गायत्री मन्त्र का रचियता कौन ? किसने बनाया था गायत्री मन्त्र ?
जानिये गायत्री मंत्र बनाने वाले के बारे में ..
Gayatri-Mantra : जिस प्रकार भारत में पुष्कर Pushkar को तीर्थराज माना जाता है उसी प्रकार मन्त्रों में भी गायत्री मंत्र Gayatri Mantra को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
Gayatri-Mantra : जिस प्रकार भारत में पुष्कर Pushkar को तीर्थराज माना जाता है उसी प्रकार मन्त्रों में भी गायत्री मंत्र Gayatri Mantra को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
यह वास्तव में सूर्य नारायण का मंत्र है और उससे भी आगे गौरव की बात यह है कि इस श्रेष्ठतम मंत्र के दृष्टा क्षत्रिय विश्वामित्र Rishi Vishvamitra थे। मंत्र शब्दार्थ इस प्रकार है-
ॐ भू भुवः स्वः तत सवितृ वरेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि धियोयोनः प्रचोदयात।
ॐ – जो कि प्रणव, आदि स्वर, बीज है।
भू- भू लोक- यह पृथ्वी।
भुवः- भुवर्लोक – पृथ्वी से ऊपर वायुमंडल।
स्वः- स्वर्गलोक जहाँ देवता, अप्सराएँ गंधर्व आदि निवास करते है।
भू लोक पर रहने वाले अच्छे व्यक्तियों, संतों, तपस्वियों आदि से भूवर्लोक में सती, झुंझार, भौमिया व अन्य हुतात्माएँ सूक्षम शरीरों में तपस्यारत अन्य सद्शाक्तियों से और स्वर्गलोक में रहने वाले देवताओं से साधक अपनी साधना में सहायता के लिए आह्वान करता है।
सवितृ देव का मंत्र तो अब आरम्भ होता है-
तत सवितृ वरेण्यम- वरण करने योग्य उस सवितृ।
भर्गो देवस्य धीमहि- श्रेष्ठ देवताओं का ध्यान करते है।
धियोयोनः प्रचोदयात- जो हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।
अतः मंत्र का अर्थ हुआ-“वरण करने योग्य श्रेष्ठ देवता सवितृ का हम ध्यान करते है जो हमारी बुद्धि को प्रेरित करें।
यहाँ मंत्र के दृष्टा ऋषि विश्वामित्र में सवितृदेव से कोई धन, धान्य, राज्य, सत्ता, शक्ति, बुद्धि, मुक्ति, प्रेम, दया आदि की याचना नहीं की। मात्र सन्मार्ग की ओर बुद्धि को प्रेरित करने का कार्य करे यह अभिलाषा है।
विश्वामित्र जी ने इस बात को सूक्ष्म रूप से समझा कि सन्मार्ग की ओर प्रेरित बुद्धि ही कल्याणकारी है, न कि शक्तिशाली बुद्धि और ऐसे मंत्र की रचना की जिसकी सर्वश्रेष्ठता आज तक निर्विवाद है।
रावण, कंस, हिरण्यकश्यप, परशुराम आदि पथभ्रष्ट व्यक्ति मुर्ख नहीं थे, बल्कि बुद्धिमान थे पर सन्मार्ग पर ना चलने की वजह से बुद्धि का आधिक्य होने के बावजूद इतिहास में खलनायक के रूप में दर्ज है।
गायत्री मंत्र- सवितृदेव सूर्य जिनसे यह सम्पूर्ण सृष्टि निसरित हुई है-का मंत्र है। मंत्र के शब्दों में कहीं गायत्री देवी का उल्लेख नहीं आता। मंत्र की रचना का छन्द अवश्य गायत्री है। किसी भी श्लोक अथवा मंत्र जिसमें 24 अक्षर हों उसे गायत्री छन्द में रचित कहते है। अतः छन्द के नाम पर मंत्र का नाम Gayatri-Mantra कर देना और उसे गायत्री देवी से सम्बद्ध कर गायत्री देवी नाम से छोटे-मोटे ग्रंथों की रचना कर उन्हें जन प्रचलित करना विश्वामित्र जी के साथ खिलवाड़ ह
क्षत्रियों द्वारा इस मंत्र (Gayatri-Mantra) के तत्व और महत्त्व को व विश्वामित्र के चरित्र के महात्म्य को विस्मृत कर दिए जाने का परिणाम यह हुआ कि आज इस मंत्र के ठेकेदार कोई और बन बैठे और क्षत्रिय इसके लाभों से उसी प्रकार दूर हो गये जैसे श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को बताये गए रास्ते से दूर हो गये। परिणामतः इस राह के भी मालिक कोई और बन बैठे।
विस्तृत वर्णन-
गायत्री मंत्र की उत्पत्ति कहाँ से है?
वेदमाता गायत्री, ब्राह्मणमाता गायत्री की चर्चा आश्रमीय प्रकाशन ‘शंका-समाधान’ में द्रष्टव्य है। उसकी पुनरावृत्ति न कर संक्षेप में चर्चा अपेक्षित है। वैसे गायत्री कोई देवी नहीं है। पौराणिककाल के कतिपय प्रवृत्तमार्गी व्यवस्थाकारों ने गायत्री को देवी-जैसा रूप दे डाला। गायत्री मंत्र की उत्पत्ति मर्हिष विश्वामित्र से है। जीवन के आरम्भिक वर्षों में यह मर्हिष राजा गाधि के पुत्र विश्वरथ नामक नरेश थे। चक्रर्वितत्व की कामना से विश्व-विजय कर रहे यह नरेश ब्रह्र्मिष वशिष्ठ के ब्रह्मतेज से पराभूत हो गये अत: ब्रह्मतेज र्अिजत करने के लिए तपस्या करने लगे।
उन्हें तपस्या से विरत करने के लिए देवताओं ने मेनका नामक अप्सरा को भेजा। विश्वामित्र उस पर आसक्त हो गये। उससे शकुन्तला नामक एक कन्या उत्पन्न हुई।
सद्य:जात बालिका की सुरक्षा से चिन्तित ऋषि मेनका को जंगल में ढूँढ़ने लगे। आकाशवाणी हुई– वह तो माया थी, ठगने आई थी चली गई। आप तप से च्युत हो गये!
विश्वामित्र पुन: तपश्चर्या में लग गये। एक नरेश त्रिशंकु ने उनसे सदेह स्वर्ग जाने का अनुरोध किया। मर्हिष ने अपने तपोबल से उसे स्वर्ग भेज भी दिया। देवताओं को यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने त्रिशंकु की प्रशंसा कर जानना चाहा कि किस पुण्यकर्म से वह सदेह स्वर्ग आया। त्रिशंकु ने अपने पुण्यकर्मों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जिससे उसका पुण्य क्षीण होने लगा। वह स्वर्ग से नीचे गिरने लगा। उसने विश्वामित्र को अपनी दुर्दशा से अवगत कराया। ऋषि ने उसे अधर में ही रुकने का आदेश दिया और उसके लिए अलग स्वर्ग और सृष्टि की संरचना में लग गये। देवताओं के अनुरोध पर विश्वामित्र नवीन सृष्टि-रचना से विरत तो हो गये किन्तु इससे उनकी तपस्या को गहरी क्षति पहुँची।
एक बार महाराज अम्बरीष अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। इन्द्रपद छिन जाने के भय से देवराज इन्द्र ने यज्ञ का अश्व चुरा लिया। अश्व की शोध में राजा जंगलों में पहुँचे। वहाँ एक राजा, उनकी रानी तथा तीन राजकुमार राज्य छिन जाने से शान्त-एकान्त में जीवन व्यतीत कर रहे थे। अम्बरीष ने उन राजा को बताया कि यज्ञ का घोड़ा गायब हो गया है। आप अपना कोई पुत्र दे दें तो मैं आपको लाखों गायें, स्वर्णमुद्राएँ दूँगा। बच्चों के पिता ने कहा– बड़ा पुत्र मुझे प्रिय है, मैं नहीं दे सकता। माँ बोली– छोटा पुत्र मुझे प्रिय है, मैं नहीं दे सकती। मझले लड़के ने कहा– राजन्! मैं किसी को प्रिय नहीं हूँ अत: मैं आपके साथ चलूँगा। आप गायें, स्वर्णमुद्राएँ इन्हें दे दें। उस बालक का नाम शुन:शेप था।
राजा और बालक उसी मार्ग से जा रहे थे जहाँ विश्वामित्र तपस्या कर रहे थे। विश्वामित्र ने बालक को पहचान लिया क्योंकि वह उनका भांजा था। शुन:शेप ने बताया कि वह बलि चढ़ने जा रहा है। विश्वामित्र ने कहा– मेरे सौ पुत्र हैं, उनमें से कोई तुम्हारे स्थान पर चला जायेगा। तुम चिन्ता न करो। विश्वामित्र ने अपने पुत्रों से कहा– इसे मैंने अभयदान दिया है, मेरी शरण में है। तुममें से कोई इसके बदले अपने को बलि हेतु प्रस्तुत कर दो। बच्चों ने कहा– सबके पिता झूठ-सच बोलकर अपने पुत्रों का हित करते हैं, आप कैसे पिता हैं जो मरने के लिए कहते हैं! सबने अस्वीकार कर दिया। विश्वामित्र को क्रोध आ गया, बोले– बचोगे तब भी नहीं! जाओ सब-के-सब मर जाओ। सब मर गये। आकाशवाणी हुई कि आपका तप नष्ट हो गया।
विश्वामित्र ने तब ध्यानस्थ होकर देखा और शुन:शेप से कहा कि अश्व को इन्द्र ने चुराया है। तुम बलि के लिए जाओ और जब तुम्हें बलि हेतु स्तम्भ से बाँध दिया जाय, तब तुम इन्द्र की स्तुति करना। इन्द्र अश्व दे देगा, तुम छूट जाओगे। घोड़ा मिल गया। शुन:शेप बच गया। सप्र्तिषयों ने उस बालक को अपनी संरक्षा में ले लिया।
विश्वामित्र ने विचार किया कि लाख प्रयत्न करके भी मैं तपस्या में सफल नहीं हो पा रहा हूँ। माया कब प्रवेश करती है मुझे पता ही नहीं चलता। जब आकाशवाणी सूचित करती है तब ज्ञात हो पाता है। लगता है कि मैं अपने बल से इन बाधाओं पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता। अन्तत: विश्वामित्र ने एक परमात्मा की शरण ली कि– ‘‘ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।’’ (यजुर्वेद, अध्याय ३६, कण्डिका ३) अर्थात् ॐ शब्द से उच्चरित, भू:, भुव: और स्व: तीनों लोकों में तत्त्वरूप से व्याप्त ‘सवितु:’– ज्योतिर्मय परमात्मा! आपके ‘वरेण्य भर्ग’ अर्थात् तेज का हम ‘धीमहि’- ध्यान करते हैं। ‘न: धिय: प्रचोदयात्’– हमारी बुद्धि में निवास करें, मुझे प्रेरणा दें। इस प्रकार अपने को भगवान के प्रति सर्मिपत कर विश्वामित्र तपस्या में लग गये। माया विश्वामित्र के पास आई, उनकी परिक्रमा कर लौट गयी। ब्रह्मा आये और कहा– आज से आप ऋषि हुए, मर्हिष हुए; किन्तु विश्वामित्र ने कहा– हमें जितेन्द्रिय ब्रह्र्मिष कहें। ब्रह्मा ने कहा– अभी आप जितेन्द्रिय नहीं हैं।
विश्वामित्र तपस्या में लगे ही रह गये। विधाता तीसरी बार समस्त देवताओं सहित पहुँचे और कहा– आज से आप ब्रह्र्मिष हुए। विश्वामित्र ने कहा– यदि मैं ब्रह्र्मिष हूँ तो वेद मेरा वरण करें। विश्वामित्र के पास वेद आ गये। जो परमात्मा अविदित था वह विदित हो गया। वेदों का अध्ययन नहीं करना पड़ता बल्कि प्राप्ति के साथ मिलनेवाली प्रत्यक्ष अनुभूति का नाम वेद है। वेद का अर्थ है जानकारी, परमात्मा जानने में आ गया। विश्वामित्र ने कहा– वशिष्ठ दर्शन दें। वशिष्ठ आये, विश्वामित्र से गले मिले।
इस प्रकार गायत्री एक परमात्मा के प्रति समर्पण है। इसके द्वारा हम-आप त्रिगुणमयी प्रकृति का पार पा सकते हैं कि भू: भुव: स्व: तीनों लोकों में तत्त्वरूप से जो व्याप्त है, जो सहज प्रकाशस्वरूप है, हे परमात्मा! आप मेरी बुद्धि में निवास करें जिससे मैं आपको जान लूँ। यह प्रार्थना गीता के अनुरूप है कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’ (१८/६६)– सारे धर्मों को त्याग दे, मात्र मेरी शरण हो जा। मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू मुझे प्राप्त होगा। सदा रहनेवाला जीवन और शान्ति प्राप्त कर लेगा। यही है गायत्री!
रामचरितमानस में वर्णन आता है कि सीताजी ने जब रंगभूमि में चरण रखा, धनुष-यज्ञ हो रहा था। अनेक पराक्रमी राजा-महाराजा असफल होते जा रहे थे। दस-दस हजार राजा एक साथ प्रयास कर रहे थे। रावण और बाणासुर जैसे पराक्रमी नरेश भी चुपचाप लौट गये थे। सीता ने राम को देखा– शिरीष पुष्प जैसा कोमल शरीर!
तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही।। (मानस, १/२५६/४)
भयभीत हृदय से उस समय जो भी याद आया ‘जेहि तेही’– सबकी प्रार्थना की किन्तु कोई लाभ नहीं निकला। तब वह भोलेनाथ शिव-पार्वती की शरण गयीं– ‘मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी।।’ (१//५६/५)– हे शंकर-पार्वती जी! मैंने आपकी जो सेवा की है, उसके बदले में ‘करि हितु हरहु चाप गरुआई’– मेरा हित सधता दिखायी पड़े तो चाप को हल्का कर दें। अभी हल्का कर देंगे तो ऐरा-गैरा कोई भी उसे तोड़ देगा।
जब रामजी की उँगलियाँ धनुष का स्पर्श करें तभी चाप को हल्का करें किन्तु कोई लाभ दिखायी न पड़ा, तब–
गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा।।
बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी।। (मानस, १/२५६/७-८)
हे गणेश जी! वर देने में आपकी ख्याति है। हमारी बार-बार विनती सुनकर चाप के भारीपन को बहुत ही कम कर दीजिए। सफलता मिलता न देख उन्होंने तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को एक साथ मना डाला–
देखि देखि रघुवीर तन, सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल, पुलकावली सरीर।। (मानस, १/२५७)
प्रेमाश्रु छलक आये। समस्त देवतागण चाप को हलका करें, फिर भी कहीं कोई लाभ नहीं हुआ। तब सीता आँखें बन्द कर उन प्रभु की शरण चली गयीं जिनकी शरण जाने का विधान है–
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा।।
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी।। (मानस, २/२५८/४-५)
मन-क्रम-वचन से यदि मेरा प्रण सत्य है, श्रीराम के चरणों में मेरा मन अनुरक्त है तो ‘भगवानु सकल उर बासी’– जो घट-घट में वास करते हैं, वह भगवान मुझे राम की दासी बना दें। कृपानिधान राम ने उसी क्षण जान लिया कि अब यह मेरी शरण आ गयी है– ‘तेहिं छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।’ (१/२६०/८)– उसी क्षण धनुष टूट गया, जयमाला पड़ गयी, सफलता मिल गयी। अर्थात् एक परमात्मा की शरण जिस क्षण सीता गयीं, सफलता मिल गयी। यही है गायत्री कि ओम् शब्द से उच्चरित ‘भू: भुव: स्व:’ तीनों लोकों में व्याप्त घट-घट वासी प्रभु मुझे राम की दासी बना दें। जिन्हें भी वह सत्य चाहिए, उन सबको एक प्रभु के प्रति समर्पण के साथ भजन करना चाहिए। यही है गायत्री!
गायत्री मंत्र का अर्थ क्या है?
गायत्री मंत्र का आशय अभी विस्तार से बताया गया। संक्षेप में यह उन प्रभु के प्रति समर्पण है जिससे त्रिगुणमयी प्रकृति से पार पाया जा सकता है।
गायत्री मंत्र का वैज्ञानिक, तार्किक या दार्शनिक पक्ष क्या है? गायत्री मंत्र जपने से क्या लाभ है?
गायत्री मंत्र एक परमात्मा के प्रति समर्पण मात्र है। इसका वैज्ञानिक, तार्किक या दार्शनिक होने प्रश्न ही नहीं है। गायत्री मंत्र से अनन्त देवी-देवताओं की पूजा से आपका सम्बन्ध हट जायेगा और एक परमात्मा में श्रद्धा जुट जायेगी, फिर जीवन में कभी भ्रान्ति नहीं होगी।– यही सर्वोपरि लाभ है।
गायत्री मंत्र से किस कठिनाई को दूर किया जा सकता है?
गायत्री मंत्र अर्थात् एक परमात्मा में समर्पण से सभी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं, फिर जीवन में कभी कठिनाई आती ही नहीं किन्तु समर्पण के पश्चात् भजन करना होगा जिसकी विधि गीताभाष्य ‘यथार्थ गीता’ में द्रष्टव्य है। एक परमात्मा की शरण गायत्री है। संस्कृत भाषा में ‘ॐ भूर्भुव:....’ पढ़ा जाता है। हिन्दी में इसी को कहेंगे कि हे परमतत्त्व परमात्मा! हे घट-घट वासी प्रभु! मुझे अपनी शरण में ले लें। मैं आपको प्रत्यक्ष जानना चाहता हूँ। यह भावना ही गायत्री है। सही अर्थ न समझने से किसी ने गायत्री को देवी कहा, किसी ने मंत्र कहा, किसी ने कहा कि ब्राह्मण को ही गायत्री मंत्र जपने का अधिकार है जबकि इसके प्रणेता विश्वामित्र जी क्षत्रिय नरेश थे। जब उन्होंने ब्रह्मतत्त्व को जान लिया, तत्त्व विदित हो गया, उनमें वेद उतर आये, वह ब्राह्मण हो गये, भगवान को पा गये, फिर वह क्यों गायत्री जपें? जिसने ब्राह्मणत्व को न पाया हो ऐसा प्रत्येक प्राणी जप सकता है, भजन कर सकता है। यह सबके लिये है।
ॐ भू भुवः स्वः तत सवितृ वरेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि धियोयोनः प्रचोदयात।
ॐ – जो कि प्रणव, आदि स्वर, बीज है।
भू- भू लोक- यह पृथ्वी।
भुवः- भुवर्लोक – पृथ्वी से ऊपर वायुमंडल।
स्वः- स्वर्गलोक जहाँ देवता, अप्सराएँ गंधर्व आदि निवास करते है।
भू लोक पर रहने वाले अच्छे व्यक्तियों, संतों, तपस्वियों आदि से भूवर्लोक में सती, झुंझार, भौमिया व अन्य हुतात्माएँ सूक्षम शरीरों में तपस्यारत अन्य सद्शाक्तियों से और स्वर्गलोक में रहने वाले देवताओं से साधक अपनी साधना में सहायता के लिए आह्वान करता है।
सवितृ देव का मंत्र तो अब आरम्भ होता है-
तत सवितृ वरेण्यम- वरण करने योग्य उस सवितृ।
भर्गो देवस्य धीमहि- श्रेष्ठ देवताओं का ध्यान करते है।
धियोयोनः प्रचोदयात- जो हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।
अतः मंत्र का अर्थ हुआ-“वरण करने योग्य श्रेष्ठ देवता सवितृ का हम ध्यान करते है जो हमारी बुद्धि को प्रेरित करें।
यहाँ मंत्र के दृष्टा ऋषि विश्वामित्र में सवितृदेव से कोई धन, धान्य, राज्य, सत्ता, शक्ति, बुद्धि, मुक्ति, प्रेम, दया आदि की याचना नहीं की। मात्र सन्मार्ग की ओर बुद्धि को प्रेरित करने का कार्य करे यह अभिलाषा है।
विश्वामित्र जी ने इस बात को सूक्ष्म रूप से समझा कि सन्मार्ग की ओर प्रेरित बुद्धि ही कल्याणकारी है, न कि शक्तिशाली बुद्धि और ऐसे मंत्र की रचना की जिसकी सर्वश्रेष्ठता आज तक निर्विवाद है।
रावण, कंस, हिरण्यकश्यप, परशुराम आदि पथभ्रष्ट व्यक्ति मुर्ख नहीं थे, बल्कि बुद्धिमान थे पर सन्मार्ग पर ना चलने की वजह से बुद्धि का आधिक्य होने के बावजूद इतिहास में खलनायक के रूप में दर्ज है।
गायत्री मंत्र- सवितृदेव सूर्य जिनसे यह सम्पूर्ण सृष्टि निसरित हुई है-का मंत्र है। मंत्र के शब्दों में कहीं गायत्री देवी का उल्लेख नहीं आता। मंत्र की रचना का छन्द अवश्य गायत्री है। किसी भी श्लोक अथवा मंत्र जिसमें 24 अक्षर हों उसे गायत्री छन्द में रचित कहते है। अतः छन्द के नाम पर मंत्र का नाम Gayatri-Mantra कर देना और उसे गायत्री देवी से सम्बद्ध कर गायत्री देवी नाम से छोटे-मोटे ग्रंथों की रचना कर उन्हें जन प्रचलित करना विश्वामित्र जी के साथ खिलवाड़ ह
क्षत्रियों द्वारा इस मंत्र (Gayatri-Mantra) के तत्व और महत्त्व को व विश्वामित्र के चरित्र के महात्म्य को विस्मृत कर दिए जाने का परिणाम यह हुआ कि आज इस मंत्र के ठेकेदार कोई और बन बैठे और क्षत्रिय इसके लाभों से उसी प्रकार दूर हो गये जैसे श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को बताये गए रास्ते से दूर हो गये। परिणामतः इस राह के भी मालिक कोई और बन बैठे।
विस्तृत वर्णन-
गायत्री मंत्र की उत्पत्ति कहाँ से है?
वेदमाता गायत्री, ब्राह्मणमाता गायत्री की चर्चा आश्रमीय प्रकाशन ‘शंका-समाधान’ में द्रष्टव्य है। उसकी पुनरावृत्ति न कर संक्षेप में चर्चा अपेक्षित है। वैसे गायत्री कोई देवी नहीं है। पौराणिककाल के कतिपय प्रवृत्तमार्गी व्यवस्थाकारों ने गायत्री को देवी-जैसा रूप दे डाला। गायत्री मंत्र की उत्पत्ति मर्हिष विश्वामित्र से है। जीवन के आरम्भिक वर्षों में यह मर्हिष राजा गाधि के पुत्र विश्वरथ नामक नरेश थे। चक्रर्वितत्व की कामना से विश्व-विजय कर रहे यह नरेश ब्रह्र्मिष वशिष्ठ के ब्रह्मतेज से पराभूत हो गये अत: ब्रह्मतेज र्अिजत करने के लिए तपस्या करने लगे।
उन्हें तपस्या से विरत करने के लिए देवताओं ने मेनका नामक अप्सरा को भेजा। विश्वामित्र उस पर आसक्त हो गये। उससे शकुन्तला नामक एक कन्या उत्पन्न हुई।
सद्य:जात बालिका की सुरक्षा से चिन्तित ऋषि मेनका को जंगल में ढूँढ़ने लगे। आकाशवाणी हुई– वह तो माया थी, ठगने आई थी चली गई। आप तप से च्युत हो गये!
विश्वामित्र पुन: तपश्चर्या में लग गये। एक नरेश त्रिशंकु ने उनसे सदेह स्वर्ग जाने का अनुरोध किया। मर्हिष ने अपने तपोबल से उसे स्वर्ग भेज भी दिया। देवताओं को यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने त्रिशंकु की प्रशंसा कर जानना चाहा कि किस पुण्यकर्म से वह सदेह स्वर्ग आया। त्रिशंकु ने अपने पुण्यकर्मों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जिससे उसका पुण्य क्षीण होने लगा। वह स्वर्ग से नीचे गिरने लगा। उसने विश्वामित्र को अपनी दुर्दशा से अवगत कराया। ऋषि ने उसे अधर में ही रुकने का आदेश दिया और उसके लिए अलग स्वर्ग और सृष्टि की संरचना में लग गये। देवताओं के अनुरोध पर विश्वामित्र नवीन सृष्टि-रचना से विरत तो हो गये किन्तु इससे उनकी तपस्या को गहरी क्षति पहुँची।
एक बार महाराज अम्बरीष अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। इन्द्रपद छिन जाने के भय से देवराज इन्द्र ने यज्ञ का अश्व चुरा लिया। अश्व की शोध में राजा जंगलों में पहुँचे। वहाँ एक राजा, उनकी रानी तथा तीन राजकुमार राज्य छिन जाने से शान्त-एकान्त में जीवन व्यतीत कर रहे थे। अम्बरीष ने उन राजा को बताया कि यज्ञ का घोड़ा गायब हो गया है। आप अपना कोई पुत्र दे दें तो मैं आपको लाखों गायें, स्वर्णमुद्राएँ दूँगा। बच्चों के पिता ने कहा– बड़ा पुत्र मुझे प्रिय है, मैं नहीं दे सकता। माँ बोली– छोटा पुत्र मुझे प्रिय है, मैं नहीं दे सकती। मझले लड़के ने कहा– राजन्! मैं किसी को प्रिय नहीं हूँ अत: मैं आपके साथ चलूँगा। आप गायें, स्वर्णमुद्राएँ इन्हें दे दें। उस बालक का नाम शुन:शेप था।
राजा और बालक उसी मार्ग से जा रहे थे जहाँ विश्वामित्र तपस्या कर रहे थे। विश्वामित्र ने बालक को पहचान लिया क्योंकि वह उनका भांजा था। शुन:शेप ने बताया कि वह बलि चढ़ने जा रहा है। विश्वामित्र ने कहा– मेरे सौ पुत्र हैं, उनमें से कोई तुम्हारे स्थान पर चला जायेगा। तुम चिन्ता न करो। विश्वामित्र ने अपने पुत्रों से कहा– इसे मैंने अभयदान दिया है, मेरी शरण में है। तुममें से कोई इसके बदले अपने को बलि हेतु प्रस्तुत कर दो। बच्चों ने कहा– सबके पिता झूठ-सच बोलकर अपने पुत्रों का हित करते हैं, आप कैसे पिता हैं जो मरने के लिए कहते हैं! सबने अस्वीकार कर दिया। विश्वामित्र को क्रोध आ गया, बोले– बचोगे तब भी नहीं! जाओ सब-के-सब मर जाओ। सब मर गये। आकाशवाणी हुई कि आपका तप नष्ट हो गया।
विश्वामित्र ने तब ध्यानस्थ होकर देखा और शुन:शेप से कहा कि अश्व को इन्द्र ने चुराया है। तुम बलि के लिए जाओ और जब तुम्हें बलि हेतु स्तम्भ से बाँध दिया जाय, तब तुम इन्द्र की स्तुति करना। इन्द्र अश्व दे देगा, तुम छूट जाओगे। घोड़ा मिल गया। शुन:शेप बच गया। सप्र्तिषयों ने उस बालक को अपनी संरक्षा में ले लिया।
विश्वामित्र ने विचार किया कि लाख प्रयत्न करके भी मैं तपस्या में सफल नहीं हो पा रहा हूँ। माया कब प्रवेश करती है मुझे पता ही नहीं चलता। जब आकाशवाणी सूचित करती है तब ज्ञात हो पाता है। लगता है कि मैं अपने बल से इन बाधाओं पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता। अन्तत: विश्वामित्र ने एक परमात्मा की शरण ली कि– ‘‘ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।’’ (यजुर्वेद, अध्याय ३६, कण्डिका ३) अर्थात् ॐ शब्द से उच्चरित, भू:, भुव: और स्व: तीनों लोकों में तत्त्वरूप से व्याप्त ‘सवितु:’– ज्योतिर्मय परमात्मा! आपके ‘वरेण्य भर्ग’ अर्थात् तेज का हम ‘धीमहि’- ध्यान करते हैं। ‘न: धिय: प्रचोदयात्’– हमारी बुद्धि में निवास करें, मुझे प्रेरणा दें। इस प्रकार अपने को भगवान के प्रति सर्मिपत कर विश्वामित्र तपस्या में लग गये। माया विश्वामित्र के पास आई, उनकी परिक्रमा कर लौट गयी। ब्रह्मा आये और कहा– आज से आप ऋषि हुए, मर्हिष हुए; किन्तु विश्वामित्र ने कहा– हमें जितेन्द्रिय ब्रह्र्मिष कहें। ब्रह्मा ने कहा– अभी आप जितेन्द्रिय नहीं हैं।
विश्वामित्र तपस्या में लगे ही रह गये। विधाता तीसरी बार समस्त देवताओं सहित पहुँचे और कहा– आज से आप ब्रह्र्मिष हुए। विश्वामित्र ने कहा– यदि मैं ब्रह्र्मिष हूँ तो वेद मेरा वरण करें। विश्वामित्र के पास वेद आ गये। जो परमात्मा अविदित था वह विदित हो गया। वेदों का अध्ययन नहीं करना पड़ता बल्कि प्राप्ति के साथ मिलनेवाली प्रत्यक्ष अनुभूति का नाम वेद है। वेद का अर्थ है जानकारी, परमात्मा जानने में आ गया। विश्वामित्र ने कहा– वशिष्ठ दर्शन दें। वशिष्ठ आये, विश्वामित्र से गले मिले।
इस प्रकार गायत्री एक परमात्मा के प्रति समर्पण है। इसके द्वारा हम-आप त्रिगुणमयी प्रकृति का पार पा सकते हैं कि भू: भुव: स्व: तीनों लोकों में तत्त्वरूप से जो व्याप्त है, जो सहज प्रकाशस्वरूप है, हे परमात्मा! आप मेरी बुद्धि में निवास करें जिससे मैं आपको जान लूँ। यह प्रार्थना गीता के अनुरूप है कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’ (१८/६६)– सारे धर्मों को त्याग दे, मात्र मेरी शरण हो जा। मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू मुझे प्राप्त होगा। सदा रहनेवाला जीवन और शान्ति प्राप्त कर लेगा। यही है गायत्री!
रामचरितमानस में वर्णन आता है कि सीताजी ने जब रंगभूमि में चरण रखा, धनुष-यज्ञ हो रहा था। अनेक पराक्रमी राजा-महाराजा असफल होते जा रहे थे। दस-दस हजार राजा एक साथ प्रयास कर रहे थे। रावण और बाणासुर जैसे पराक्रमी नरेश भी चुपचाप लौट गये थे। सीता ने राम को देखा– शिरीष पुष्प जैसा कोमल शरीर!
तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही।। (मानस, १/२५६/४)
भयभीत हृदय से उस समय जो भी याद आया ‘जेहि तेही’– सबकी प्रार्थना की किन्तु कोई लाभ नहीं निकला। तब वह भोलेनाथ शिव-पार्वती की शरण गयीं– ‘मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी।।’ (१//५६/५)– हे शंकर-पार्वती जी! मैंने आपकी जो सेवा की है, उसके बदले में ‘करि हितु हरहु चाप गरुआई’– मेरा हित सधता दिखायी पड़े तो चाप को हल्का कर दें। अभी हल्का कर देंगे तो ऐरा-गैरा कोई भी उसे तोड़ देगा।
जब रामजी की उँगलियाँ धनुष का स्पर्श करें तभी चाप को हल्का करें किन्तु कोई लाभ दिखायी न पड़ा, तब–
गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा।।
बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी।। (मानस, १/२५६/७-८)
हे गणेश जी! वर देने में आपकी ख्याति है। हमारी बार-बार विनती सुनकर चाप के भारीपन को बहुत ही कम कर दीजिए। सफलता मिलता न देख उन्होंने तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को एक साथ मना डाला–
देखि देखि रघुवीर तन, सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल, पुलकावली सरीर।। (मानस, १/२५७)
प्रेमाश्रु छलक आये। समस्त देवतागण चाप को हलका करें, फिर भी कहीं कोई लाभ नहीं हुआ। तब सीता आँखें बन्द कर उन प्रभु की शरण चली गयीं जिनकी शरण जाने का विधान है–
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा।।
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी।। (मानस, २/२५८/४-५)
मन-क्रम-वचन से यदि मेरा प्रण सत्य है, श्रीराम के चरणों में मेरा मन अनुरक्त है तो ‘भगवानु सकल उर बासी’– जो घट-घट में वास करते हैं, वह भगवान मुझे राम की दासी बना दें। कृपानिधान राम ने उसी क्षण जान लिया कि अब यह मेरी शरण आ गयी है– ‘तेहिं छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।’ (१/२६०/८)– उसी क्षण धनुष टूट गया, जयमाला पड़ गयी, सफलता मिल गयी। अर्थात् एक परमात्मा की शरण जिस क्षण सीता गयीं, सफलता मिल गयी। यही है गायत्री कि ओम् शब्द से उच्चरित ‘भू: भुव: स्व:’ तीनों लोकों में व्याप्त घट-घट वासी प्रभु मुझे राम की दासी बना दें। जिन्हें भी वह सत्य चाहिए, उन सबको एक प्रभु के प्रति समर्पण के साथ भजन करना चाहिए। यही है गायत्री!
गायत्री मंत्र का अर्थ क्या है?
गायत्री मंत्र का आशय अभी विस्तार से बताया गया। संक्षेप में यह उन प्रभु के प्रति समर्पण है जिससे त्रिगुणमयी प्रकृति से पार पाया जा सकता है।
गायत्री मंत्र का वैज्ञानिक, तार्किक या दार्शनिक पक्ष क्या है? गायत्री मंत्र जपने से क्या लाभ है?
गायत्री मंत्र एक परमात्मा के प्रति समर्पण मात्र है। इसका वैज्ञानिक, तार्किक या दार्शनिक होने प्रश्न ही नहीं है। गायत्री मंत्र से अनन्त देवी-देवताओं की पूजा से आपका सम्बन्ध हट जायेगा और एक परमात्मा में श्रद्धा जुट जायेगी, फिर जीवन में कभी भ्रान्ति नहीं होगी।– यही सर्वोपरि लाभ है।
गायत्री मंत्र से किस कठिनाई को दूर किया जा सकता है?
गायत्री मंत्र अर्थात् एक परमात्मा में समर्पण से सभी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं, फिर जीवन में कभी कठिनाई आती ही नहीं किन्तु समर्पण के पश्चात् भजन करना होगा जिसकी विधि गीताभाष्य ‘यथार्थ गीता’ में द्रष्टव्य है। एक परमात्मा की शरण गायत्री है। संस्कृत भाषा में ‘ॐ भूर्भुव:....’ पढ़ा जाता है। हिन्दी में इसी को कहेंगे कि हे परमतत्त्व परमात्मा! हे घट-घट वासी प्रभु! मुझे अपनी शरण में ले लें। मैं आपको प्रत्यक्ष जानना चाहता हूँ। यह भावना ही गायत्री है। सही अर्थ न समझने से किसी ने गायत्री को देवी कहा, किसी ने मंत्र कहा, किसी ने कहा कि ब्राह्मण को ही गायत्री मंत्र जपने का अधिकार है जबकि इसके प्रणेता विश्वामित्र जी क्षत्रिय नरेश थे। जब उन्होंने ब्रह्मतत्त्व को जान लिया, तत्त्व विदित हो गया, उनमें वेद उतर आये, वह ब्राह्मण हो गये, भगवान को पा गये, फिर वह क्यों गायत्री जपें? जिसने ब्राह्मणत्व को न पाया हो ऐसा प्रत्येक प्राणी जप सकता है, भजन कर सकता है। यह सबके लिये है।
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