28.2.25

नायक जाति की उत्पत्ति और इतिहास /History Of Nayak Caste

 



नायक एक हिंदू जाति है जो भारत और पाकिस्तान में पाई जाती है. नायक समाज के बारे में ज़रूरी जानकारी इस प्रकार  है- 
नायक समाज की कुलदेवी "वन माता "है.
नायक समाज के आराध्य देव पाबूजी महाराज हैं.
नायक समाज के कुछ गोत्र हैं- साँखला, चाँवरिया, पँवार, लौहरा, सिसोदीया, सारासर, क्षेत्रपाल, अठवाल, बोहित, चण्डालिया, घौरण, आलसिका, बारवासिया, गरासिया, चारण, राड़ोदीया, डाबला, बगडीया, खारडु, डगला, भावरिया, हौबाणि.
नायक समाज के लोग भील जनजाति के बड़े उपजाति वर्ग से आते हैं.
नायक समाज के लोग भारत के शासक वर्ग के नज़दीक थे.
नायक समाज के लोग सेना में नायक और सेना नायक जैसे पद प्राप्त करने के कारण अपनी जनजाति में एक विशेष पहचान और रुतबा कायम किया.
नायक समाज के लोग अपनी जनजाति के समानांतर पूरे भारत में अपनी अलग पहचान रखते हैं.
नायक समाज के लोग अपने को भीलों का योद्धा और श्रेष्ठ वर्ग मानते हैं.
नायक समाज के लोग मुख्य रूप से हिन्दू धर्म का पालन करते हैं.
नायक जाति के लोग अपने को भीलों का योद्धा और श्रेष्ठ वर्ग मानते हैं.
रामदयाल मुंडा ने भी नायक जाति को आदिवासी समाज का सांस्कृतिक गुरु बताया था.
नायक जाति के लोग आधुनिक चिकित्सा देखभाल का मध्यम उपयोग करते हैं.
वे अभी भी अंधविश्वासों में विश्वास करते हैं और छोटी बीमारियों के लिए अपने भुवा (पवित्र विशेषज्ञ) के पास जाते हैं.
प्रजनन आयु की अधिकांश महिलाएँ नसबंदी करवा लेती हैं.
परिवार के आकार को सीमित करने के लिए स्वदेशी तरीकों का भी उपयोग करती हैं.
नायक जाति के कई प्रकार होते हैं, जैसे कि नायरा, नायक बढ़ा, नायक चोली वाला, नायक कापड़िया, नायक मोटा, लभाना, भोपा, बंजारा, तांडे, भील नाईक वगैरह.
नायक जाति के लोग राजपूत भी कहलाते थे.
नायक जाति के लोग युद्ध में सेना का संचालन करते थे.
नायक जाति के लोग गवर्नर के रूप में शासन करते थे.
नायक जाति के लोग वर्तमान में कृषि करते हैं और सरकारी-या प्राइवेट नौकरी करते हैं.


नायक समाज के कुल देवता कौन थे?

भगवान विष्णु की पूजा बाबा नायक के रूप में की जाती है। उन्हें तैली वैश्य व वणिक समुदाय का सृष्टिकर्ता माना जाता है।


नायक कौन सी जाति है?

कर्नाटक के मुस्लिम सिद्दी लोग नायक उपनाम का इस्तेमाल करते हैं जो उन्हें बीजापुर के राजाओं से उपाधि के रूप में मिला था। महाराष्ट्र में नायक और नाइक उपनाम का इस्तेमाल क्षत्रिय मराठा, सीकेपी, सारस्वत ब्राह्मण और देशस्थ ब्राह्मण समुदाय करते हैं।

प्रमुख नायक साम्राज्य

मदुरै नायक , 16वीं-18वीं सदी के तमिलनाडु के तेलुगु शासक। तंजावुर नायक , 16वीं-17वीं सदी के तंजावुर , तमिलनाडु के तेलुगु शासक। गिंगी (सेनजी) के नायक , 16वीं-17वीं सदी के तमिलनाडु के तेलुगु शासक, जो पहले विजयनगर साम्राज्य के गवर्नर थे।

नायक जाति के राजा कौन थे?

कृष्ण देव राय : नरसा नायक का पुत्र तालुव वंश का प्रथम शासक। मदुरै नायक राजवंश [[१]]) मदुरै नगर में केन्द्रित इस राजवंश ने १७७ वर्ष राज किया।

नायक कौन से वर्ग में आते हैं?

राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और भारत के अन्य राज्यों में नायक जाति को अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है और इसका उल्लेख अनुसूचित जनजाति सूची में भी है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं।
  नायक के बीच कोई उपजातियां नहीं हैं, और अधिकांश संसा नायक एक ही कबीले, मालगट के हैं। इस बात के काफी प्रमाण हैं कि नायक जाति आदिवासी, पूर्व-आर्यन मूल की है। साधारण प्रेक्षक भी यह नोटिस करेगा कि नायक औसतन राजपूतों और अधिकांश अन्य स्थानीय जातियों की तुलना में सावले और अधिक गहरे रंग के होते हैं।
Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।

27.2.25

रैगर जाती की उत्पत्ति और इतिहास |History of Raigar

 



रेगर जाति क उत्पत्ति और इतिहास का विडिओ देखें 


रैगर (जिसे रायगर , रेगर , रायगढ़ , रानीगर और रेहगढ़ भी कहा जाता है, भारत का एक जाति समूह है। उन्हें कभी-कभी चमार जाति से जोड़ा जाता है लेकिन समाजशास्त्री बेला भाटिया उन्हें अलग मानती हैं। रैगर पंजाब , हरियाणा , गुजरात , हिमाचल प्रदेश और राजस्थान राज्यों में पाए जाते हैं।

रैगर समाज के बारे में जानकारी देते हुए, स्‍वामी आत्‍मारामजी के लेख में बताया गया है कि चित्तौड़गढ़ के युद्ध में रैगर क्षत्रियों ने हथियार लेकर हिस्सा लिया था. इससे पता चलता है कि रैगर समाज में क्षत्रिय संस्कार विद्यमान हैं. 

रैगर समाज की उत्पत्ति और इतिहास के बारे में जानकारीः

रैगर समाज के इतिहास के बारे में जानकारी के लिए, डॉ. पीएन रछौया की किताब 'रैगर जाति की उत्पत्ति व संपूर्ण इतिहास' का अध्ययन किया जा सकता है.

रैगर समाज को कभी-कभी चमार जाति से जोड़ा जाता है, लेकिन समाजशास्त्री बेला भाटिया उन्हें अलग मानती हैं.

रैगर समाज के लोग पंजाब, हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, और राजस्थान में पाए जाते हैं.

राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में उन्हें रैगर के नाम से जाना जाता है.

रैगर समाज के इतिहास के बारे में जो भी लिखा गया है, उसमें ऐतिहासिक तथ्यों की खोज न कर मनगढ़त और काल्पनिक बातों का ज़्यादा ज़िक्र किया गया है.

रैगर समाज के इतिहास की रचना के लिए, ऐतिहासिक और भौगोलिक आधार पर सही प्रमाण दिए गए हैं.

रैगर समाज के इतिहास की रचना के लिए, राजस्थान सरकार के गजट का भी आधार लिया गया है.

‘रैगर’ शब्‍द की तरह रैगर जाति की उत्‍पत्ति के संबंध में भी विद्वानों के विभिन्‍न मत है । 

इस संबंध में इतिहास में उपलब्‍ध सामग्री के आधार पर हम यहां विचार करेंगे । खोज करने से पता चला कि चन्‍द्रवती के राज अग्रसेन के नाम पर आगरा और अग्रोहा नगर बसाये गए । अग्रोहा (पंजाब) पर राजा नन्‍दराज के समय सिकन्‍दर महान् ने आक्रमण किया था । मगर पूर्ण विजय प्राप्‍त नहीं कर सका । 

पं. ज्‍वाला प्रसाद ने अपनी पुस्‍तक ‘जाति भास्‍कर’ तथा रमेशचन्‍द्र गुणार्थी ने अपनी पुस्‍तक ‘राजस्‍थानी जातियों की खोज’ में लिखा है कि सम्‍वत् 1250 के लगभग शहाबुद्दीन गौरी ने अग्रोहा के राजा दिवाकर देव पर आक्रमण करके नगर को तहस-नहस कर दिया । राजा दिवाकर देव सपरिवार धर्म परिवर्तन कर जैनी हो गया । वहां के अग्रवाल जो सगरवंशी पुकारे जाते थे, वे भाग कर पंजाब के भटिण्‍डा और आस-पास के 22 गांवों – करटड़ी, खीबर, ज्ञानमण्‍ड, चंडुमण्‍ड, जगमोहनपुरा, टोपाटी, डमानु, ताला, दामनगढ़, धौलागढ़, नेनपाल, पीपलसार, फरदीना, बरबीना, भूदानी, मैनपाल, रतनासर, लुबान, सिंहगौड़, हरणोद, आवा और उदयसर आदि में आकर बस गए और अपने को रंगड़ राजपूत कहने लगे । 

जाति इतिहास विद  डॉ . दयाराम आलोक के अनुसार सन 1308  में फिरोजशाह तुगलक दिल्‍ली की गद्दी पर बैठा । उसने भटिण्‍डा पर आक्रमण किया और एक घण्‍टे में दस हजार हिन्‍दुओं को मौत के घाट उतारा । हिन्‍दुओं को गौ मांस खाने के को बाध्‍य किया गया । रंगड़ राजपूतों पर भी इसी तरह के भारी अत्‍याचार किए गए ।  इन्हीं रंगड़ राजपूतों को  ‘रैगर’ शब्‍द से सम्‍बोधित किया गया जो आज भी प्रचलित है ।  रैगर जाति की उत्‍पत्ति रंगड़ राजपूतों से हुई है और रैगर सगरवंशी है ।

श्री बजरंगलाल लोहिया ने अपनी पुस्‍तक ‘राजस्‍थान की जातियां’ में रेहगर (रैगर) नाम जाति की उत्‍पत्ति निम्‍नानुसार बताई है- ”मालवा प्रांत के मदूगढ़ स्‍थान में स्थित रैदास जाति के लोगों से रेहगर जाति के लोग अपनी जाति की उत्‍पत्ति बताते हैं । ……….. इस नाम की उत्‍पत्ति रैदास के नाम पर आश्रित है इसी नाम से जयपुर में विख्‍यात है । जोधपुर नगर में तथा मारवाड़ के अन्‍य भागों में यह लोग जटिये कहलाते हैं । संभवत: इसका कारण यह है कि जाटों के साथ रहने के कारण इनकी स्त्रियां जाट स्त्रियों के सद्दश्‍य वेश में रहने लगी है । पशुओं की खालों को रंगने के कारण बीकानेर में यह रंगिये कहलाते है । राजस्‍थान के रेहगर जनेऊ पहनते है और सात फेरों की प्रथा से विवाह करते हैं ।” श्री बजरंगलाल लोहिया का यह मत सही नहीं है, कपोल कल्पित है । रैगर जाति की उत्‍पत्ति रैदासजी के पैदा होने से 1400 वर्षों से भी अधिक पहले हो चुकी थी तथा रैदासजी जाति से चमार थे ।

जनगणना  राजस्थान  मारवाड़ सन् 1891 में रैगर या जटिया जाति की उत्‍पत्ति के संबंध में लिखा है कि ”रैदास के दो औरतें थी । एक की औलाद चमार रही और दूसरी की रैगर हुई । कोई यह भी कहते है कि भगत कहलाने से पहले रैदास चमार कहलाते थे 

तथा भगत कहलाने के पीछे की रैगर कहलाई ।

रैगर जाती को   जटिया कहे जाने की वजह यह है कि इनकी औरतें जाटनियों की तरह पॉंव में पीतल के पगरिये और घागरे की जगह धाबला पहनती है । जटियों को बीकानेर में रंगिये और मेवाड़ में बूला कहते है । रैगर वैष्‍णव धर्म रखते है । रैगर जनेउ पहिनते है तथा गंगाजी को अपने अरस-परस समझते है ।मरदुम शुमारी की इस रिपोर्ट में रैगर जाति की उत्‍पत्ति संबंधीत जो भी उल्‍लेख किया गया है वो बेवुनियाद और भ्रांतियां उत्‍पन्‍न करने वाला है । रैदासजी के एक ही औरत थी जिसका नाम लोना था तथा एक ही औलाद थी जिसका नाम विजयदास था ।

इस रिपोर्ट में रैगर जाति की उत्‍पत्ति के संबंध में लिखते समय इतिहास के तथ्‍यों को भी भुला दिया गया ।

श्री ओमदत्‍त शर्मा गौड़ ने अपनी पुस्‍तक ‘लुणिया जाति-निर्णय’ में लिखा है- कि ”लुणिया, लूनिया, नूनिया, नौनिया, नूनगर, शोरगर, नमकगर, रेहगर, खाखाल, खारौल, लवाणा, लबाणा, लबाजे, लवणिया, लोयाना, लोहाणे, लोयाणे, नूनारी, नूनेरा, आगरी आदि कई जातियॉं न होकर भारत वर्ष की प्रसिद्ध क्षत्रिय जाति के एक भेद के ही भिन्‍न-भिन्‍न नाम हैं, जो प्राचीन विपत्तियों के फलस्‍वरूप उद्योग-धन्‍धे अपना लेने तथा भिन्‍न-भिन्‍न जगहों में रहने व पुकारे जाने के कारण पड़ गए हैं ।” लेखक ने लूणिया जाति को सूर्यवंशी सिद्ध किया है । इस मत के अनुसार भी रेहगर (रैगर) क्षत्रिय हैं तथा सूर्यवंशी हैं ।

राजस्‍थान प्रान्‍तीय हिन्‍दू महासभा अजमेर ने कई प्रमाण देकर रैगरों की उत्‍पत्ति ‘गर’ क्षत्रियों से बताते हुए उनके साथ क्षत्रियों जैसा व्‍यवहार करने की अपील जारी की थी । यह अपील निम्‍नानुसार है- ”यह प्रमाणित किया जाता है कि शास्‍त्रों, इतिहास और प्राचीन ग्रन्‍थों के अनुशीलन से यह सिद्ध होता है कि यह रैगर जाति ‘गर’ क्षत्रियों से उत्‍पन्‍न हुई है । अत: सब हिन्‍दू (आर्य) नर-नारियों से निवेदन है कि वे इनके साथ क्षत्रियों के समान पूर्ण व्‍यवहार करें ।

” यह अपील साप्‍ताहिक ‘आवाज’ दिनांक 28 जुलाई, 1941, वर्ष 2 अंक 42 में जारी की गई थी । इसमें रैगर जाति की उत्‍पत्ति ‘गर’ क्षेत्रियों से मानी है ।

प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्‍द ओझा ने गर, गौर, गोरा तथा गौड़  को एक ही माना है और इतिहास से एक ही प्रमाणित किया है । गौड़ चन्‍द्रवंश की शाखा है । अत: गर क्षत्रिय चन्‍द्रवंशी हैं ज‍बकि 

इतिहास से यह प्रमाणित हो चुका है कि रैगर सूर्यवंशी  क्षत्रीय  हैं  । 

अत: गर क्षत्रियों से रैगर जाति की उत्‍पत्ति संबंधी यह मत सही नहीं है । रैगर गर क्षत्रिय नहीं है ।

रैगर जाति के संबंध में एक मत यह भी है कि कई स्‍वतन्‍त्र जातियों ने युद्ध में हारी हुई जातियों को अपने कार्य हेतु, अपने में मिला लिया । जैसे जटिया जाटों से ही संबंधित है । मगर यह मत सही नहीं है । जटिया रैगर का पर्यायवाची शब्‍द है तथा जटिया शब्‍द क्षेत्रीय प्रभावों से जुड़ गया है । रैगर जाति की उत्‍पत्ति रंगड़ राजपूतों से हुई है, जाटों से नहीं ।

पं. ज्‍वाला प्रसाद तथा रमेशचन्‍द्र गुणार्थी ने अपनी पुस्‍तकों में रैगर जाति की उत्‍पत्ति इतिहास के तथ्‍यों के आधार पर दी है । इन्‍होंने रैगर जाति की उत्‍पत्ति इतिहास के तथ्‍यों के आधार पर दी है । इन्‍होंने रैगर जाति की उत्‍पत्ति आज से लगभग 600 वर्ष पहले होना प्रमाणित किया है मगर यह तथ्‍य सही नहीं है ।

हुरड़ा का शिलालेख प्रकाश में आ चुका है । यह शिलालेख लगभग 1003 वर्ष प्राचीन है । इस शिलालेख से यह ठोस रूप से प्रमाणित होता है कि आज से 1003 वर्ष पूर्व भी यह जाति ‘रैगर’ नाम से पुकारी जाती थी तथा यह जाति आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भी अस्‍तित्‍व में थी । 

सके अलावा फागी के बही भाटों की पोथियों में इस बात का विस्‍तृत उल्‍लेख है कि विश्‍व विख्‍यात तीर्थराज पुष्‍कर का प्रसिद्ध गऊघाट गुन्‍दी निवासी बद्री बाकोलिया ने सम्‍वत् 989 में बनवाया । इस तथ्‍य को अजमेर के न्‍यायालय ने भी माना है । गऊघाट का निर्माण आज से 1050 वर्ष पूर्व हुआ था । अत: यह जाति और गौत्र 1050 वर्ष पूर्व भी मोजूद थी ।

बही भाटों की पोथियों में रैगरों का विस्‍तृत और विश्‍वसनीय वर्णन है । इन सब तथ्‍यों को देखने यह प्रमाणिक रूप से कहा जा सकता है कि रैगर जाति हजारों वर्ष प्राचीन जाति है । शिलालेखों तथा बही भाटों की पोथियों को गलत नहीं माना जा सकता ।

यह तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि रैगर जाति की प्राचीनता हजारों वर्षों की है मगर पं. ज्‍वाला प्रसाद तथा रमेशचन्‍द्र गुणार्थी के मत से यह अवश्‍य प्रकट होता है कि इस जाति ने सम्‍वत् 1408 के बाद ही निम्‍न कर्म अपनाए यद्यपि इससे पहले भी यह जाति अस्‍तित्‍व में थी मगर इस जाति के कर्म उच्‍च थे । 

बही भाट स्‍वयं यह मानते हैं तथा उनकी पोथियों में स्‍पष्‍ट उल्‍लेख है कि इस जाति के कर्म पहले उच्‍च थे तथा कालांतर में किन्‍हीं परिस्थितियों के कारण निम्‍न कर्म अपना लिए । इन सब तथ्‍यों से ऐसा प्रकट होता है कि इस जाति ने आज से लगभग 600 वर्ष पूर्व निम्‍न कर्म अपनाए और इससे पहले अपने क्षत्रिय कर्म को ही अपनाए हुए थे । 

पं. ज्‍वाला प्रसाद तथा रमेशचन्‍द्र गुणार्थी का मत रैगर जाति की उत्‍पत्ति का नहीं बल्‍कि रैगर जाति के कर्म परिवर्तन का मत प्रतीत होता है । पं. ज्‍वाला प्रसाद तथा रमेशचन्‍द्र गुणार्थी ने सम्‍वत् 1250 तथा सम्‍वत् 1408 में हुए मुगल आक्रमणों का वर्णन दिया है उन पर दृष्टि डालें तो वह काल कर्म परिवर्तन का जेहाद छेड़ रखा था । उन परिस्थितियों में क्षत्रिय निम्‍न कर्म अपना कर या धर्म परिवर्तन कर ही जीवित रह सकते थे । अत: उस समय के हालात को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वह काल कर्म और धर्म परिवर्तन का काल था । इसलिए यह ज्‍यादा उचित प्रतीत होता है कि इस काल में इन रैगर क्षत्रियों ने अपने क्षत्रिय कर्म बदल कर निम्‍न कर्म अपना लिए तभी से इन को निम्‍न जातियों में शुमार कर दिया गया ।

शूद्रों की उत्‍पत्ति के सम्‍बंध में खोज पर सर्वप्रथम शूद्रों के महान नायक डॉ. भीमराव अम्‍बेडकर ने कलम उठाई थी । उन्‍होंने 1947 में Who were the Sudras ग्रन्‍थ लिखा जिसमें अपने सम्‍पूर्ण जीवन के अनुभव एवं अध्‍ययन के आधार पर निष्‍कर्ष निकाला कि शूद्रों की उत्‍पत्ति आर्य क्षत्रियों के उस सूर्यवंशी वर्ग में से हुई है जिनका ब्राह्मणों ने वैमनस्य के कारण उपनयन संस्‍कार करने से करने से मनाही कर दी थी । महाभारत के शान्तिपर्व (बारह-60, 38-40) में वर्णन आया है कि पैजवन शूद्र राजा था और उसने यज्ञ करवाया था । ब्राह्मणों ने उसे उपनयन (यज्ञोपवित संस्‍कार) के अधिकार से वंचित कर दिया था ।

डॉ. अम्‍बेडकर द्वारा उपरोक्‍त पुस्‍तक लिखे जाने के बाद शूद्रों की उत्‍पत्ति के विषय में नई ऐतिहासिक खोजें हुई है । ‘सिंधु घाटी सभ्‍यता के सृजनकर्ता शूद्र और वणिक ॽ’ के 

लेखक नवल वियोगी का मत है कि- ”शूद्रों की उत्‍पत्ति क्षत्रियों में से हुई मगर वे क्षत्रिय आर्य नहीं अनार्य थे । वे सिंधु घाटी के वीर शासक आयुद्ध जीवी वर्ग की संतान थे ।” रामशरण शर्मा ने अपने ग्रन्‍थ ‘शूद्रों का प्राचीन इतिहास’ तथा सुन्‍दरलाल सागर ने अपनी पुस्‍‍तक ‘द्रविड़ और द्रविड़ स्‍थान’ में शूद्रों की उत्‍पत्ति द्रविड़ों से मानी है जो सिंधु घाटी के सृजनकर्त्‍ता थे । 

वे अनार्य क्षत्रीय आयुद्धधारी, वीर योद्धा और बलवान थे । अत: अधिकांश विद्वान इस बात को मानते है कि शूद्र अनार्य (द्रविड़) क्षत्रीय थे । उनमें क्षत्रियों के गुण थे । इस आधार पर भी रैगरों की उत्‍पत्ति क्षत्रियों से ही प्रमाणित होती है ।

डॉ. अम्‍बेडकर ने शूद्रों की उत्‍पत्ति सूर्यवंशी क्षत्रियों से मानी है । इसलिए रैगर भी सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं । बही भाटों की पोथियों का उल्‍लेख किये बिना रैगर जाति की उत्‍पत्ति के संबंध में निष्‍कर्ष निकालना न्‍याय संगत नहीं है । इतिहास की पुस्‍तकों में रैगर जाति का कहीं भी उल्‍लेख नहीं है । रैगरों के बही भाटों की पोथियॉं ही एक मात्र ऐसे लिखित दस्‍तावेज हैं जिसमें इस जाति के बारे में सब कुछ तथा विस्‍तृत रूप से लिखा हुआ है । उन्‍हें समझने की आवश्‍यकता है । 

जब से बही भाटों ने पोथियॉं लिखनी शुरू की है त‍ब से आज दिन तक उनकी पोथियों में रैगरों के गोत्रों तथा वंशावलियों का विस्‍तृत वर्णन है । बही भाट रैगरों के कुल 356 गोत्र बताते हैं । प्रत्‍येक गोत्र का इतना विस्‍तृत वर्णन दिया हुआ है कि उसकी उत्‍पत्ति किस स्‍थान से तथा किस वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य तथा शूद्र) से हुई । उस मूल वर्ण में रहते उनकी इष्‍ट देवी कौन थी, कौन सी पीढ़ि में निम्‍न कर्म अपनाये आदि उल्‍लेख है ।

बही भाटों से यदि यह पूछा जाय कि रैगर जाति की उत्‍पत्ति कब हुई तथा इसने निम्‍न कर्म कब अपनाए तो वे इसका जवाब नहीं दे सकते । इसका कारण यह है कि हर गोत्र की उत्‍पत्ति अलग-अलग समय और स्‍थान से हुई तथा अलग-अलग समय में कर्म परिर्वतन किये । रैगरों के तमाम गोत्रों का विस्‍तृत वर्णन उनकी पोथियों में मौजूद है । उन्‍हीं को समझ कर सही निष्‍कर्ष निकाला जा सकता है । अत: रैगर जाति की उत्‍पत्ति की सही जानकारी बही भाटों की पोथियों में ही मिल सकती है । मैंने (चन्‍दनमल नवल) उनकी बहियों से यह जानकारी लेने की कोशिश भी की मगर निम्‍न कारणों से यह जानकारी प्राप्‍त नहीं हो सकी ।

पहला कारण तो यह है कि रैगरों की तमाम 356 गोत्रों की जानकारी बही भाटों की एक पोथी में उपलब्‍ध नहीं है । इनकी पोथियॉं पीढ़ि दर पीढ़ि बढ़ती जाती है । आज एक बही भाट के पास एक गोत्र की पोथी है । वह जिस गोत्र को मांगता है उसी गोत्र की पोथी उसके पास है । इस तरह पूरे भारत में घूम कर सभी बही भाटों से जानकारी लेना किसी एक व्‍यक्ति के लिये संभव नहीं है । दूसरा कारण यह है कि बही भाट किसी एक व्‍यक्ति विशेष को गोत्रों की जानकारी देने को तैयार नहीं हैं । उनका कहना है कि रैगर जाति में कई ऐसे गोत्र है जो निम्‍न जातियों से आकर मिले हैं । उन गोत्रों की उत्‍पत्ति के सही कारण बताने पर यजमान नाराज होंगे जिसका सीधा असर हमारी रोजी-रोटी पर पड़ेगा । मगर वे इस बात के लिए तैयार है कि यदि अखिल भारतीय रैगर महासभा या प्रान्‍तीय रैगर महासभा आदेश दें तो पोथियों उनके सामने किसी भी समय पेशकर सकते है । 

रैगर जाति की उत्‍पत्ति का सही स्‍त्रोत बहीभाटों की पोथिया ही हैं

 अखिल भारतीय रैगर महासभा तथा प्रान्‍तीय रैगर महासभा जब महा सम्‍मेलनों पर लाखों रूपये खर्च कर सकती है तो इस महत्‍वपूर्ण काम को अविलम्‍ब प्राथमिकता के आधार पर हाथ में लेना चाहिये । 

इतिहास की किताबों में रैगर जाति की उत्‍पत्ति ढूंढना अंधेरे में हाथ मारने के समान है । रैगर जाति की उत्‍पत्ति की सही जानकारी बही भाटों की पोथियों में ही मिल सकती है ।

रैगरों में काफी लोग उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त कर सरकारी नौकरियों में उच्‍च पदों पर पहुँचे हैं । आज सरकारी सेवाओं में अखिल भारतीय एवम् प्रांतीय स्‍तर के सर्वेच्‍च पदों पर रैगर नियुक्‍त हैं और सफलतापूर्वक अपने दायित्‍वों को निभा रहे हैं ।

सूर्यवंशी रेगर समाज की कुलदेवी गंगा मैया है 


20.2.25

भावसार समाज की उत्पत्ति और इतिहास




भावसार भारत में एक जातीय समूह है, जो पारंपरिक रूप से वस्त्रों पर लकड़ी के ब्लॉक से छपाई और सिलाई से जुड़ा हुआ है। वे ज्यादातर गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान के क्षेत्रों में स्थित हैं जबकि कुछ मध्य प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी स्थित हैं। गुजराती और राजस्थानी भावसार स्वयं को केवल भावसार कहते हैं, जबकि महाराष्ट्र में समुदाय और अधिक विभाजित हो गया है और वे स्वयं को भावसार क्षत्रिय, भावसार शिम्पी, नामदेव शिम्पी के रूप में संदर्भित करते हैं। 

भावसार समाज के इतिहास का विडियो -


विशिष्ट पेशे के अनुसार, भावसारों को रंगरेज़ में विभाजित किया गया है जो पारंपरिक रूप से कपड़ों पर लकड़ी के ब्लॉक से छपाई करते थे और  भावसार दर्जी जो पारंपरिक रूप से सिलाई में शामिल थे।
महाराष्ट्रीयन भावसारों को स्थानीय रूप से रंगराजुलु कहा जाता है। उन्हें शासकों का परिवार कहा जाता था, क्योंकि वे उन्हें राज कहते थे, वे शिवाजी महाराज (मराठा राजा) से संबंधित हैं। बाद में उन्होंने साड़ियों को रंगने का काम परिस्थितियों के कारण बदल दिया। उन्हें मराठा क्षत्रिय के रूप में भी जाना जाता है,  जैसे-जैसे समय बीतता गया, उन्होंने युद्ध के कर्तव्यों को छोड़ दिया और समुदाय के कुछ सदस्यों ने कपड़े सिलने और रंगने का कौशल विकसित करना शुरू कर दिया। 

पौराणिक उत्पत्ति 

भावसार की पौराणिक उत्पत्ति सौराष्ट्र से हुई है। महाकाव्य कहानियों के अनुसार, पौराणिक परशुराम, जिन्हें विष्णु का अवतार कहा जाता है , ने क्षत्रियों   के खिलाफ प्रतिशोध की कसम खाई थी और अधिकांश क्षत्रियों को पृथ्वी से मिटा दिया था। इस परिदृश्य ने सौराष्ट्र के दो युवा राजकुमारों भावसिंह और सारसिंह को चिंतित कर दिया था। दोनों राजकुमार वर्तमान पाकिस्तान में बलूचिस्तान मे  हिंगोल नदी के तट पर स्थित पवित्र मंदिर में हिंदू देवी हिंगलाज  की शरण मे  आ गए हिंदू देवी ने परशुराम को उन्हें अकेला छोड़ने के लिए मजबूर करके उनके राजवंश की सुरक्षा का आश्वासन दिया था, इस शर्त पर कि उनके समुदाय का कोई भी व्यक्ति परशुराम का विरोध नहीं करेगा क्योंकि वह भी उनके लिए एक बेटा था।

भावसार समुदाय का नाम इन दो राजकुमारों, भावसिंह और सारसिंह के नाम पर रखा गया था। भावसार समुदाय ने हिंगलाज की नियमित तीर्थयात्रा के लिए पाकिस्तानी सरकार से बातचीत की है। मुगल आक्रमणकारियों द्वारा बलपूर्वक इस्लाम में धर्म परिवर्तन का सामना करने पर यह समुदाय हिंगलाज के आसपास के सिंध क्षेत्र से भाग गया और मध्य युग में गुजरात और महाराष्ट्र में बस गया। महाराष्ट्रीयन भावसार भारत के दक्षिण में तमिलनाडु तक चले गए और रास्ते में कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में बस गए। एक अन्य शाखा पूर्व की ओर विदर्भ और मध्य प्रदेश की ओर बढ़ी।
संस्कृति और जनसांख्यिकी :भावसार अधिकतर गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में पाए जाते हैं। सभी ने अलग-अलग स्तर तक अपनी स्थानीय संस्कृति और परंपराओं को अपना लिया है।  भावसारों ने शिवाजी के समय से दक्षिण भारत की ओर पलायन करना शुरू कर दिया और कई पीढ़ियों से दक्षिण में बस गए

आहार: परंपरागत रूप से, भावसार मांसाहारी होते हैं जबकि महाराष्ट्र में गुजराती भावसार और नामदेव शिम्पि शाकाहारी होते हैं। परंपरागत रूप से, इस समुदाय में, परिवार की सबसे बुजुर्ग महिला को परिवार की 'गृहलक्ष्मी' के रूप में महत्व दिया जाता है  
भावसार समुदाय के कुछ परिवार पहचान के उद्देश्य से भावसार को अपने अंतिम नाम के रूप में उपयोग करते हैं। हालाँकि, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के भावसारों ने मराठी परंपरा में उपनाम अपनाए हैं, जैसे जयजोडे, कर्णे, अवंतकर, क्षीरसागर (क्षीरसागर), घनाटे (घनाथे), सांकरे, बालमकर (बेलमकर), बल्ले, बंगोले, अंबरकर, अंबेकर, हवले, धायफुले/धायपुले/दयाफुले, महिंद्राकर (महेंद्रकर), अंबुरे, चामुंगडे, खंबायते, खूंटे, लोखंडे (लाकुंडे), मालथकर, लोकारे, नवले, गणोरे, बसुतकर, दलाल, धगधागे, डौंजघर, दोईजोडे, पांडव, पिसे (पिसाय), मालवी, मालवे, खारदे, कटारे, तंदाले, जाधव, बंछोड़, वर्धावे, नंदोडे, तोरणे, सुलाखे, सोमवंशी, सूर्यवंशी, हरसोले, गार्जे, वाडेकर, गोंडकर, गुजर, गुर्जर, घाघरवाले, निशाने, भरोटे, श्रवगे, तेमकर, टिकारे, गोजे, सकुलकर, बराडे, भराडे, आमटे, पंधारे, पतंगे, मुसले, मगरे, पथाने, फूटाने, रंजनकर, गदाले (गदाले), रशिनकर, दंतकाले, दावंडे, गोगे, कुटे, धरस्कर, शेलके, कर्मसे, जावलकर (जावलकर), तेलकर, बेद्रे, पेंडकर, काकडे, जुंगाडे, झिंगाडे (जिंगाडे), झिंगाडे, हंचटे, हेबरे, सुत्रावे, सुत्रावे, सुत्राये, रामपुरे, लोकरे, बंभोरे, अस्तकर, भांगे, वैचल, मनकास, सरोदे, चुभलकर, चुटाके, खेमकर,कांगोकर, एजंथकर, चोलकर, दुधनकर, मतादे, उत्तरकर, गोडबोले, नज़ारे, खमितकर, मुले, महाडिक, महाडीक, सारंगधर, सदावर्ते, भस्मे, पडलकर, वेल्हल, पखारे, गाथे, निकुंभ, कल्याणकर, हासिलकर, सुबंध, बागडे, बारवे, बारटाके, धौसे, लिंगरकर, बंसोड, सरावगिर, वैद्य, जोशी, मालवडे, बेंद्रे, सुत्रे, मानकर, पेठकर, गांद्रे, हेंद्रे, राव, बौधनकर, रेंगुंटवार, संगेनवार, तुंगेनवार, काले, कालेकर, होमकर, कोपर्डे, गाठे, गाडेकर, तिभे, औसरकर, वानरसे, महाजन, भारद्वाज, शंकरदास, राठौड़, नेवास्कर, भंडारकर, हिरवे, गांद्रे, बदले, रेलेकर, चंद्रवंशी, पंसारे, पाटनकर, खेडकर, बाविस्कर, बोरसे, सोनावणे, जगताप, शिम्पी, कथारे, वाडोन, सुत्रावे, निकते, सुत्राले, ढगे, जामदार इत्यादि।

 भावसारों में विवाह को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है। यह शादी एक हिंदू विवाह समारोह के रूप में होती है जिसमें कई रस्में और रीति-रिवाज होते हैं। समुदाय व्यवस्थित विवाह की प्रणाली का पालन करता है जो आमतौर पर माता-पिता या परिवार के किसी बड़े सदस्य द्वारा तय किया जाता है। जोड़ी का चयन माता-पिता या परिवार के बड़े सदस्य द्वारा किया जा सकता है। समुदाय के बाहर वर्तमान पीढ़ियों में प्रेम विवाह और अंतरजातीय विवाह अधिक आम हो गए हैं।

धर्म :
परंपरागत रूप से, भावसार बहुत धार्मिक और आध्यात्मिक लोग थे। वे हिंगलाज माता या हिंगुलाम्बिका की पूजा करते हैं जिन्हें सभी भावसार अपने मूल देवता के रूप में दावा करते हैं। इस देवी हिंगुलामाता को समर्पित सबसे पुराना मंदिर वर्तमान पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में है ।  अधिकांश भावसार तुलजापुर (महाराष्ट्र) में अम्बा भवानी या तुलजा भवानी की पूजा करते हैं।

Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।

16.2.25

कायस्थ जाति ब्राह्मण है ,क्षत्रीय है या शूद्र है |जानिए असली इतिहास

 

कायस्थ समाज की उत्पत्ति का विडिओ 


कायस्थ भारत में रहने वाले हिन्दू समुदाय की एक जातियों का वांशिक कुल है। पुराणों के अनुसार कायस्थ प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन करते हैं। कायस्थ को वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण वर्ण धारण करने का अधिकार प्राप्त है।

चित्रगुप्त की संतानों को कायस्थ कहा गया है। हालांकि, कायस्थों को ब्राह्मण के रूप में स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है। परंपरागत रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र जैसे चार वर्णों में विभाजन होता है, और कायस्थों को एक अलग वर्ण के रूप में देखा गया है, जो शासकीय कार्यों और प्रशासन में विशेषज्ञ थे।

वर्ण व्यवस्था के अनुसार हिन्दुओं को ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चार वर्णों में विभाजित किया गया है। कायस्थ जाति, जो कि वास्तव में क्षत्रिय वर्ण में आती है, पर उस समय प्रश्न चिन्ह लग गया जब कलकत्ता हाई कोर्ट ने एक मुकदमे में श्री श्यामाचरण सरकार द्वारा लिखित पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ के आधार पर यह घोषित कर दिया कि बंगाल के कायस्थ शूद्र हैं, क्योंकि वह अपना कुल नाम ‘वर्मा’ के स्थान पर ‘दास’ लिखते हैं और उनके यहा उपनयन संस्कार भी नहीं होता है।


उक्त मुकदमें में न तो कोर्इ जाच की गर्इ और न इस पर विचार ही किया गया बलिक उपरोक्त पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ के आधार पर अपने निर्णय को अनितम रुप से सही माना गया।

लेकिन ईश्वरी प्रसादनाम राय हरिप्रसाद, केस में पटना हाई कोर्ट ने इस सम्बन्ध में पर्याप्त जांच पड़ताल करने, उपनिषदों व धार्मिक पुस्तकों तथा उच्चकोटि के लेखकों की पुस्तकों का गहन अध्ययन करने तथा बनारस के विद्वान ब्राह्राण से विचार विमर्श करने के उपरान्त यह निर्णय दिया कि कायस्थ जाति का वर्ण क्षत्रिय है। उक्त द्वितीय अपील पर पटना हार्इ कोर्ट ने इस बिन्दु पर निम्नलिखित विवेचना की है :-
‘व्यवस्था दर्पण’ में वर्णित दृषिटकोण, जिसके आधार पर कलकत्ता हार्इ कोर्ट ने निर्णय दिया था, जिसको प्रमुख हिन्दु वकीलों ने स्वीकार नहीं किया। श्री गोपाल चन्द्र शास्त्री ने हिन्दू ला पर लिखित अपनी पुस्तक (1924) में पृष्ठ सं0 143 पर कहा है कि यह हिन्दू जाति के लिए आश्चर्यजनक है। श्री सर्वाधिकारी ने अपनी पुस्तक ज्ीम च्तपदबपचसमे व भिपदकन स्ंू व पिदीमतपजंदबम ;1923द्ध के पृष्ठ सं0 835 पर कहा है कि यह निर्णय सही नहीं है और इसने बंगाल की समस्त कायस्थ जाति को कठोर आघात पहुचाया है। इसी प्रकार के विचार श्री जोगेन्द्र चन्द्र घोष ने अपनी पुस्तक श्ज्ीम च्तपदबपचसमे व भिपदकन स्ंू ;1917द्धश् के पृष्ठ संख्या 1006 पर व्यक्त किये हैं। इन वकीलों ने इस बात को स्वीकार नहीं किया है कि कायस्थ जोकि सर्वमान्य रुप से क्षत्रिय थे, अब शूद्र बन गये हैं और न इन बातों को स्वीकार किया है कि यदि यह सच भी हो कि कायस्थों ने यज्ञोपवीत धारण करना छोड़ दिया है तथा वे अपना कुल नाम ‘दास’ लिखते हैं, तो भी कोर्इ कारण नहीं है कि उनकी जाति की अवनति हो जावे। इन बिन्दु पर श्री सर्वाधिकारी ने अपनी विद्वतापूर्ण पुस्तक श्ज्ीम संहवतम स्ंू ज्मबजनतमे व 18ि80श् के पृष्ठ सं0 830 (1923 संस्करण) में लिखा है कि :-
‘यज्ञोपवीत धारण करना’ जो कि द्विज श्रेणी के लोगों का सर्वविदित चिन्ह है, भी इस कष्टदायक प्रश्न की असनिदग्ध परीक्षा नहीं है। बहुत से ऐसे ठाकुर तथा बनिये पाये जाते हैं जो कि द्विज श्रेणी के होने पर भी यज्ञोपवीत धारण नहीं करते हैंं। किसी व्यकित की जाति निशिचत करने के लिए केवल एक ही सुरक्षित उपाय है कि उसके सामाजिक आचार-विचार तथा रीति-रिवाज को देखा जाय। विधवाओं का पुनर्विवाह, समान अधिकार, वैध तथा अवैध पुत्रों के विशेष अधिकार तथा इसी प्रकार के अन्य रीति-रिवाज ऐसे चिन्ह हैं जिनसे शूद्र पहचाने जा सकते हैं। विद्वान लेखक ने अगले पृष्ठों में 831 से 835 तक इस प्रश्न को निकट से जाचा तथा श्रुतियों तथा पुराणों, मातहत अदालतों के निर्णयों, प्रमुख गजेटियरों, सदर दीवानी अदालत, पंडितों के दर्पणों आदि के मूल पाठों जिनके द्वारा बिहार तथा उत्तर पशिचम प्रान्तों के कायस्थ नियमित होते हैं, के सन्दर्भ में जाच की तथा निशिचत किया कि कायस्थ द्विज की श्रेणी में आते हैं और वे क्षत्रिय हैं। कायस्थ किसी भी अर्थ से शूद्र नहीं हैं। वह गम्भीरता से प्रश्न करते हैं कि यदि कोर्इ ऊची जाति का व्यकित अपने कुछ रीति-रिवाजों को छोड़ दे ंतो क्या वह स्थार्इ रुप से अपनी जाति से नीचे गिर जावेगा, और यदि वह अपने पूर्व रिवाजों को पुन: अपना लें, जैसा कि वर्तमान वर्षों में कुछ बंगाली कायस्थों ने किया भी है, तो उसकी जाति की क्या सिथति होगी। कलकत्ता केस के बारे में वो कहते हैं कि न तो उक्त मुकदमें में बहस की गर्इ और न उसे तय ही किया गया। केवल ‘व्यवस्था दर्पण’ में श्री श्यामाचरण सरकार की राय को इस बिन्दु पर निर्णायक माना गया था। वह कहते हैं कि बंगाल के कायस्थ शूद्र नहीं हो सकते।
इन उदाहरणों को ऐसे कायस्थों के सम्बन्ध में, जो कि मूल से क्षत्रिय हैं, प्रयुक्त नहीं करना चाहिए यधपि वे अवनति पाये हुए क्षत्रिय हों तो भी। एक व्यकित जो द्विज श्रेणी से सम्बनिधत हो, अपने उन अधिकारों से वंचित नहीं हो सकता जो उसे उक्त श्रेणी द्वारा प्राप्त हैं चाहें वह सामाजिक रुप से निम्न दृषिट से देखा जाता हो।
जहां तक उत्तर पशिचमी प्रान्तों तथा बम्बर्इ के कायस्थों का प्रश्न है जिसमें बिहार के कायस्थ भी समिमलित हैं, श्री सर्वाधिकारी कहते हैं कि वह उन्हीं नियमों से शासित होने चाहिए जिनसे कि द्विज श्रेणी के लोग शासित होते हैं। श्री गोलायचन्द्र सरकार का भी गोद लेने तथा हिन्दू ला सम्बन्धी पुराणों, याज्ञवलक्य तथा मित्ताक्षर के मूल पाठों की भी निकट से जांच की। उनका विचार है कि कायस्थ क्षत्रिय हैं तथा रीति-रिवाजों के बिना देख हुए ऊची जाति की नीची जाति में अवनति नहीं की जा सकती, जिससे कि उसके नागरिक अधिकार प्रभावित हों। वह कहते हैं कि किसी भी व्यकित की जाति वंश परम्परा से नहीं होती थी बलिक मनु स्मृति के सूर पाठ के अनुसार के अनुसार जाति उसके उध्यवसाय तथा आचार-विचार पर होती थी। परन्तु समय व्यतीत होने पर यह मामला वंश परम्परा का बन गया और गुण दोषों का आधार छोड़ कर लड़का अपने पिता की जाति पाने लगा। रीति रिवाजों के छोड़ने पर कोर्इ भी द्विज श्रेणी का व्यकित अपनी जाति से अवनत नहीं हुआ। यदि ऐसा होता तो हिन्दुओं में शूद्र के अतिरिक्त कोर्इ जाति नहीं होती क्योंकि द्विज श्रेणी के बहुत ही कम व्यकित ऐसे हैं जो कह सकें कि उन्होंने तथा उनके पूर्वजों ने अपनी जाति सम्बन्धी समस्त कर्तव्यों का पालन किया है। फिर द्विज श्रेणी के कायस्थ ही जाति में अवनत होकर रुढि़वादिता के कारण शूद्र कैसे हो सकते हैं, वह आगे कहते हैं कि इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि समस्त बातों में कायस्थ लोग क्षत्रियों के समस्त आचार विचारों का पालन करते हैं।
उपरोक्त हिन्दू वकीलों का मत, स्मृतियों तथा पुराणों, कायस्थों की सामाजिक सिथतियों साथ ही साथ उनके द्वारा अपनाये गये विवाह तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों सम्बन्धी रीति रिवाजों पर आधारित है। कलकत्ता हार्इ कोर्ट का निणर्य पूर्ण रुप से श्यामाचरण की पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ पर आधारित है। इस निर्णय की सत्यता पर इलाहाबाद हार्इ कोर्ट ने संदेह व्यक्त किया है तथा प्रीवी काउनिसल ने भी इस बिन्दु को खुला छोड़ दिया है।
ऋषियों की स्मृति जैसे कि मनु, याज्ञवल्क्य, व्यास, वशिष्ठ आदि ने मनुष्यों को चार वर्णों ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में विभाजित किया है, मनु ने अघ्याय दस श्लोक चार में कहा है कि इनके अतिरिक्त पाचवां वर्ण नहीं है। अत: कायस्थों को इन चारों वर्णों में से से किसी एक में स्थान देना है। महाभारत दृढ़ता पूर्वक घोषित करती है कि आरम्भ में इन श्रेणियों में कोर्इ भेद भाव नहीं था। परन्तु बाद में आचार विचार तथा व्यवसाय के आधार पर भेदभाव उत्पन्न हो गया।
पदम पुराण के उत्तराखण्ड में वर्णित है कि चित्रगुप्त की दो पतिनयों से प्राप्त 12 पुत्र यज्ञोपवीत धारण करते थे तथा उनके विवाह नाग कन्याओं से हुए थे। वे कायस्थों की बारह उपजातियों के पूर्वज थे। यह कथा कहती है कि कायस्थ चित्रगुप्त वंशी क्षत्रीय हैं और किसी भी दशा में शूद्र नहीं हैं। वे समस्त संस्कारों के अधिकारी हैं। यही कथा थोड़े बहुत अन्तर के साथ अधिकतर पुराणों में दी गयी है। पदमपुराण में उपरोक्त कथा के पश्चात लिखा गया है कि :
‘चित्रगुप्त’ को धर्मराज के निकट जीवों के अच्छे व बुरे कर्मों का लेखा जोखा लिखने के लिए रखा गया। उनमें आलोकिक बुद्विमता थी और वो अग्नि तथा देवताओं को चढ़ाई जाने वाली बलि के भाग प्राप्त करने के अधिकारी थे। इसी कारण से द्विज श्रेणी के लोग उन्हें अपने भोजन में से भोग लगाते हैं।
पदम पुराण के सृषिट खण्ड में भी कहा गया है कि कायस्थों के धार्मिक संस्कार तथा अध्ययन ब्राह्राणों के समान तथा उनका व्यवसाय क्षत्रियों के समान होनी चाहिए। भविष्य पुराण मे कहा गया है कि सृषिटकर्ता र्इश्वर ने चित्रगुप्त को नाम तथा कर्तव्य निम्नलिखित अनुसार निशिचत किये।
सृष्टि कर्त्ता ब्रह्माजी ने चित्रगुप्त को कहा कि तुम मेरी काया से प्रकट हुए हो इसलिए तुम कायस्थ कहलाओगे तथा संसार में चित्रगुप्त के नाम से विख्यात होगे। तुम्हें शास्त्रों के अनुसार क्षत्रियों के रीति रिवाज तथा धर्म विधान का पालन करना चाहिए।’
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि चित्रगुप्त का राज्य सिंहासन यमपुरी में है और वो अपने न्यायालय में मनुष्यों के कर्मों के अनुसार उनका न्याय करते हैं तथा उनके कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं, जो कि निम्नवत स्पष्ट हैं :-
‘धर्मराज चित्रगुप्त:
श्रवणों भास्करादय:
कायस्थ तत्र पश्यनित
पाप पुण्यं च सर्वश:’
‘शब्द कल्पद्रुम’ में यम संहिता की ंव्याख्या में कहा गया है, ‘ब्रह्राकाय समुदभूतो’।
‘ब्रह्राकाय समुदभूतो
कायस्थों ब्रह्रा संज्ञक:
कलौ हि क्षत्रियस्तस्य
जययज्ञेषु राजतम’
‘कि
कायस्थ जो ब्रह्रााजी की काया से प्रकट हुए हैं उनकी ब्राह्राण के समान पदवी है परन्तु कलि-युग में उनके धार्मिक रीति रिवाज तथा कर्तव्य क्षत्रियों के समान होंगे।’
जिसके अनुसार आज भी कहीं कहीं कायस्थों में शस्त्र पूजन का प्रचलन है।
डब्लू क्रुक, जो बंगाल सिविल सर्विस में थे, ने अपनी पुस्तक श्ज्तपइमे ंदक ब्सेेंमे व जिीम छवतजी मेजमतद च्तवअपदबमे ंदक व्नकीए टवसनउम प्प्प्श् के पृष्ठ संख्या 184 से 213 में कायस्थों के बारे में लिखा है। उन्होंने पौराणिक कथाओं तथा उनकी मूल वृद्वि का वर्णन किया है, जिनका सन्दर्भ पहले ही दिया जा चुका है। उनके संयुक्त पूर्वज चित्रगुप्त थे।

चित्रगुप्त के बारह लड़के भानु, विभानु, विश्व भानु, बृजभान, चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु, अरुण तथा अतिन्द्रीय थे। कायस्थों की 12 उपजातियां इन्हीं 12 पुत्रों से चलीं।
भानु से श्रीवास्तव,
विभानु से सूर्यध्वज,
विश्वभानु से अस्थाना,
वृजवान से बाल्मीकि,
चारु से माथुर,
सुचारु से गौड़,
चित्र से भटनागनर,
मतिमान से सक्सेना,
हिमवान से अम्बष्ठ,
चित्रचारु से निगम,
अरुण से कर्ण
तथा
अतीन्द्रीय से कुलश्रेष्ठ वंश चले।
भानु, जो कि श्रीवास्तवों के पूर्वज थे, कश्मीर में जाकर बसे, वह वहा श्रीनगर के राजा बने तथा चन्द्रगुप्त (मगध के राजा) से राजाधिराज की उपाधि प्राप्त की। विभानु जो कि सूर्यध्वजों के पूर्वज थे, ने इक्ष्वाकु वंश के राजा सूर्यसेन से उपाधि पायी क्योंकि उन्होंने एक बलिदान में उनकी सहायता की थी। विश्वभानु जो कि अस्थाना कायस्थों के पूर्वज थे, को बनारस के राजा ने सम्मानित किया और उन्हें अष्ट (आठ) प्रकार के बहुमूल्य मोती भेंट किये जिसके कारण वह अस्थाना कहलाये। बृजभान, जो कि बाल्मीकि के पूर्वज थे, ने बाल्मीकि नाम अपने आत्मसंयम तथा धार्मिक चिन्तन के कारण पाया। चारु के वंशज मथुरा में बसने के कारण माथुर कहलाये। सुचारु के वंशज बंगाल की पुरानी राजधानी गौर या गौड़ के नाम पर गौड़ कहलाये। इस उपजाति ने सैन राजवंश की नींव डाली और कहा जाता है कि उनके पूर्वज भागदत्त महाभारत के युद्व में युधिष्ठर के विरुद्व दुर्योधन की ओर से लड़े थे। उनमें से राजा लालसैन एक अन्य प्रसिद्व राजा हुए थे। इस राज वंश के अनितम राजा लक्ष्मण थे। बख्तयार खिल्जी ने गौड़ कायस्थों को राज्यच्युत कर दिया। भटनागर उपजाति ने यह नाम भट नदी के किनारे पर अथवा पुराने कस्बे भटनेर में निवास करने के कारण पाया। सक्सेना उपजाति साहितियक थी तथा युद्व में उनके बुद्वि कौशल के कारण श्री नगर के श्रीवास्तव राजा ने उन्हें ‘सेना के मित्र’ की उपाधि प्रदान की थी। उनके पूर्वजों में से एक सूरज चन्द्र अथवा सोमदत्त को श्री रामचन्द्र जी के पुत्र कुश ने उनके कोषाध्यक्ष के रुप में र्इमानदार होने के कारण उन्हें ‘खरवा’ की उपाधि दी थी। अत: ‘खरवा’ सक्सेना उपजाति का सम्प्रदाय बन गया। अम्बष्ठ देवी अम्बा जी की आराधन करने के कारण कहलाये, जो कि हिमवान के वंशज थे। अम्बष्ठ उपजाति बिहार के पटना तथा गया जनपदों में पार्इ जाती है।
अरुण के वंशज कर्ण जैसा कि मि0 क्रुक का कथन है, पूर्ण रुप से आर्यों की उपजाति है। इनका नाम नर्मदा के करनाली के ऊपर पड़ा। यह उड़ीसा में लेखक वर्ग के रुप में विख्यात हैं। कायस्थों की विभिन्न उपजातियों के बारे में मि0 क्रुक का कथन है कि कायस्थों ने राजवंशों की स्थापना की तथा राजा एवं राजाधिराज बने। वह रणभूमि में लड़े तथा लड़ाई में अपने बुद्वि कौशल का प्रदर्शन किया, जिसके कारण राजाओं तथा जनता से सम्मान पाया| उनके रीति रिवाज, धार्मिक अनुष्ठान तथा विवाह आदि उच्च जाति नियमों के अनुसार होते हैं। एक ही अल्ल में विवाह नहीं होते हैं तथा इसके लिए पिता तथा माता के वंशों का ध्यान रखा जाता है। एक से अधिक पति तथा पत्नी रखने पर कड़ा प्रतिबन्ध है। विधवाओं की दुबारा शादी करना पूर्ण रुप से वर्जित है। वे चित्रगुप्त की पूजा करते हैं, उपरोक्त विवेचना के अनुसार पटना हाई कोर्ट ने सन 1962 में निर्णय दिया है कि कायस्थ जाति का वर्ण क्षत्रिय है।

कायस्थ नॉन-वेज क्यों खाते हैं?

भारत के अधिकांश हिंदू समुदायों के विपरीत, कायस्थों ने मुगल सम्राटों के दरबार में मांस के प्रति इतना अधिक झुकाव विकसित कर लिया कि आज, इस समाज मे  मांसाहारी भोजन अधिक व्यापक रूप से प्रचलित है |
कायस्थ जाति की कुलदेवी अम्बा माता हैं. कायस्थ समाज के लोग भगवान चित्रगुप्त की भी पूजा करते हैं.
कायस्थ जाति के लोग कलमकांडी महाजाति के हिस्सा हैं.
कायस्थ जाति के राजा टोडरमल मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में शामिल थे.
अबुल फ़ज़ल के मुताबिक, बंगाल के ज़्यादातर ज़मींदार भी कायस्थ जाति के ही थे.
Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।

15.2.25

काछी,कुशवाहा समाज की उत्पत्ति और इतिहास |History of Kushwaha caste

 

                                      काछी,कुशवाहा समाज की उत्पत्ति और इतिहास  का विडिओ                        


   आज हम जिस जाति की बात कर रहे हैं, वह कोई एक जाति नहीं, बल्कि जातियों का एक समूह है. मूल बात यह है कि ये सभी कृषक जातियां हैं. फिर चाहे वह कोईरी हों, दांगी हों या फिर काछी हों. सबसे पहले कोईरी/कुशवाहा की बात करते हैं जो बिहार में एक महत्वपूर्ण जाति रही है.
  कुशवाहा जाति भारतीय समाज की एक प्रमुख कृषि प्रधान जाति है, जिसका इतिहास प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक विस्तृत और विविधतापूर्ण रहा है। यह जाति मुख्यतः उत्तर भारत, विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, और मध्य प्रदेश में पाई जाती है। कुशवाहा जाति को कई नामों से जाना जाता है, जैसे मौर्य, शाक्य, सैनी, और काछी।
काछी , कच्छवाहा सूर्यवंशी क्षत्रिय है जो कि समन्वित उद्भव का दावा करते हैं। यह समुदाय कुशवाह नाम से जाना जाता है। यह समुदाय  विष्णु के अवतार भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज तथा सूर्यवंश से अवतरित हैं,            कुशवाह समुदाय की जातियाँ- कछवाहा, मुराव, काछी व कोइरी स्वयं को शिव व शाक्त सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ मानते हैं ।  
प्राचीन काल
कुशवाहा जाति का उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य और पौराणिक कथाओं में मिलता है। यह जाति भगवान राम के पुत्र कुश से अपनी उत्पत्ति मानती है, इसलिए इन्हें कुशवाहा कहा जाता है। इसके अलावा, यह जाति चंद्रवंश से भी संबंध रखती है। कुशवाहा जाति का प्राचीन इतिहास कृषि और बागवानी से गहराई से जुड़ा हुआ है। वैदिक और पौराणिक ग्रंथों में इस जाति के लोग कृषि कार्यों में निपुण माने जाते थे।
मध्यकालीन इतिहास
मध्यकाल में कुशवाहा जाति ने विभिन्न राज्यों और साम्राज्यों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस दौरान इस जाति के लोग कृषि कार्यों के अलावा सैनिक और शासक के रूप में भी सक्रिय रहे। कुशवाहा जाति के लोगों ने विभिन्न क्षत्रिय राजवंशों में अपनी जगह बनाई और सामाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में योगदान दिया। राजस्थान में सैनी और मौर्य जातियों के रूप में कुशवाहा जाति के लोग प्रसिद्ध हुए।
ब्रिटिश काल
ब्रिटिश शासन के दौरान कुशवाहा जाति की स्थिति में कुछ हद तक बदलाव आया। अंग्रेजों ने भारतीय समाज को समझने और वर्गीकृत करने के लिए कई जनगणनाएं और सर्वेक्षण किए। कुशवाहा जाति के लोग मुख्यतः कृषि कार्यों में लगे रहे, लेकिन इस दौरान शिक्षा और सामाजिक सुधारों की दिशा में भी कदम बढ़ाए गए। कुशवाहा जाति के लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय भूमिका निभाई और कई कुशवाहा नेताओं ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया।
आधुनिक काल
स्वतंत्रता के बाद, कुशवाहा जाति ने शिक्षा, राजनीति, और व्यवसाय के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति की। कई कुशवाहा नेता और समाज सुधारक उभरे जिन्होंने अपने समाज के विकास के लिए कार्य किया। कुशवाहा जाति के लोग आज विभिन्न पेशों में सफलतापूर्वक कार्यरत हैं और समाज में अपनी महत्वपूर्ण पहचान बना चुके हैं।
कुशवाहा जाति की संस्कृति और परंपराएं
कुशवाहा जाति की संस्कृति और परंपराएं समृद्ध और विविधतापूर्ण हैं। यह जाति कृषि और बागवानी में निपुण मानी जाती है और इनकी आजीविका का मुख्य साधन भी यही है। कुशवाहा समाज में पारंपरिक त्योहारों और रीति-रिवाजों का विशेष महत्व है। विवाह, जन्म, और अन्य सामाजिक समारोहों में पारंपरिक गीत, नृत्य, और व्यंजन प्रमुख होते हैं।
  जाती इतिहास कर डॉ. दयाराम आलोंक लिखते है कुशवाहा जाति का इतिहास प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक एक समृद्ध और विविधतापूर्ण यात्रा है। इस जाति ने भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कृषि, बागवानी, शिक्षा, और राजनीति में कुशवाहा जाति के लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस जाति की सांस्कृतिक और पारंपरिक धरोहर इसे भारतीय समाज का एक अभिन्न हिस्सा बनाती है। कुशवाहा जाति का यह गौरवपूर्ण इतिहास आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा और समाज के विकास में योगदान देने के लिए प्रेरित करेगा।
कुशवाहा समाज के लोग आमतौर पर कश्यप गोत्र से संबंधित होते हैं। हालांकि, कुछ कुशवाहा लोग विभिन्न अन्य गोत्रों से भी संबंधित हो सकते हैं, जैसे अत्रि, वशिष्ठ, और गौतमी।कुशवाहा समाज मुख्य रूप से व्यापार, कृषि, और शिल्प से जुड़ा हुआ होता है। यह समाज विशेष रूप से उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में पाया जाता है।
कुशवाहा समाज की कुलदेवी जमुवाय माता है|  
कुशवाहा कितने प्रकार के होते हैं?
कुशवाह शब्द कम से कम चार उपजातियों (कुशवाह, कछवाहा, कोइरी व मुराओ) के लिए प्रयोग किया जाता हैं. वर्तमान में कच्छवाहा , कोईरी, मुराव , व मौर्य कुशवाहा समाज के की उपजातियां है।
पिछड़ी जाति के रूप में वर्गीकरण
2013 में हरियाणा सरकार ने कुशवाह, कोइरी और मौर्य जातियों को पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल किया। बिहार में उन्हें ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया गया है। उत्तर प्रदेश में कुशवाह समुदाय की उपजातियाँ, जैसे कच्छी, शाक्य और कोइरी, भी ओबीसी के रूप में वर्गीकृत हैं।
Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।

14.2.25

बागरी समाज की जानकारी और इतिहास |History of Bagri Caste

बागरी समाज के इतिहास का विडियो -




बागरी एक समाज है जो मध्य प्रदेश और अन्य भारतीय राज्यों में पाया जाता है। यह समाज अनुसूचित जाति (SC) की श्रेणी में आता है।
चंद्रवंशी बागरी समाज के कुलदेवता भगवान पांडव श्री भीम जी महाराज माने जाते हैं। चंद्रवंशी बागरी भगवान पांडवों के वंशज हैं यह समाज बहुत प्राचीन है और महाभारत काल से जुड़ा हुआ है। यह अपनी समृद्धि संस्कृति और परंपरा के लिए जाना जाता है
बागरी समाज की कुलदेवी माँ दुधाखेड़ी हैं. बागरी समाज का संबंध महाभारत के महान योद्धा चंद्रवंश के अमर अंश श्री बर्बरीक (खाटू श्याम) से है. बागरी समाज को चंद्रवंशी समाज भी कहा जाता है. 
बागड़ी भाषा भारत के राजस्थान, पंजाब और हरियाणा राज्यों में बोली जाती है पाकिस्तान. राजस्थान में, वे मुख्य रूप से गंगानगर (जिन्हें इस नाम से भी जाना जाता है) जिलों में पाए जाते हैं श्रीगंगानगर) और हनुमानगढ़; चुरू और बीकानेर में भी एक छोटी आबादी रहती है जिले. बागड़ी भाषी पंजाब राज्य के फिरोजपुर और मुक्तसर जिलों और सिरसा में रहते हैं
 बागरी ' शब्द लोगों और उनकी भाषा दोनों को संदर्भित करता है। बागरी आम तौर पर 
अनुसूचित जाति के सदस्य होते हैं । ऐसा कहा जाता है कि वे मूल रूप से राजपूत वंश, की एक उपजाति, जाट से संबंधित थे  शोधकर्ताओं ने  बागरी लोगों को मिलनसार, मेहमाननवाज़ और बाहरी लोगों के लिए खुला पाया।
बागरी जाति में गोत्र इस प्रकार हैं
बोडाना_ पवार_ यादव _चौहान_बोही_ भीलवाड़ा _परमार _सोलंकी _वारतीय डाबी _बामनिया _डडिया
बागरी समाज के बारे में जानकारीः
चंद्रवंशी बागरी समाज के बारे में जानकारीः
चंद्रवंशी समाज, क्षत्रिय वर्ण का एक प्रमुख वंश है.
चंद्रवंशी समाज को सोमवंश या सोम वंश के नाम से भी जाना जाता है.
चंद्रवंशी समाज के लोग मानते हैं कि उनकी उत्पत्ति महर्षि अत्रि के पुत्र 'सोम' से हुई थी.
सोम के पुत्र बुध हुए जिन्होंने इला नामक स्त्री से विवाह किया.
बुध और इला के पुत्र पुरूरवा हुए जिन्हें चंद्रवंश का प्रवर्तक माना जाता है.
भगवान श्रीकृष्ण का यदुवंश और महाभारत काल के कुरूवंशी योद्धा कौरव, पांडव और मगध नरेश जरासंध चंद्रवंशी शाखा के क्षत्रिय थे.
बागरी समाज के लोग राजपूतों से जुड़े हैं.
बागरी समाज के लोग राजस्थान, हरियाणा, और पंजाब में पाए जाते हैं.
बागरी समाज के लोग खेती और मछली पकड़ने जैसे काम करते हैं.
बागरी समाज के लोग खुद को 'बरगा क्षत्रिय' कहते हैं.
बोडाना के चंद्रवंशी समाज अध्यक्ष बन जाने के बाद समाज जनों ने उनको बधाई दी है। उज्जैन स्थित राधाकृष्ण मंदिर पर उनका स्वागत सम्मान भी किया गया।
Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. आलेख मे समस्याएं हो सकती हैं Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।

10.2.25

खटीक जाति का इतिहास|History of khatik caste


                                            
                                                 खटीक जाति का इतिहास का विडिओ                



खटीक जाति का इतिहास प्राचीन है और विविधता से भरा हुआ है. खटीक शब्द संस्कृत के 'खट्टीका' शब्द से बना है, जिसका मतलब है कसाई या शिकारी. खटीक समाज के लोग पारंपरिक रूप से मांस, चमड़ा, और मछली का कारोबार करते थे.
खटिक, भारत में पायी जाने वाली एक जाति है। भारत में ये राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और गुजरात में पायी जाती है। भारत के अधिकांश खटिक हिन्दू हैं।
खटीक उत्तर भारत में व्यापक रूप से वितरित समुदाय है, और प्रत्येक खटीक समूह का अपना मूल मिथक है। उनमें जो समानता है वह यह है कि वे ऐतिहासिक रूप से क्षत्रिय थे जिन्हें राजाओं द्वारा किए गए यज्ञों में जानवरों को मारने का काम सौंपा गया था। आज भी, केवल खटिकों को हिंदू मंदिरों में बलि चढ़ाने के दौरान जानवरों को मारने का अधिकार है।
उनकी परंपराओं के अनुसार, भगवान ब्रह्मा ने उन्हें बकरी की खाल, पेड़ों की छाल और लाख सौंपी थी - ताकि वे मवेशियों को चरा सकें, बकरी और हिरण की खाल को रंग सकें; और छाल और लाख से तन छिपा रहता है। एक अन्य परंपरा का दावा है कि खटिक शब्द की उत्पत्ति हिंदी शब्द खाट से हुई है, जिसका अर्थ है तत्काल हत्या। वे इसे शुरुआती दिनों से जोड़ते हैं जब वे राजस्थान के राजाओं को मटन की आपूर्ति करते थे। जबकि अन्य स्रोतों का दावा है कि खटिक शब्द की उत्पत्ति संस्कृत शब्द कथिका से हुई है, जिसका अर्थ है कसाई या शिकार करना। पंजाब के खटीक बकरी और भेड़ की खाल को काला करने और रंगने के लिए नमक और मदार के पेड़ (कैलोट्रोपिस प्रोसेरा) के रस का इस्तेमाल करते थे।

khatik jati ke itihas ka video-

खटीक जाति मूल रूप से ब्राह्मण जाति है, जिनका काम आदि काल में याज्ञिक पशु बलि देना होता था। आदि काल में यज्ञ में बकरे की बलि दी जाती थी। संस्कृत में इनके लिए शब्द है, 'खटिटक'।
मध्यकाल में जब क्रूर इस्लामी अक्रांताओं ने हिंदू मंदिरों पर हमला किया, तो सबसे पहले खटिक जाति के ब्राह्मणों ने ही उनका प्रतिकार किया। राजा व उनकी सेना तो बाद में आती थी, उससे पहले मंदिर परिसर में रहने वाले खटीक ही उनका मुकाबला किया करते थे।
तैमूरलंग को दीपालपुर व अजोधन में खटीक योद्धाओं ने ही रोका था और सिकंदर को भारत में प्रवेश से रोकने वाली सेना में भी सबसे अधिक खटीक जाति के ही योद्धा थे। तैमूर खटीकों के प्रतिरोध से इतना भयाक्रांत हुआ कि उसने सोते हुए हजारों खटीक सैनिकों की हत्या करवा दी और 1,00,000 सैनिकों के सिर का ढेर लगवाकर उस पर रमजान की तेरहवीं तारीख पर नमाज अदा की।
मध्यकालीन बर्बर दिल्ली सल्तनत में गुलाम, तुर्क, लोदी वंश और मुगल शासनकाल में जब अत्याचारों की मारी हिंदू जाति मौत या इस्लाम का चुनाव कर रही थी, तो खटीक जाति ने अपने धर्म की रक्षा और बहू बेटियों को मुगलों की गंदी नजर से बचाने के लिए अपने घर के आसपास सूअर बांधना शुरू किया।
इस्लाम में सूअर को हराम माना गया है। मुगल तो इसे देखना भी हराम समझते थे और खटीकों ने मुस्लिम शासकों से बचाव के लिए सूअर पालन शुरू कर दिया। उसे उन्होंने हिंदू के देवता विष्णु के वराह (सूअर) अवतार के रूप में लिया। मुस्लिमों की गौहत्या के जवाब में खटीकों ने सूअर का मांस बेचना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे यह स्थिति आई कि वह अपने ही हिंदू समाज में पद्दलित होते चले गए। कल के शूरवीर ब्राहण आज अछूत और दलित श्रेणी में हैं।
1857 की लडाई में, मेरठ व उसके आसपास अंग्रेजों के पूरे के पूरे परिवारों को मौत के घाट उतारने वालों में खटीक समाज सबसे आगे था। इससे गुस्साए अंग्रेजों ने 1891 में पूरी खटीक जाति को ही वांटेड और अपराधी जाति घोषित कर दिया।
जब आप मेरठ से लेकर कानपुर तक 1857 के विद्रोह की कहानी पढेंगे, तो रोंगटे खडे हो जाए्ंगे। जैसे को तैसा पर चलते हुए खटीक जाति ने न केवल अंग्रेज अधिकारियों, बल्कि उनकी पत्नी बच्चों को इस निर्दयता से मारा कि अंग्रेज थर्रा उठे। क्रांति को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने खटीकों के गाँव के गाँव को सामूहिक रूप से फांसी दे दिया गया और बाद में उन्हें अपराधी जाति घोषित कर समाज के एक कोने में ढकेल दिया।
स्वतंत्रता से पूर्व जब मोहम्मद अली जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन की घोषणा की थी तो मुस्लिमों ने कोलकाता शहर में हिंदुओं का नरसंहार शुरू किया, लेकिन एक-दो दिन में ही पासा पलट गया और खटीक जाति ने मुस्लिमों का इतना भयंकर नरसंहार किया कि बंगाल के मुस्लिम लीग के मंत्री ने सार्वजनिक रूप से कहा कि हमसे भूल हो गई।
बाद में, इसी का बदला मुसलमानों ने बंग्लादेश में स्थित नोआखाली में लिया। आज हम आप खटीकों को अछूत मानते हैं, क्योंकि हमें उनका सही इतिहास नहीं बताया गया है, उसे दबा व साजिशन छुपा दिया गया है।
दलित शब्द का सबसे पहले प्रयोग अंग्रेजों ने 1931 की जनगणना में 'डिप्रेस्ड क्लास' के रूप में किया था। उसे ही बाबा साहब अंबेडकर ने अछूत के स्थान पर दलित शब्द में तब्दील कर दिया। इससे पूर्व पूरे भारतीय इतिहास व साहित्य में 'दलित' शब्द का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। मुस्लिमों के डर से अपना धर्म नहीं छोड़ने वाले, हिंसा और सूअर पालन के जरिए इस्लामी आक्रांताओं का कठोर प्रतिकार करने वाले एक शूरवीर ब्राहमण खटीक जाति को आज दलित वर्ग में रखकर अछूत की तरह व्यवहार किया और आज भी किया जा रहा है।
भारत में 1000 ईस्वी में केवल 1% अछूत जाति थी, लेकिन मुगल वंश की समाप्ति होते-होते इनकी संख्या 14% हो गई। आखिर कैसे ?
सबसे अधिक इन अनुसूचित जातियों के लोग आज के उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य भारत में है, जहाँ मुगलों के शासन का सीधा हस्तक्षेप था और जहाँ सबसे अधिक धर्मांतरण हुआ। आज सबसे अधिक मुस्लिम आबादी भी इन्हीं प्रदेशों में है, जो धर्मांतरित हो गये थे।
डॉ सुब्रहमनियन स्वामी लिखते हैं - ''अनुसूचित जाति उन्हीं बहादुर ब्राह्मण व क्षत्रियों के वंशज है, जिन्होंने जाति से बाहर होना स्वीकार किया, लेकिन मुगलों के जबरन धर्म परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया। आज के हिंदू समाज को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए, उन्हें कोटिश: प्रणाम करना चाहिए, क्योंकि उन लोगों ने हिंदू के भगवा ध्वज को कभी झुकने नहीं दिया, भले ही स्वयं अपमान व दमन झेला।''प्रोफेसर शेरिंग ने भी अपनी पुस्तक 'हिंदू कास्ट एंड टाईव्स' में स्पष्ट रूप से लिखा है कि - "भारत के निम्न जाति के लोग कोई और नहीं, बल्कि ब्राह्मण और क्षत्रिय ही हैं।" स्टेनले राइस ने अपनी पुस्तक "हिन्दू कस्टम्स एण्ड देयर ओरिजिन्स" में यह भी लिखा है कि - "अछूत मानी जाने वाली जातियों में प्रायः वे बहादुर जातियां भी हैं, जो मुगलों से हारीं तथा उन्हें अपमानित करने के लिए मुसलमानों ने अपने मनमाने काम करवाए थे।"
यदि आज हम बचे हुए हैं तो अपने इन्हीं अनुसूचित जाति के भाईयों के कारण जिन्होंने नीच कर्म करना तो स्वीकार किया, लेकिन इस्लाम को नहीं अपनाया।

खटीक जाति के इतिहास के बारे में कुछ खास बातें:
प्राचीन काल में खटीक जाति के लोग याज्ञिक पशु बलि देते थे.
पुराणों में खटक ब्राह्मणों का उल्लेख मिलता है.
गुजरात में खटीक जाति के लोगों को 'खाटकी' कहा जाता है.
राजस्थान में खटीक जाति के लोग राजपूत या क्षत्रिय से वंश का दावा करते हैं.
खटीक समाज के लोग सदियों से समाज के मांसाहारी वर्ग की सेवा करते आ रहे हैं.
खटीक समाज के लोग समय के साथ शिक्षा और अन्य पेशों में भी उन्नति कर रहे हैं.
खटीक समाज के लोग देश और हिंदू धर्म के लिए हमेशा खड़े रहे हैं.
खटीक समाज के लोगों को कानूनी तौर पर अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग श्रेणियों में रखा गया है.
खटिक जाति मूल रूप से वो जाति है, जिनका काम आदि काल में याज्ञिक पशु बलि देना होता था। आदि काल में यज्ञ में बकरे की बलि दी जाती थी। संस्कृत में इनके लिए शब्द है, ‘खटिटक’।
खटीक पहले वामामार्गी मन्दिरो में पशु बलि का कार्य करते थे। पुराणों में खटक ब्राह्मणों का उल्लेख है जो पशु बलि देते थे, जिनके हाथ से दी गयी बलि ही स्वीकार होती थी। खटीक शब्द खटक से बना है यानी जो खटका काटे यानी खटका मांस यानी एक झटके में सर काटने वाला खटीक हुआ। मुसलमान जबा यानी रेत कर गर्दन काटते थे और खटीक झटके से। खटिक के बहुत से गोत्र है जिनमे सोयल खटिक बघेरवाल आदि गोत्र है। सोनकर भी खटिक जाति के अन्तर्गत आता हैं।
खटिक शब्द संस्कृत खटिका से व्युत्पन्न है एक कस्तूरा या शिकारी जिसका अर्थ है। एक और व्युत्पत्ति शब्द खत से है जिसका अर्थ है कि तत्काल हत्या। अपने समुदाय के मूल के बारे में कई संस्करण हैं गुजरात में उन्हें ‘खाटकी' व राजस्थान मे खटीक कहा जाता है, वे राजपूत या क्षत्रिय से वंश का दावा करते हैं, जो शासक के दूसरे सबसे उच्च योद्धा वर्ग हैं। 
खटीक को गुजरात, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में अन्य पिछड़ा वर्ग और महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली में अनुसूचित जाति के रूप में पहचाना जाता है।
Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।

9.2.25

मेघवाल समाज की उत्पत्ति और इतिहास :Origin and history of Meghwal caste



मेघवाल समाज का विडिओ -




मेघवाल समुदाय का कोई लिखित केन्द्रीय  इतिहास नहीं है। सब कुछ मौखिक रूप में है. । मेघवाल जाति की उत्पत्ति के बारे में पाँच से अधिक सिद्धांत हैं। जाति और अस्पृश्यता का इतिहास समुदाय के व्यवसाय और भोजन से जुड़ा हुआ है। सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में "शुद्धता" और "प्रदूषण" के कारक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यही कारण है कि "चमार" और "भंगी" को मेघवाल से नीचे माना जाता है। यहां तक ​​कि अलग-अलग समय काल में समुदाय के जो नाम थे, वे व्यवसाय और संतों से जुड़े हुए हैं, जैसे "वनकर" बुनाई से संबंधित है, "डेढ़" मृत जानवरों को खींचने से संबंधित है, मेघवाल मेघ ऋषि के कारण है। समुदाय के सभी संतों का दृष्टिकोण मानवीय था और वे समुदाय की मुक्ति के लिए कार्य करते थे। संतों में से एक- वीर मेघमाया ने समुदाय को बुनियादी मानवीय गरिमा दिलाने के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया था। समुदाय में ईश्वर की अवधारणा प्रकृति पूजा से शुरू होकर विभिन्न धार्मिक प्रभावों के कारण बहुदेववाद तक पहुँच गई है। सांस्कृतिक और पारंपरिक प्रथाएं विभिन्न धार्मिक प्रभावों से आकार लेती हैं। इस प्रकार, आज तक भी मेघवाल समुदाय मुख्यतः जाति के कारण हाशिए पर है।परिचय "जब तक शेर कहानी में अपना पक्ष नहीं बताता, शिकार की कहानी हमेशा शिकारी को महिमामंडित करती रहेगी।" – अफ़्रीकी कहावत यह एक अफ़्रीकी कहावत है जिसमें शेर को अफ़्रीकी लोगों और शिकारी को औपनिवेशिक शासकों के रूप में माना जाता है। चूंकि वहां गुलामी की प्रथा थी, जिसके परिणामस्वरूप अफ्रीकियों में अशिक्षा, गरीबी थी। केवल एक ही आख्यान था जो औपनिवेशिक शासकों द्वारा लिखा गया था। जहां उन्हें खुद को मसीहा के तौर पर पेश किया गया. शासकों द्वारा गुलामी और अन्याय की कहानी का महिमामंडन किया गया। दुनिया ने मान लिया कि सत्य शिकारी द्वारा लिखा गया था, क्योंकि अधिकार और शक्ति उनके हाथों में थी। लेकिन यह सच नहीं है, उत्पीड़ित लोगों का दूसरा पक्ष और उनकी कहानी है, जो परिदृश्य के बारे में एक स्पष्ट तस्वीर प्रदान कर सकती है। (अदगबा, 2006) यह अध्ययन गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र और महाराष्ट्र के मुंबई में रहने वाले मेघवाल समुदाय की नृवंशविज्ञान संबंधी जांच पर आधारित है। यह मौखिक इतिहास के बारे में है जो समुदाय के लोगों के पास है, क्योंकि इसमें बहुत कुछ लिखा नहीं गया है। समुदाय के बुजुर्गों के पास जो भी आख्यान हैं, वे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होते रहते हैं। इसलिए, उत्पत्ति, अस्पृश्यता, भगवान और संतों की कहानियाँ और संस्कृति और परंपरा के बारे में विभिन्न आख्यान अध्ययन का केंद्र बिंदु हैं। मेघवाल गुजरात और महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति में आते हैं। मुंबई में, समुदाय का प्रमुख व्यवसाय और आजीविका बीएमसी यानी बृहन्मुंबई नगर निगम पर आधारित है, अधिकांश लोग मजदूर (सफाई कर्मचारी) हैं। इनमें से कुछ तो बीएमसी में ऊंचे पदों पर पहुंच गए हैं. सौराष्ट्र क्षेत्र में व्यवसाय बुनाई, छोटे किसान और मृत जानवर चुनना है, जो अब कम हो रहा है। तो, मौखिक इतिहास अध्ययन का हिस्सा है।

मौखिक इतिहास: ''हां'', श्रीमती ओलिवर ने कहा, 'और फिर जब वे लंबे समय बाद इसके बारे में बात करने आते हैं, तो उन्हें इसका समाधान मिल जाता है जो उन्होंने स्वयं बनाया है। यह बहुत मददगार नहीं है, है ना?' 'यह मददगार है,' पोयरोट ने कहा,... 'कुछ ऐसे तथ्यों को जानना महत्वपूर्ण है जो लोगों की यादों में बस गए हैं, हालांकि वे नहीं जानते होंगे कि वास्तव में तथ्य क्या था, ऐसा क्यों हुआ या इसके कारण क्या हुआ। लेकिन वे आसानी से कुछ ऐसा जान सकते हैं जो हम नहीं जानते और हमारे पास सीखने का कोई साधन नहीं है। इसलिए ऐसी यादें हैं जो सिद्धांतों को जन्म देती हैं...'' (पोर्टेली, द पेकुलियरिटीज़ ऑफ ओरल हिस्ट्री, 1981) मौखिक इतिहास की अभिव्यक्ति उस चीज़ के लिए एक सामान्य संकुचन है जिसे हम अधिक स्पष्ट रूप से इतिहास या सामाजिक विज्ञान में मौखिक स्रोतों के उपयोग के रूप में वर्णित कर सकते हैं। सबसे पहले, अपने सबसे बुनियादी रूप में, मौखिक इतिहास में पाए जाने वाले मौखिक आख्यान और साक्ष्य इतिहासकार के स्रोतों के प्रदर्शन में एक अतिरिक्त उपकरण हैं, और इसलिए उनकी विश्वसनीयता और उनकी उपयोगिता सुनिश्चित करने के लिए अन्य सभी स्रोतों की तरह ही आलोचनात्मक जांच के अधीन हैं। (पोर्टेली, ए डायलॉगिकल रिलेशनशिप। एन अप्रोच टू ओरल हिस्ट्री, 1998) मौखिक इतिहास को आम तौर पर हाल के अतीत की घटनाओं के टेप रिकॉर्ड किए गए साक्षात्कार, स्मृतियों, खातों और व्याख्याओं के माध्यम से एकत्र करने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो ऐतिहासिक महत्व के हैं। इतिहास कई प्राथमिक संसाधनों में से एक है। यह लिखित दस्तावेजों से भी बदतर नहीं है. उपलब्धियां स्वयं-सेवा दस्तावेजों, संपादित और सिद्धांतित डेयरियों और रिकॉर्ड के लिए लिखे गए ज्ञापनों से भरी हुई हैं।
मेघवाल: "मेघवाल" शब्द "मेघवार" से बना है। संस्कृत में "मेघ" का अर्थ है बादल या बारिश और "युद्ध" का अर्थ है प्रार्थना करने वाले लोग। तो, मेघवाल और मेघवार बारिश के लिए प्रार्थना करने वाले लोग हैं। उनका दावा है कि वे मेघ ऋषि के वंशज हैं, जो अपनी प्रार्थना से बादलों से बारिश लाने की शक्ति रखते थे। मेघवाल गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में पाए जाते हैं। मेघवाल की आबादी की अच्छी संख्या पाकिस्तान में भी पाई जाती है. विभाजन के दौरान जो लोग हिंदू धर्म का हिस्सा बनना चाहते थे वे भारत आ गए, अन्य लोग वहीं बस गए। यह शोध पत्र मेघवाल समुदाय के इतिहास पर केंद्रित है। इन्हें वणकर या ढेध के नाम से भी जाना जाता है। दो क्षेत्रों में.

पूर्वजों का कथन है कि मेघवाल समाज का जन्म मूलतः सिंध क्षेत्र में हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि प्राचीन काल में सिंध वर्तमान कश्मीर से लेकर उत्तर से दक्षिण तक गुजरात तक और पूर्व से पश्चिम तक अफगानिस्तान से शुरू होकर उत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था। तो, मेघवाल समुदाय की भौगोलिक उत्पत्ति सिंध में हुई और उसके बाद समुदाय ने उत्तर और दक्षिण, पूर्व और पश्चिम की ओर पलायन करना शुरू कर दिया। आज भी इस समुदाय का अधिकांश भाग उसी क्षेत्र में और उसके आसपास देखा जा सकता है। मेघवाल समुदाय आज कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, गुजरात और मुंबई में पाए जाते हैं। मेघवाल पाकिस्तान में भी रहते हैं, विशेषकर पाकिस्तान के पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र के पास। समय के साथ यह समुदाय पूरे क्षेत्र में फैल गया है। समुदाय की संस्कृति परंपरा क्षेत्रीय प्रभाव से प्रभावित हुई है। इसलिए, ऐसी कोई संस्कृति परंपरा नहीं है जो समग्र रूप से सामान्य हो। मोटे तौर पर वर्तमान समय में यही वह क्षेत्र है जहां मेघवाल पाये जाते हैं।
भोजन और संस्कृति: ऐतिहासिक रूप से मेघवाल समुदाय के लोग गोमांस खाते हैं। पहले वे विभिन्न कारणों से मरे हुए जानवरों को खाते थे। लेकिन हाल के दिनों में इसमें कमी आई है क्योंकि ऊंची जाति में इसे अपवित्र माना जाता है। इसलिए, भेदभाव से बचने के लिए कई लोगों ने इसे छोड़ दिया है। लेकिन फिर भी वे बाज़ार में मिलने वाला गोमांस खाते हैं. संस्कृति में समानताओं के बारे में अधिक जानकारी नहीं है क्योंकि भौगोलिक स्थिति और धार्मिक प्रभाव के अनुसार उन्होंने समय के साथ अपनी संस्कृति और परंपरा को अपनाया और बदला है। समाज के लोगों ने बताया कि राजस्थान, गुजरात, मुंबई और पाकिस्तान में रहने वाले मेघवाल की संस्कृति में समानताएं हैं. जैसे हिंदू धर्म से प्रभावित लोगों का विवाह समारोह भी वैसा ही होता है। इस भाग में भी  सनातन  पद्धति से दाह-संस्कार किया जाता है। चूँकि यह भाग पहले एक था। उत्तर भारत यानी पंजाब और कश्मीर में संस्कृति समान है।
सामाजिक और राजनीतिक इतिहास यह अध्याय विभिन्न मौखिक इतिहास और विषयों के बीच संबंधों को देखने का प्रयास करेगा। मौखिक इतिहास की अवधारणा समुदाय में मौजूद विभिन्न इतिहासों का पता लगाना है। समुदाय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की बेहतर समझ प्राप्त करने के लिए, यह महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अंदरूनी सूत्र के दृष्टिकोण से एक अलग परिप्रेक्ष्य प्रदान कर सकता है क्योंकि मुख्यधारा के ऐतिहासिक आख्यानों में उच्च जाति का वर्चस्व है। इससे हमें इतिहास को मुख्यधारा से हटकर समझने में भी मदद मिलेगी जो मुख्यधारा के आख्यानों के विपरीत होगा। अतीत में ज्ञान संस्थान का स्वामित्व ब्राह्मणों के पास था और दलितों की शिक्षा तक पहुंच नहीं थी। यह उच्च जाति द्वारा बनाई गई एक व्यवस्था थी, ताकि समाज के निचले तबके के लोग जंजीरों को तोड़कर उनके खिलाफ विद्रोह न कर सकें। यह उच्च जाति का आधिपत्य शासन बनाने का एक प्रयास था जिसके कारण दलितों में निरक्षरता पैदा हुई। भोजन, आश्रय से लेकर गाँव के परिसर में प्रवेश तक पर उच्च जाति का नियंत्रण था। इसलिए, कई दलित समुदायों का कोई लिखित इतिहास मुश्किल से ही मिल पाता है। हमें ज्ञात अधिकांश इतिहास मौखिक आख्यानों अर्थात् मौखिक इतिहास के रूप में है। मौखिक इतिहास एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित होता है। इस प्रक्रिया के माध्यम से दलित समुदाय के लोगों की उत्पत्ति, सांस्कृतिक और पारंपरिक प्रथाओं, संतों (वीर पुरुषों) की कहानियों, भोजन की आदतों आदि के बारे में कई कहानियाँ मिल सकती हैं। जैसे-जैसे अलग-अलग धर्मों की शुरुआत हुई, उन्होंने भी इन आख्यानों को प्रभावित करना शुरू कर दिया। अन्य धर्मों ने भी समुदाय की सांस्कृतिक और खान-पान की आदतों जैसी कई चीज़ों को प्रभावित किया। लेकिन कुछ सामान्य कड़ियाँ थीं जिन्हें कहानियों में देखा जा सकता है।
दलितों का अधिकांश इतिहास मौखिक रूप में उपलब्ध है। चूँकि ज्ञान और लेखन कौशल ब्राह्मण समुदाय के पास थे, दलित इतिहास की कहानियाँ परिवार के बुजुर्गों द्वारा अगली पीढ़ी तक पहुँचाई गईं। इस प्रक्रिया में, इतिहास का कुछ बड़ा हिस्सा खो गया और दायरे में कई कहानियाँ थीं। किसी भी "शूद्र" और "अति-शूद्र" समुदाय की उत्पत्ति का पता लगाने के लिए कई कहानियों के बीच संबंध को समझना और खोजना होगा। मेघवाल समुदाय के पास कोई लिखित इतिहास नहीं है जो उनकी उत्पत्ति, जाति, संस्कृति, परंपरा, भगवान या देवताओं और उनके संतों की कहानियों का पता लगा सके। मेघवाल समुदाय के बारे में बहुत कम लिखित इतिहास है और इसका अधिकांश हिस्सा गुजराती में है जो हाल ही में सामने आया है। समुदाय के बारे में लिखित इतिहास से पता चलता है कि, "मेघवाल" शब्द "मेघवार" से लिया गया है। संस्कृत में "मेघ" का अर्थ है बादल या बारिश और "युद्ध" का अर्थ है प्रार्थना करने वाले लोग। तो, मेघवाल और मेघवार बारिश के लिए प्रार्थना करने वाले लोग हैं। उनका दावा है कि वे मेघ ऋषि के वंशज हैं, जो अपनी प्रार्थना से बादलों से बारिश लाने की शक्ति रखते थे। मेघवाल गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में पाए जाते हैं। मेघवालों की आबादी पाकिस्तान में भी अच्छी संख्या में पाई जाती है. विभाजन के दौरान जिन लोगों ने हिंदू धर्म का हिस्सा बनना चुना वे भारत आ गए, जबकि अन्य लोग वहीं बस गए।
मेघवाल समुदाय में विभिन्न संप्रदायों की उत्पत्ति एवं संबंध का इतिहास: यह खंड मेघवाल समुदाय में मौजूद विभिन्न मौखिक इतिहासों पर गौर करेगा। इसकी उत्पत्ति के सन्दर्भ में कोई एक इतिहास नहीं है, इसके अस्तित्व को लेकर लोगों का नजरिया अलग-अलग है। समुदाय की जाति मुख्य रूप से ब्रह्मा के सिद्धांत की उत्पत्ति से जुड़ी हुई है कि सभी शूद्र पैरों से पैदा हुए हैं। इसलिए, विभिन्न कहानियों के माध्यम से उत्पत्ति का पता लगाने से समुदाय की उत्पत्ति के बारे में बेहतर समझ मिलेगी। इसके साथ ही अलग-अलग युगों में समुदाय के नाम में बदलाव किया गया है। इसलिए, समुदाय के नाम के विभिन्न अर्थों के इतिहास और विभिन्न समय अवधि में समुदाय द्वारा नाम के दावे की प्रक्रिया को समझना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, मेघवालों को वणकर और ढेढ़ के नाम से भी जाना जाता है। तो, उनके अलग-अलग नामों के अर्थ और नाम या शीर्षक के इतिहास और अर्थ को समझने के लिए।

मेघवाल के संदर्भ में, उत्पत्ति के बारे में दो से तीन दृष्टिकोण हैं जो मेरी दादी ने मुझे बताए थे, एक, जहां हमें मेघ ऋषि के वंशज के रूप में देखा जाता है जो बारिश की पूजा करते थे। और दूसरी कथा मेघवालों को ब्रह्मा के चरणों से उत्पन्न मानती है। यह ब्राह्मण द्वारा बताई गई सामान्य कथा है। इसके अलावा,मेघवाल  समुदाय के अलग-अलग समय अवधि में अलग-अलग नाम हैं जैसे मेघवाल, वणकर, ढेढ  आदि। मेघ ऋषि के बाद से समुदाय को कई नाम या उपाधियाँ दी गई हैं। कुछ लोगों का मानना ​​है कि मेघवाल मेघ ऋषि से आते हैं और ढेढ़ ऊंची जातियों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला अपमानजनक शब्द है। वानकर वह नाम है जो पेशे से आया है। कुछ नाम थोपे गए, जबकि कुछ उपाधियाँ समुदाय द्वारा अपनाई गईं, वहीं कुछ व्यवसाय आधारित नाम भी थे। इसलिए समय के साथ समुदाय को मिले विभिन्न नामों की उत्पत्ति और अर्थ को समझने के लिए कई आख्यानों को स्वीकार करना चाहिए।
मेघवाल की उत्पत्ति: यह खंड मेघवाल समुदाय के इतिहास और उत्पत्ति को समझाने का प्रयास करेगा। केवल मौखिक इतिहास के साथ किसी भी समुदाय की उत्पत्ति का पता लगाना कठिन है लेकिन यह समुदाय की उत्पत्ति की समझ प्रदान कर सकता है। मेघवालों में इसकी उत्पत्ति के बारे में कई कहानियाँ हैं। यह खंड कई इतिहासों को देखता है और उनके बीच संबंध खोजने का प्रयास करता है।
श्री जीवराज कहते हैं कि, "हमारी उत्पत्ति ब्रह्मा के चरणों से हुई है"। यह हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था के जन्म की आम कहानी है। जैसा कि कहा गया है कि शूद्रों का जन्म ब्रह्मा के पैरों से हुआ था। यह सिद्धांत सभी शूद्रों और उनकी उत्पत्ति के लिए सामान्य है। लेकिन जैसा कि, श्री जीवराज आगे बताते हैं कि, वे यानी दलित ऊंचे हैं, क्योंकि लोग भगवान के पैर छूते हैं, सिर नहीं। तो भगवान ने उन्हें ऊपर ही रखा है. हिंदू धर्म की कोई एक समझ या परिभाषा नहीं है, लेकिन यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि सभी जाति या 'जाति' के लोग केवल पैर छूते हैं। हालाँकि, ब्रह्मा का सिद्धांत कहता है कि शूद्र पैरों से पैदा हुए हैं, लेकिन फिर लोग भगवान के पैर क्यों छूते हैं, यह विस्तार से नहीं बताया गया है। यह पदानुक्रम को उलटने का एक प्रतिवाद है।



श्री सोलंकी का कहना है कि लोगों को उनकी पहचान उनके व्यवसाय से मिलती है. वनकर (बुनकर) कोई जाति नहीं, व्यवसाय है। यह भारत भर के बुद्धिजीवियों के बीच प्रमुख बहसों में से एक है कि जाति समुदाय के कब्जे से आई है। आगे वह कहते हैं, मेघवाल मेघ ऋषि से आए हैं, इसलिए हम उनके वंशज हैं। मेघ ऋषि और मेघवाल की उत्पत्ति पर एक संत नाथूराम द्वारा लिखित पुस्तक "मेघ मातंग" थी, जो अब अनुपलब्ध है। इस पुस्तक ने उत्पत्ति की व्याख्या की और मी के ऐतिहासिक महत्व का पता लगाया
चंदूलाल के अनुसार मेघवाल नाम वीर मेघमाया के नाम पर पड़ा। ऐसी भी कहानी है कि मेघवाल नाम वीर मेघमाया के नाम पर पड़ा. उनका कहना है कि, "हमारी जाति व्यवसाय से आई है, शुरू में केवल ढाई जातियां थीं यानी नर (पुरुष) नारी (महिला) और किन्नर (किन्नर)"। पहले हमारे कब्जे से डेढ आये, मयशर्या आये, मेघवाल आये, हरिजन आये और अब हम दलित है। प्रत्येक काल में संतों के व्यवसाय एवं प्रभाव के अनुसार नाम बदलते रहे।
हर्षद भाई के अनुसार मतंग ऋषि के समय में एक ऋषि थे, जिनका नाम मेघ ऋषि या ममयदेव के नाम से भी जाना जाता था। उस समय, एक ब्राह्मण का राजा के साथ मतभेद था, इसलिए, उसने उसे शाप दिया कि उसके राज्य में 7 वर्षों तक बारिश नहीं होगी। इसलिए, राजा ने आदेश दिया कि लोगों को पीने के लिए पानी बचाना चाहिए। सभी जलाशयों की सुरक्षा उसके सैनिक द्वारा की जाती थी। एक दिन एक व्यक्ति झील में नहाता हुआ मिला। सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और राजा के दरबार में ले गये। राजा ने उससे पूछा, "क्या तुम नहीं जानते कि 7 वर्षों तक वर्षा नहीं होगी?" जिस पर शख्स ने जवाब देते हुए कहा कि इस साल भारी बारिश होगी. किसी ने उस पर विश्वास नहीं किया. उन्होंने कहा, मैं तपस्या के लिए गिरनार पर्वत के शिखर पर जा रहा हूं. उसके बाद लगातार 7 दिनों तक बारिश होती रहती है. संपूर्ण राज्य जलमग्न हो गया; राजा उस पर विश्वास न करने के लिए माफी माँगने गया। ऋषि ने कहा, “मैंने बादलों को बुलाया है लेकिन उन्हें वापस भेजने की मुझमें शक्ति नहीं है। इसके लिए आपको "ढेढ" कहना होगा, और तभी से हमें मेघवाल कहा जाने लगा। ये कहानी उन्हें अपने दादा से सुनने को मिली थी
आर्यों के आक्रमण के कारण बौद्ध भिक्षु जयराम बप्पू ने  दावा किया कि शुरू में कोई चमार या मेघवाल जाति नहीं थी। मेघवाल या वनकर या जो भी शब्द उनकी पहचान के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, वे इस देश के "मूलनिवासी" हैंवे इस देश के राजपूत थे, इसलिए, उनके उपनामों और राजपूतों के उपनामों के बीच समानताएं पाई जा सकती हैं। आर्यों के आक्रमण के बाद, अस्पष्ट रूप से, जो हज़ार साल पहले हुआ था, आर्यों और मूलनिवासियों के बीच संघर्ष हुआ। जंगलों में रहने वाले कुछ लोगों की पहचान आदिवासी (भील) के रूप में की गई। जिन्होंने भी उनका शासन स्वीकार कर लिया उन्हें क्षत्रिय बना दिया गया और उन्हें छोटे-छोटे राज्य दे दिये गये। बाकी जो लड़े और हार गये उन्हें शूद्र बना दिया गया। उन्हें गांव (यानी सिमलिये) से बाहर रहना होगा। सभी ने ग्रामीण के रूप में अपने सभी अधिकार छीन लिए। उन्हें घृणित (नीच) जाति का लेबल दिया गया। सभी विषम श्रम उन्हें दिए गए। यह उभरता हुआ विशेषाधिकार जो मेरे लिए अज्ञात था, उसका विश्लेषण करना दिलचस्प है क्योंकि भारतीय संदर्भ में मूलनिवासी के लिए संघर्ष बढ़ रहा है जहां आदिवासी, बहुजन अपने अधिकारों के लिए एक साथ आते हैं।
मेघवाल की उत्पत्ति की पाँच प्रमुख कहानियाँ हैं जिनसे मेरा सामना हुआ। एक उत्तरदाता बताता है कि; पहिला वे ब्रह्मा के चरणों से पैदा हुए हैं। दूसरा, यह कि शुरुआत में कोई जाति नहीं थी और व्यवसाय से जाति आई। तीसरी कहानी बताती है की केवल तीन जातियाँ थीं - नर, नारी और किन्नर। बाद में ब्राह्मणों ने विभाजन पैदा किया और इस तरह जाति अस्तित्व में आई। आगे की कथा बताती है कि व्यवसाय ने समुदाय की जाति का निर्धारण कैसे किया। चौथी कहानी इस बात पर प्रकाश डालती है कि मेघ ऋषि  से मेघवाल की उत्पत्ति कैसे हैं। और पांचवां, मुलनिवाशी की अवधारणा है जिसके बारे में हम दावा करते हैं कि यह शुरुआत से ही अस्तित्व में है।
वणकर, मेघवाल, ढेढ और अन्य संप्रदाय: समसामयिक युग में तीन नाम ऐसे हैं जो एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग किये जाते हैं। वणकर व्यवसाय आधारित नाम है और मेघवाल मेघ ऋषि या वीर मेघमाया से आया है। ढेढ़ ऊंची जाति द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला अपमानजनक शब्द है।

हर्षद भाई कहते हैं, “जब मेघ ऋषि ने आकाश से बादलों को मोड़ दिया तो  मेघवाल कहलाये। जब  बुनाई शुरू की तो वनकर नाम अस्तित्व में आया। जब  मरे हुए जानवर को घसीटा, तो ढेढ़ नाम अस्तित्व में आया। जब  सिम यानी गांव के बाहर रहते थे तो उन्हें सिमलिया यानी बाहरी कहा जाता था।' जो भी नाम दिये गये थे वे सभी किसी न किसी घटना, कृत्य अथवा व्यवसाय से सम्बन्धित थे। जिस तरह से ऊंची जाति ने उन पर अत्याचार करने के लिए अलग-अलग कालखंड में समुदाय का नामकरण किया जो कि थोपा गया था। इसलिए, वे हर चीज़ पर आधिपत्य बनाए रखने के लिए ऊंची जाति द्वारा बनाई गई जातिगत बाधाओं को तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे।
नाम की उत्पत्ति :चंदूलाल के अनुसार मेघवाल वीर मेघमाया से आये थे। व्यवसाय से जाति का नाम अस्तित्व में आया। उनका कहना है कि, पहले वे ढेढ़ थे. फिर मार्शरिया, फिर मेघवाल, हरिजन और अब दलित। उन्होंने समयानुसार  4 से 5 जातियाँ बदल ली हैं। श्री धनजी कहते हैं कि जाति का नाम व्यवसाय से आया, वणकर जुलाहा से आया। जाति स्वयं समुदाय के कब्जे से आई है। श्री सोलंकी का कहना है कि मेघवाल नाम मेघ ऋषि के नाम पर पड़ा है। उन्होंने आगे कहा कि, यही कारण है कि वे मेघवंशज यानी मेघ ऋषि के वंशज हैं। नीचे दिया गया चित्र कालानुक्रमिक क्रम को दर्शाएगा जिसके अनुसार मेघवाल समुदाय के नाम में परिवर्तन के बारे में कहा गया है,
नाम में परिवर्तनात्मक परिवर्तन दलितों हरिजन मेघवाल मेशरिया ए ढेढ जयराम बप्पू का कहना है कि, ढेढ़ शब्द को ब्राह्मणों ने प्रदूषित कर दिया है. मेघवाल और वनकर एक ही हैं. मेघवाल या वनकर, मूलनिवासी हैं और फिर आर्य आक्रमणकारियों ने उनके नाम से लेकर भोजन तक हर चीज़ पर प्रभाव डाला और नियंत्रित किया। यह आख्यान आर्य एवं मूलनिवासी अवधारणा के समान है। श्री सोलंकी बताते हैं कि 12वीं शताब्दी से पहले सूर्य वंश, चंद्र वंश आदि वंश थे। लोगों को उनके वंश के अनुसार अलग-अलग खंडों में विभाजित किया गया था। जैसे-जैसे समय बीतता गया, व्यवसाय पहचान बन गया और पहचान समुदाय की जाति बन गई। मेघवाल नाम मेघ ऋषि से सम्बंधित है। दूसरी अवधारणा यह है कि कई राजा सूर्य वंशी या चन्द्र वंशी होते हैं, उसी प्रकार मेघवाल मेघ वंशी होते हैं। यह नाम वंश से आया है। 'धेध' के बारे में इस शब्द की उत्पत्ति 'थेर' से हुई है। यदि कोई इतिहास का आत्मनिरीक्षण करे तो 'थेर' और 'थेरी' बौद्ध धर्म के दो संप्रदाय हैं, महायान और हीनयान। 'थेर' का अर्थ बुद्ध के पुरुष अनुयायी और 'उनका' का अर्थ महिला अनुयायी भी है। थेर से यह थेड बन गया और फिर इसे स्थानांतरित कर दिया गया जिसे अब हम ढेध के नाम से जानते हैं। जीवराज हेलिया कहते हैं कि “ढेढ़ का मतलब है हम एक शब्द के लोग हैं।” बहुत सारी जातियाँ और जातियाँ हैं, लेकिन उनमें से केवल ढेढ में ही एक शब्द है। वणकर कब्जे से आये और मेघवाल मेघ ऋषि से। ढेढ भी मेघवाल से पहले थे। ढेध शब्द के बारे में यही एकमात्र प्रतिक्रिया सकारात्मक थी।
सारांश उत्पत्ति के संबंध में कई कहानियाँ हैं लेकिन सभी कहीं न कहीं समुदाय के व्यवसाय और भोजन से जुड़ी हुई हैं। कहानियाँ ब्रह्मा और आर्य आक्रमण की हैं जो हिंदू धर्म से संबंधित हैं। व्यवसाय और संतों से संबंधित को ब्रह्मा के सिद्धांत और आर्य आक्रमण से जोड़ा जा सकता है। समुदाय के अलग-अलग नाम अस्तित्व और विकास की प्रक्रिया हैं। वे उत्पत्ति और व्यवसाय से भी जुड़े हुए हैं। जैसा कि ढेध और वानकर नाम उस समुदाय के व्यवसाय से संबंधित हैं। मेघवाल नाम मेघ ऋषि और वीर मेघमाया से सम्बंधित है। ढेढ़ को ऊंची जाति द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले अपमानजनक शब्द के रूप में भी देखा जाता है। सिम शब्द का अर्थ है बाहर और "सिमलिया" बाहरी लोग हैं। इसलिए, "सिमलिया" शब्द इसलिए आया क्योंकि वे गाँव से बाहर रहते थे। तो, उत्पत्ति और नाम व्यवसाय, आर्य आक्रमण, भोजन और उस स्थान से जुड़े हुए हैं जहां वे रहते थे।
Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।