21.8.18

केवट,निषाद,मांझी ,मल्लाह जाती का इतिहास

                                       






निषाद जाति भारतवर्ष की मूल एवं प्राचीनतम जातियों में से एक हैं। रामायणकाल में निषादों की अपनी अलग सत्ता एवं संस्कृति थी, एवं निषाद एक जाति नहीं बल्कि चारों वर्ण से अलग "पंचम वर्ण" के नाम से जाना जाता था। आदिकवि महर्षि बाल्मीकि, विश्वगुरू महर्षि वेद व्यास, भक्त प्रह्लाद और रामसखा महाराज श्रीगुहराज निषाद जैसे महान आत्माओं ने इस जाति सुशोभित किया है। स्वतंत्रता आन्दोलन में भी इस समुदाय के शूरवीरों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, लेकिन आज इस समुदाय के लोंगो में वैचारिक भिन्नता के कारण समुदाय का विकास अवरुद्ध सा हो गया है। उप-जाति, कुरी, गौत्र के आधार पर समुदाय का विखंडन हो रहा है, फलतः समुदाय के सामाजिक, धार्मिक आर्थिक एवं राजनैतिक मान-मर्यादा में ह्रास हो रहा है। इसी वैचारिक भिन्नता का उन्मूलन एवं उप-जाति, कुरी, गौत्र के आधार सामाजिक विखराव को रोकने हेतु एक प्रयास किया जा रहा है।

हम राजा निषादराज के वंशज है जिन्होंने भगवान् राम जी के पिता राजा दशरथ को युद्ध मैं तेरह बार हराया और जीत कर उनका राज वापिस कर दिया था हमारा राजा कितना दयालु था ? आज भगवान् राम की पूजा होती है और अब इतिहास मैं राजा निषादराज जी को सेवक के रूप मैं बताया जाता है ? जब भगवान् राम वनवास जा रहे थे तो केवट जी ने अपनी नाव से गंगा पार करवाई और जब केवट जी ने उतराई मांगी तो उन्होंने कहा की वापिस आने पर मिलेगे लेकिन वनवास से लौटने के बाद राम जी ने मिलना भी ठीक नही समझा ?हम राजा एकलव्य के वंशज है जिन्होंने धूर्त चालक द्रोणाचार्य को अपना अंगूठा दान मैं दे दिया था अब चाहे एकलव्य जी की नादानी समझो या गुरु भक्ति ? अब कलयुग मैं मछुआ समाज को राजनेता बेबकुफ़ बना रहे है समाजवादी पार्टी सत्रह जातियों के आरक्षण के नाम पर गुमराह करती रही मायावती जी मछुआ आरक्षण का खुलकर विरोध करती है कांग्रेस बात करना नही चाहती भा ज पा मछुआरा प्रकोष्ट बना कर हमारी घेरावंदी कर रही है ?
                                                         



माझी जाति का तात्पर्य नाव चलाने वाले से है। मल्लाह, केवट, नाविक इसके पर्यायवाची हैं। ये विश्वास करते हैं कि इनके पूर्वज पहले गंगा के तटों पर या वाराणसी अथवा इलाहाबाद में रहते थे। बाद में यह जाति मध्य प्रदेश के शहडोल, रीवा, सतना, पन्ना, छतरपुर और टीकमगढ़ ज़िलों में आकर बस गयी। सन 1981 की जनगणना के अनुसार मध्य प्रदेश में माझी समुदाय की कुल जनसंख्या 11,074 है। इनके बोलचाल की भाषा बुन्देली है। ये देवनागरी लिपि का उपयोग करते हैं। ये सर्वाहारी होते हैं तथा मछली, बकरा एवं सुअर का गोश्त खाते हैं। इनका मुख्य भोजन चावल, गेंहु, दाल सरसों तिली महुआ के तेल से बनता है। इनके गोत्र कश्यप, सनवानी, चौधरी, तेलियागाथ, कोलगाथ हैं। मल्लाह भारतवर्ष की यह एक आदिकालीन मछुआरा 
जाति है। मल्लाह जाति मूल रूप से हिन्दू धर्म से सम्बंधित है। यह आखेटक अर्थात शिकारी जाति है। इनका उल्लेख महाभारत एवं रामायण जैसे भारत के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में मिलता है। यह जाति प्राचीनकाल से जल जंगल और ज़मीन पर आश्रित है। वर्णव्यवस्थानुसार यह जाति वैश्य श्रेणी के अंतर्गत आती है। चूँकि यह जाति मुख्यत: जल से सम्बंधित व्यवसाय कर अपना जीवनयापन करते चले आए हैं, इस लिए मल्लाह, "मछुआरा" ,केवट\बिन्द ,निषाद की ही कई उप-जातियों में से एक हैं।
भारतवर्ष आर्थिक कारोबारी तरक्की में जितना मल्लाह समाज का हाथ है अन्य जाति का नही है। आज तक भारत ने तीन राज देखे हैं प्रथम राज भारत पर आर्यों ने किया दूसरा राज मुलगोनों ने तीसरा राज अंग्रेजों ने किया लेकिन जहारों लाखों साल पूर्व दुनिया के इतिहास में केवट राज निषाद जी (मल्लाह) ने धर्म (हिनू) भगवान श्री राम जी को वनवास काल के दौरान अपनी ओत, जोत दोनों वक्त नदी पार कराई, सतयुग से लेकर आज तक यही काम कर रही है यह । यह जाति धीरे धीरे दनियों किनारे खाली पडी जमीन में तरबुज, खरबुजा, ककडी, लोकी खेती उगाने लगी वहीं कुछ लोग मछली पकड कर अपने परिवार का पालन पोशन करने लगे। वही गरीब अमीर, राजाओ की पुत्रियों की शादी में दुल्हन की डोली दुल्हे वर के घर पहुंचाने लगे यह र्का 800 वर्षों तक चला लेकिन इतिहास के पन्नों में एक भी मामला आपको ऐसा नहीं मिलेगा कि किसी (मल्लाह) कहार ने किसी की डोली लूट ली। इस तरह भारत के अलग अलग क्षत्रों में मल्लाह जाति को अलग अलग नाम से पुकारा जाने लगा जैसे मल्लाह, केवट, निषाद, महागीर, मांझी, यमुना प्रत्र, मछुआरा, कश्यप आदि के नाम से पुकारा जाने लगा। राजा भतके के राज के दौरान मल्लाह जाति को बडी इज्जत मिलजी थी। मल्लाह के अलावा नावघाट, मछुली पकडना, डोली उठाना जैसे काम कर कर अपना गुजारा करते जहां राजा कि सेना नहीं निकल सकती व मल्लाह को बसाकर नाव नाव (कश्तीे) से सेना को पार करते। एक दूसरे शहरों के व्यापारी भी नाव से माल लाने लेजाने का कार्य करते थे उसके बाद मुगलों के राज में पाीपत के प्रथम युदध के लिए है तालिबान से बहादुर शाह अब्दाली की सेा यमुना पर रूक गयी, पानी यमुना में अधिक था अब्दाली द्वारा खानी बश्ती (वर्तमान रामडा-तहसील) कैराना। जनपद शामली (मु. नगर, उत्तर प्रदेश) मल्लाह बश्ती में मल्लाह तैराकों की मदद से सेना के लिए रास्ता निकाला। युदघ में जीतने के बाद अब्दाली ने मल्लाह जाती के लिए रेत-खनन, नाव घाट, मछली, दनियों की पडी जमीन कर मुक्त कर फ्री खेती कर घाट लगाना आरक्षित कर दिया जो कि अब्दाली के द्वारा लिखित में दिया गया जो कि रामडा नि. मल्लाह के पास था लेकिन गांव में बाड आने के कारण वह गुम होगया फिर अंग्रजों के राज के दौरान मल्लाह जाीि के तैराकों कश्ती लगाने वालों की मांग बढी।अंग्रेजों द्वारा पानी के जहाजों का कार्य लगभग इन जाति के लोगों पर चलता कहीं कहीं तो कश्ती चलाने वालों को अच्छी नोकरी पद मिल जाते थे करीब 150 वर्ष पूर्व उ. प्र. के मु. नगर जनपद कैराना के पास मवी हैदरपुर गांव बुन्डा मल्लाह को उनकी बहादुरी के किस्से दूर दूर तक मशहूर थे बुन्डा मल्लाह अपने दौर के बतरीन निशानेबाज थे गहरे पानी से दूर से आभास कर के ापनी मं अपनी बन्दूक की गोली से मगर (नाकू) मार देते थे जिस से खुश होकर अंग्रेज सरकान ने उन्हें मजिस्टेट की पदवी दी थी। 12 ग्रामों को इनाम में दे दिया था इस दौर में भी मल्लाह जाति की बहुत इज्जत थी रेत खनन, मछली पकडने, नाव घाट, डोली उठाना, दनियों की खाली पडी जमीन मुफत खेती के लिए आरक्षित रहा। फिर देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से लडाई चली तो मल्लाह जाति के लोगों का योगदान कम नहीं रहा। उत्तर प्रदेश, मु. नगर के ग्राम रामडा (पूर्व में मल्लाह बश्ती) के बरकत मल्लाह आदि ने पंडित जवार लाल नहरू, लाल बहादुर शास्त्री कोअपनी नाव दनियों को पार तारने के साथ साथ ही स्वतन्त्रता सैनानियों की दनियों में सुक्षित नदियां पार कराई। फिर 15.8.1947 में देश आजाद हुआ चारों ओर खुशियां थीं। नई आजादी के साथ नई उम्मीद थी लेकिन पंडित जी के प्रथम प्रधान मन्त्री बनने के बाद से लेकर 1990 तक उत्तर प्रदेश सरकान के या अन्य राज्य सरकान ने जो भी नाव घाट, पुंछी, मछली पालन, रेत खनन, दनियों की जमीन तरबुज, खरबुजा, ककडी आदि के की निलामी मल्लाह या मछुआ समुदाय की जातियाकें के व्यक्ति के नाम निलामी की रकम देकर छोडे जाने लगी। इसके साथ लाखों जहारों साल से चल रही फ्री पटरे योजना पैसों में छोडी जाने लगी लेकिन 1990 दशक के बाद रेत खनन माफिया के नेताओं के साथ बहुत मोटी धनराशी कमाने लगे और धीरे धीरे मल्लाह जाति के लोग पहले कश्ती घाट फिर रेत खनन, नदियों की जमीन में तालाबों पर हर तरह के माफियों अधिकारियों, नेताओं की मिली भगत से मल्लाह को कहीं धन की बल से डरा धमकाकर इन कार्यों से दूर कर दिया गया और नेता माफिया द्वारा नदियों का सीना चीरकर अवैध रेत खनन करते रहे। नाव घाट पर कब्जा कर लिया, तालाब समाप्त कर दिये गए, गोता खोर भी अन्य जातियों के लगने लगा अब बेरोजगार मल्लाह जाति के लोग खाना बदोशों की तरह इधर उधर रोजगार की तलाश में फिरने लगे, भुखमरी आने के कारण अपने बच्चों को पढाने से कोई नेता समाज की तरफ नहीं देखता। आज भगवान श्री राम के देश में भगवान को नदी पार कराने वाले देश आर्थि तंगी व्यापार में बढाने वालों को राम के ही देश में उनके अधिकारों को एक शाजिश के तहत समाप्त कर दिया गया। पिछले 68 वर्षों में मल्लाह जाति के लोगों पर जितने जुल्म अत्याचार हुए हैं किसी जाति पर नहीं। जहां भारत का संविधान यह कहता है कि आरक्षण का लाभ जाति धर्म के आधार पर नहीं बल्कि पिछडेपन के आधार पर मिलता है तो मेरा दावा है कोई सरकार सर्वे करालो या कुछ भी कर लो मल्लाह जाति, मछुआ समुदाय की इस जाति के लोग भूमीहीन है। गरीबी सबसे ज्यादा है रोजगार नहीं । शिक्षा में पिछड गया कि समाज की मुख्यधारा में इनकी हालत दलितों से भी कहीं ज्यादा खराब है। क्या राम के देश भारत का संविधान मल्लाह व मछुआ समुदाय कि जातियों के साथ इंसाफ नहीं करेगा। बस हर सरकार हर पार्टी ने हमें वोटों के रूप में देखा है बस अब मेरी मल्लाह जाति के सभी व मछुआ समुदाये कि जाति के लोगों से निवेदन है कि आप धर्मों में न बट कर केवल जाति को दखें, मल्लाह, केवट, निषाद अन्य उप जाति चाहे वह हिन्दू धर्म या इस्लाम, सिख, इसाई धर्म से तालुक क्यू न रखती है बस हमारे लिए वह भाई है जिस तरह और जातियों में धर्म नहीं जाति बेश पर अपने अधिकारों की लडाई लड रही है हम भी एक होकर मछुआ समुदाय की सभी उपजातियों के अधिकारेां के लिए संघर्ष करें। इस लिए हमारी समीति के द्वारा अनेक मांगी रखी गयी हैं कृपया उन पर विचार विमर्ष कर हमें अपने सुझाव भेंजें। ... मल्लाह फन्ड की स्थापना मल्लाह फन्ड की स्थापना कराने का मकसद यह है कि समिती के बैंक खाते में जो भी चन्दा इकटठा होगा उस चन्दे से आप और हम सब जानते हैं कि अगर हमारे भाई की मौत होजाय तो हमारी बहने इद्द्त में 4 माह दस दिन बैठ जाती लेकिन 80 प्रतिशत ऐसे हालत आती है कि वह बहुत मजबूर होती इस तरह के मामलों को देखकर हमने मल्लाह फंड की स्थापना करने की जरूरत महसूस की। फन्ड देने वालों की कमेटी ग्राम वाई होगी। किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा। ज्यादा जरूरतमंद होने पर कमेटी उसका चयन करेगी जिसे ज्यादा जरूरत समझेगी। आप सब का कोई भी इन्सान इसका मेम्बर बन सकता है जिसे हर महीने दान करना। हर साल या कभी भी साल में एक बार समिती का हिसाब किता होगा। उस वक्त आप कोई भी किसी तरह का हिसाब ले सकते हैं। लाभार्थी का चयनः 1. जवान लडकियों की शादी में मदद करना 2. इद्द्त में बैठी अपनी जरूरतमंद बहनों की मदद करना 3. गम्भीर बिमारी में मदद करना 4. गरीब परिवार के बच्चों को किताबें व स्कूल फीस भरना 5. हाई एजुकेशन पढ रहे गरीब बच्चों के दाखिले में मदद एवं फीस भरना 6. विकलंग बच्चों को टाईसिकल आदि सामान देना 7. सिलाई कढाई के सेटर खुलवाना 8. समाज के गरीब बच्चों का काम सीखाने वालों को मिस्त्री, दुकान खुलावाने में मदद करना अपील प्रिय प्यारे दोस्तों एवं अजीज साथियों आपको जानकर खुशी होगी कि मछुआ समुदाय की सभी उप जातियों मल्लाह समाज की रोजगार, समस्याओं, आरक्षन मांगें सरकार तक पहुंचाने के लिए केवट मल्लाह एकता सेवा समिती का का गठन किया गया जिसके बाद समिती को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मान्यता दिनांक .......... दी गई जिस का रजिस्टशन संखया अधिनिया 1860 के अन्तर्गत रजिस्टशन संख्या 364 है एक वर्ष समिती ने 1000 पत्र भारत के सभी राज्यों के मुख्य मंत्रियों, भारत सरकार के सभी मंत्रीयों, प्रधान मंत्री महोदय, सभी पार्टियों के अध्यक्षों को मल्लाह जाति की मूल समस्याओं से अवगत कराया है जिस का हमें फायदा हुआ है। जो योजना हमारे समाज को मिलनी चाहिए थी उनकी जानकारी हमें नहीं थी यह जाकारी हमें विभिन्न राज्य सरकारों ने उपलब्ध करादी है जैसे मल्लाह समाज को कल्याण कारी संस्था के सदस्यों के लिए मछुआ आवास कल्याण योजना, दुर्घटना बिमा योजना, मछली पालन आदि। इन सभी योजनाओं की जानकारी आप तक पहुंचान ही हमारा प्रयास है। हम और बुदधीजिवयों बडे बुजुर्ग लोग मानते हैं कि यह सत्य है कि दुनिया की सबसे बडी जाति को आज भूखे मरने कि कगार पर है जिसकी सबसे बडी वजह है समाज के लोगों का रोजगार ना होना, हमारे समाज के लोग खाना बदोश की तरह यहां घर पर रहते हैं मलहा रोजगार के लिए देश की गंगा, यमुना नदी पर तरबूज, खरबुजा की फसल लगाने के लिए चले जाते हैं जिस वजह से आज तक अपने बच्चों को यह पढाने में सक्षम नहीं, जहारों लाखों सालों से नदियोें के तट पर बसी यह जाति हर सरकार से अपने लिए उम्मीद करती है। क्या आपको पता है दुनिया का पहला आदमी जिसने भारत की खोज की थी (पता लगाया था) वह कौन था वह व्यक्ति दक्षिण अफ्रीका का रहने वाला मल्लाह पुत्र वासकोडीगामा था हां भाइयों मल्लाह जाति के इस व्यक्ति ने दुनिया के लिए भारत की खोज की अपनी नाव के जरिये अपने राजा से अनुदान लेकर यह खोज की थी। लाखों साल पहले भगवान रामचन्द्र को वनवास के दौरान बिना किसी के नदी पार कराने वाला भी केवट राज निषाद जी मल्लाह जाति के ही थे। इस्लाम धर्म के हिसाब से इस्लाम धर्म के प्रचार के लिए 1 लाख 24 हजार पेगम्बर आए जिस में से एक पेग्म्बर थे जहरत नुह अलैहिस्सलाम, धार्मिक ग्रंथों के हिसाब से जो उनकी नाव में चढ गया जिवित रह गया वरना दुनिया में कोई जिवीत नहीं बचा वह आप की मल्लाह जाति से ताल्लुक रखते थे। नूह की कश्‍ती (नौका) को खोजने और उसे देखने के लिए सदियों से लोग बैचेन रहे हैं। मगर इस किस्से के बारे में 1950 से पहले कोई सबूत ऐसा नही था जो ये तय कर सके कि वाकई नूह की जलप्रलय जैसी घटना पुथ्वी पर हुयी थी ।
बिहार सरकार ने मल्लाह, निषाद और नोनिया जाति को अनुसूचित जन जाति में शामिल करने का नीतिगत फैसला कर लिया है. राज्य कैबिनेट की शनिवार को हुई बैठक में इसे मंजूरी दी गयी. मल्लाह, निषाद (बिंद, बेलदार, चांई, तियर, खुलवट, सुरिहया, गोढी, वनपर व केवट) व नोनिया जाति को इनके आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक व रोजगर में पिछड़ेपन को देखते हुए बिहार की अनुसूचित जन जाति की सूची में शामिल करने की अनुशंसा केंद्र सरकार को भेजने का निर्णय लिया गया.

एक दिन पहले राजधानी में निषाद जाति को अनुसूचित जन जाति में शामिल किये जाने की मांग को लेकर कर रहे प्रदर्शन पर पुलिस ने लाठियां चटकायी थीं. सरकार के इस फैसले से तकरीबन एक करोड़ से अधिक की आबादी को अनुसूचित जन जाति को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ मिलेगा. अरसे से निषाद , मल्लाह और नोनिया जाति को अनुसूचित जाति में शामिल किये जाने की मांग उठ रही थी. इसके पहले सरकार ने लोहार जाति को अनुसूचित जाति में और तेली, तमोली और चौरसिया जाति को अति पिछड़ी जाति में शामिल करने की मंजूरी दी .
राज्य कैबिनेट की बैठक में प्रदेश के सभी मंदिरों की बाउंड्री कराये जाने का फैसला लिया गया. मंदिरों की सुरक्षा के लिए सरकार ने यह कदम उठाया है. बहुमूल्य धातू या मूर्ति की सुरक्षा के लिए डीएम को ऐसे मंदिरों को चिन्हित करने का अधिकार दिया गया है. डीएम की रिपोर्ट पर भवन निर्माण विभाग चारदीवारी करायेगा.
कैबिनेट ने बिहार पंचायत प्रारंभिक शिक्षक नियोजन एवं सेवा शर्त नियमावली 2015 और बिहार नगर प्रारंभिक शिक्षक 2015 नियोजन एवं सेवा शर्त नियामवली में संशोधन कर दक्षता परीक्षा में फेल शिक्षकों को एक और मौका देने का निर्णय लिया गया. इसके नियोजन प्रक्रिया आसान की गयी है. अब सीधे आवेदन लेने के बाद कैंप से ही नियुक्ति पत्र बाटा जा सकेगा. कैबिनेट ने अप्रशिक्षित नियोजित शिक्षकों को सवैतनिक प्रशिक्षण दिया जायेगा.
कैबिनेट ने जेल मैनुअल को बदलाव किया है. खाने में महीने के दो-दो दिन रात्रि में चिकेन और मछली दिये जायेंगे. इसके साथ ही प्रतिदिन शाम में एक कप चाय कैदियों को दी जायेगी. 1983 के बाद जेल कैदियों का भाजन चार्ट में पहली बार बदलाव किया गया है. अब तक प्रति बंदी पचास रुपये भोजन पर खर्च किये जाते थे. अब बेहतर भोजन के लिए 88 रुपये 38 पैसे प्रति बंदी प्रति दिन खर्च होगा. सुबह में नाश्ते में अलग अलग दिन अलग -अलग व्यंजन दिये जायेंगे. पहले इस पर सालाना 44 करोड़ खर्च होता था. नये प्रावधान के मुताबिक प्रति वर्ष 74 करोड़ खर्च हाेगा.
लाठी भूल कर नीतीश को बधाई : मुकेश
पटना. निषाद विकास संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुकेश सहनी ने निषाद, मल्लाह और उनकी उप जातियों को अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने के कैबिनेट के फैसले पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बधाई दी है. प्रभात खबर से बातचीत में मुकेश साहनी ने कहा कि यह हमारे आंदोलन का नतीजा है कि सरकार को झुकना पड़ा. उन्होंने कहा कि हमने इसके लिए लाठी खाये, लेकिन सरकार के इस फैसले से लाठी से पिटाई का दर्द हम भूल कर सीएम को बधाई देते हैं.
उन्होंने कहा कि हम अपने संगठन की ओर से भी सीएम को धन्यवाद देते हैं. सरकार ने बड़ा कदम उठाया है. यह पूछे जाने पर कि आपकी मांगें पूरी हो गयी हैं, अब विधानसभा चुनाव में आप जदयू गंठबंधन को सपोर्ट करेंगे, मुकेश ने कहा, हम लोग चुनाव में अब सोच समझ कर निर्णय लेंगे. अभी सिर्फ प्रस्ताव ही पास किया गया है. जमीन पर निर्णय को उतरने में देर होगी.
लेकिन, सरकार ने पहला कदम उठाया है. शुक्रवार को लाठियों से पीटे जाने के बाद आंख मूंद कर हम एक पक्षीय निर्णय लेने वाले थे. अब जो भी निर्णय लेंगे आंख खोल कर लेंगे.
भाजपा के प्रति साफ्ट कार्नर पर मुकेश सहनी ने कहा शुक्रवार को सरकार ने पीटा और भाजपा व एनडीए ने मरहम लगाया. सुशील मोदी थाने पर आकर मिले. अब नीतीश ने मार का मुआवजा दे दिया है. इसलिए हम अभी कोई राजनीतिक निर्णय नहीं लेंगे, आने वाले दिनों में सोच समझ कर फैसला करेंगे.
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15.8.18

मुस्लिम जाति और बोहरा जाति का इतिहास


   

मुस्लिमों को मुख्य रूप से दो हिस्सों में बांटा जाता है. मगर शिया और सुन्नियों के अलावा इस्लाम को मानने वाले लोग 72 फिरकों में बंटे हुए हैं. इन्हीं में से एक हैं बोहरा मुस्लिम. बोहरा शिया और सुन्नी दोनों होते हैं. सुन्नी बोहरा हनफी इस्लामिक कानून को मानते हैं. वहीं दाउदी बोहरा मान्यताओं में शियाओं के करीब होते हैं. गुजरात और महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा पाए जाने वाले दाउदी बोहरा 21 इमामों को मानते हैं.
आमतौर पर पढ़े-लिखे माने जाने वाले बोहरा समुदाय की भारत में लाखों की आबादी है. ये खुद को कई मामलों में बाकी मुस्लिमों से अलग मानते हैं. 2002 के बाद मुस्लिम समुदाय की बीजेपी और खासकर नरेंद्र मोदी से दूरी काफी बढ़ गई थी, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में बोहरा समुदाय ने नरेंद्र मोदी को खुला समर्थन दिया था.
     बोहरा मुस्लिमों की ही एक जाति है, जो शिया समुदाय को मानती है। बोहरा लोग शिया इस्माईली मुस्लिम हैं और पश्चिम भारत के निवासी हैं। यह अधिकांशत: व्यापार आदि में संलग्न रहते हैं। बोहरा मुस्लिम किसी भी मस्जिद में नहीं जाते, वे केवल मज़ारों पर ही जाते हैं। ये लोग सूफ़ियों पर अधिक विश्वास करते है, अल्लाह पर नहीं।

कम्युनिटी और व्यापार
                                            

बोहरा समुदाय की दो सबसे प्रमुख पहचान है. एक तो अधिकतर बोहरा व्यापारी हैं. इसके अलावा उनके अंदर समुदाय की भावना बहुत ज्यादा होती है. बोहरा समुदाय का प्रमुख सैयदना कहलाते हैं. बोहराओं में सैयदना का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है. बोहराओं के मोदी के समर्थन में आने के पीछे दो बड़ी वजह थीं. एक व्यापारियों की सुविधा के हिसाब से बनीं नीतियां. दूसरा नरेंद्र मोदी का बार-बार सैयदना से मिलना. हालांकि ये भी बड़ा तथ्य है कि 2002 के दंगों में कई बोहराओं के घर और दुकानें भी निशाना बनी थीं.





'बोहरा' गुजराती शब्द 'वहौराउ', अर्थात्- 'व्यापार करना' का अपभ्रंश है। इसमें व्यापारी वर्ग के शिया बहुसंख्यक और आमतौर पर किसान सुन्नी अल्पसंख्यक शामिल हैं।
मूलत: मिस्र में उत्पन्न और बाद में अपना धार्मिक केंद्र यमन ले जाने वाले मुस्ताली मत ने 11वीं शताब्दी में धर्म प्रचारकों के माध्यम से भारत में अपनी जगह बनाई।
1539 के बाद जब भारतीय समुदाय बहुत बड़ा हो गया, तब इस मत का मुख्यालय यमन से भारत में सिद्धपुर लाया गया।
1588 में दाऊद बिन कुतब शाह और सुलेमान के अनुयायियों के कारण बोहरा समुदाय में विभाजन हुआ और दोनों ने समुदाय के नेतृत्व का दावा किया।
बोहराओं में दाऊद और सुलेमान के अनुयायियों के दो प्रमुख समूह बन गये, जिनके धार्मिक सिद्धांतों में कोई ख़ास सैद्धांतिक अंतर नहीं है।
                                           


दाऊदियों के प्रमुख मुम्बई में तथा सुलेमानियों के प्रमुख यमन में रहते हैं।
चरमपंथ और इस्लाम के जुड़ते रिश्तों से परेशान भारत में इस्लाम की बरेलवी विचारधारा के सूफ़ियों और नुमाइंदों ने एक कांफ्रेंस कर कहा कि वो दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ हैं. सिर्फ़ इतना ही नहीं बरेलवी समुदाय ने इसके लिए वहाबी विचारधारा को ज़िम्मेदार ठहराया.
इन आरोप-प्रत्यारोप के बीच सभी की दिलचस्पी इस बात में बढ़ गई है कि आख़िर ये वहाबी विचारधारा क्या है. लोग जानना चाहते हैं कि मुस्लिम समाज कितने पंथों में बंटा है और वे किस तरह एक दूसरे से अलग हैं?
इस्लाम के सभी अनुयायी ख़ुद को मुसलमान कहते हैं लेकिन इस्लामिक क़ानून (फ़िक़ह) और इस्लामिक इतिहास की अपनी-अपनी समझ के आधार पर मुसलमान कई पंथों में बंटे हैं.

बड़े पैमाने पर या संप्रदाय के आधार पर देखा जाए तो मुसलमानों को दो हिस्सों-सुन्नी और शिया में बांटा जा सकता है.
हालांकि शिया और सुन्नी भी कई फ़िरक़ों या पंथों में बंटे हुए हैं
बात अगर शिया-सुन्नी की करें तो दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि अल्लाह एक है, मोहम्मद साहब उनके दूत हैं और क़ुरान आसमानी किताब यानी अल्लाह की भेजी हुई किताब है.
लेकिन दोनों समुदाय में विश्वासों और पैग़म्बर मोहम्मद की मौत के बाद उनके उत्तराधिकारी के मुद्दे पर गंभीर मतभेद हैं. इन दोनों के इस्लामिक क़ानून भी अलग-अलग हैं.
सुन्नी या सुन्नत का मतलब उस तौर तरीक़े को अपनाना है जिस पर पैग़म्बर मोहम्मद (570-632 ईसवी) ने ख़ुद अमल किया हो और इसी हिसाब से वे सुन्नी कहलाते हैं.
एक अनुमान के मुताबिक़, दुनिया के लगभग 80-85 प्रतिशत मुसलमान सुन्नी हैं जबकि 15 से 20 प्रतिशत के बीच शिया हैं.

सुन्नी मुसलमानों का मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद के बाद उनके ससुर हज़रत अबु-बकर (632-634 ईसवी) मुसलमानों के नए नेता बने, जिन्हें ख़लीफ़ा कहा गया.
इस तरह से अबु-बकर के बाद हज़रत उमर (634-644 ईसवी), हज़रत उस्मान (644-656 ईसवी) और हज़रत अली (656-661 ईसवी) मुसलमानों के नेता बने.
इन चारों को ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन यानी सही दिशा में चलने वाला कहा जाता है. इसके बाद से जो लोग आए, वो राजनीतिक रूप से तो मुसलमानों के नेता कहलाए लेकिन धार्मिक एतबार से उनकी अहमियत कोई ख़ास नहीं थी.
जहां तक इस्लामिक क़ानून की व्याख्या का सवाल है सुन्नी मुसलमान मुख्य रूप से चार समूह में बंटे हैं. हालांकि पांचवां समूह भी है जो इन चारों से ख़ुद को अलग कहता है.
इन पांचों के विश्वास और आस्था में बहुत अंतर नहीं है, लेकिन इनका मानना है कि उनके इमाम या धार्मिक नेता ने इस्लाम की सही व्याख्या की है.
दरअसल सुन्नी इस्लाम में इस्लामी क़ानून के चार प्रमुख स्कूल हैं.
आठवीं और नवीं सदी में लगभग 150 साल के अंदर चार प्रमुख धार्मिक नेता पैदा हुए. उन्होंने इस्लामिक क़ानून की व्याख्या की और फिर आगे चलकर उनके मानने वाले उस फ़िरक़े के समर्थक बन गए.
ये चार इमाम थे- इमाम अबू हनीफ़ा (699-767 ईसवी), इमाम शाफ़ई (767-820 ईसवी), इमाम हंबल (780-855 ईसवी) और इमाम मालिक (711-795 ईसवी).
हनफ़ी
इमाम अबू हनीफ़ा के मानने वाले हनफ़ी कहलाते हैं. इस फ़िक़ह या इस्लामिक क़ानून के मानने वाले मुसलमान भी दो गुटों में बंटे हुए हैं. एक देवबंदी हैं तो दूसरे अपने आप को बरेलवी कहते हैं.
देवबंदी और बरेलवी
दोनों ही नाम उत्तर प्रदेश के दो ज़िलों, देवबंद और बरेली के नाम पर है.
दरअसल 20वीं सदी के शुरू में दो धार्मिक नेता मौलाना अशरफ़ अली थानवी (1863-1943) और अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी (1856-1921) ने इस्लामिक क़ानून की अलग-अलग व्याख्या की.
अशरफ़ अली थानवी का संबंध दारुल-उलूम देवबंद मदरसा से था, जबकि आला हज़रत अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी का संबंध बरेली से था.
मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही और मौलाना क़ासिम ननोतवी ने 1866 में देवबंद मदरसे की बुनियाद रखी थी. देवबंदी विचारधारा को परवान चढ़ाने में मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही, मौलाना क़ासिम ननोतवी और मौलाना अशरफ़ अली थानवी की अहम भूमिका रही है.
उपमहाद्वीप यानी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले अधिकांश मुसलमानों का संबंध इन्हीं दो पंथों से है.
देवबंदी और बरेलवी विचारधारा के मानने वालों का दावा है कि क़ुरान और हदीस ही उनकी शरियत का मूल स्रोत है लेकिन इस पर अमल करने के लिए इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है. इसलिए शरीयत के तमाम क़ानून इमाम अबू हनीफ़ा के फ़िक़ह के अनुसार हैं.
वहीं बरेलवी विचारधारा के लोग आला हज़रत रज़ा ख़ान बरेलवी के बताए हुए तरीक़े को ज़्यादा सही मानते हैं. बरेली में आला हज़रत रज़ा ख़ान की मज़ार है जो बरेलवी विचारधारा के मानने वालों के लिए एक बड़ा केंद्र है.
दोनों में कुछ ज़्यादा फ़र्क़ नहीं लेकिन कुछ चीज़ों में मतभेद हैं. जैसे बरेलवी इस बात को मानते हैं कि पैग़म्बर मोहम्मद सब कुछ जानते हैं, जो दिखता है वो भी और जो नहीं दिखता है वो भी. वह हर जगह मौजूद हैं और सब कुछ देख रहे हैं.
वहीं देवबंदी इसमें विश्वास नहीं रखते. देवबंदी अल्लाह के बाद नबी को दूसरे स्थान पर रखते हैं लेकिन उन्हें इंसान मानते हैं. बरेलवी सूफ़ी इस्लाम के अनुयायी हैं और उनके यहां सूफ़ी मज़ारों को काफ़ी महत्व प्राप्त है जबकि देवबंदियों के पास इन मज़ारों की बहुत अहमियत नहीं है, बल्कि वो इसका विरोध करते हैं.
मालिकी
इमाम अबू हनीफ़ा के बाद सुन्नियों के दूसरे इमाम, इमाम मालिक हैं जिनके मानने वाले एशिया में कम हैं. उनकी एक महत्वपूर्ण किताब 'इमाम मोत्ता' के नाम से प्रसिद्ध है.
उनके अनुयायी उनके बताए नियमों को ही मानते हैं. ये समुदाय आमतौर पर मध्य पूर्व एशिया और उत्तरी अफ्रीका में पाए जाते हैं.
शाफ़ई
शाफ़ई इमाम मालिक के शिष्य हैं और सुन्नियों के तीसरे प्रमुख इमाम हैं. मुसलमानों का एक बड़ा तबक़ा उनके बताए रास्तों पर अमल करता है, जो ज़्यादातर मध्य पूर्व एशिया और अफ्रीकी देशों में रहता है.
आस्था के मामले में यह दूसरों से बहुत अलग नहीं है लेकिन इस्लामी तौर-तरीक़ों के आधार पर यह हनफ़ी फ़िक़ह से अलग है. उनके अनुयायी भी इस बात में विश्वास रखते हैं कि इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है.
हंबली
सऊदी अरब, क़तर, कुवैत, मध्य पूर्व और कई अफ्रीकी देशों में भी मुसलमान इमाम हंबल के फ़िक़ह पर ज़्यादा अमल करते हैं और वे अपने आपको हंबली कहते हैं.
सऊदी अरब की सरकारी शरीयत इमाम हंबल के धार्मिक क़ानूनों पर आधारित है. उनके अनुयायियों का कहना है कि उनका बताया हुआ तरीक़ा हदीसों के अधिक करीब है.

इन चारों इमामों को मानने वाले मुसलमानों का ये मानना है कि शरीयत का पालन करने के लिए अपने अपने इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है.
सल्फ़ी, वहाबी और अहले हदीस
सुन्नियों में एक समूह ऐसा भी है जो किसी एक ख़ास इमाम के अनुसरण की बात नहीं मानता और उसका कहना है कि शरीयत को समझने और उसका सही ढंग से पालन करने के लिए सीधे क़ुरान और हदीस (पैग़म्बर मोहम्मद के कहे हुए शब्द) का अध्ययन करना चाहिए.
इसी समुदाय को सल्फ़ी और अहले-हदीस और वहाबी आदि के नाम से जाना जाता है. यह संप्रदाय चारों इमामों के ज्ञान, उनके शोध अध्ययन और उनके साहित्य की क़द्र करता है.
लेकिन उसका कहना है कि इन इमामों में से किसी एक का अनुसरण अनिवार्य नहीं है. उनकी जो बातें क़ुरान और हदीस के अनुसार हैं उस पर अमल तो सही है लेकिन किसी भी विवादास्पद चीज़ में अंतिम फ़ैसला क़ुरान और हदीस का मानना चाहिए.
सल्फ़ी समूह का कहना है कि वह ऐसे इस्लाम का प्रचार चाहता है जो पैग़म्बर मोहम्मद के समय में था. इस सोच को परवान चढ़ाने का सेहरा इब्ने तैमिया(1263-1328) और मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब(1703-1792) के सिर पर बांधा जाता है और अब्दुल वहाब के नाम पर ही यह समुदाय वहाबी नाम से भी जाना जाता है.
मध्य पूर्व के अधिकांश इस्लामिक विद्वान उनकी विचारधारा से ज़्यादा प्रभावित हैं. इस समूह के बारे में एक बात बड़ी मशहूर है कि यह सांप्रदायिक तौर पर बेहद कट्टरपंथी और धार्मिक मामलों में बहुत कट्टर है. सऊदी अरब के मौजूदा शासक इसी विचारधारा को मानते हैं.
अल-क़ायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन भी सल्फ़ी विचाराधारा के समर्थक थे.
सुन्नी बोहरा
गुजरात, महाराष्ट्र और पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मुसलमानों के कारोबारी समुदाय के एक समूह को बोहरा के नाम से जाना जाता है. बोहरा, शिया और सुन्नी दोनों होते हैं.
सुन्नी बोहरा हनफ़ी इस्लामिक क़ानून पर अमल करते हैं जबकि सांस्कृतिक तौर पर दाऊदी बोहरा यानी शिया समुदाय के क़रीब हैं.
अहमदिया
हनफ़ी इस्लामिक क़ानून का पालन करने वाले मुसलमानों का एक समुदाय अपने आप को अहमदिया कहता है. इस समुदाय की स्थापना भारतीय पंजाब के क़ादियान में मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने की थी.
इस पंथ के अनुयायियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ख़ुद नबी का ही एक अवतार थे.
उनके मुताबिक़ वे खुद कोई नई शरीयत नहीं लाए बल्कि पैग़म्बर मोहम्मद की शरीयत का ही पालन कर रहे हैं लेकिन वे नबी का दर्जा रखते हैं. मुसलमानों के लगभग सभी संप्रदाय इस बात पर सहमत हैं कि मोहम्मद साहब के बाद अल्लाह की तरफ़ से दुनिया में भेजे गए दूतों का सिलसिला ख़त्म हो गया है.
लेकिन अहमदियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ऐसे धर्म सुधारक थे जो नबी का दर्जा रखते हैं.
बस इसी बात पर मतभेद इतने गंभीर हैं कि मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग अहमदियों को मुसलमान ही नहीं मानता. हालांकि भारत, पाकिस्तान और ब्रिटेन में अहमदियों की अच्छी ख़ासी संख्या है.
पाकिस्तान में तो आधिकारिक तौर पर अहमदियों को इस्लाम से ख़ारिज कर दिया गया है.
शिया
                           


शिया मुसलमानों की धार्मिक आस्था और इस्लामिक क़ानून सुन्नियों से काफ़ी अलग हैं. वह पैग़म्बर मोहम्मद के बाद ख़लीफ़ा नहीं बल्कि इमाम नियुक्त किए जाने के समर्थक हैं.
उनका मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद की मौत के बाद उनके असल उत्तारधिकारी उनके दामाद हज़रत अली थे. उनके अनुसार पैग़म्बर मोहम्मद भी अली को ही अपना वारिस घोषित कर चुके थे लेकिन धोखे से उनकी जगह हज़रत अबू-बकर को नेता चुन लिया गया.
शिया मुसलमान मोहम्मद के बाद बने पहले तीन ख़लीफ़ा को अपना नेता नहीं मानते बल्कि उन्हें ग़ासिब कहते हैं. ग़ासिब अरबी का शब्द है जिसका अर्थ हड़पने वाला होता है.
उनका विश्वास है कि जिस तरह अल्लाह ने मोहम्मद साहब को अपना पैग़म्बर बनाकर भेजा था उसी तरह से उनके दामाद अली को भी अल्लाह ने ही इमाम या नबी नियुक्त किया था और फिर इस तरह से उन्हीं की संतानों से इमाम होते रहे.
आगे चलकर शिया भी कई हिस्सों में बंट गए.
इस्ना अशरी
सुन्नियों की तरह शियाओं में भी कई संप्रदाय हैं लेकिन सबसे बड़ा समूह इस्ना अशरी यानी बारह इमामों को मानने वाला समूह है. दुनिया के लगभग 75 प्रतिशत शिया इसी समूह से संबंध रखते हैं. इस्ना अशरी समुदाय का कलमा सुन्नियों के कलमे से भी अलग है.
उनके पहले इमाम हज़रत अली हैं और अंतिम यानी बारहवें इमाम ज़माना यानी इमाम महदी हैं. वो अल्लाह, क़ुरान और हदीस को मानते हैं, लेकिन केवल उन्हीं हदीसों को सही मानते हैं जो उनके इमामों के माध्यम से आए हैं.
क़ुरान के बाद अली के उपदेश पर आधारित किताब नहजुल बलाग़ा और अलकाफ़ि भी उनकी महत्वपूर्ण धार्मिक पुस्तक हैं. यह संप्रदाय इस्लामिक धार्मिक क़ानून के मुताबिक़ जाफ़रिया में विश्वास रखता है. ईरान, इराक़, भारत और पाकिस्तान सहित दुनिया के अधिकांश देशों में इस्ना अशरी शिया समुदाय का दबदबा है.
ज़ैदिया
शियाओं का दूसरा बड़ा सांप्रदायिक समूह ज़ैदिया है, जो बारह के बजाय केवल पांच इमामों में ही विश्वास रखता है. इसके चार पहले इमाम तो इस्ना अशरी शियों के ही हैं लेकिन पांचवें और अंतिम इमाम हुसैन (हज़रत अली के बेटे) के पोते ज़ैद बिन अली हैं जिसकी वजह से वह ज़ैदिया कहलाते हैं.
उनके इस्लामिक़ क़ानून ज़ैद बिन अली की एक किताब 'मजमऊल फ़िक़ह' से लिए गए हैं. मध्य पूर्व के यमन में रहने वाले हौसी ज़ैदिया समुदाय के मुसलमान हैं.
इस्माइली शिया
शियों का यह समुदाय केवल सात इमामों को मानता है और उनके अंतिम इमाम मोहम्मद बिन इस्माइल हैं और इसी वजह से उन्हें इस्माइली कहा जाता है. इस्ना अशरी शियों से इनका विवाद इस बात पर हुआ कि इमाम जाफ़र सादिक़ के बाद उनके बड़े बेटे इस्माईल बिन जाफ़र इमाम होंगे या फिर दूसरे बेटे.
इस्ना अशरी समूह ने उनके दूसरे बेटे मूसा काज़िम को इमाम माना और यहीं से दो समूह बन गए. इस तरह इस्माइलियों ने अपना सातवां इमाम इस्माइल बिन जाफ़र को माना. उनकी फ़िक़ह और कुछ मान्यताएं भी इस्ना अशरी शियों से कुछ अलग है.
दाऊदी बोहरा
बोहरा का एक समूह, जो दाऊदी बोहरा कहलाता है, इस्माइली शिया फ़िक़ह को मानता है और इसी विश्वास पर क़ायम है. अंतर यह है कि दाऊदी बोहरा 21 इमामों को मानते हैं.
उनके अंतिम इमाम तैयब अबुल क़ासिम थे जिसके बाद आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा है. इन्हें दाई कहा जाता है और इस तुलना से 52वें दाई सैय्यदना बुरहानुद्दीन रब्बानी थे. 2014 में रब्बानी के निधन के बाद से उनके दो बेटों में उत्तराधिकार का झगड़ा हो गया और अब मामला अदालत में है.
बोहरा भारत के पश्चिमी क्षेत्र ख़ासकर गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं जबकि पाकिस्तान और यमन में भी ये मौजूद हैं. यह एक सफल व्यापारी समुदाय है जिसका एक धड़ा सुन्नी भी है.
खोजा
खोजा गुजरात का एक व्यापारी समुदाय है जिसने कुछ सदी पहले इस्लाम स्वीकार किया था. इस समुदाय के लोग शिया और सुन्नी दोनों इस्लाम मानते हैं.
ज़्यादातर खोजा इस्माइली शिया के धार्मिक क़ानून का पालन करते हैं लेकिन एक बड़ी संख्या में खोजा इस्ना अशरी शियों की भी है.
लेकिन कुछ खोजे सुन्नी इस्लाम को भी मानते हैं. इस समुदाय का बड़ा वर्ग गुजरात और महाराष्ट्र में पाया जाता है. पूर्वी अफ्रीकी देशों में भी ये बसे हुए हैं.
शियों का यह संप्रदाय सीरिया और मध्य पूर्व के विभिन्न क्षेत्रों में पाया जाता है. इसे अलावी के नाम से भी जाना जाता है. सीरिया में इसे मानने वाले ज़्यादातर शिया हैं और देश के राष्ट्रपति बशर अल असद का संबंध इसी समुदाय से है.
इस समुदाय का मानना है कि अली वास्तव में भगवान के अवतार के रूप में दुनिया में आए थे. उनकी फ़िक़ह इस्ना अशरी में है लेकिन विश्वासों में मतभेद है. नुसैरी पुर्नजन्म में भी विश्वास रखते हैं और कुछ ईसाइयों की रस्में भी उनके धर्म का हिस्सा हैं.
इन सबके अलावा भी इस्लाम में कई छोटे छोटे पंथ पाए जाते हैं.
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