सुंदर स्त्री आभूषणों से मुक्त हो जाती है;
कुरूप स्त्री कभी भी
आभूषणों से मुक्त नहीं हो सकती।
सुंदर स्त्री सरल हो जाती है;
कुरूप स्त्री कभी भी नहीं हो सकती।
क्योंकि उसे पता है,
आभूषण हट जाएं,
बहुमूल्य वस्त्र हट जाएं,
सोना-चांदी हट जाए,
तो उसकी कुरूपता ही प्रकट होगी।
वही शेष रह जाएगी,
और तो वहां कुछ बचेगा न।
सुंदर स्त्री को आभूषण शोभा देते ही नहीं,
वे थोड़ी सी खटक पैदा करते हैं
उसके सौंदर्य में।
क्योंकि कोई सोना कैसे
जीवंत सौंदर्य से महत्वपूर्ण हो सकता है?
हीरे-जवाहरातों में होगी चमक,
लेकिन जीवंत सुंदर आंखों से उनकी क्या,
क्या तुलना की जा सकती है?
जैसे ही कोई स्त्री सुंदर होती है,
आभूषण-वस्त्र का दिखावा कम हो जाता है।
तब एक्झिबीशन की वृत्ति कम हो जाती है।
असल में, सुंदर स्त्री का लक्षण ही यही है
कि जिसमें प्रदर्शन की कामना न हो।
जब तक प्रदर्शन की कामना है
तब तक उसे खुद ही पता है
कि कहीं कुछ असुंदर है,
जिसे ढांकना है, छिपाना है,
प्रकट नहीं करना है।
स्त्रियां घंटों व्यतीत करती हैं दर्पण के सामने।
क्या करती हैं दर्पण के सामने घंटों?
कुरूपता को छिपाने की चेष्टा चलती है;
सुंदर को दिखाने की चेष्टा चलती है।
ठीक यही जीवन के सभी संबंधों में सही है।
अज्ञानी अपने ज्ञान को दिखाना चाहता है।
वह मौके की तलाश में रहता है;
कि जहां कहीं मौका मिले,
जल्दी अपना ज्ञान बता दे।
ज्ञानी को कुछ अवसर की तलाश नहीं होती;
न बताने की कोई आकांक्षा होती।
जब स्थिति हो कि उसके ज्ञान की
कोई जरूरत पड़ जाए,
जब कोई प्यास से मर रहा हो
और उसको जल की जरूरत हो
तब वह दे देगा।
लेकिन प्रदर्शन का मोह चला जाएगा।
अज्ञानी इकट्ठी करता है
उपाधियां कि वह एम.ए. है,
कि पीएच.डी. है, कि डी.लिट. है,
कि कितनी ऑननेरी डिग्रियां उसने ले रखी हैं।
अगर तुम अज्ञानी के घर में जाओ
तो वह सर्टिफिकेट दीवाल पर लगा रखता है।
वह प्रदर्शन कर रहा है कि मैं जानता हूं।
लेकिन यह प्रदर्शन ही बताता है
कि भीतर उसे भी पता है
कि कुछ जानता नहीं है।
परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हैं,
प्रमाणपत्र इकट्ठे कर लिए हैं।
लेकिन जानने का न तो
परीक्षाओं से संबंध है,
न प्रमाणपत्रों से।
जानना तो जीवन के अनुभव से संबंधित है।
जानना तो जी-जीकर घटित होता है,
परीक्षाओं से उपलब्ध नहीं होता।
परीक्षाओं से तो इतना ही पता चलता है
कि तुम्हारे पास अच्छी यांत्रिक स्मृति है।
तुम वही काम कर सकते हो
जो कंप्यूटर कर सकता है।
लेकिन इससे बुद्धिमत्ता का
कोई पता नहीं चलता।
बुद्धिमत्ता बड़ी और बात है;
कालेजों, स्कूलों और
विश्वविद्यालयों में नहीं मिलती।
उसका तो एक ही विश्वविद्यालय है,
यह पूरा अस्तित्व।
यहीं जीकर, उठ कर, गिर कर,
तकलीफ से, पीड़ा से, निखार से,
जल कर आदमी धीरे-धीरे निखरता है,
परिष्कृत होता है।
ओशो
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