9.9.17

बौद्ध धर्म के बारे मे ज्ञातव्य तथ्य



     

बुद्ध का वास्तविक नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म कपिलवस्तु (शाक्य महाजनपद की राजधानी) के पास लुंबिनी (वर्तमान में दक्षिण मध्य नेपाल) में हुआ था। इसी स्थान पर, तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक ने बुद्ध की स्मृति में एक स्तम्भ बनाया था।
सिद्धार्थ के पिता शाक्यों के राजा शुद्धोदन थे। परंपरागत कथा के अनुसार, सिद्धार्थ की माता महामाया उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गयी थी। कहा जाता है कि उनका नाम रखने के लिये 8 ऋषियो को आमन्त्रित किया गया था, सभी ने 2 सम्भावनायें बताई थी, (1) वे एक महान राजा बनेंगे (2) वे एक साधु या परिव्राजक बनेंगे। इस भविष्य वाणी को सुनकर राजा शुद्धोदन ने अपनी योग्यता की हद तक सिद्धार्थ को साधु न बनने देने की बहुत कोशिशें की। शाक्यों का अपना एक संघ था। बीस वर्ष की आयु होने पर हर शाक्य तरुण को शाक्यसंघ में दीक्षित होकर संघ का सदस्य बनना होता था। सिद्धार्थ गौतम जब बीस वर्ष के हुये तो उन्होंने भी शाक्यसंघ की सदस्यता ग्रहण की और शाक्यसंघ के नियमानुसार सिद्धार्थ को शाक्यसंघ का सदस्य बने हुये आठ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। वे संघ के अत्यन्त समर्पित और पक्के सदस्य थे। संघ के मामलों में वे बहुत रूचि रखते थे। संघ के सदस्य के रूप में उनका आचरण एक उदाहरण था और उन्होंने स्वयं को सबका प्रिय बना लिया था। संघ की सदस्यता के आठवें वर्ष में एक ऐसी घटना घटी जो शुद्धोदन के परिवार के लिये दुखद बन गयी और सिद्धार्थ के जीवन में संकटपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी। शाक्यों के राज्य की सीमा से सटा हुआ कोलियों का राज्य था। रोहणी नदी दोनों राज्यों की विभाजक रेखा थी। शाक्य और कोलिय दोनों ही रोहिणी नदी के पानी से अपने-अपने खेत सींचते थे। हर फसल पर उनका आपस में विवाद होता था कि कौन रोहिणी के जल का पहले और कितना उपयोग करेगा। ये विवाद कभी-कभी झगड़े और लड़ाइयों में बदल जाते थे। जब सिद्धार्थ २८ वर्ष के थे, रोहणी के पानी को लेकर शाक्य और कोलियों के नौकरों में झगड़ा हुआ जिसमें दोनों ओर के लोग घायल हुये। झगड़े का पता चलने पर शाक्यों और कोलियों ने सोचा कि क्यों न इस विवाद को युद्ध द्वारा हमेशा के लिये हल कर लिया जाये। शाक्यों के सेनापति ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के प्रश्न पर विचार करने के लिये शाक्यसंघ का एक अधिवेशन बुलाया और संघ के समक्ष युद्ध का प्रस्ताव रखा। सिद्धार्थ गौतम ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और कहा युद्ध किसी प्रश्न का समाधान नहीं होता, युद्ध से किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी, इससे एक दूसरे युद्ध का बीजारोपण होगा। सिद्धार्थ ने कहा मेरा प्रस्ताव है कि हम अपने में से दो आदमी चुनें और कोलियों से भी दो आदमी चुनने को कहें। फिर ये चारों मिलकर एक पांचवा आदमी चुनें। ये पांचों आदमी मिलकर झगड़े का समाधान करें। सिद्धार्थ का प्रस्ताव बहुमत से अमान्य हो गया साथ ही शाक्य सेनापति का युद्ध का प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया। शाक्यसंघ और शाक्य सेनापति से विवाद न सुलझने पर अन्ततः सिद्धार्थ के पास तीन विकल्प आये। तीन विकल्पों में से उन्हें एक विकल्प चुनना था 

(1) सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेना, 
(2) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिए राजी होना, 
(3) फाँसी पर लटकना या देश निकाला स्वीकार करना। उन्होंने तीसरा विकल्प चुना और परिव्राजक बनकर देश छोड़ने के लिए राज़ी हो गए।
परिव्राजक बनकर सर्वप्रथम सिद्धार्थ ने पाँच ब्राह्मणों के साथ अपने प्रश्नों के उत्तर ढूंढने शुरू किये। वे उचित ध्यान हासिल कर पाए, परंतु उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले। फ़िर उन्होने तपस्या करने की कोशिश की। वे इस कार्य में भी वे अपने गुरुओं से भी ज़्यादा, निपुण निकले, परंतु उन्हे अपने प्रश्नों के उत्तर फ़िर भी नहीं मिले। फ़िर उन्होने कुछ साथी इकठ्ठे किये और चल दिये अधिक कठोर तपस्या करने। ऐसे करते करते छः वर्ष बाद, बिना अपने प्रश्नों के उत्तर पाएं, भूख के कारण मृत्यु के करीब से गुज़रे, वे फ़िर कुछ और करने के बारे में सोचने लगे। इस समय, उन्हें अपने बचपन का एक पल याद आया, जब उनके पिता खेत तैयार करना शुरू कर रहे थे। उस समय वे एक आनंद भरे ध्यान में पड़ गये थे और उन्हे ऐसा महसूस हुआ था कि समय स्थिर हो गया है।
कठोर तपस्या छोड़कर उन्होने अष्टांगिक मार्ग ढूंढ निकाला, जो बीच का मार्ग भी कहलाता जाता है क्योंकि यह मार्ग दोनो तपस्या और असंयम की पराकाष्ठाओं के बीच में है। अपने बदन में कुछ शक्ति डालने के लिये, उन्होने एक बकरी-वाले से कुछ दूध ले लिया। वे एक पीपल के पेड़ (जो अब बोधि पेड़ कहलाता है) के नीचे बैठ गये प्रतिज्ञा करके कि वे सत्य जाने बिना उठेंगे नहीं। ३५ की उम्र पर, उन्होने बोधि पाई और वे बुद्ध बन गये। उनका पहिला धर्मोपदेश वाराणसी के पास सारनाथ मे था।
अपने बाकी के ४५ वर्ष के लिये, गौतम बुद्ध ने गंगा नदी के आस-पास अपना धर्मोपदेश दिया, धनवान और कंगाल लोगों दोनो को। उन्होने दो सन्यासियों के संघ की भी स्थापना जिन्होने बुद्ध के धर्मोपदेश को फ़ैलाना जारी रखा।
सत्य और अहिंसा के मार्ग को दिखाने वाले भगवान बुद्ध दिव्य आध्यात्मिक विभूतियों में अग्रणी माने जाते हैं। भगवान बुद्ध के बताए आठ सिद्धांत को मानने वाले भारत समेत दुनिया भर में करोड़ो लोग हैं।भगवान बुद्ध के अनुसार धम्म जीवन की पवित्रता बनाए रखना और पूर्णता प्राप्त करना है। साथ ही निर्वाण प्राप्त करना और तृष्णा का त्याग करना है। इसके अलावा भगवान बुद्ध ने सभी संस्कार को अनित्य बताया है। भगवान बुद्ध ने मानव के कर्म को नैतिक संस्थान का आधार बताया है। यानी भगवान बुद्ध के अनुसार धम्म यानी धर्म वही है। जो सबके लिए ज्ञान के द्वार खोल दे। और उन्होने ये भी बताया कि केवल विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है। विद्वान वही है जो अपने की ज्ञान की रोशनी से सबको रोशन करे। धर्म को लोगों की जिंदगी से जोड़ते हुए भगवान बुद्ध ने बताया कि करूणा शील और मैत्री अनिवार्य है। इसके अलावा सामाजिक भेद भाव मिटाने के लिए भी भगवान बुद्ध ने प्रयास करते हुए बताया था कि लोगों का मुल्यांकन जन्म के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर होना चाहिए। भगवान बुद्ध के बताए मार्ग पर दुनिया भर के करोड़ों लोग चलते है। जिससे वो सही राह पर चलकर अपने जीवन को सार्थक बनाते हैं।तथागत गौतम बुद्ध अपने आपको भगवान या ईश्वर नहीं बताते है।
बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और महान दर्शन है। इसा पूर्व 6 वी शताब्धी में बौद्ध धर्म की स्थापना हुई है। बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध है। भगवान बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में लुंबिनी, नेपाल और महापरिनिर्वाण 483 ईसा पूर्व कुशीनगर, भारत में हुआ था। उनके महापरिनिर्वाण के अगले पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला और अगले दो हजार वर्षों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया।
आज, हालाँकि बौद्ध धर्म में तीन सम्प्रदाय हैं: हीनयान या थेरवाद, महायान और वज्रयान, परन्तु बौद्ध धर्म एक ही है किन्तु सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धान्त ही मानते है। बौद्ध धर्म दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।आज      पूरे विश्व में लगभग ५४ करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, जो दुनिया की आबादी का ७वाँ हिस्सा है। आज चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, तिब्बत, लाओस, हांगकांग, ताइवान, मकाउ, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरियासमेत कुल 18 देशों में बौद्ध धर्म 'प्रमुख धर्म' धर्म है। भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी लाखों और करोडों बौद्ध हैं|
बुद्ध की शिक्षाएँ
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद, बौद्ध धर्म के अलग-अलग संप्रदाय उपस्थित हो गये हैं, परंतु इन सब के बहुत से सिद्धांत मिलते हैं।
तथागत बुद्ध ने अपने अनुयायिओं को चार आर्यसत्य अष्टांगिक मार्ग, दस पारमिता, पंचशील आदी शिक्षाओं को प्रदान किए हैं।
चार आर्य सत्य
तथागत बुद्ध का पहला धर्मोपदेश, जो उन्होने अपने साथ के कुछ साधुओं को दिया था, इन चार आर्य सत्यों के बारे में था। बुद्ध ने चार अार्य सत्य बताये हैं।१. दुःख
इस दुनिया में दुःख है। जन्म में, बूढे होने में, बीमारी में, मौत में, प्रियतम से दूर होने में, नापसंद चीज़ों के साथ में, चाहत को न पाने में, सब में दुःख है।२. दुःख कारण
तृष्णा, या चाहत, दुःख का कारण है और फ़िर से सशरीर करके संसार को जारी रखती है।३. दुःख निरोध
तृष्णा से मुक्ति पाई जा सकती है।४. दुःख निरोध का मार्ग
तृष्णा से मुक्ति अष्टांगिक मार्ग के अनुसार जीने से पाई जा सकती है।
अष्टांगिक मार्ग
साँचा:Main:अष्टांगिक मार्ग
बौद्ध धर्म के अनुसार, चौथे आर्य सत्य का आर्य अष्टांग मार्ग है दुःख निरोध पाने का रास्ता। गौतम बुद्ध कहते थे कि चार आर्य सत्य की सत्यता का निश्चय करने के लिए इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए :
१. सम्यक दृष्टि : चार आर्य सत्य में विश्वास करना
२. सम्यक संकल्प : मानसिक और नैतिक विकास की प्रतिज्ञा करना
३. सम्यक वाक : हानिकारक बातें और झूट न बोलना
४. सम्यक कर्म : हानिकारक कर्मों को न करना
५. सम्यक जीविका : कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हानिकारक व्यापार न करना
६. सम्यक प्रयास : अपने आप सुधरने की कोशिश करना
७. सम्यक स्मृति : स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना
८. सम्यक समाधि : निर्वाण पाना और स्वयं का गायब होना
कुछ लोग आर्य अष्टांग मार्ग को पथ की तरह समझते है, जिसमें आगे बढ़ने के लिए, पिछले के स्तर को पाना आवश्यक है। और लोगों को लगता है कि इस मार्ग के स्तर सब साथ-साथ पाए जाते है। मार्ग को तीन हिस्सों में वर्गीकृत किया जाता है : प्रज्ञा, शील और समाधि।
पंचशील
भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायिओं को पांच शीलो का पालन करने की शिक्षा दि हैं।१. अहिंसा
पालि में – पाणातिपाता वेरमनी सीक्खापदम् सम्मादीयामी !
अर्थ – मैं प्राणि-हिंसा से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।२. अस्तेय
पाली में – आदिन्नादाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ – मैं चोरी से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।३. अपरिग्रह
पाली में – कामेसूमीच्छाचारा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ – मैं व्यभिचार से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।४. सत्य
पाली नें – मुसावादा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ – मैं झूठ बोलने से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।४. सभी नशा से विरत
पाली में – सुरामेरय मज्जपमादठटाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी।
अर्थ – मैं पक्की शराब (सुरा) कच्ची शराब (मेरय), नशीली चीजों (मज्जपमादठटाना) के सेवन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
बोधि
गौतम बुद्ध से पाई गई ज्ञानता को बोधि कहलाते है। माना जाता है कि बोधि पाने के बाद ही संसार से छुटकारा पाया जा सकता है। सारी पारमिताओं (पूर्णताओं) की निष्पत्ति, चार आर्य सत्यों की पूरी समझ और कर्म के निरोध से ही बोधि पाई जा सकती है। इस समय, लोभ, दोष, मोह, अविद्या, तृष्णा और आत्मां में विश्वास सब गायब हो जाते है। बोधि के तीन स्तर होते है ः श्रावकबोधि, प्रत्येकबोधि और सम्यकसंबोधि। सम्यकसंबोधि बौध धर्म की सबसे उन्नत आदर्श मानी जाती है।
दर्शन एवं सिद्धान्त
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद, बौद्ध धर्म के अलग-अलग संप्रदाय उपस्थित हो गये हैं, परंतु इन सब के बहुत से सिद्धांत मिलते हैं। सभी बौद्ध सम्प्रदाय तथागत बुद्ध के मूल सिद्धांत ही मानते हैं।मुख्य लेख : बौद्ध दर्शन
प्रतीत्यसमुत्पाद
प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है। प्राणियों के लिये, इसका अर्थ है कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र। क्योंकि सब कुछ अनित्य और अनात्मं (बिना आत्मा के) होता है, कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है। हर घटना मूलतः शुन्य होती है। परंतु, मानव, जिनके पास ज्ञान की शक्ति है, तृष्णा को, जो दुःख का कारण है, त्यागकर, तृष्णा में नष्ट की हुई शक्ति को ज्ञान और ध्यान में बदलकर, निर्वाण पा सकते हैं।
क्षणिकवाद
इस दुनिया में सब कुछ क्षणिक है और नश्वर है। कुछ भी स्थायी नहीं। परन्तु वेदिक मत से विरोध है।
अनात्मवाद
क्षणिकवाद
आत्मा का अर्थ 'मै' होता है। किन्तु, प्राणी शरीर और मन से बने है, जिसमे स्थायित्व नही है। क्षण-क्षण बदलाव होता है। इसलिए, 'मै'अर्थात आत्मा नाम की कोई स्थायी चीज़ नहीं। जिसे लोग आत्मा समझते हैं, वो चेतना का अविच्छिन्न प्रवाह है। आत्मा का स्थान मन ने लिया है।
अनीश्वरवाद
बुद्ध ने ब्रह्म-जाल सूत् में सृष्टि का निर्माण कैसा हुआ, ये बताया है। सृष्टि का निर्माण होना और नष्ट होना बार-बार होता है। ईश्वर या महाब्रह्मा सृष्टि का निर्माण नही करते क्योंकि दुनिया प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात कार्यकरण-भाव के नियम पर चलती है। भगवान बुद्ध के अनुसार, मनुष्यों के दू:ख और सुख के लिए कर्म जिम्मेदार है, ईश्वर या महाब्रह्मा नही। पर अन्य जगह बुद्ध ने सर्वोच्च सत्य को अवर्णनीय कहा है।
शून्यतावाद
शून्यता महायान बौद्ध संप्रदाय का प्रधान दर्शन है।वह अपने ही संप्रदाय के लोगों को महत्व देते हैं।
यथार्थवाद
बौद्ध धर्म का मतलब निराशावाद नहीं है। दुख का मतलब निराशावाद नहीं है, लेकिन सापेक्षवाद और यथार्थवाद हैबुद्ध, धम्म और संघ बौद्ध धर्म के तीन त्रिरत्ने हैं। भिक्षु, भिक्षुणी, उपसका और उपसिका संघ के चार अवयव हैं
बोधिसत्व
 बोधिसत्व
दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करने वाला बोधिसत्व कहलाता है। बोधिसत्व जब दस बलों या भूमियों (मुदिता, विमला, दीप्ति, अर्चिष्मती, सुदुर्जया, अभिमुखी, दूरंगमा, अचल, साधुमती, धम्म-मेघा) को प्राप्त कर लेते हैं तब "बुद्ध" कहलाते हैं। बुद्ध बनना ही बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा है। इस पहचान को बोधि (ज्ञान) नाम दिया गया है। कहा जाता है कि बुद्ध शाक्यमुनि केवल एक बुद्ध हैं - उनके पहले बहुत सारे थे और भविष्य में और होंगे। उनका कहना था कि कोई भी बुद्ध बन सकता है अगर वह दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करते हुए बोधिसत्व प्राप्त करे और बोधिसत्व के बाद दस बलों या भूमियों को प्राप्त करे। बौद्ध धर्म का अन्तिम लक्ष्य है सम्पूर्ण मानव समाज से दुःख का अंत। "मैं केवल एक ही पदार्थ सिखाता हूँ - दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निरोध है, और दुःख के निरोध का मार्ग है" (बुद्ध)। बौद्ध धर्म के अनुयायी अष्टांगिक मार्ग पर चलकर न के अनुसार जीकर अज्ञानता और दुःख से मुक्ति और निर्वाण पाने की कोशिश करते हैं।
सम्प्रदाय
बौद्ध धर्म में संघ का बडा स्थान है। इस धर्म में बुद्ध, धम्म और संघ को 'त्रिरत्न' कहा जाता है। संघ के नियम के बारे में गौतम बुद्ध ने कहा था कि छोटे नियम भिक्षुगण परिवर्तन कर सकते है। उन के महापरिनिर्वाण पश्चात संघ का आकार में व्यापक वृद्धि हुआ। इस वृद्धि के पश्चात विभिन्न क्षेत्र, संस्कृति, सामाजिक अवस्था, दीक्षा, आदि के आधार पर भिन्न लोग बुद्ध धर्म से आबद्ध हुए और संघ का नियम धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगा। साथ ही में अंगुत्तर निकाय के कालाम सुत्त में बुद्ध ने अपने अनुभव के आधार पर धर्म पालन करने की स्वतन्त्रता दी है। अतः, विनय के नियम में परिमार्जन/परिवर्तन, स्थानीय सांस्कृतिक/भाषिक पक्ष, व्यक्तिगत धर्म का स्वतन्त्रता, धर्म के निश्चित पक्ष में ज्यादा वा कम जोड आदि कारण से बुद्ध धर्म में विभिन्न सम्प्रदाय वा संघ में परिमार्जित हुए। वर्तमान में, इन संघ में प्रमुख सम्प्रदाय या पंथ थेरवाद, महायान और वज्रयान है। भारत में बौद्ध धर्म का नवयान संप्रदाय है जो पुर्णत शुद्ध, मानवतावादी और विज्ञानवादी है।
थेरवाद
साँचा:Main:थेरवाद
श्रावकयान
प्रत्येकबुद्धयान
थेरवाद बुद्ध के मौलिक उपदेश ही मानता है।
श्रीलंका, थाईलैंड, म्यान्मार, कम्बोडिया, लाओस, बांग्लादेश, नेपाल आदी देशों में थेरवाद बौद्ध धर्म का प्रभाव हैं।
महायान
साँचा:Main:महायान
बोधिसत्त्वयान
बोधिसत्त्वसुत्रयान
बोधिसत्त्वतन्त्रयान / वज्रयान
महायान में बुद्ध की पूजा करता है।
चीन, जापान, उत्तर कोरिया, वियतनाम, दक्षिण कोरिया आदी देशों में प्रभाव हैं।
वज्रयान
साँचा:Main:वज्रयान
वज्रयान को तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहां जाता हैं।
भूटान में राष्ट्रधर्म
भूटान, तिब्बत और मंगोलिया में प्रभाव
नवयान
साँचा:Main:नवयान
बुद्ध के मूल सिद्धांतों का अनुसरण
महायान, वज्रयान, थेरवाद के कई शुद्ध सिद्धांत
अंधविश्वास नहीं हैं।
विज्ञानवाद पर विश्वास
भारत में (मुख्यत महाराष्ट्र में) प्रभाव
प्रमुख तीर्थ
 बौद्ध धर्म के तीर्थ स्थल
भगवान बुद्ध के अनुयायिओं के लिए विश्व भर में पांच मुख्य तीर्थ मुख्य माने जाते हैं :
भगवान बुद्ध के अनुयायिओं के लिए विश्व भर में पांच मुख्य तीर्थ मुख्य माने जाते हैं :
लुम्बिनी
लुम्बिनी – जहां भगवान बुद्ध का जन्म हुआ।
(2) बोधगया –
जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त हुआ।
(3) सारनाथ –
जहां से बुद्ध ने दिव्यज्ञान देना प्रारंभ किया।
(4) कुशीनगर –
जहां बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ।
(5) दीक्षाभूमि, नागपुर –
जहां भारत में बौद्ध धर्म का पुनरूत्थान हुआ।
यह स्थान नेपाल की तराई में नौतनवां रेलवे स्टेशन से 25 किलोमीटर और गोरखपुर-गोंडा लाइन के नौगढ़ स्टेशन से करीब 12 किलोमीटर दूर है। अब तो नौगढ़ से लुम्बिनी तक पक्की सडक़ भी बन गई है। ईसा पूर्व 563 में राजकुमार सिद्धार्थ गौतम (बुद्ध) का जन्म यहीं हुआ था। हालांकि, यहां के बुद्ध के समय के अधिकतर प्राचीन विहार नष्ट हो चुके हैं। केवल सम्राट अशोक का एक स्तंभ अवशेष के रूप में इस बात की गवाही देता है कि भगवान बुद्ध का जन्म यहां हुआ था। इस स्तंभ के अलावा एक समाधि स्तूप में बुद्ध की एक मूर्ति है। नेपाल सरकार ने भी यहां पर दो स्तूप और बनवाए हैं।
बोधगया
करीब छह साल तक जगह-जगह और विभिन्न गुरुओं के पास भटकने के बाद भी बुद्ध को कहीं परम ज्ञान न मिला। इसके बाद वे गया पहुंचे। आखिर में उन्होंने प्रण लिया कि जब तक असली ज्ञान उपलब्ध नहीं होता, वह पिपल वृक्ष के नीचे से नहीं उठेंगे, चाहे उनके प्राण ही क्यों न निकल जाएं। इसके बाद करीब छह दिन तक दिन रात एक पिपल वृक्ष के नीचे भूखे-प्यासे तप किया। आखिर में उन्हें परम ज्ञान या बुद्धत्व उपलब्ध हुआ। सिद्धार्थ गौतम अब बुद्धत्व पाकर आकाश जैसे अनंत ज्ञानी हो चूके थे। जिस पिपल वृक्ष के नीचे वह बैठे, उसे बोधि वृक्ष यानी ज्ञान का वृक्ष कहां जाता है। वहीं गया को तक बोधगया (बुद्ध गया) के नाम से जाना जाता है।
सारनाथ
बनारस छावनी स्टेशन से छह किलोमीटर, बनारस-सिटी स्टेशन से साढ़े तीन किलोमीटर और सडक़ मार्ग से सारनाथ चार किलोमीटर दूर पड़ता है। यह पूर्वोत्तर रेलवे का स्टेशन है और बनारस से यहां जाने के लिए सवारी तांगा और रिक्शा आदि मिलते हैं। सारनाथ में बौद्ध-धर्मशाला है। यह बौद्ध तीर्थ है। लाखों की संख्या में बौद्ध अनुयायी और बौद्ध धर्म में रुचि रखने वाले लोग हर साल यहां पहुंचते हैं। बौद्ध अनुयायिओं के यहां हर साल आने का सबसे बड़ा कारण यह है कि भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था। सदियों पहले इसी स्थान से उन्होंने धर्म-चक्र-प्रवर्तन प्रारंभ किया था। बौद्ध अनुयायी सारनाथ के मिट्टी, पत्थर एवं कंकरों को भी पवित्र मानते हैं। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुओं में अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तंभ, भगवान बुद्ध का प्राचीन मंदिर, धामेक स्तूप, चौखंडी स्तूप, आदि शामिल हैं।
कुशीनगर
कुशीनगर बौद्ध अनुयायिओं का बहुत बड़ा पवित्र तीर्थ स्थल है। भगवान बुद्ध कुशीनगर में ही महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए। कुशीनगर के समीप हिरन्यवती नदी के समीप बुद्ध ने अपनी आखरी सांस ली। रंभर स्तूप के निकट उनका अंतिम संस्कार किया गया। उत्तर प्रदेश के जिला गोरखपुर से 55 किलोमीटर दूर कुशीनगर बौद्ध अनुयायिओं के अलावा पर्यटन प्रेमियों के लिए भी खास आकर्षण का केंद्र है। 80 वर्ष की आयु में शरीर त्याग से पहले भारी संख्या में लोग बुद्ध से मिलने पहुंचे। माना जाता है कि 120 वर्षीय ब्राह्मण सुभद्र ने बुद्ध के वचनों से प्रभावित होकर संघ से जुडऩे की इच्छा जताई। माना जाता है कि सुभद्र आखरी भिक्षु थे जिन्हें बुद्ध ने दीक्षित किया।
दीक्षाभूमी
दीक्षाभूमि, नागपुर महाराष्ट्र राज्य के नागपूर शहर में स्थित प्रवित्र एवं महत्त्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ स्थल है। बौद्ध धर्म भारत में 12वी शताब्धी तक रहां, बाद हिंदूओं और मुस्लिमों के हिंसक आतंक से शांतिवादी बौद्ध धर्म का प्रभाव कम होता गया और 12वी शताब्दी में जैसे बौद्ध धर्म भारत से गायब हो गया। 12वी से 20वी शताब्धी तक हिमालयीन प्रदेशों के अलावा पुरे भारत में बौद्ध धर्म के अनुयायिओं की संख्या बहूत ही कम रहीं। लेकिन, दलितों के मसिहा डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर ने 20वी शताब्धी के मध्य में अशोक विजयादशमी के दिन 14 अक्टूबर, 1956 को पहले स्वयं बौद्ध धम्म की दीक्षा अपनी पत्नी डॉ॰ सविता आंबेडकर के साथ ली और वे बौद्ध बने, फिर अपने 5,00,000 हिंदू दलित समर्थकों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। बौद्ध धर्म की दीक्षा देने के लिए बाबासाहेब ने त्रिशरण, पंचशील एवं अपनी 22 प्रतिज्ञाँए अपने नव-बौद्धों को दी। अगले दिन नागपुर में 15 अक्टूबर को फिर बाबासाहेब ने 3,00,000 लोगों को धम्म दीक्षा देकर बौद्ध बनाया, तिसरे दिन 16 अक्टूबर को बाबासाहेब दीक्षा देने हेतू चंद्रपुर गये वहां भी उन्होंने भी 3,00,000 लोगों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह सिर्फ तीन दिन में डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर ने 10,00,000 से अधिक लोगों को बौद्ध धम्म की दिक्षा देकर विश्व के बौद्धों को जनसंख्या 10 लाख से बढा दी। यह विश्व का सबसे बडा धार्मिक रूपांतरण या धर्मांतरण माना जाता है। बौद्ध विद्वान, बोधिसत्व डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर जी ने भारत में बौद्ध धर्म का पुनरूत्थान किया। एक सर्वेक्षण के अनुसार मार्च 1959 तक लगभग 1.5 से 2 करोड़दलितों ने बौद्ध धर्म ग्रहन किया था। 1956 से आज तक हर साल यहाँ देश और विदशों से 20 से 25 लाख बुद्ध और बाबासाहेब के बौद्ध अनुयायी अभिवादन करने के लिए आते है। इस प्रवित्र एवं महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल को महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘अ’वर्ग पर्यटन एवं तीर्थ स्थल का दर्जा भी प्राप्त हुआ दी।
दुनिया के बौद्ध राष्ट्र और उनमें बौद्ध जनसंख्या का प्रतिशत
देश जिनमें अधिकतम बौद्ध रहते हैं[12]बौद्ध प्रतिशत
लाओस 98 %
मंगोलिया 98 %
कम्बोडिया 97 %
जापान 96 %
थाईलैण्ड 95 %
भूटान 94 %
ताइवान 93 %
हांगकांग 93 %
चीन 91 %
म्यान्मार (बर्मा) 90 %
मकाउ 90 %
तिब्बत 90 %
वियतनाम 85 %
श्रीलंका 75 %
क्रिस्मस द्वीप 75 %
उत्तर कोरिया 73 %
सिंगापुर 67 %
तूवा (रूस के गणतंत्र) 65 %
दक्षिण कोरिया 54 %
कालमिकिया (रूस के गणतंत्र) 50 %
मलेशिया 22 %
नेपाल 21 %
बुर्यातिया (रूस के गणतंत्र) 20 %
ब्रुनेई 17 %
बहुसंख्यक बौद्ध देश
आज विश्व में 20 से अधिक देशों (गणतंत्र राज्य भी) में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक या प्रमुख धर्म के रूप में हैं।अधिकृत बौद्ध देश
विश्व में लाओस, कम्बोडिया, भूटान, थाईलैण्ड, म्यानमार और श्रीलंका यह छह देश "अधिकृत" 'बौद्ध देश' है, क्योंकी इन देशों के संविधानों में बौद्ध धर्म को ‘राजधर्म’ या ‘राष्ट्रधर्म’ का दर्जा प्राप्त है।
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8.9.17

स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय :swami dayanand saraswati




     

उन्नीसवीं शताब्दी यूँ तो समाज सुधारकों और धर्म सुधारकों का युग है और इस युग में कई ऐसे महापुरुष हुए जिन्होनें समाज में व्याप्त अन्धकार को दूर कर नयी किरण दिखाने की चेष्टा की. इनमें आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती (Swami Dayananda Saraswati) का नाम सर्वप्रमुख है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से भारतीय संस्कृति को एक श्रेष्ठ संस्कृति के रूप में पुनर्स्थापित किया. ये हिन्दू समाज के रक्षक थे. आर्य समाज आन्दोलन भारत के बढ़ते पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था. उन्होंने “वेदों की और लौटने – Back to Veda” का नारा बुलंद किया था. आज हम दयानंद सरस्वती के जीवन और उनके द्वारा संस्थापित आर्य समाज (Arya Samaj) के विषय में पढ़ेंगे.

दयानंद सरस्वती का जन्म
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 1824 ई. में काठियावाड़, गुजरात में हुआ था. उनके बचपन का नाम मूलशंकर था. बालक मूलशंकर को अपने बाल्यकाल से ही सामजिक कुरीतियों और धार्मिक आडम्बरों से चिढ़ थी. स्वामी दयानंद को भारत के प्राचीन धर्म और संस्कृति में अटूट आस्था थी. उनका कहना था कि वेद भगवान् द्वारा प्रेरित हैं और समस्त ज्ञान के स्रोत हैं. उनके अनुसार वैदिक धर्म के प्रचार से ही व्यक्ति, समाज और देश की उन्नति संभव है. अतः दयानंद सरस्वती ने अपने देशवासियों को पुनः वेदों की ओर लौटने का सन्देश दिया. आर्य समाज की स्थापना के द्वारा उन्होंने हिन्दू समाज में नवचेतना का संचार किया.
कुरीतियों पर प्रहार
    देश में प्रचलित सभी धार्मिक और सामजिक कुरीतियों के खिलाफ स्वामी दयानंद सरस्वती ने बड़ा कदम उठाया. उन्होंने जाति भेद, मूर्ति पूजा, सती-प्रथा, बहु विवाह, बाल विवाह, बलि-प्रथा आदि प्रथाओं का घोर विरोध किया. दयानंद सरस्वती ने पवित्र जीवन तथा प्राचीन हिन्दू आदर्श के पालन पर बल दिया. उन्होंने विधवा विवाह और नारी शिक्षा की भी वकालत की. सबसे ज्यादा उन्हें जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता से चिढ़ थी और इसे समाप्त करने के लिए उन्होंने कई कठोर कदम उठाए. आर्य समाज की स्थापना कर उन्होंने अपने सारे विचारों को मूर्त रूप प्रदान करने की चेष्टा की. 1877 ई. में लाहौर में आर्य समाज के शाखा की स्थापना की गई थी (a branch was established).
आर्य समाज (Arya Samaj) के सिद्धांत
ईश्वर एक है, वह सत्य और विद्या का मूल स्रोत है.
ईश्वर सर्वशक्तिमान, निराकार, न्यायकारी, दयालु, अजर, अमर और सर्वव्यापी है, अतः उसकी उपासना की जानी चाहिए.
सच्चा ज्ञान वेदों में निहित है और आर्यों का परम धर्म वेदों का पठन-पाठन है.
प्रत्येक व्यक्ति को सदा सत्य ग्रहण करने तथा असत्य का त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए.
समस्त समाज का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य जाति की शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नति होनी चाहिए. तभी समस्त विश्व का कल्याण संभव है.
अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए तथा पारस्परिक सम्बन्ध का आधार प्रेम, न्याय और धर्म होना चाहिए.
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उन्नति और भलाई में ही संतुष्ट नहीं रहना चाहिए बल्कि सब की भलाई में अपनी भलाई समझनी चाहिए.
प्रत्येक आदमी को व्यक्तिगत मामलों में आचरण की स्वतंत्रता रहनी चाहिए. लेकिन सर्वहितकारी नियम पालन सर्वोपरि होना चाहिए.
स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना कर भारत के सामजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन को नई दिशा प्रदान की. वे दलितों के उत्थान, स्त्रियों के उद्धार के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व कार्य किये. उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य को प्रोत्साहन दिया. हिंदी भाषा में ग्रंथों की रचना कर इन्होंने राष्ट्रीय गौरव बढ़ाया. इनके पूर्व भारतीय समाज में स्त्री शिक्षा की कोई भी व्यवस्था नहीं थी. इन्होंने स्त्रियों को शिक्षित बनाने पर बल दिया और वेद-पाठ करने की आज्ञा दी. संस्कृत भाषा के महत्त्व को पुनः स्थापित किया गया. इन्होनें ब्रह्मचर्य और चरित्र-निर्माण की दृष्टि से प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के द्वारा छात्रों को शिक्षित करने की प्रथा शुरू की.
इस प्रकार स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से न केवल हिन्दू धर्म को नया रूप देने की चेष्टा की बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को दूर कर उसे शिक्षित तथा सभी बनाने का प्रयास भी किया.
दयानंद सरस्वती की मृत्यु
दयानंद सरस्वती (Swami Dayanand Saraswati’s demise) की मृत्यु के बाद आर्य समाज दो भागों में बँट गया. एक दल का नेतृत्व लाला हरदयाल करते थे जो पश्चिमी शिक्षा पद्धति के समर्थक थे, दूसरे दल का नेतृत्व महात्मा मुंशी राम करते थे जो प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के समर्थक थे. आर्य समाज के प्रयास से अनेक अनाथालयों, गोशालाओं और विधवा आश्रमों का निर्माण किया गया. इस प्रकार हम देखते हैं कि दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज आन्दोलन के माध्यम से हिन्दू समाज में नवचेतना और आत्मसम्मान का संचार किया. इस आन्दोलन के द्वारा धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में जो परिवर्तन हुआ उससे एक नयी राजनीतिक चेतना का जन्म हुआ और हमने अपनी संस्कृति की रक्षा हेतु अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की.
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जैन धर्म का इतिहास :history of Jain dharm

     

दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म जैन धर्म को श्रमणों का धर्म कहा जाता है. जैन धर्म का संस्थापक ऋषभ देव को माना जाता है, जो जैन धर्म के पहले तीर्थंकर थे और भारत के चक्रवर्ती सम्राट भरत के पिता थे. वेदों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ का उल्लेख मिलता है. माना जाता है कि वैदिक साहित्य में जिन यतियों और व्रात्यों का उल्लेख मिलता है वे ब्राह्मण परंपरा के न होकर श्रमण परंपरा के ही थे. मनुस्मृति में लिच्छवि, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रियों को व्रात्यों में गिना है. आर्यों के काल में ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा का वर्णन भी मिलता है. महाभारतकाल में इस धर्म के प्रमुख नेमिनाथ थे:
(1) जैन धर्म के संस्थापक और पहले तीर्थंकर थे- ऋषभदेव.
(2) जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर थे- पार्श्वनाथ
(3) पार्श्वनाथ काशी के इक्ष्वाकु वंशीय राजा अग्रसेन के पुत्र थे
(4) पार्श्वनाथ को 30 साल की उम्र में वैराग्य उत्पन्न हुआ, जिस कारण वो गृह त्यागकर संयासी हो गए.
(5) पार्श्वनाथ के द्वारा दी गई शिक्षा थी- हिंसा न करना, चोरी नृ करना, हमेशा सच बोलना, संपत्ति न रखना.
(6) महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर हैं. ;(7) महावीर का जन्म 540 ई. पू. पहले वैशाली गणतंत्र के क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था.
(8) इनके पिता राजा सिद्धार्थ ज्ञातृक कुल के सरदार थे और माता त्रिशला लिच्छिवी राजा चेटक की बहन थीं.
(9) महावीर की पत्‍नी का नाम यशोदा और पुत्री का नाम अनोज्जा प्रियदर्शनी था.
(10) महावीर के बचपन का नाम वर्द्धमान था.
(11) महावीर का साधना काल 12 साल 6 महीने और 15 दिन का रहा. इस अवधि में भगवान ने तप, संयम और साम्यभाव की विलक्षण साधना की. इसी समय से महावीर जिन (विजेता), अर्हत (पूज्य), निर्ग्रंध (बंधनहीन) कहलाए.
(12) महावीर ने अपना उपदेश प्राकृत यानी अर्धमाग्धी में दिया.
(13) महावीर के पहले अनुयायी उनके दामाद जामिल बने.
(14) प्रथम जैन भिक्षुणी नरेश दधिवाहन की बेटी चंपा थी.
(15) महावीर ने अपने शिष्यों को 11 गणधरों में बांटा था.
(16) आर्य सुधर्मा अकेला ऐसा गंधर्व था जो महावीर की मृत्यु के बाद भी जीवित रहा.
(17) जैन धर्म दो भागों में विभाजित है- श्वेतांबर जो सफेद कपड़े पहनते हैं और दिगंबर जो नग्नावस्था में रहते हैं.
(18) भद्रबाहु के शिष्य दिगंबर और स्थूलभद्र के शिष्य श्वेतांबर कहलाए.
(19) दूसरी जैन सभा 512 में वल्लभी गुजरात में हुई.

(20) जैन धर्म के त्रिरत्न हैं- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक आचरण.
(21) जैन धर्म में ईश्‍वर नहीं आत्मा की मान्यता है.
(22) महावीर पुनर्जन्म और कर्मवाद में विश्वास रखते थे.
(23) जैन धर्म ने अपने आध्यात्मिक विचारों को सांख्य दर्शन से ग्रहण किया.
(24) जैन धर्म को मानने वाले राजा थे- उदायिन, वंदराजा, चंद्रगुप्त मौर्य, कलिंग नरेश खारवेल, राजा अमोघवर्ष, चंदेल शासक.
(25) मौर्योत्तर युग में मथुरा जैन धर्म का प्रसिद्ध केंद्र था.
(26) जैन तीर्थंकरों की जीवनी कल्पसुत्र में है.
(27) जैन तीर्थंकरों में संस्कृत का अच्छा विद्वान नयनचंद्र था.
(28 ) मथुरा कला का संबंध जैन धर्म से है.
(29) 72 साल में महावीर की मृत्यु 468 ई. पू. में बिहार राज्य के पावापुरी में हुई थी.
(30) मल्लराजा सृस्तिपाल के राजप्रसाद में महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ था
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31.8.17

मिर्जा ग़ालिब की जीवनी और शायरिया




शायरियो का शौक रखने वाला हर इन्सान मिर्जा ग़ालिब के नाम से वाकिफ होगा | Mirza Ghalib को शायरी शब्द का पर्यायवाची भी कह सकते है | उनके द्वारा लिखी शायरिया बच्चे जवान और बुढो सबको पसंद आती है | Mirza Ghalib की शायरिया ना केवल भारत और पाकिस्तान बल्कि विश्व के कई देशो में मशहूर है | ग़ालिब ने अपने 70 साल के जीवन में कई शायरिया लिखी है | उनकी शायरियो से पहले हम उनकी जीवनी पर एक नजर डालते है |


मिर्जा ग़ालिब का प्रारम्भिक जीवन

मिर्जा ग़ालिब का जन्म आगरा के काला महल में हुई थी | Mirza Ghalib का परिवार ऐबक परिवार से सम्बन्ध रखता था जो सेल्जुक राजाओ के पतन के बाद समरकंद , अफ़ग़ानिस्तान आ गये थे | Mirza Ghalib के दादाजी मिर्जा कुकन बैग खान सेल्जुक वश के थे जो अहमद शाह के पतन के बाद समरकंद से भारत आ गये थे | उन्होंने दिल्ली ,जयपुर और आगरा काम किया और अंत में आगरा में ही बस गये | उनके चार बेटे और तीन बेटिया थी | मिर्जा अब्दुला बैग खान और मिर्जा नसरुल्ला बैग खान उनके दो बेटो के नाम थे और बाकि के बारे में ज्यादा इतिहास में जानकारी नही है |

मिर्जा अब्दुला बैग खान [मिर्जा ग़ालिब के पिताजी ] ने एक कश्मीरी लडकी इज्जत-उत-निसा बेगम से निकाह किया और वो अपने ससुराल में रहने लग गये | उन्होंने पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निजाम के यहा काम किया | उनकी 1803 में अलवर में युद्ध के दौरान मौत हो गयी और उस समय मिर्जा ग़ालिब केवल पांच साल के थे | Mirza Ghalib के चाचा मिर्जा नसरुल्ला बैग खान ने उनका पालन पोषण किया |
ग़ालिब ने 11 वर्ष की उम्र से ही शायरिया लिखना शुरू कर दिया | Mirza Ghalib सबसे पहले उर्दू में शायरिया लिखते थे हालंकि उनको पारसी और तुर्की भाषा भी आती थी | उनको स्कूल में बचपन में ही पारसी और अरबी भाषा सिखाई गयी | ग़ालिब के बचपन में एक इरानी पर्यटक ने उनको दो साल तक उनके घर रहकर पारसी और अरबी भाषा सिखाई | Mirza Ghalib की अधिकतर पुरानी गजलो में प्यार करने वालो का लिंग और पहचान का पता नही लग सकता है | उनकी प्यार पर लिखी गयी शायरिया पुरे विश्ब में मशहूर है |
केवल 13 वर्ष की उम्र में उनका निकाह नवाब इलाही बक्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया |इसके बाद वो अपने छोटे भाई मिर्जा युसूफ खान के साथ दिल्ली में बस गये लेकिन उनके छोटे भाई की एक दिमागी बीमारी की वजह से चोटी उम्र में ही मौत हो गयी | उनके सात बच्चे पैदा होने से पहले ही मर गये थे | उन्होंने सोचा अब ये दुःख तो जीवन के साथ ही खत्म होगा | उन्होंने एक कविता में भी इसका जिक्र किया “”क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-ग़म, अस्ल में दोनों एक हैं,मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यूँ? |
1850 में बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार में उनको दबीर-उल-मुल्क की उपाधि दी गयी | इसके अलावा उनको “मिर्जा नोशा” ख़िताब से भी नवाजा गया | 1854 में खुद बहादुर शाह जफर ने उनको अपना कविता शिक्षक चुना | मुगलों के पतन के दौरान उन्होंने मुगलों के साथ काफी वक़्त बिताया |मुगल साम्राज्य के पतन के बाद ब्रिटिश सरकार ने उनपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और उनको कभी पुरी पेंशन भी नहीं पायी |
Mirza Ghalib ग़ालिब की मुगल दरबार में बहुत इज्जत थी और वो उन पर व्यग्य करने वालो पर शायरी लिख दिया करते थे | उनकी 15 फरवरी 1869 को दिल्ली में मौत हो गयी | Mirza Ghalib पुरानी दिल्ली के जिस मकान में रहते थे उसको ग़ालिब की हवेली कहा जाने लगा और बाद में उसे एक स्मारक में तब्दील कर दिया गया |Mirza Ghalib ग़ालिब की कब्र दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में निजामुद्दीन ओलिया के नजदीक बनाई गयी | और उनकी मजार पर लिखा हुआ है |
“मजे जहा के अपने नजर में ख़ाक नहीं ,सिवा ए खून ए जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं “
भारतीय सिनेमा ने Mirza Ghalib मिर्जा ग़ालिब के सम्मान में 1954 में मिर्जा ग़ालिब फिल्म बनाई जिसमे भारत भूषण ने ग़ालिब का किरदार निभाया | इस फिल्म का संगीत गुलाम मोहम्मद ने दिया और कविताये उनके खुद की किताबो से ली गयी | इसी तरह पाकिस्तान में भी उनके जीवन पर फिल्म बनी जिसमे सुधीर ने ग़ालिब का किरदार निभाया था | इसके बाद 1988 भारत के मशहूर गीतकार गुलजार ने दूरदर्शन पर Mirza Ghalib मिर्जा ग़ालिब टीवी सीरियल बनाया जिसमे नसीरुद्दीन शाह ने ग़ालिब का किरदार निभाया था और इस सीरियल की गजले जगजीत सिंह द्वारा गायी गयी | यह सीरियल काफी सफल रहा और Mirza Ghalib मिर्जा ग़ालिब एक प्रसिद्ध हस्ती के रूप में उभर कर आये |
मिर्जा ग़ालिब Mirza Ghalib के जीवन पर भारत और पाकिस्तान में कई जगह पर नाटक मंचित किये गये | हालंकि गजल की दुनिया में मिर्जा ग़ालिब बहुत मशहूर हो गये थे और उनकी राह पर कई भारत और पाकिस्तान के गायक भी चले जिनमे मुख्य नाम जगजीत सिंह , मेहंदी हसन , आबिदा परवीन , फरीदा खानुम , टीना सानी , आशा भोसले , बेगम अख्तर , ग़ुलाम अली और राहत फ़तेह अली खान है |

मिर्ज़ा ग़ालिब की कुछ मशहूर शायरिया -

हाथो की लकीरों में मत जा ए ग़ालिब
किस्मत उनकी भी होती है जिनके हाथ नहीं होते

हर एक बात पर कहते हो के तुम के तू क्या है
तुम्ही कहो के ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है

जिक्र उस परी वश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रकीब आखिर था राजदान अपना

पीने दे शराब मस्जिद में बैठकर ए ग़ालिब ,
या वो जगह बता जहा खुदा नहीं

कल भी कल की बात हुई आज भी कल में बीत गया ,
कल फिर कल में आज हुआ फिर यु ही जमाना बीत गया

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल ,
जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है

उन्हें देखकर चेहरे पर आती है रौनक ,
और वो समझते है बीमार का हाल अच्छा है

मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे ,
तू देख की क्या रंग है तेरा मेरे आगे

मोहब्बत में नहीं है ,फर्क जीने और मरने का ,
उसी को देखकर जीते है जिस काफिर पर दम निकले

कहू किसे मै कि क्या है शब ए ग़म बुरी बला है ,
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता

इश्क है अपने उसूलो पे अजाल से कायम ,
इम्तेहा जिसकी भी लेता है रियायत नहीं करता

घर हमारा ,जो ना रोते तो भी , वीरान होता ,
बेहर अगर बेहर ना होता तो बयाबान होता

सैर कर दुनिया की ग़ालिब ,जिन्दगिया फिर कहा
जिंदगानी गर रही तो , नौजवानिया फिर कहा’

जलता है जिस्म जहा दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो अब राख , जुस्तजू क्या है

मस्जिद खुदा का घर है ,पीने की जगह नहीं
काफिर के दिल में जा , वहा खुदा नहीं

तेरी वफा से क्या हो , तलफी की दहर में
तेरे सिवा भी हम पर बहुत से सितम हुए

मैंने मोहब्बत के नशे में आकर उसे खुदा बना डाला
होश तब आया जब उसने कहा कि, खुदा किसी एक का नहीं होता

इस कदर तोडा है मुझे उसकी बेवफाई ने ए ग़ालिब
अब कोई अगर प्यार से भी देखे तो बिखर जाता हु

कल तक तो कहते थे ग़ालिब , बिस्तर से उठा नहीं जाता
आज दुनिया से जाने की ताकत कहा से आ गयी

हजारो ख्वाहिशे ऐसी की हर ख्वाहिश पर दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले

दिया है दिल अगर उसको , बशर ए क्या कहिये
हुआ रकीब नामाबार है , क्या कहिये

काफिर के दिल से आया हु मै ये देखकर
खुदा मौजूद है वहा , पर उसे पता नहीं

बस के दुश्वार है हर काम का आसान होना
आदमी को भी मंजूर नही इन्सान होना

कितना खौफ होता है शाम के अंधेरो में
पूंछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते

आइना देख अपना सा मुह लेके रह गये
साहब को दिल ना देने पर इतना गुरुर था

हम तो फना हो गये उसकी आँखे देखकर ग़ालिब
ना जाने वो आइना कैसे देखते होंगे |

कल तक जो जो लोग डरते थे पानी की एक बूंद से
दरिया का रुख बदलते ही तैराक बन गये

कुछ से क्या होगा , बहुत कुछ से बहुत कुछ होगा
अगर हम से ही शुरवात करे तो आगे चलकर बहुत कुछ होगा

आज क्यों लौट गया मेरा खाली घर देखकर
शायद उसे भी यकीन हुआ मेरी मोहब्बत पर

इश्क ने ग़ालिब निकम्मा बना दिया
वरना आदमे हम भी थे काम के

तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिला के दिखा
नहीं तो दो घूँट पी और मस्जिद को हिलता देख

इश्क पर जोर नही , है ये वो आतिश ग़ालिब
के लगाये ना लगे , बुझाये ना बुझे

लिख देना ये मिसरा मेरी संग-ए-लेहाद पर
की मौत अच्छी है मगर दिल का लगाना अच्छा नहीं

क्या सुनाऊ मै अपनी वफा की कहानी ग़ालिब
एक समन्दर का रखवाला था और सारी उम्र प्यासा रहा

ठिकाना कबर है तेरा , इबादत तू कुछ कर ग़ालिब
कहावत है कि खाली हाथ किसी के घर नहीं जाते

अक्ल वालो के मुक्कदर में ये जूनून कहा ग़ालिब
ये इश्क वाले है जो हर चीज लुटा देते है

सेहरा को बड़ा नाज है अपनी वीरानी पर
उसने देखा नही आलम मेरी तन्हाई का

ख़ाक मुट्ठी में लिए कबर की ये सोचता हु ग़ालिब
इन्सान जो मरते है तो गुरुर कहा जाता है

ज़माना रोयेगा , बरसों हमे भी याद करके
गिनेंगे सब हमारी खूबिया , जब हम ना होंगे

मै तो सुखा हुआ पत्ता हु मेरी बात ही क्या
फूल पैरो से मसलते है तेरे शहर के लोग



ज़िंदगी को गम-ए-दास्ताँ मत बना ए ग़ालिब
मुर्दा तो वो भी है जिनकी , नब्ज है धडकनों से रुक्सत



23.8.17

मुंशी प्रेमचन्दजी का जीवन परिचय:Munshi Premchand Biography





जन्म

प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर समही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।
जीवन परिस्थितियाँ
धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।
शादी
आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, "उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।......." उसके साथ - साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है "पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया: मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।" हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।
विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
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शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने - जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।
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साहित्यिक रुचि

गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो - तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।
आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद "तिलस्मे - होशरुबा" पढ़ डाली।
अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी - बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।
तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ - साथ रहा।
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प्रेमचन्द की दूसरी शादी

सन् १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।
यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।
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व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा "हमारा काम तो केवल खेलना है- खूब दिल लगाकर खेलना- खूब जी- तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् - पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास
कह गए हैं, "तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।" कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।
जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं "कि जाड़े के दिनों में चालीस - चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।"
प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।
ईश्वर के प्रति आस्था
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे - धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा "तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो - जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।"
मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था - "जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।"
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प्रेमचन्द की कृतियाँ

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् १८९४ ई० में "होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात" नामक नाटक की रचना की। सन् १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय "रुठी रानी" नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन् १९०४-०५ में "हम खुर्मा व हम सवाब" नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा-जीवन और विधवा-समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।
जब कुछ आर्थिक निर्जिंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।
इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।
"सेवा सदन", "मिल मजदूर" तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए "महाजनी सभ्यता" नाम से एक लेख भी लिखा था।
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मृत्यू
सन् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने "प्रगतिशील लेखक संघ" की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।



संत रविदास (रैदास) का जीवन परिचय




संत रविदास कौन थे?

रविदास भारत में 15वीं शताब्दी के एक महान संत, दर्शनशास्त्री, कवि, समाज-सुधारक और ईश्वर के अनुयायी थे। वो निर्गुण संप्रदाय अर्थात् संत परंपरा में एक चमकते नेतृत्वकर्ता और प्रसिद्ध व्यक्ति थे तथा उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन को नेतृत्व देते थे। ईश्वर के प्रति अपने असीम प्यार और अपने चाहने वाले, अनुयायी, सामुदायिक और सामाजिक लोगों में सुधार के लिये अपने महान कविता लेखनों के जरिये संत रविदास ने विविध प्रकार की आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिये।
वो लोगों की नजर में उनकी सामाजिक और आध्यात्मिक जरुरतों को पूरा करने वाले मसीहा के रुप में थे। आध्यात्मिक रुप से समृद्ध रविदास को लोगों द्वारा पूजा जाता था। हर दिन और रात, रविदास के जन्म दिवस के अवसर पर तथा किसी धार्मिक कार्यक्रम के उत्सव पर लोग उनके महान गीतों आदि को सुनते या पढ़ते है। उन्हें पूरे विश्व में प्यार और सम्मान दिया जाता है हालाँकि उन्हें सबसे अधिक सम्मान उत्तर प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्रा में अपने भक्ति आंदोलन और धार्मिक गीतों के लिये मिलता था।
संत रविदास जयंती
पूरे भारत में खुशी और बड़े उत्साह के साथ माघ महीने के पूर्ण चन्द्रमा दिन पर माघ पूर्णिमा पर हर साल संत रविदास की जयंती या जन्म दिवस को मनाया जाता है। जबकि; वाराणसी में लोग इसे किसी उत्सव या त्योहार की तरह मनाते है।
2017 (640th)-10 फरवरी (शुक्रवार)
इस खास दिन पर आरती कार्यक्रम के दौरान मंत्रों के रागों के साथ लोगों द्वारा एक नगर कीर्तन जुलूस निकालने की प्रथा है जिसमें गीत-संगीत, गाना और दोहा आदि सड़कों पर बने मंदिरों में गाया जाता है। रविदास के अनुयायी और भक्त उनके जन्म दिवस पर गंगा- स्नान करने भी जाते है तथा घर या मंदिर में बनी छवि की पूजा-अर्चना करते है। इस पर्व को प्रतीक बनाने के लिये वाराणसी के सीर गोवर्धनपुर के श्री गुरु रविदास जन्म स्थान मंदिर के बेहद प्रसिद्ध स्थान पर हर साल वाराणसी में लोगों के द्वारा इसे बेहद भव्य तरीके से मनाया जाता है। संत रविदास के भक्त और दूसरे अन्य लोग पूरे विश्व से इस उत्सव में सक्रिय रुप से भाग लेने के लिये वाराणसी आते है।
संत रविदास से संबंधित तथ्य
जन्म: 1377 एडी में (अर्थात् विक्रम संवत-माघ सुदी 15, 1433, हालाँकि कुछ लोगों का मानना है कि ये 1440 एडी था) सीर गोवर्धनपुर, वाराणसी, यूपी।
पिता: श्री संतोक दास जी
माता: श्रीमती कालसा देवी जी
दादा: श्री कालूराम जी
दादी: श्रीमती लखपती जी
पत्नी: श्रीमती लोनाजी
पुत्र: विजय दास जी
मृत्यु: वाराणसी में 1540 एडी में।
रविदास की जीवनी
आरंभिक जीवन
संत रविदास का जन्म भारत के यूपी के वाराणसी शहर में माता कालसा देवी और बाबा संतोख दास जी के घर 15 वीं शताब्दी में हुआ था। हालाँकि, उनके जन्म की तारीख को लेकर विवाद भी है क्योंकि कुछ का मानना है कि ये 1376, 1377 और कुछ का कहना है कि ये 1399 सीइ में हुआ था। कुछ अध्येता के आँकड़ों के अनुसार ऐसा अनुमान लगाया गया था कि रविदास का पूरा जीवन काल 15वीं से 16वीं शताब्दी सीइ में 1450 से 1520 के बीच तक रहा।
रविदास के पिता मल साम्राज्य के राजा नगर के सरपंच थे और खुद जूतों का व्यापार और उसकी मरम्मत का कार्य करते थे। अपने बचपन से ही रविदास बेहद बहादुर और ईश्वर के बहुत बड़े भक्त थे लेकिन बाद में उन्हें उच्च जाति के द्वारा उत्पन्न भेदभाव की वजह से बहुत संघर्ष करना पड़ा जिसका उन्होंने सामना किया और अपने लेखन के द्वारा रविदास ने लोगों को जीवन के इस तथ्य से अवगत करवाया। उन्होंने हमेशा लोगों को सिखाया कि अपने पड़ोसियों को बिना भेद-भेदभाव के प्यार करो।
पूरी दुनिया में भाईचारा और शांति की स्थापना के साथ ही उनके अनुयायीयों को दी गयी महान शिक्षा को याद करने के लिये भी संत रविदास का जन्म दिवस का मनाया जाता है। अपने अध्यापन के आरंभिक दिनों में काशी में रहने वाले रुढ़ीवादी ब्राह्मणों के द्वारा उनकी प्रसिद्धि को हमेशा रोका जाता था क्योंकि संत रविदास अस्पृश्यता के भी गुरु थे। सामाजिक व्यवस्था को खराब करने के लिये राजा के सामने लोगों द्वारा उनकी शिकायत की गयी थी। रविदास को भगवान के बारे में बात करने से, साथ ही उनका अनुसरण करने वाले लोगों को अध्यापन और सलाह देने के लिये भी प्रतिबंधित किया गया था।
रविदास की प्रारंभिक शिक्षा
बचपन में संत रविदास अपने गुरु पंडित शारदा नंद के पाठशाला गये जिनको बाद में कुछ उच्च जाति के लोगों द्वारा रोका किया गया था वहाँ दाखिला लेने से। हालाँकि पंडित शारदा ने यह महसूस किया कि रविदास कोई सामान्य बालक न होकर एक ईश्वर के द्वारा भेजी गयी संतान है अत: पंडित शारदानंद ने रविदास को अपनी पाठशाला में दाखिला दिया और उनकी शिक्षा की शुरुआत हुयी। वो बहुत ही तेज और होनहार थे और अपने गुरु के सिखाने से ज्यादा प्राप्त करते थे। पंडित शारदा नंद उनसे और उनके व्यवहार से बहुत प्रभावित रहते थे उनका विचार था कि एक दिन रविदास आध्यात्मिक रुप से प्रबुद्ध और महान सामाजिक सुधारक के रुप में जाने जायेंगे।
पाठशाला में पढ़ने के दौरान रविदास पंडित शारदानंद के पुत्र के मित्र बन गये। एक दिन दोनों लोग एक साथ लुका-छिपी खेल रहे थे, पहली बार रविदास जी जीते और दूसरी बार उनके मित्र की जीत हुयी। अगली बार, रविदास जी की बारी थी लेकिन अंधेरा होने की वजह से वो लोग खेल को पूरा नहीं कर सके उसके बाद दोनों ने खेल को अगले दिन सुबह जारी रखने का फैसला किया। अगली सुबह रविदास जी तो आये लेकिन उनके मित्र नहीं आये। वो लंबे समय तक इंतजार करने के बाद अपने उसी मित्र के घर गये और देखा कि उनके मित्र के माता-पिता और पड़ोसी रो रहे थे।
उन्होंने उन्हीं में से एक से इसका कारण पूछा और अपने मित्र की मौत की खबर सुनकर हक्का-बक्का रह गये। उसके बाद उनके गुरु ने संत रविदास को अपने बेटे के लाश के स्थान पर पहुँचाया, वहाँ पहुँचने पर रविदास ने अपने मित्र से कहा कि उठो ये सोने का समय नहीं है दोस्त, ये तो लुका-छिपी खेलने का समय है। जैसै कि जन्म से ही गुरु रविदास दैवीय शक्तियों से समृद्ध थे, रविदास के ये शब्द सुनते ही उनके मित्र फिर से जी उठे। इस आश्चर्यजनक पल को देखने के बाद उनके माता-पिता और पड़ोसी चकित रह गये।
वैवाहिक जीवन
भगवान के प्रति उनके प्यार और भक्ति की वजह से वो अपने पेशेवर पारिवारिक व्यवसाय से नहीं जुड़ पा रहे थे और ये उनके माता-पिता की चिंता का बड़ा कारण था। अपने पारिवारिक व्यवसाय से जुड़ने के लिये इनके माता-पिता ने इनका विवाह काफी कम उम्र में ही श्रीमती लोना देवी से कर दिया जिसके बाद रविदास को पुत्र रत्न की प्रति हुयी जिसका नाम विजयदास पड़ा।
शादी के बाद भी संत रविदास सांसारिक मोह की वजह से पूरी तरह से अपने पारिवारिक व्यवसाय के ऊपर ध्यान नहीं दे पा रहे थे। उनके इस व्यवहार से क्षुब्द होकर उनके पिता ने सांसारिक जीवन को निभाने के लिये बिना किसी मदद के उनको खुद से और पारिवारिक संपत्ति से अलग कर दिया। इस घटना के बाद रविदास अपने ही घर के पीछे रहने लगे और पूरी तरह से अपनी सामाजिक मामलों से जुड़ गये।
बाद का जीवन
बाद में रविदास जी भगवान राम के विभिन्न स्वरुप राम, रघुनाथ, राजा राम चन्द्र, कृष्णा, गोविन्द आदि के नामों का इस्तेमाल अपनी भावनाओं को उजागर करने के लिये करने लगे और उनके महान अनुयायी बन गये।
बेगमपुरा शहर से उनके संबंध
बिना किसी दुख के शांति और इंसानियत के साथ एक शहर के रुप में गुरु रविदास जी द्वारा बेगमपुरा शहर को बसाया गया। अपनी कविताओं को लिखने के दौरान रविदास जी द्वारा बेगमपुरा शहर को एक आदर्श के रुप में प्रस्तुत किया गया था जहाँ पर उन्होंने बताया कि एक ऐसा शहर जो बिना किसी दुख, दर्द या डर के और एक जमीन है जहाँ सभी लोग बिना किसी भेदभाव, गराबी और जाति अपमान के रहते है। एक ऐसी जगह जहाँ कोई शुल्क नहीं देता, कोई भय, चिंता या प्रताड़ना नहीं हो।
मीरा बाई से उनका जुड़ाव
संत रविदास जी को मीरा बाई के आध्यात्मिक गुरु के रुप में माना जाता है जो कि राजस्थान के राजा की पुत्री और चित्तौड़ की रानी थी। वो संत रविदास के अध्यापन से बेहद प्रभावित थी और उनकी बहुत बड़ी अनुयायी बनी। अपने गुरु के सम्मान में मीरा बाई ने कुछ पंक्तियाँ लिखी है-
“गुरु मिलीया रविदास जी-”।
वो अपने माता-पिता की एक मात्र संतान थी जो बाद में चितौड़ की रानी बनी। मीरा बाई ने बचपन में ही अपनी माँ को खो दिया जिसके बाद वो अपने दादा जी के संरक्षण में आ गयी जो कि रविदास जी के अनुयायी थे। वो अपने दादा जी के साथ कई बार गुरु रविदास से मिली और उनसे काफी प्रभावित हुयी। अपने विवाह के बाद, उन्हें और उनके पति को गुरु जी से आशीर्वाद प्राप्त हुआ। बाद में मीराबाई ने अपने पति और ससुराल पक्ष के लोगों की सहमति से गुरु जी को अपने वास्तविक गुरु के रुप में स्वीकार किया। इसके बाद उन्होंने गुरु जी के सभी धर्मों के उपदेशों को सुनना शुरु कर दिया जिसने उनके ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा और वो प्रभु भक्ति की ओर आकर्षित हो गयी। कृष्ण प्रेम में डूबी मीराबाई भक्ति गीत गाने लगी और दैवीय शक्ति का गुणगान करने लगी।
अपने गीतों में वो कुछ इस तरह कहती थी:
“गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी,
चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी”।
दिनों-दिन वो ध्यान की ओर आकर्षित हो रही थी और वो अब संतों के साथ रहने लगी थी। उनके पति की मृत्यु के बाद उनके देवर और ससुराल के लोग उन्हें देखने आये लेकिन वो उन लोगों के सामने बिल्कुल भी व्यग्र और नरम नहीं पड़ी। बल्कि उन्हें तो आधी रात को उन लोगों के द्वारा गंभीरी नदी में फेंक दिया गया था लेकिन गुरु रविदास जी के आशीर्वाद से वो बच गयी।
एक बार अपने देवर के द्वारा दिये गये जहरीले दूध को गुरु जी द्वारा अमृत मान कर पी गयी और खुद को धन्य समझा। उन्होंने कहा कि:
“विष को प्याला राना जी मिलाय द्यो
मेरथानी ने पाये
कर चरणामित् पी गयी रे,
गुण गोविन्द गाये”।
संत रविदास के जीवन की कुछ महत्वपूर्णं घटनाएँ
एक बार गुरु जी के कुछ विद्यार्थी और अनुयायी ने पवित्र नदी गंगा में स्नान के लिये पूछा तो उन्होंने ये कह कर मना किया कि उन्होंने पहले से ही अपने एक ग्राहक को जूता देने का वादा कर दिया है तो अब वही उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी है। रविदास जी के एक विद्यार्थी ने उनसे दुबारा निवेदन किया तब उन्होंने कहा उनका मानना है कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” मतलब शरीर को आत्मा से पवित्र होने की जरुरत है ना कि किसी पवित्र नदी में नहाने से, अगर हमारी आत्मा और ह्दय शुद्ध है तो हम पूरी तरह से पवित्र है चाहे हम घर में ही क्यों न नहाये।
एक बार उन्होंने अपने एक ब्राहमण मित्र की रक्षा एक भूखे शेर से की थी जिसके बाद वो दोनों गहरे साथी बन गये। हालाँकि दूसरे ब्राहमण लोग इस दोस्ती से जलते थे सो उन्होंने इस बात की शिकायत राजा से कर दी। रविदास जी के उस ब्राहमण मित्र को राजा ने अपने दरबार में बुलाया और भूखे शेर द्वारा मार डालने का हुक्म दिया। शेर जल्दी से उस ब्राहमण लड़के को मारने के लिये आया लेकिन गुरु रविदास को उस लड़के को बचाने के लिये खड़े देख शेर थोड़ा शांत हुआ। शेर वहाँ से चला गया और गुरु रविदास अपने मित्र को अपने घर ले गये। इस बात से राजा और ब्राह्मण लोग बेहद शर्मिंदा हुये और वो सभी गुरु रविदास के अनुयायी बन गये।
सामाजिक मुद्दों में गुरु रविदास की सहभागिता
वास्तविक धर्म को बचाने के लिये रविदास जी को ईश्वर द्वारा धरती पर भेजा गया था क्योंकि उस समय सामाजिक और धार्मिक स्वरुप बेहद दु:खद था। क्योंकि इंसानों द्वारा ही इंसानों के लिये ही रंग, जाति, धर्म तथा सामाजिक मान्यताओं का भेदभाव किया जा चुका था। वो बहुत ही बहादुरी के साथ सभी भेदभाव को स्वीकार करते और लोगों को वास्तविक मान्यताओं और जाति के बारे में बताते। वो लोगों को सिखाते कि कोई भी अपने जाति या धर्म के लिये नहीं जाना जाता, इंसान अपने कर्म से पहचाना जाता है। गुरु रविदास जी समाज में अस्पृश्यता के खिलाफ भी लड़े जो उच्च जाति द्वारा निम्न जाति के लोगों के साथ किया जाता था।
उनके समय में निम्न जाति के लोगों की उपेक्षा होती थी, वो समाज में उच्च जाति के लोगों की तरह दिन में कहीं भी आ-जा नहीं सकते थे, उनके बच्चे स्कूलों में पढ़ नहीं सकते थे, मंदिरों में नहीं जा सकते थे, उन्हें पक्के मकान के बजाय सिर्फ झोपड़ियों में ही रहने की आजादी थी और भी ऐसे कई प्रतिबंध थे जो बिल्कुल अनुचित थे। इस तरह की सामाजिक समयस्याओं को देखकर गुरु जी ने निम्न जाति के लोगों की बुरी परिस्थिति को हमेशा के लिये दूर करने के लिये हर एक को आध्यात्मिक संदेश देना शुरु कर दिया।
उन्होंने लोगों को संदेश दिया कि “ईश्वर ने इंसान बनाया है ना कि इंसान ने ईश्वर बनाया है” अर्थात इस धरती पर सभी को भगवान ने बनाया है और सभी के अधिकार समान है। इस सामाजिक परिस्थिति के संदर्भ में, संत गुरु रविदास जी ने लोगों को वैश्विक भाईचारा और सहिष्णुता का ज्ञान दिया। गुरुजी के अध्यापन से प्रभावित होकर चितौड़ साम्राज्य के राजा और रानी उनके अनुयायी बन गये।
सिक्ख धर्म के लिये गुरु जी का योगदान
सिक्ख धर्मग्रंथ में उनके पद, भक्ति गीत, और दूसरे लेखन (41 पद) आदि दिये गये थे, गुरु ग्रंथ साहिब जो कि पाँचवें सिक्ख गुरु अर्जन देव द्वारा संकलित की गयी। सामान्यत: रविदास जी के अध्यापन के अनुयायी को रविदासीया कहा जाता है और रविदासीया के समूह को अध्यापन को रविदासीया पंथ कहा जाता है।
गुरु ग्रंथ साहिब में उनके द्वारा लिखा गया 41 पवित्र लेख है जो इस प्रकार है; “रागा-सिरी(1), गौरी(5), असा(6), गुजारी(1), सोरथ(7), धनसरी(3), जैतसारी(1), सुही(3), बिलावल(2), गौंड(2), रामकली(1), मारु(2), केदारा(1), भाईरऊ(1), बसंत(1), और मलहार(3)”।
ईश्वर के द्वारा उनकी महानता की जाँच की गयी थी
वो अपने समय के महान संत थे और एक आम व्यक्ति की तरह जीवन को जीने की वरीयता देते है। कई बड़े राजा-रानियों और दूसरे समृद्ध लोग उनके बड़े अनुयायी थे लेकिन वो किसी से भी किसी प्रकार का धन या उपहार नहीं स्वीकारते थे। एक दिन भगवान के द्वारा उनके अंदर एक आम इंसान के लालच को परखा गया, एक दर्शनशास्त्री गुरु रविदास जी के पास एक पत्थर ले कर आये और उसके बारे में आश्चर्यजनक बात बतायी कि ये किसी भी लोहे को सोने में बदल सकता सकता है। उस दर्शनशास्त्री ने गुरु रविदास को उस पत्थर को लेने के लिये दबाव दिया और साधारण झोपड़े की जगह बड़ी-बड़ी इमारतें बनाने को कहा। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया।
उस दर्शनशास्त्री ने फिर से उस पत्थर को रखने के लिये गुरुजी पर दबाव डाला और कहा कि मैं इसे लौटते वक्त वापस ले लूँगा साथ ही इसको अपनी झोपड़ी के किसी खास जगह पर रखने को कहा। गुरु जी ने उसकी ये बात मान ली। वो दर्शनशास्त्री कई वर्षों बाद लौटा तो पाया कि वो पत्थर उसी तरह रखा हुआ है। गुरुजी के इस अटलता और धन के प्रति इस विकर्षणता से वो बहुत खुश हुए। उन्होंने वो कीमती पत्थर लिया और वहाँ से गायब हो गये। गुरु रविदास ने हमेशा अपने अनुयायीयों को सिखाया कि कभी धन के लिये लालची मत बनो, धन कभी स्थायी नहीं होता, इसके बजाय आजीविका के लिये कड़ी मेहनत करो।
एक बार जब उनको और दूसरे दलितों को पूजा करने के जुर्म में काशी नरेश के द्वारा उनके दरबार में कुछ ब्राह्मणों की शिकायत पर बुलाया गया था, तो ये ही वो व्यक्ति थे जिन्होंने सभी गैरजरुरी धार्मिक संस्कारों को हटाने के द्वारा पूजा की प्रकिया को आसान बना दिया। संत रविदास को राजा के दरबार में प्रस्तुत किया गया जहाँ गुरुजी और पंडित पुजारी से फैसले वाले दिन अपने-अपने इष्ट देव की मूर्ति को गंगा नदी के घाट पर लाने को कहा गया।
राजा ने ये घोषणा की कि अगर किसी एक की मूर्ति नदी में तैरेगी तो वो सच्चा पुजारी होगा अन्यथा झूठा होगा। दोनों गंगा नदी के किनारे घाट पर पहुँचे और राजा की घोषणा के अनुसार कार्य करने लगे। ब्राह्मण ने हल्के भार वाली सूती कपड़े में लपेटी हुयी भगवान की मूर्ति लायी थी वहीं संत रविदास ने 40 कि.ग्रा की चाकोर आकार की मूर्ती ले आयी थी। राजा के समक्ष गंगा नदी के राजघाट पर इस कार्यक्रम को देखने के लिये बहुत बड़ी भीड़ उमड़ी थी।
पहला मौका ब्राह्मण पुजारी को दिया गया, पुजारी जी ने ढ़ेर सारे मंत्र-उच्चारण के साथ मूर्ती को गंगा जी ने प्रवाहित किया लेकिन वो गहरे पानी में डूब गयी। उसी तरह दूसरा मौका संत रविदास का आया, गुरु जी ने मूर्ती को अपने कंधों पर लिया और शिष्टता के साथ उसे पानी में रख दिया जो कि पानी की सतह पर तैरने लगा। इस प्रकिया के खत्म होने के बाद ये फैसला हुआ कि ब्राह्मण झूठा पुजारी था और गुरु रविदास सच्चे भक्त थे।
दलितों को पूजा के लिये मिले अधिकार से खुश होकर सभी लोग उनके पाँव को स्पर्श करने लगे। तब से, काशी नरेश और दूसरे लोग जो कि गुरु जी के खिलाफ थे, अब उनका सम्मान और अनुसरण करने लगे। उस खास खुशी के और विजयी पल को दरबार की दिवारों पर भविष्य के लिये सुनहरे अक्षरों से लिख दिया गया।
संत रविदास को कुष्ठरोग को ठीक करने के लिये प्राकृतिक शक्ति मिली हुई थी
समाज में उनकी महान प्राकृतिक शक्तियों से भरी गज़ब की क्रिया के बाद ईश्वर के प्रति उनकी सच्चाई से प्रभावित होकर हर जाति और धर्म के लोगों पर उनका प्रभाव पड़ा और सभी गुरु जी के मजबूत विद्यार्थी, अनुयायी और भक्त बन गये। बहुत साल पहले उन्होंने अपने अनुयायीयों को उपदेश दिया था और तब एक धनी सेठ भी वहाँ पहुँचा मनुष्य के जन्म के महत्व के ऊपर धार्मिक उपदेश को सुनने के लिये।
धार्मिक उपदेश के अंत में गुरु जी ने सभी को प्रसाद के रुप में अपने मिट्टी के बर्तन से पवित्र पानी दिया। लोगों ने उसको ग्रहण किया और पीना शुरु किया हालाँकि धनी सेठ ने उस पानी को गंदा समझ कर अपने पीछे फेंक दिया जो बराबर रुप से उसके पैरों और जमींन पर गिर गया। वो अपने घर गया और उस कपड़े को कुष्ठ रोग से पीड़ित एक गरीब आदमी को दे दिया। उस कपड़े को पहनते ही उस आदमी के पूरे शरीर को आराम महसूस होने लगा जबकि उसके जख्म जल्दी भरने लगे और वो जल्दी ठीक हो गया।
हालाँकि धनी सेठ को कुष्ठ रोग हो गया जो कि महँगे उपचार और अनुभवी और योग्य वैद्य द्वारा भी ठीक नहीं हो सका। उसकी स्थिति दिनों-दिन बिगड़ती चली गयी तब उसे अपनी गलतियों का एहसास हुआ और वो गुरु जी के पास माफी माँगने के लिये गया और जख्मों को ठीक करने के लिये गुरु जी से वो पवित्र जल प्राप्त किया। चूँकि गुरु जी बेहद दयालु थे इसलिये उसको माफ करने के साथ ही ठीक होने का ढ़ेर सारा आशीर्वाद भी दिया। अंतत: वो धनी सेठ और उसका पूरा परिवार संत रविदास का भक्त हो गया।
संत रविदास का सकारात्मक नज़रिया
उनके समय में शुद्रों (अस्पृश्य) को ब्राह्मणों की तरह जनेऊ, माथे पर तिलक और दूसरे धार्मिक संस्कारों की आजादी नहीं थी। संत रविदास एक महान व्यक्ति थे जो समाज में अस्पृश्यों के बराबरी के अधिकार के लिये उन सभी निषेधों के खिलाफ थे जो उन पर रोक लगाती थी। उन्होंने वो सभी क्रियाएँ जैसे जनेऊ धारण करना, धोती पहनना, तिलक लगाना आदि निम्न जाति के लोगों के साथ शुरु किया जो उन पर प्रतिबंधित था।
ब्राह्मण लोग उनकी इस बात से नाराज थे और समाज में अस्पृश्यों के लिये ऐसे कार्यों को जाँचने का प्रयास किया। हालाँकि गुरु रविदास जी ने हर बुरी परिस्थिति का बहादुरी के साथ सामना किया और बेहद विनम्रता से लोगों का जवाब दिया। अस्पृश्य होने के बावजूद भी जनेऊ पहनने के कारण ब्राह्मणों की शिकायत पर उन्हें राजा के दरबार में बुलाया गया। वहाँ उपस्थित होकर उन्होंने कहा कि अस्पृश्यों को भी समाज में बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये क्योंकि उनके शरीर में भी दूसरों की तरह खून का रंग लाल और पवित्र आत्मा होती है
संत रविदास ने तुरंत अपनी छाती पर एक गहरी चोट की और उस पर चार युग जैसे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलयुग की तरह सोना, चाँदी, ताँबा और सूती के चार जनेऊ खींच दिया। राजा समेत सभी लोग अचंभित रह गये और गुरु जी के सम्मान में सभी उनके चरणों को छूने लगे। राजा को अपने बचपने जैसे व्यवहार पर बहुत शर्मिंदगी महसूस हुयी और उन्होंने इसके लिये माफी माँगी। गुरु जी ने सभी माफ करते हुए कहा कि जनेऊ धारण करने का ये मतलब नहीं कि कोई भगवान को प्राप्त कर लेता है। इस कार्य में वो केवल इसलिये शामिल हुए ताकि वो लोगों को वास्तविकता और सच्चाई बता सके। गुरु जी ने जनेऊ निकाला और राजा को दे दिया इसके बाद उन्होंने कभी जनेऊ और तिलक का इस्तेमाल नहीं किया।
कुंभ उत्सव पर एक कार्यक्रम
एक बार पंडित गंगा राम गुरु जी से मिले और उनका सम्मान किया। वो हरिद्वार में कुंभ उत्सव में जा रहे थे गुरु जी ने उनसे कहा कि ये सिक्का आप गंगा माता को दे दीजीयेगा अगर वो इसे आपके हाथों से स्वीकार करें। पंजित जी ने बड़ी सहजता से इसे ले लिया और वहाँ से हरिद्वार चले गये। वो वहाँ पर नहाये और वापस अपने घर लौटने लगे बिना गुरु जी का सिक्का गंगा माता को दिये।
वो अपने रास्ते में थोड़ा कमजोर होकर बैठ गये और महसूस किया कि वो कुछ भूल रहे हैं, वो दुबारा से नदी के किनारे वापस गये और जोर से चिल्लाए माता, गंगा माँ पानी से बाहर निकली और उनके अपने हाथ से सिक्के को स्वीकार किया। माँ गंगा ने संत रविदास के लिये सोने के कँगन भेजे। पंडित गंगा राम घर वापस आये वो कँगन गुरु जी के बजाय अपनी पत्नी को दे दिया।
एक दिन पंडित जी की पत्नी उस कँगन को बाजार में बेचने के लिये गयी। सोनार चालाक था, सो उसने कँगन को राजा और राजा ने रानी को दिखाने का फैसला किया। रानी ने उस कँगन को बहुत पसंद किया और एक और लाने को कहा। राजा ने घोषणा की कि कोई इस तरह के कँगन नहीं लेगा, पंडित अपने किये पर बहुत शर्मिंदा था क्योंकि उसने गुरुजी को धोखा दिया था। वो रविदास जी से मिला और माफी के लिये निवेदन किया। गुरु जी ने उससे कहा कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” ये लो दूसरे कँगन जो पानी से भरे जल में मिट्टी के बर्तन में गंगा के रुप में यहाँ बह रही है। गुरु जी की इस दैवीय शक्ति को देखकर वो गुरु जी का भक्त बन गया।
उनके पिता के मौत के समय की घटना
रविदास की पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने पड़ोसियों से विनती की कि वो गंगा नदी के किनारे अंतिम रिवाज़ में मदद करें। हालाँकि ब्राह्मण रिती के संदर्भ में खिलाफ थे कि वो गंगा के जल से स्नान करेंगे जो रस्म की जगह से मुख्य शहर की ओर जाता है और वो प्रदूषित हो जायेगा। गुरु जी बहुत दुखी और मजबूर हो गये हालाँकि उन्होंने कभी भी अपना धैर्य नहीं खोया और अपने पिता की आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना करने लगे। अचानक से वातावरण में एक भयानक तूफान आया और नदी का पानी उल्टी दिशा में बहना प्रारंभ हो गया और जल की एक गहरी तरंग आयी और लाश को अपने साथ ले गयी। इस भवंडर ने आसपास की सभी चीजों को सोख लिया। तब से, गंगा का पानी उल्टी दिशा में बह रहा है।
कैसे बाबर प्रभावित हुए रविदास के अध्यापन से-
इतिहास के अनुसार बाबर मुगल साम्राज्य का पहला राजा था जो 1526 में पानीपत का युद्ध जीतने के बाद दिल्ली के सिहांसन पर बैठा जहाँ उसने भगवान के भरोसे के लिये लाखों लोगों को कुर्बान कर दिया। वो पहले से ही संत रविदास की दैवीय शक्तियों से परिचित था और फैसला किया कि एक दिन वो हुमायुँ के साथ गुरु जी से मिलेगा। वो वहाँ गया और गुरु जी को सम्मान देने के लिये उनके पैर छूए हालाँकि; आशीर्वाद के बजाय उसे गुरु जी से सजा मिली क्योंकि उसने लाखों निर्दोष लोगों की हत्याएँ की थी। गुरु जी ने उसे गहराई से समझाया जिसने बाबर को बहुत प्रभावित किया और इसके बाद वो भी संत रविदास का अनुयायी बन गया तथा दिल्ली और आगरा के गरीबों की सेवा के द्वारा समाज सेवा करने लगा।
संत रविदास की मृत्यु-
समाज में बराबरी, सभी भगवान एक है, इंसानियत, उनकी अच्छाई और बहुत से कारणों की वजह से बदलते समय के साथ संत रविदास के अनुयायीयों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी। दूसरी तरफ, कुछ ब्राह्मण और पीरन दित्ता मिरासी गुरु जी को मारने की योजना बना रहे थे इस वजह से उन लोगों ने गाँव से दूर एक एकांत जगह पर मिलने का समय तय किया। किसी विषय पर चर्चा के लिये उन लोगों ने गुरु जी को वहाँ पर बुलाया जहाँ उन्होंने गुरु जी की हत्या की साजिश रची थी हालाँकि गुरु जी को अपनी दैवीय शक्ति की वजह से पहले से ही सब कुछ पता चल गया था
जैसे ही चर्चा शुरु हुई, गुरु जी उन्ही के एक साथी भल्ला नाथ के रुप में दिखायी दिये जो कि गलती से तब मारा गया था। बाद में जब गुरु जी ने अपने झोपड़े में शंखनाद किया, तो सभी हत्यारे गुरु जी को जिंदा देख भौंचक्के रह गये तब वो हत्या की जगह पर गये जहाँ पर उन्होंने संत रविदास की जगह अपने ही साथी भल्ला नाथ की लाश पायी। उन सभी को अपने कृत्य पर पछतावा हुआ और वो लोग गुरु जी से माफी माँगने उनके झोपड़े में गये।
हालाँकि, उनके कुछ भक्तों का मानना है कि गुरु जी की मृत्यु प्राकृतिक रुप से 120 या 126 साल में हो गयी थी। कुछ का मानना है उनका निधन वाराणसी में 1540 एडी में हुआ था।
गुरु रविदास जी के लिये स्मारक
वाराणसी में श्री गुरु रविदास पार्क
वाराणसी में श्री गुरु रविदास पार्क है जो नगवा में उनके यादगार के रुप में बनाया गया है जो उनके नाम पर “गुरु रविदास स्मारक और पार्क” बना है
गुरु रविदास घाट-
वाराणसी में पार्क से बिल्कुल सटा हुआ उनके नाम पर गंगा नदी के किनारे लागू करने के लिये गुरु रविदास घाट भी भारतीय सरकार द्वारा प्रस्तावित है
संत रविदास नगर-
ज्ञानपुर जिले के निकट संत रविदास नगर है जो कि पहले भदोही नाम से था अब उसका नाम भी संत रविदास नगर है।
श्री गुरु रविदास जन्म स्थान मंदिर वाराणसी-
इनके सम्मान में सीर गोवर्धनपुर, वाराणसी में श्री गुरु रविदास जन्म स्थान मंदिर स्थित है, जो इनके सम्मान में बनाया गया है पूरी दुनिया में इनके अनुयायीयों द्वारा चलाया जाता है जो अब प्रधान धार्मिक कार्यालय के रुप में है।
श्री गुरु रविदास स्मारक गेट-
वाराणसी के लंका चौराहे पर एक बड़ा गेट है जो इनके सम्मान में बनाया गया है।
इनके नाम पर देश के साथ ही विदेशों मे भी स्मारक बनाये गये है।