21.8.18

केवट,निषाद,मांझी ,मल्लाह जाती का इतिहास

                                       






  प्राचीन समय में जब परिवहन का कोई साधन नही था  तब नावों की ही सहायता से दूर तक यात्रा संभव हो पाती थी। नाव केवल यात्रा करने के लिए नहीं बल्कि व्यापार और सैन्य सेवाओं में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कल्पना कीजिए कि कोलंबस और वास्कोडिगामा के पास नाव नहीं होती तो क्या होता? तो भारत का दुनिया के दूसरे हिस्से से कभी परिचय नहीं हो पाता। पूरी दुनिया में कई प्रतापी राजा हुए जिन्होंने अपने साम्राज्य को दूर-दूर तक फैलाया बिना जो बिना नावों के असंभव था। एक देश से दूसरे देश तक व्यापार नावों से ही संभव हो पाया। हम कह सकते हैं नावों के बिना मानव और समाज का इतना जल्दी विकास नहीं हो पाता।नाव को चलाने का काम करने वाले को ही  मल्लाह ,केवट ,मांझी कहते हैं |  जो साहसी, निडर और कुशल गोताखोर हो वही यह काम कर सकता है। दुनियाभर के इन नाविकों को हम मल्लाह, केवट एवं माझी जैसे नामों से जानते हैं। मल्लाह कोई जाति नहीं बल्कि उन लोगों का समुह है जो नाव चलाने का काम करते हैं। हजारों सालों से नाव चलाना वंशानुगत हो जाने के कारण भारत में मल्लाह जाति बन गई। भले ही आज समाज विकसित हो गया है, यातायात के कई साधन आज उपलब्ध हैं, पर सभ्यता के निर्माण में क्या मल्लाहों के योगदान को भुलाया जा सकता हंै? ये लोग विश्वास करते हैं कि इनके पूर्वज पहले गंगा के तटों पर या वाराणसी अथवा इलाहाबाद में रहते थे। बाद में यह जाति मध्य प्रदेश के शहडोल, रीवा, सतना, पन्ना, छतरपुर और टीकमगढ़ जिलों  में आकर बस गये। इनके बोलचाल की भाषा बुन्देली है। ये देवनागरी लिपि का उपयोग करते हैं। ये सर्वाहारी होते हैं तथा मछली, बकरा एवं सुअर का गोश्त खाते हैं।  इनके गोत्र कश्यप, सनवानी, चौधरी, तेलियागाथ, कोलगाथ हैं। मल्लाह भारतवर्ष की यह एक आदिकालीन मछुआरा जाति है। मल्लाह जाति मूल रूप से आज हिन्दू धर्म से सम्बंधित है। यह शिकारी जाति है। यह जाति प्राचीनकाल से जल जंगल और जमीन पर आश्रित है। चूँकि यह जाति मुख्यत: जल से सम्बंधित व्यवसाय कर अपना जीवनयापन करते हैं, इस लिए मल्लाह, ‘मछुआरा’, केवटबिन्द, निषाद आदि नाम से जाना जाता है।

मल्लाह जाति के सरनेम

मल्लाह जाति के लोग अलग-अलग सरनेम /उपनाम लगाते हैं इनमें प्रमुख है मल्लाह, केवट राज, निषाद राज, बिंद, धीवर, साहनी, चौधरी, इत्यादी। उत्तर प्रदेश के लोग निषाद उपनाम का उपयोग ज्यादा करते हैं बिहार में साहनी, निषाद दोनों उपनामों का प्रयोग करते हैं, पंजाब चंडीगढ़, हरियाणा, लुधियाना राजस्थान आदि जगहों पर चौधरी उपनामों से जाने-जाते हैं। छत्तीसगढ़ में इन्हें निषाद, जलछत्री और पार्कर भी कहा जाता है। वहीं असम में इन्हें पहले ‘हलवा केओत’ के नाम से जाना जाता था, लेकिन आजकल वहां इस जाति के लोग खुद को केवट कहते हैं।

कैसे हुई मल्लाह शब्द की उत्पति?

मल्लाह, निषाद शब्द की तुलना में काफी आधुनिक शब्द है। यह एक अरबी शब्द ‘मल्लाह’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘एक पक्षी की तरह अपने पंख को हिलाना’ हालांकि प्रसिद्ध इतिहासकार विलियम क्रुक के अनुसार यह शब्द विशुद्ध रूप से एक व्यावसायिक शब्द है जिसका उपयोग मुख्य रूप से नौका विहार और मछली पकड़ने के जल केंद्रित व्यवसाय से जुड़े बड़े समुदाय के लिए किया जाता था। अरबी भाषा कि उत्पति लगभग 1500-2000 साल पुराना है तो हम मल्लाह शब्द के उत्पति का यही काल मान सकते हैं। ऐसा संभव है कि अरबी लोगों के दुनिया के दूसरे हिस्से से मेलजोल के कारण ही नाव चलाने वाले लोगों को मल्लाह कहकर बुलाया जाने लगा होगा। ये अलग बात है कि ज्यादातर मल्लाह लोग अपने पुश्तैनी काम को छोड़ चुके हैं। मल्लाह लोग आज हर क्षेत्र जैसे शिक्षा, राजनीति, व्यवसाय में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। ये उत्तर भारत, पूर्वी भारत, पूर्वोत्तर भारत और पाकिस्तान में मुख्य रूप से पाए जाते हैं। मछुआरा (मछली मारने वाले) वर्ग से मिलती जुलती कुछ जातियां (उपजातियां) है जैसे केवट, चांय, बिंद, जलिया कैबर्ता, ढीमर, माझी इत्यादि। मछुआरों कि ये उपजातियां अब पूरे देश में अलग-अलग नामों से जानी जाती हैं।

मल्लाह लोगों का शुरूआती जीवनयापन

जाति इतिहासकार डॉ. दयाराम आलोक के अनुसार मल्लाह नाव चलाने  चलाने वाली जाति है|  वे लोग नदी के किनारे रहते थे। रेत पर उगने वाले फलों और सब्जियों जैसे तरबुज, ककड़ी, कद्दू इत्यादि की खेती करते थे। इनमें से कुछ लोग मछलियां भी पकड़ते थे और इसलिए इनके पास नाव होता था। वे कभी-कभी कुछ लोगों को नदी भी पार करा दिया करते थे। प्राचीन जमाने में परिवहन साधन की कमी के कारण नाव चलाना उनके लिए काफी फायदे का सौदा बन गया होगा और इस तरह से वे नाविक बन गए। ये कोई अपरिचित जाति नहीं है बल्कि यह परंपरागत रूप से बहादुर जाति है।

डोली उठाने और बुनकरी का काम

नदी के किनारे रहने वाले यह लोग शादियों में डोली उठाने का भी काम भी करते थे उस समय अक्सर डोली लूट ली जाती थी। डोली उठाने के लिए उन्हें कहा जाता था शारीरिक जो सारे रूप से मजबूत और साहसी होते थे। मल्लाहों ने इस काम को बखूबी से किया। 1871 के आसपास दूसरे परिवहनों के आ जाने से और नदियों से जुड़े काम से पैसे कमाने के संसाधनो में कमी हो जाने से मल्लाहों ने बुनकरों का काम भी करना शुरू किया।

बिहार में जुब्बा सहनी इस जाति के आदर्श नायक माने जाते हैं, जिन्होंने संयुक्त बिहार के उत्तर बिहार में अंग्रेजों और सामंतों के खिलाफ बिरसा मुंडा ने आंदोलन किया | इसके बावजूद इतिहास के पन्नों में बतौर जाति कुछ खास उल्लेखित नहीं है। यह बात अलग है कि यदि इस जाति के लोगों को अतीत के पन्नों पर लिखने की आजादी होती तो ये अपने बारे में जरूर लिखते। मल्लाहो ने नदियों और समंदरों पर विजय पाई। इन्होंने ही मानव सभ्यता को पूरी दुनिया में विस्तारित किया। लेकिन ये समुदाय संगठित नहीं हैं, क्योंकि इनकी पहचान एक जैसी नहीं है।

  ये जातियां बेशक अति पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं, लेकिन हकीकत यही है कि ये न केवल सरकारी नौकरियों में बल्कि सियासत में भी हाशिए पर धकेल दिए गए हैं| प्रसिद्ध नृवंशविज्ञानी, रसेल और हिरालाल के अनुसार केवट एक मिश्रित जाति हैं  और इनका संबंध आर्यों से कभी नहीं रहा। ये तो यहां के मूलनिवासी रहे हैं। एचएच रिज्ले ने अपनी किताब ‘बंगाल के जनजाति और जाति’  में इसे रेखांकित किया है कि इनका आदिवासियों से रक्त संबंध रहा है। लेकिन मौजूदा दौर में वास्तविकता यह है कि अलग-अलग राज्यों में ये अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं।

अब इस जनजातीय संस्कृति वाले जाति समूह का ब्राह्मणीकरण करने में वर्चस्ववादियों को सफलता मिल चुकी है। इस जाति के अधिसंख्य लोग खुद को आदिवासी नहीं मानते। कहीं-कहीं आरक्षण के लिए अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग करते हैं, लेकिन दलित कहलाना पसंद नहीं करते। उत्तर प्रदेश और बिहार में तो इन्हें राम से, त्रिपुरा में शैव परंपरा से जोड़ दिया गया है। जबकि असम में इन्हें वैष्णव संत शंकरादेव का अनुयायी बता दिया है।

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15.8.18

मुस्लिम जाति और बोहरा जाति का इतिहास


   

मुस्लिमों को मुख्य रूप से दो हिस्सों में बांटा जाता है. मगर शिया और सुन्नियों के अलावा इस्लाम को मानने वाले लोग 72 फिरकों में बंटे हुए हैं. इन्हीं में से एक हैं बोहरा मुस्लिम. बोहरा शिया और सुन्नी दोनों होते हैं. सुन्नी बोहरा हनफी इस्लामिक कानून को मानते हैं. वहीं दाउदी बोहरा मान्यताओं में शियाओं के करीब होते हैं. गुजरात और महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा पाए जाने वाले दाउदी बोहरा 21 इमामों को मानते हैं.
आमतौर पर पढ़े-लिखे माने जाने वाले बोहरा समुदाय की भारत में लाखों की आबादी है. ये खुद को कई मामलों में बाकी मुस्लिमों से अलग मानते हैं. 2002 के बाद मुस्लिम समुदाय की बीजेपी और खासकर नरेंद्र मोदी से दूरी काफी बढ़ गई थी, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में बोहरा समुदाय ने नरेंद्र मोदी को खुला समर्थन दिया था.
     बोहरा मुस्लिमों की ही एक जाति है, जो शिया समुदाय को मानती है। बोहरा लोग शिया इस्माईली मुस्लिम हैं और पश्चिम भारत के निवासी हैं। यह अधिकांशत: व्यापार आदि में संलग्न रहते हैं। बोहरा मुस्लिम किसी भी मस्जिद में नहीं जाते, वे केवल मज़ारों पर ही जाते हैं। ये लोग सूफ़ियों पर अधिक विश्वास करते है, अल्लाह पर नहीं।

कम्युनिटी और व्यापार
                                            

बोहरा समुदाय की दो सबसे प्रमुख पहचान है. एक तो अधिकतर बोहरा व्यापारी हैं. इसके अलावा उनके अंदर समुदाय की भावना बहुत ज्यादा होती है. बोहरा समुदाय का प्रमुख सैयदना कहलाते हैं. बोहराओं में सैयदना का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है. बोहराओं के मोदी के समर्थन में आने के पीछे दो बड़ी वजह थीं. एक व्यापारियों की सुविधा के हिसाब से बनीं नीतियां. दूसरा नरेंद्र मोदी का बार-बार सैयदना से मिलना. हालांकि ये भी बड़ा तथ्य है कि 2002 के दंगों में कई बोहराओं के घर और दुकानें भी निशाना बनी थीं.





'बोहरा' गुजराती शब्द 'वहौराउ', अर्थात्- 'व्यापार करना' का अपभ्रंश है। इसमें व्यापारी वर्ग के शिया बहुसंख्यक और आमतौर पर किसान सुन्नी अल्पसंख्यक शामिल हैं।
मूलत: मिस्र में उत्पन्न और बाद में अपना धार्मिक केंद्र यमन ले जाने वाले मुस्ताली मत ने 11वीं शताब्दी में धर्म प्रचारकों के माध्यम से भारत में अपनी जगह बनाई।
1539 के बाद जब भारतीय समुदाय बहुत बड़ा हो गया, तब इस मत का मुख्यालय यमन से भारत में सिद्धपुर लाया गया।
1588 में दाऊद बिन कुतब शाह और सुलेमान के अनुयायियों के कारण बोहरा समुदाय में विभाजन हुआ और दोनों ने समुदाय के नेतृत्व का दावा किया।
बोहराओं में दाऊद और सुलेमान के अनुयायियों के दो प्रमुख समूह बन गये, जिनके धार्मिक सिद्धांतों में कोई ख़ास सैद्धांतिक अंतर नहीं है।
                                           


दाऊदियों के प्रमुख मुम्बई में तथा सुलेमानियों के प्रमुख यमन में रहते हैं।
चरमपंथ और इस्लाम के जुड़ते रिश्तों से परेशान भारत में इस्लाम की बरेलवी विचारधारा के सूफ़ियों और नुमाइंदों ने एक कांफ्रेंस कर कहा कि वो दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ हैं. सिर्फ़ इतना ही नहीं बरेलवी समुदाय ने इसके लिए वहाबी विचारधारा को ज़िम्मेदार ठहराया.
इन आरोप-प्रत्यारोप के बीच सभी की दिलचस्पी इस बात में बढ़ गई है कि आख़िर ये वहाबी विचारधारा क्या है. लोग जानना चाहते हैं कि मुस्लिम समाज कितने पंथों में बंटा है और वे किस तरह एक दूसरे से अलग हैं?
इस्लाम के सभी अनुयायी ख़ुद को मुसलमान कहते हैं लेकिन इस्लामिक क़ानून (फ़िक़ह) और इस्लामिक इतिहास की अपनी-अपनी समझ के आधार पर मुसलमान कई पंथों में बंटे हैं.

बड़े पैमाने पर या संप्रदाय के आधार पर देखा जाए तो मुसलमानों को दो हिस्सों-सुन्नी और शिया में बांटा जा सकता है.
हालांकि शिया और सुन्नी भी कई फ़िरक़ों या पंथों में बंटे हुए हैं
बात अगर शिया-सुन्नी की करें तो दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि अल्लाह एक है, मोहम्मद साहब उनके दूत हैं और क़ुरान आसमानी किताब यानी अल्लाह की भेजी हुई किताब है.
लेकिन दोनों समुदाय में विश्वासों और पैग़म्बर मोहम्मद की मौत के बाद उनके उत्तराधिकारी के मुद्दे पर गंभीर मतभेद हैं. इन दोनों के इस्लामिक क़ानून भी अलग-अलग हैं.
सुन्नी या सुन्नत का मतलब उस तौर तरीक़े को अपनाना है जिस पर पैग़म्बर मोहम्मद (570-632 ईसवी) ने ख़ुद अमल किया हो और इसी हिसाब से वे सुन्नी कहलाते हैं.
एक अनुमान के मुताबिक़, दुनिया के लगभग 80-85 प्रतिशत मुसलमान सुन्नी हैं जबकि 15 से 20 प्रतिशत के बीच शिया हैं.

सुन्नी मुसलमानों का मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद के बाद उनके ससुर हज़रत अबु-बकर (632-634 ईसवी) मुसलमानों के नए नेता बने, जिन्हें ख़लीफ़ा कहा गया.
इस तरह से अबु-बकर के बाद हज़रत उमर (634-644 ईसवी), हज़रत उस्मान (644-656 ईसवी) और हज़रत अली (656-661 ईसवी) मुसलमानों के नेता बने.
इन चारों को ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन यानी सही दिशा में चलने वाला कहा जाता है. इसके बाद से जो लोग आए, वो राजनीतिक रूप से तो मुसलमानों के नेता कहलाए लेकिन धार्मिक एतबार से उनकी अहमियत कोई ख़ास नहीं थी.
जहां तक इस्लामिक क़ानून की व्याख्या का सवाल है सुन्नी मुसलमान मुख्य रूप से चार समूह में बंटे हैं. हालांकि पांचवां समूह भी है जो इन चारों से ख़ुद को अलग कहता है.
इन पांचों के विश्वास और आस्था में बहुत अंतर नहीं है, लेकिन इनका मानना है कि उनके इमाम या धार्मिक नेता ने इस्लाम की सही व्याख्या की है.
दरअसल सुन्नी इस्लाम में इस्लामी क़ानून के चार प्रमुख स्कूल हैं.
आठवीं और नवीं सदी में लगभग 150 साल के अंदर चार प्रमुख धार्मिक नेता पैदा हुए. उन्होंने इस्लामिक क़ानून की व्याख्या की और फिर आगे चलकर उनके मानने वाले उस फ़िरक़े के समर्थक बन गए.
ये चार इमाम थे- इमाम अबू हनीफ़ा (699-767 ईसवी), इमाम शाफ़ई (767-820 ईसवी), इमाम हंबल (780-855 ईसवी) और इमाम मालिक (711-795 ईसवी).
हनफ़ी
इमाम अबू हनीफ़ा के मानने वाले हनफ़ी कहलाते हैं. इस फ़िक़ह या इस्लामिक क़ानून के मानने वाले मुसलमान भी दो गुटों में बंटे हुए हैं. एक देवबंदी हैं तो दूसरे अपने आप को बरेलवी कहते हैं.
देवबंदी और बरेलवी
दोनों ही नाम उत्तर प्रदेश के दो ज़िलों, देवबंद और बरेली के नाम पर है.
दरअसल 20वीं सदी के शुरू में दो धार्मिक नेता मौलाना अशरफ़ अली थानवी (1863-1943) और अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी (1856-1921) ने इस्लामिक क़ानून की अलग-अलग व्याख्या की.
अशरफ़ अली थानवी का संबंध दारुल-उलूम देवबंद मदरसा से था, जबकि आला हज़रत अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी का संबंध बरेली से था.
मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही और मौलाना क़ासिम ननोतवी ने 1866 में देवबंद मदरसे की बुनियाद रखी थी. देवबंदी विचारधारा को परवान चढ़ाने में मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही, मौलाना क़ासिम ननोतवी और मौलाना अशरफ़ अली थानवी की अहम भूमिका रही है.
उपमहाद्वीप यानी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले अधिकांश मुसलमानों का संबंध इन्हीं दो पंथों से है.
देवबंदी और बरेलवी विचारधारा के मानने वालों का दावा है कि क़ुरान और हदीस ही उनकी शरियत का मूल स्रोत है लेकिन इस पर अमल करने के लिए इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है. इसलिए शरीयत के तमाम क़ानून इमाम अबू हनीफ़ा के फ़िक़ह के अनुसार हैं.
वहीं बरेलवी विचारधारा के लोग आला हज़रत रज़ा ख़ान बरेलवी के बताए हुए तरीक़े को ज़्यादा सही मानते हैं. बरेली में आला हज़रत रज़ा ख़ान की मज़ार है जो बरेलवी विचारधारा के मानने वालों के लिए एक बड़ा केंद्र है.
दोनों में कुछ ज़्यादा फ़र्क़ नहीं लेकिन कुछ चीज़ों में मतभेद हैं. जैसे बरेलवी इस बात को मानते हैं कि पैग़म्बर मोहम्मद सब कुछ जानते हैं, जो दिखता है वो भी और जो नहीं दिखता है वो भी. वह हर जगह मौजूद हैं और सब कुछ देख रहे हैं.
वहीं देवबंदी इसमें विश्वास नहीं रखते. देवबंदी अल्लाह के बाद नबी को दूसरे स्थान पर रखते हैं लेकिन उन्हें इंसान मानते हैं. बरेलवी सूफ़ी इस्लाम के अनुयायी हैं और उनके यहां सूफ़ी मज़ारों को काफ़ी महत्व प्राप्त है जबकि देवबंदियों के पास इन मज़ारों की बहुत अहमियत नहीं है, बल्कि वो इसका विरोध करते हैं.
मालिकी
इमाम अबू हनीफ़ा के बाद सुन्नियों के दूसरे इमाम, इमाम मालिक हैं जिनके मानने वाले एशिया में कम हैं. उनकी एक महत्वपूर्ण किताब 'इमाम मोत्ता' के नाम से प्रसिद्ध है.
उनके अनुयायी उनके बताए नियमों को ही मानते हैं. ये समुदाय आमतौर पर मध्य पूर्व एशिया और उत्तरी अफ्रीका में पाए जाते हैं.
शाफ़ई
शाफ़ई इमाम मालिक के शिष्य हैं और सुन्नियों के तीसरे प्रमुख इमाम हैं. मुसलमानों का एक बड़ा तबक़ा उनके बताए रास्तों पर अमल करता है, जो ज़्यादातर मध्य पूर्व एशिया और अफ्रीकी देशों में रहता है.
आस्था के मामले में यह दूसरों से बहुत अलग नहीं है लेकिन इस्लामी तौर-तरीक़ों के आधार पर यह हनफ़ी फ़िक़ह से अलग है. उनके अनुयायी भी इस बात में विश्वास रखते हैं कि इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है.
हंबली
सऊदी अरब, क़तर, कुवैत, मध्य पूर्व और कई अफ्रीकी देशों में भी मुसलमान इमाम हंबल के फ़िक़ह पर ज़्यादा अमल करते हैं और वे अपने आपको हंबली कहते हैं.
सऊदी अरब की सरकारी शरीयत इमाम हंबल के धार्मिक क़ानूनों पर आधारित है. उनके अनुयायियों का कहना है कि उनका बताया हुआ तरीक़ा हदीसों के अधिक करीब है.

इन चारों इमामों को मानने वाले मुसलमानों का ये मानना है कि शरीयत का पालन करने के लिए अपने अपने इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है.
सल्फ़ी, वहाबी और अहले हदीस
सुन्नियों में एक समूह ऐसा भी है जो किसी एक ख़ास इमाम के अनुसरण की बात नहीं मानता और उसका कहना है कि शरीयत को समझने और उसका सही ढंग से पालन करने के लिए सीधे क़ुरान और हदीस (पैग़म्बर मोहम्मद के कहे हुए शब्द) का अध्ययन करना चाहिए.
इसी समुदाय को सल्फ़ी और अहले-हदीस और वहाबी आदि के नाम से जाना जाता है. यह संप्रदाय चारों इमामों के ज्ञान, उनके शोध अध्ययन और उनके साहित्य की क़द्र करता है.
लेकिन उसका कहना है कि इन इमामों में से किसी एक का अनुसरण अनिवार्य नहीं है. उनकी जो बातें क़ुरान और हदीस के अनुसार हैं उस पर अमल तो सही है लेकिन किसी भी विवादास्पद चीज़ में अंतिम फ़ैसला क़ुरान और हदीस का मानना चाहिए.
सल्फ़ी समूह का कहना है कि वह ऐसे इस्लाम का प्रचार चाहता है जो पैग़म्बर मोहम्मद के समय में था. इस सोच को परवान चढ़ाने का सेहरा इब्ने तैमिया(1263-1328) और मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब(1703-1792) के सिर पर बांधा जाता है और अब्दुल वहाब के नाम पर ही यह समुदाय वहाबी नाम से भी जाना जाता है.
मध्य पूर्व के अधिकांश इस्लामिक विद्वान उनकी विचारधारा से ज़्यादा प्रभावित हैं. इस समूह के बारे में एक बात बड़ी मशहूर है कि यह सांप्रदायिक तौर पर बेहद कट्टरपंथी और धार्मिक मामलों में बहुत कट्टर है. सऊदी अरब के मौजूदा शासक इसी विचारधारा को मानते हैं.
अल-क़ायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन भी सल्फ़ी विचाराधारा के समर्थक थे.
सुन्नी बोहरा
गुजरात, महाराष्ट्र और पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मुसलमानों के कारोबारी समुदाय के एक समूह को बोहरा के नाम से जाना जाता है. बोहरा, शिया और सुन्नी दोनों होते हैं.
सुन्नी बोहरा हनफ़ी इस्लामिक क़ानून पर अमल करते हैं जबकि सांस्कृतिक तौर पर दाऊदी बोहरा यानी शिया समुदाय के क़रीब हैं.
अहमदिया
हनफ़ी इस्लामिक क़ानून का पालन करने वाले मुसलमानों का एक समुदाय अपने आप को अहमदिया कहता है. इस समुदाय की स्थापना भारतीय पंजाब के क़ादियान में मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने की थी.
इस पंथ के अनुयायियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ख़ुद नबी का ही एक अवतार थे.
उनके मुताबिक़ वे खुद कोई नई शरीयत नहीं लाए बल्कि पैग़म्बर मोहम्मद की शरीयत का ही पालन कर रहे हैं लेकिन वे नबी का दर्जा रखते हैं. मुसलमानों के लगभग सभी संप्रदाय इस बात पर सहमत हैं कि मोहम्मद साहब के बाद अल्लाह की तरफ़ से दुनिया में भेजे गए दूतों का सिलसिला ख़त्म हो गया है.
लेकिन अहमदियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ऐसे धर्म सुधारक थे जो नबी का दर्जा रखते हैं.
बस इसी बात पर मतभेद इतने गंभीर हैं कि मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग अहमदियों को मुसलमान ही नहीं मानता. हालांकि भारत, पाकिस्तान और ब्रिटेन में अहमदियों की अच्छी ख़ासी संख्या है.
पाकिस्तान में तो आधिकारिक तौर पर अहमदियों को इस्लाम से ख़ारिज कर दिया गया है.
शिया
                           


शिया मुसलमानों की धार्मिक आस्था और इस्लामिक क़ानून सुन्नियों से काफ़ी अलग हैं. वह पैग़म्बर मोहम्मद के बाद ख़लीफ़ा नहीं बल्कि इमाम नियुक्त किए जाने के समर्थक हैं.
उनका मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद की मौत के बाद उनके असल उत्तारधिकारी उनके दामाद हज़रत अली थे. उनके अनुसार पैग़म्बर मोहम्मद भी अली को ही अपना वारिस घोषित कर चुके थे लेकिन धोखे से उनकी जगह हज़रत अबू-बकर को नेता चुन लिया गया.
शिया मुसलमान मोहम्मद के बाद बने पहले तीन ख़लीफ़ा को अपना नेता नहीं मानते बल्कि उन्हें ग़ासिब कहते हैं. ग़ासिब अरबी का शब्द है जिसका अर्थ हड़पने वाला होता है.
उनका विश्वास है कि जिस तरह अल्लाह ने मोहम्मद साहब को अपना पैग़म्बर बनाकर भेजा था उसी तरह से उनके दामाद अली को भी अल्लाह ने ही इमाम या नबी नियुक्त किया था और फिर इस तरह से उन्हीं की संतानों से इमाम होते रहे.
आगे चलकर शिया भी कई हिस्सों में बंट गए.
इस्ना अशरी
सुन्नियों की तरह शियाओं में भी कई संप्रदाय हैं लेकिन सबसे बड़ा समूह इस्ना अशरी यानी बारह इमामों को मानने वाला समूह है. दुनिया के लगभग 75 प्रतिशत शिया इसी समूह से संबंध रखते हैं. इस्ना अशरी समुदाय का कलमा सुन्नियों के कलमे से भी अलग है.
उनके पहले इमाम हज़रत अली हैं और अंतिम यानी बारहवें इमाम ज़माना यानी इमाम महदी हैं. वो अल्लाह, क़ुरान और हदीस को मानते हैं, लेकिन केवल उन्हीं हदीसों को सही मानते हैं जो उनके इमामों के माध्यम से आए हैं.
क़ुरान के बाद अली के उपदेश पर आधारित किताब नहजुल बलाग़ा और अलकाफ़ि भी उनकी महत्वपूर्ण धार्मिक पुस्तक हैं. यह संप्रदाय इस्लामिक धार्मिक क़ानून के मुताबिक़ जाफ़रिया में विश्वास रखता है. ईरान, इराक़, भारत और पाकिस्तान सहित दुनिया के अधिकांश देशों में इस्ना अशरी शिया समुदाय का दबदबा है.
ज़ैदिया
शियाओं का दूसरा बड़ा सांप्रदायिक समूह ज़ैदिया है, जो बारह के बजाय केवल पांच इमामों में ही विश्वास रखता है. इसके चार पहले इमाम तो इस्ना अशरी शियों के ही हैं लेकिन पांचवें और अंतिम इमाम हुसैन (हज़रत अली के बेटे) के पोते ज़ैद बिन अली हैं जिसकी वजह से वह ज़ैदिया कहलाते हैं.
उनके इस्लामिक़ क़ानून ज़ैद बिन अली की एक किताब 'मजमऊल फ़िक़ह' से लिए गए हैं. मध्य पूर्व के यमन में रहने वाले हौसी ज़ैदिया समुदाय के मुसलमान हैं.
इस्माइली शिया
शियों का यह समुदाय केवल सात इमामों को मानता है और उनके अंतिम इमाम मोहम्मद बिन इस्माइल हैं और इसी वजह से उन्हें इस्माइली कहा जाता है. इस्ना अशरी शियों से इनका विवाद इस बात पर हुआ कि इमाम जाफ़र सादिक़ के बाद उनके बड़े बेटे इस्माईल बिन जाफ़र इमाम होंगे या फिर दूसरे बेटे.
इस्ना अशरी समूह ने उनके दूसरे बेटे मूसा काज़िम को इमाम माना और यहीं से दो समूह बन गए. इस तरह इस्माइलियों ने अपना सातवां इमाम इस्माइल बिन जाफ़र को माना. उनकी फ़िक़ह और कुछ मान्यताएं भी इस्ना अशरी शियों से कुछ अलग है.
दाऊदी बोहरा
बोहरा का एक समूह, जो दाऊदी बोहरा कहलाता है, इस्माइली शिया फ़िक़ह को मानता है और इसी विश्वास पर क़ायम है. अंतर यह है कि दाऊदी बोहरा 21 इमामों को मानते हैं.
उनके अंतिम इमाम तैयब अबुल क़ासिम थे जिसके बाद आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा है. इन्हें दाई कहा जाता है और इस तुलना से 52वें दाई सैय्यदना बुरहानुद्दीन रब्बानी थे. 2014 में रब्बानी के निधन के बाद से उनके दो बेटों में उत्तराधिकार का झगड़ा हो गया और अब मामला अदालत में है.
बोहरा भारत के पश्चिमी क्षेत्र ख़ासकर गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं जबकि पाकिस्तान और यमन में भी ये मौजूद हैं. यह एक सफल व्यापारी समुदाय है जिसका एक धड़ा सुन्नी भी है.
खोजा
खोजा गुजरात का एक व्यापारी समुदाय है जिसने कुछ सदी पहले इस्लाम स्वीकार किया था. इस समुदाय के लोग शिया और सुन्नी दोनों इस्लाम मानते हैं.
ज़्यादातर खोजा इस्माइली शिया के धार्मिक क़ानून का पालन करते हैं लेकिन एक बड़ी संख्या में खोजा इस्ना अशरी शियों की भी है.
लेकिन कुछ खोजे सुन्नी इस्लाम को भी मानते हैं. इस समुदाय का बड़ा वर्ग गुजरात और महाराष्ट्र में पाया जाता है. पूर्वी अफ्रीकी देशों में भी ये बसे हुए हैं.
शियों का यह संप्रदाय सीरिया और मध्य पूर्व के विभिन्न क्षेत्रों में पाया जाता है. इसे अलावी के नाम से भी जाना जाता है. सीरिया में इसे मानने वाले ज़्यादातर शिया हैं और देश के राष्ट्रपति बशर अल असद का संबंध इसी समुदाय से है.
इस समुदाय का मानना है कि अली वास्तव में भगवान के अवतार के रूप में दुनिया में आए थे. उनकी फ़िक़ह इस्ना अशरी में है लेकिन विश्वासों में मतभेद है. नुसैरी पुर्नजन्म में भी विश्वास रखते हैं और कुछ ईसाइयों की रस्में भी उनके धर्म का हिस्सा हैं.
इन सबके अलावा भी इस्लाम में कई छोटे छोटे पंथ पाए जाते हैं.
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