यद्यपि भारतीय योग का चरम लक्ष्य आत्मानुभूति और जीवन्मुक्ति की अवस्था को प्राप्त करना है, तो भी योगाभ्यास से साधक की भौतिक शक्तियाँ भी इतनी बढ़ जाती है कि अनेक ऐसे कार्य कर दिखा सकते हैं जो बड़े-बड़े वैज्ञानिक यंत्रों और विधियों से भी सम्भव नहीं है। उदाहरण के लिये एक तत्व को दूसरे तत्व में परिवर्तित करने के लिये आधुनिक वैज्ञानिक बहुत समय से प्रयत्न कर रहे हैं, पर अभी तक उनको इस प्रयोग को सफलता प्राप्त नहीं हुई है। अब अणु शक्ति का ज्ञान होने और उसके प्रयोग की विधि मालूम होने पर उनको आशा होने लगी है कि वे निकट भविष्य में एक तत्व को दूसरे में बदलने में समर्थ हो सकेंगे। उदाहरणार्थ वे लोहे या ताँबे का सोना बना सकेंगे या मिट्टी को चीनी के रूप में परिवर्तित कर सकेंगे।
पर भारतीय योगियों ने इस प्रकार की शक्ति प्राचीन समय से प्राप्त कर ली हैं और समय-समय पर वे इसका परिचय भी देते रहे हैं। हमने ऐसी एक दो नहीं सैकड़ों घटनायें पढ़ी और सुनी है कि सिद्ध महात्माओं ने आवश्यकता पड़ने पर पानी से घी का काम ले लिया, या थोड़े से भोजन को इतना बढ़ा दिया कि दस व्यक्तियों की सामग्री से सौ का काम चल गया है।
आधुनिक समय में इस प्रकार चमत्कार दिखला सकने वालों में काशी के स्वामी विशुद्धानन्द जी का नाम बहुत प्रसिद्ध है। वे बाल्यावस्था में वर्द्धवान के निकट एक गाँव में रहते थे, पर 17 वर्ष की आयु में जब आपको एक पागल कुत्ते ने काट खाया और प्राण नाश की आशंका होने लगी तो एक योगी ने आकर इनको बचाया और फिर योग मार्ग का उपदेश देकर हिमालय में पहुँचा दिया। वहाँ वे “ज्ञान-गंज” नामक योगाश्रम में विभिन्न गुप्त विद्याओं का अध्ययन करते रहे और अनेक वर्षों के बाद एक शक्ति सम्पन्न योगी के रूप में पुनः लोकालय में आये और यहाँ विभिन्न स्थानों में घूम-फिर दीन दुखी जनों का कल्याण साधन करते रहे।
स्वामी जी साधारण लोगों में “गन्ध बाबा” के नाम से विख्यात थे। जितने लोग उनके संपर्क में आते थे उन सबका यही अनुभव था कि उनकी देह से एक विशेष प्रकार की मनोरम गन्ध निकला करती है। वह प्रायः कमल फल (पद्म) की गन्ध से मिलती होती थी, पर वास्तव में वह एक निराली ही चीज थी। स्वामी जी जहाँ उठते-बैठते वहाँ बहुत दूर तक यह सुवास फैली रहती थी।
कुछ समय पहले इंग्लैंड के एक पत्रकार पालब्रंटन भारत भ्रमण के लिये आये। उनका मुख्य उद्देश्य यहाँ के योगियों और महात्माओं की रहस्यपूर्ण शक्तियों की जाँच करना था। अनेक स्थानों में घूमते-फिरते वे बनारस में स्वामी विशुद्धानन्दजी के पास भी पहुँचे थे और उनकी अलौकिक शक्तियों का उन्होंने ध्यानपूर्वक निरीक्षण किया था। उन्होंने अपनी पुस्तक में इस सम्बन्ध में जो विवरण दिया है उसकी कुछ बातें यहाँ दी जाती हैं-
“जब मैं पहुँचा तो कुछ लोग जमीन पर अर्द्ध वृत्ताकार बैठे हुये थे और कुछ ही दूर पर एक वृद्ध महात्मा विराजमान थे। उनके श्रद्धा उत्पन्न करने वाले रूप को देखकर मैं समझ गया यही योगी जी हैं। उनकी आयु 70 वर्ष से अधिक होगी। किसी विचित्र शक्ति से उनका कमरा परिपूर्ण जान पड़ता था। मेरे पहुँचने के कुछ देर बाद योगी ने बंगला में कहा “कल तीसरे पहर पंडित गोपीनाथ कविराज के साथ आना तभी बातचीत हो सकेगी।”
“दूसरे दिन 4 बजे जब मैं गोपीनाथ जी के साथ आश्रम में पहुँचा तो योगी ने पूछा कि “क्या तुम मेरा कोई चमत्कार देखना चाहते हो?”
ब्रंटन-यदि आपकी ऐसी दया हो तो मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।
विशुद्धानन्द-अच्छा अपना रुमाल मुझे दो। यदि रेशम का रुमाल होगा तो अच्छा है। जो सुगन्ध तुम चाहो इस रुमाल पर आतिशी शीशे एवं सूर्य किरणों द्वारा मैं पैदा कर सकता हूँ। तुम कौन सी सुगन्ध चाहते हो?
ब्रंटन-चमेली की!
योगी ने बाँये हाथ से ब्रंटन का रुमाल लिया और आतिशी शीशा दाहिने हाथ से उसके ऊपर थोड़ी दूर रखा। दो सैकिण्ड तक एक सूर्य किरण रुमाल पर पड़ी। इसके बाद योगी ने रुमाल ब्रंटन को लौटा दिया। ब्रंटन ने रुमाल नाक से लगाया तो चमेली की खुशबू दिमाग में भर गई।
ब्रंटन ने अच्छी तरह रुमाल की परीक्षा की, पर उसमें कहीं गीलापन न था, न इस बात का कोई चिन्ह था कि उस पर तरल सुगन्ध या इत्र टपकाया गया है। ब्रंटन ने आश्चर्य से वृद्ध योगी की तरफ देखा। योगी ने चमत्कार को फिर से दिखाने का वचन दिया। ब्रंटन ने इस बाल गुलाब का इत्र चुना। वे लिखते हैं कि “इस बार मैं बड़े ध्यान से सब काम देखता रहा। जरा सा हिलने-डुलने पर और योगी के चारों तरफ मेरा ध्यान था। मैंने उनके हाथों की परीक्षा की, उनके दूध से श्वेत वस्त्रों की जाँच करके देख लिया, परन्तु कोई भी सन्देहजनक बात नहीं मिली। योगी ने फिर पहली तरकीब से रुमाल के दूसरे कोने में गुलाब की गहरी सुगन्ध पैदा कर दी।” तीसरी बार ‘वायलेट’ के फल का नाम लिया और योगी ने शीशे के द्वारा वायलेट की खुशबू पैदा कर दी। विशुद्धानन्द अपनी इन सफलताओं से बिल्कुल अनासक्त से हैं। वे सारे प्रदर्शन के प्रति एक साधारण बात की तरह व्यवहार करते थे। उनके चेहरे की गम्भीरता एक क्षण के लिए कम नहीं होती। चौथी बार विशुद्धानन्द ने कहा कि “अच्छा, अब मैं अपनी तरफ से एक ऐसे फूल की खुशबू पैदा करूंगा जिसको तुमने आज तक नहीं सूँघा होगा, क्योंकि वह फल तिब्बत में ही पैदा होता है। यह कह कर उन्होंने आतिशी शीशे का प्रकाश रुमाल के चौथे कोने पर डाला और उसमें से वास्तव में ऐसी खुशबू आने लगी जिसे हम पहिचान नहीं सकते थे।”
“दूसरे दिन हम फिर एक जीवित कबूतर लेकर विशुद्धानंद जी के पास गये। वहाँ उनके कहने से कबूतर का गला घोंटकर मार डाला गया। इसके बाद वह एक घंटे तक सब लोगों के सामने पड़ा रहा कि जिससे लोग देखलें कि वह वास्तव में निर्जीव है उसकी आँखें पथरा गई थी और शरीर कठोर पड़ गया। बहुत गौर करने पर भी उसमें कोई ऐसा लक्षण दिखलाई नहीं पड़ता था जिससे उसे जीवित समझा जा सकता।
“तब योगी ने अपना काँच का गोला उठाया और उसके द्वारा पक्षी की एक आँख में सूर्य किरण का प्रतिबिम्ब केन्द्रित किया। कुछ देर ऐसा करने के बाद वे कोई मंत्र पढ़ने लगे और थोड़ी देर में पक्षी का शरीर हिलने लगा। ऐसा जान पड़ता था कि मृत्यु की वेदना से वह तड़प रहा है। कुछ देर बीतने पर उसने पर फड़फड़ाये और देखते-देखते अपने पैरों पर खड़ा हो गया। कुछ मिनट बीतने पर पक्षी कमरे में उड़कर एक ताक पर बैठ गया। आधे घंटे से ज्यादा समय तक वह एक स्थान से दूसरे स्थान तक उड़ता रहा, फिर निर्जीव होकर गिर पड़ा।”
विशुद्धानन्द जी ने ब्रंटन को बतलाया कि इन चमत्कारों से “योग” का कोई सम्बन्ध नहीं है। वरन् ये सूर्य-विज्ञान द्वारा किये गये हैं और इनकी विधि वैसी ही स्पष्ट है जैसी कि आजकल के अन्य वैज्ञानिक प्रयोगों की होती है। इसके लिये योगाभ्यास की आवश्यकता नहीं। साधारण संसारी व्यक्ति कुछ समय अभ्यास करके इसे कर सकता है। उन्होंने यह भी बतलाया कि इसी प्रकार “चन्द्र विज्ञान” “नक्षत्र विज्ञान” “वायु विज्ञान” “क्षण विज्ञान” “शब्द विज्ञान” “मनोविज्ञान आदि और भी बहुत सी विद्याएं हैं, जिनसे अनेक अभूतपूर्व और असम्भव समझे जाने वाले काम करके दिखाये जा सकते।
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