांडु से विवाह करने से पहले,
कुंती अपने वरदान की परीक्षा लेने की कोशिश करती है, और कर्ण को जन्म देती है।
बदनामी के डर से वह उसे छोड़ देती है।
पांडु की दूसरी पत्नी माद्री, संतान प्राप्ति के कुंती के रहस्य को उधार लेती है और
जुड़वां नकुल और सहदेव को जन्म देती है।
ये पांचों भाई पांडव हैं और कथा के नायक हैं। उनके बीच  एक सामान्य पत्नी द्रौपदी है।
राजा पांडु अपनी दूसरी पत्नी के साथ संभोग के बाद मर जाते हैं,
और उनके भाई धृतराष्ट्र राजा बन जाते हैं।
धृतराष्ट्र और उनकी पत्नी गांधारी के सौ बच्चे कौरव हैं। दुर्योधन उनमें सबसे बड़ा है।
पांडव और कौरव दोनों एक-दूसरे के प्रति नापसंदगी के साथ बड़े होते हैं।
पांडव अपनी शारीरिक शक्ति, सकारात्मक दृष्टिकोण और अच्छे कर्मों से देश की प्रजा के बीच लोकप्रिय हो गए।
दूसरी ओर, कौरवों को ईर्ष्यालु और दुष्ट  के रूप मे  देखा जाता है।
ईर्ष्यालु और दुष्ट
सबसे बड़ा कौरव, दुर्योधन, अपने छोटे भाई दुस्यासन, करीबी दोस्त
(और पांडवों के सौतेले भाई) कर्ण और मामा शकुनि के साथ मिलकर पांडवों को उनके राज्य से दूर करता है।
वे पांडवों को पासे के खेल में चुनौती देते हैं, और उन्हें विश्वासघात से हरा देते हैं।
पांडव अपनी पत्नी द्रौपदी सहित सब कुछ कौरवों के हाथों खो देते हैं।
कौरव पांडवों पर 12 साल का वनवास लगाते हैं जिसके बाद एक साल का अज्ञातवास होता है। इस अवधि के दौरान, कौरव अपने चचेरे भाइयों को मारने के लिए कई प्रयास करते हैं लेकिन पांडव अपने मामा भगवान श्री कृष्ण के समर्थन से बच जाते हैं
अपने 13 साल के वनवास को पूरा करने के बाद, पांडव साम्राज्य के अपने हिस्से को वापस मांगते हैं। लेकिन उनके चचेरे भाई इसे देने से इनकार कर देते हैं, जिससे कुरुक्षेत्र का महान युद्ध होता है।
कुरु कुल के खेतों में लगभग 18 दिनों तक युद्ध चला और इसलिए इसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा। कृष्ण द्वारा अर्जुन को बताई गई पवित्र हिंदू ग्रंथ, भगवद गीता, इस प्रकरण के दौरान विकसित हुई है।
पांडव कृष्ण के समर्थन से युद्ध जीतते हैं लेकिन जीत उनके रिश्तेदारों और प्रियजनों के जीवन की कीमत पर होती है।
महाभारत एक महान शिक्षा ग्रंथ है। इसमें अनेक ऐसे सबक हैं जो जीवन के हर क्षेत्र में उपयोगी हैं। महाभारत से हम एकजुटता, अहंकार, और सही-गलत के बीच अंतर समझने जैसी कई बातें सीख सकते हैं।

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6.5.25

सैनी समाज की उत्पत्ति का गौरवशाली असली इतिहास |कोइरी जाति?कुशवाहा



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सैनी समाज की  उत्पति को लेकर काफी मान्यताए है लेकिन सबसे प्रचलित मान्यता यह है कि यह शूरसेन के वंशज है।
सैनी समाज एक सामाजिक समूह है जो मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के भारतीय राज्यों में पाया जाता है। सैनी समुदाय की उत्पत्ति का पता प्राचीन काल से लगाया जा सकता है, और उनका इतिहास अक्सर राजपूतों से जुड़ा होता है।

सैनी क्षत्रिय (योद्धा) वर्ण के वंशज होने का दावा करते हैं, जो हिंदू धर्म में चार मुख्य सामाजिक विभाजनों में से एक है। अपनी पारंपरिक कथा के अनुसार, वे खुद को पौराणिक राजा शूरसेन के वंशज मानते हैं, जिन्होंने वर्तमान उत्तर प्रदेश के एक ऐतिहासिक शहर मथुरा पर शासन किया था।

ऐतिहासिक रूप से, सैनी सैन्य और कृषि व्यवसायों से जुड़े रहे हैं। उनके पास एक मजबूत मार्शल परंपरा है और पूरे इतिहास में विभिन्न सैन्य अभियानों में भाग लिया है। सैनी परिवार खेती से भी जुड़ा हुआ है, जिनमें से कई ज़मीन के मालिक हैं और खेती करते हैं।

सैनी कौन सी बिरादरी में आते हैं?

सैनी एक भारतीय उपनाम है, जिसका प्रयोग उत्तर भारत में विभिन्न समुदायों द्वारा किया जाता है। उत्तर प्रदेश में इसका प्रयोग कुशवाह या कोइरी जाति के लोग करते हैं। राजस्थान और हरियाणा में इसे अक्सर माली जाति से जोड़ा जाता है। सैनी भी पंजाब का एक समुदाय है, जिसे 2016 से राज्य की अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल किया गया है।

सैनी के पूर्वज कौन हैं?

सैनियों का मानना ​​है कि उनके पूर्वज यादव थे और यह वही वंश था जिसमें कृष्ण का जन्म हुआ था। यादवों की 43वीं पीढ़ी में राजा विदार्थ के पुत्र शूर या सूर नामक राजा हुए। राजा शूर के एक पुत्र का नाम 'सैन' था।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सैनी समाज की उत्पत्ति और इतिहास मौखिक परंपराओं, किंवदंतियों और सामुदायिक लोककथाओं पर आधारित हैं, जो हमेशा प्रलेखित ऐतिहासिक रिकॉर्ड के साथ संरेखित नहीं हो सकते हैं। नतीजतन, समुदाय के भीतर उनके इतिहास और मूल कहानियों के विभिन्न संस्करण मौजूद हो सकते हैं।

राजपूत और सैनी में क्या अंतर है?

वे भारत में दो अलग-अलग समुदाय हैं, जिनकी ऐतिहासिक उत्पत्ति और सामाजिक स्थिति अलग-अलग है। सैनी समुदाय को कई राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का हिस्सा माना जाता है, जबकि राजपूतों को पारंपरिक रूप से भारतीय जाति व्यवस्था में एक अगड़ी जाति के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। 

क्या माली और सैनी एक ही हैं?

क्या माली और सैनी एक ही है : नहीं माली और सैनी सनातन धर्म की दो अलग-अलग जातियां हैं , माली बगीचे में काम करने वाले व्यक्ति को कहा जाता है माली कार्य है और सैनी एक क्षत्रिय जाती है जो कि उत्तर भारत में पाई जाती है ।

सैनी समाज की कुलदेवी कौन थी?

सैनी समाज की कुलदेवी नाग माता मानी जाती है। कुछ सैनी परिवारों के लिए, चामुंडा माता भी कुलदेवी हो सकती है। कई सैनी परिवारों में, अपनी गोत्र के अनुसार, अलग-अलग कुलदेवियाँ पूजी जाती हैं.

सैनी के कितने गोत्र होते हैं?

सैनी समाज में रिश्ते तय करते समय स्वयं, माँ, एवं दादी का गोत्र ही छोड़ा जायेगा। अब सैनी समाज में शादी नानी के गोत्र में भी हो सकेगी। समाज की बैठक में व्यापक चिन्तन ओर मंथन के बाद तय किया गया की केवल तीन गोत्र छोडने होंगे।

सैनी समाज के गुरु कौन हैं?

सैनी समाज के गुरु कौन हैं : सैनी समाज के गुरु प्रभु महादेव हैं ।

क्या सैनी सूर्यवंशी हैं?

भगवान बुद्ध के भी पूर्वज थे, अशोक महान के भी पूर्वज थे। समय की गति के साथ शाखाएं फूटती हैं किन्तु जड़ एक और स्थिर रहती है। सैनी सूर्यवंशी हैं सैनी नाम के भीतर भागीरथी,गोला, शुरसेन, माली, कुशवाह, शाक्य, मौर्य, काम्बोज आदि समाहित हैं।

सैनी किस धर्म को मानते हैं?

सैनी का भगवान कौन है : सैनी सनातन धर्म के सभी भगवानों को मानते हैं , सैनी जाति का एक हिस्सा सिख धर्म को भी मानता है सिख सैनी अपने धर्म गुरुओं के बताएं धर्म मार्ग पर चलते हैं
 
यह ध्यान देने योग्य है कि ऐतिहासिक और सामाजिक उत्पत्ति का अध्ययन जटिल हो सकता है और अलग-अलग व्याख्याओं के अधीन हो सकता है। इसलिए, विषय की व्यापक समझ के लिए विद्वानों के स्रोतों, ऐतिहासिक ग्रंथों और मानवशास्त्रीय अध्ययनों को संदर्भित करने की हमेशा सिफारिश की जाती है।

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4.5.25

शिक्षा की शक्ति | मास्टर जी और राधा की कहानी

 



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शिक्षाप्रद कहानियाँ  के विडिओ  प्रस्तुत करने  की शृंखला मे आज हम शिक्षा की शक्ति  कहानी  प्रस्तुत कर रहे हैं 

शिक्षा की शक्ति
गाँव की छोटी सी लड़की राधा, मास्टरजी की इस बात को पूरी तरह से समझती थी। उसकी चमकदार आँखें हमेशा किसी नई चीज़ को जानने की तड़प लगाती रहती थीं। एक बार, मास्टरजी ने कक्षा में एक कहानी सुनाई थी, जिसमें एक डॉक्टर गरीबों की सेवा करता था। उस कहानी ने राधा के मन में डॉक्टर बनने की एक अटूट इच्छा जगा दी थी।
राधा की चाह
“मास्टरजी, मैं बड़ी होकर डॉक्टर बनना चाहती हूँ,” राधा ने एक दिन मास्टरजी से कहा।
मास्टरजी मुस्कुराए और बोले, “तुम बहुत होशियार हो, राधा। तुम्हारा सपना जरूर पूरा होगा।”
लेकिन राधा का परिवार बहुत गरीब था। उसके माता-पिता खेती करते थे और उनके पास राधा की पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए पैसे नहीं थे। राधा की माँ अक्सर उसे समझाती थी, “बेटी, तुम्हें पढ़ाई छोड़कर घर के काम में हाथ बटाना चाहिए।”
समस्या राधा की
राधा बहुत दुखी हुई। उसने मास्टरजी से अपनी समस्या बताई। मास्टरजी ने राधा के माता-पिता से बात की और उन्हें समझाया कि शिक्षा ही उनकी बेटी का भविष्य है। उन्होंने राधा को एक स्कॉलरशिप दिलाई और उसे शहर के एक अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाया।
शहर में राधा के लिए सब कुछ नया था। उसे बहुत मुश्किलें हुईं, लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी। वह दिन-रात एक करके पढ़ाई करती थी। मास्टरजी की प्रेरणा और अपने परिवार का प्यार उसके लिए हमेशा प्रेरणास्रोत रहा।
कॉलेज में राधा ने बहुत सारे दोस्त बनाए। उसने कई तरह की गतिविधियों में भाग लिया। वह कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेती थी। राधा एक मेधावी छात्रा थी और उसने अपनी पढ़ाई में हमेशा टॉप किया। कई सालों बाद, राधा एक सफल डॉक्टर बन गई। उसने अपने गाँव में एक छोटा सा क्लिनिक खोला और गरीब लोगों का मुफ्त में इलाज करने लगी। जब भी वह अपने गाँव आती, तो सबसे पहले मास्टरजी के घर जाती।
मास्टर जी और राधा
मास्टरजी ने राधा को गले लगाते हुए कहा, “तुमने मेरा सपना पूरा कर दिया, बेटा।”
राधा ने मुस्कुराते हुए कहा, “यह सब आपके कारण ही संभव हुआ, मास्टरजी। आप मेरे लिए हमेशा प्रेरणा रहेंगे।”
राधा के क्लिनिक में हर दिन कई मरीज आते थे। एक बार एक छोटी बच्ची बीमार हो गई थी। उसके माता-पिता बहुत परेशान थे। राधा ने बच्ची का इलाज किया और उसे ठीक कर दिया। बच्ची के माता-पिता बहुत खुश हुए और उन्होंने राधा को धन्यवाद दिया।
उसने लोगों की सेवा करके बहुत संतुष्टि महसूस की।
राधा का क्लिनिक और गाँव का बदलाव
क्लिनिक गाँव के लोगों के लिए एक आशीर्वाद बन गया था। वह न केवल बीमारों का इलाज करती थी, बल्कि लोगों को स्वच्छता और पोषण के बारे में भी जागरूक करती थी। उसने गाँव में कई स्वास्थ्य शिविर आयोजित किए, जिनमें लोगों को मुफ्त दवाएँ और जाँचें उपलब्ध कराई गईं।
राधा के प्रयासों से गाँव का स्वरूप ही बदल गया। लोग अब स्वच्छता का ध्यान रखने लगे थे। बच्चे स्कूल जाने लगे थे। गाँव में एक नई ऊर्जा का संचार हो गया था।
सपने राधा के
अपने गाँव को स्वस्थ बनाने के बाद, राधा ने और बड़े सपने देखने शुरू कर दिए। वह चाहती थी कि हर गाँव में एक डॉक्टर हो। उसने एक गैर सरकारी संगठन (NGO) शुरू किया और देश के विभिन्न गाँवों में जाकर लोगों की सेवा करने लगी।
राधा ने अपने NGO के माध्यम से कई स्वास्थ्य केंद्र खोले। उसने डॉक्टरों और नर्सों को प्रशिक्षित किया। उसने गाँवों में जागरूकता अभियान चलाए।
राधा और मास्टरजी की दोबारा मुलाकात
एक दिन, राधा अपने NGO के काम से एक दूरदराज के गाँव में गई। वहाँ उसे एक परिचित चेहरा दिखाई दिया। वह मास्टरजी थे। मास्टरजी अब बहुत बूढ़े हो गए थे, लेकिन उनकी आँखों में वह ही चमक थी।
राधा मास्टरजी के पास गई और उन्हें गले लगा लिया। मास्टरजी ने राधा को आशीर्वाद दिया। उन्होंने कहा, “तुमने मेरा सपना पूरा कर दिया, बेटा।”
राधा ने कहा, “यह सब आपके कारण ही संभव हुआ, मास्टरजी। आप मेरे लिए हमेशा प्रेरणा रहेंगे।”
कहानी का अंत
राधा ने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा में लगा दिया। वह एक प्रेरणास्रोत बन गई। उसके बारे में कई किताबें और लेख लिखे गए। उसे कई पुरस्कार मिले। लेकिन राधा कभी नहीं भूली कि वह कहाँ से आई है और उसने क्या हासिल किया है। वह हमेशा अपने गाँव और मास्टरजी को याद करती रही।
कहानी का संदेश 
यह कहानी हमें बताती है कि एक व्यक्ति अगर दृढ़ निश्चयी हो तो वह कुछ भी हासिल कर सकता है। राधा की कहानी हमें प्रेरित करती है कि हम भी अपने सपनों को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत करें। यह कहानी हमें यह भी बताती है कि शिक्षा ही एक व्यक्ति को सशक्त बना सकती है।
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इस कहानी के लिए "कहानीवाला" का आभार | 

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