आत्मा - परमात्मा का ही अंश है। जिस प्रकार जल की धारा किसी पत्थर से टकराकर छोटे छींटों के रूप में बदल जाती है, उसी प्रकार परमात्मा की महान सत्ता अपने क्रीड़ा विनोद के लिए अनेक भागों में विभक्त होकर अगणित जीवों के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं। सृष्टि सञ्चालन का क्रीड़ा कौतुक करने के लिए परमात्मा ने इस संसार की रचना की। वह अकेला था। अकेला रहना उसे अच्छा न लगा, सोचा एक से बहुत हो जाऊँ। उसकी यह इच्छा ही फलवती होकर प्रकृति के रूप में परिणित हो गई। इच्छा की शक्ति - महान है। आकाँक्षा अपने अनुरूप परिस्थितियाँ तथा वस्तुयें एकत्रित कर ही लेती है। विचार ही कार्य रूप में परिणित होते हैं और उन कार्यों की साक्षी देने के लिए पदार्थ सामने आ खड़े होते हैं। परमात्मा की एक से बहुत होने की इच्छा ने ही अपना विस्तार किया तो यह सारी वसुधा बन कर तैयार हो गई।
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परमात्मा ने अपने आपको बखेरने का झंझट भरा कार्य इसलिए किया कि बिखरे हुए कणों को फिर एकत्रित होते समय असाधारण आनन्द प्राप्त होता रहे। बिछुड़ने में जो कष्ट है उसकी पूर्ति मिलन के आनन्द से हो जाती है। परमात्मा ने अपने टुकड़ों को - अंश, जीवों को बिखेरने का विछोह कार्य इसलिए किया कि वे जीव परस्पर एकता, प्रेम, सद्भाव, संगठन, सहयोग का जितना - जितना प्रयत्न करें उतने आनन्दमग्न होते रहें। प्रेम और आत्मीयता से बढ़कर उल्लास शक्ति का स्रोत और कहीं नहीं है। अनेक प्रकार के बल इस संसार में मौजूद हैं पर प्राणियों की एकता के द्वारा जो शक्ति उत्पन्न होती है उसकी तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती। पति-पत्नी, भाई - भाई, मित्र - मित्र, गुरु- शिष्य, आदि की आत्मीयता जब उच्च स्तर तक पहुंचती है तो उस मिलन का आनन्द और उत्साहवर्धक प्रतिफल इतना सुन्दर होता है कि प्राणी अपने को कृत्य - कृत्य मानता है।
कबीर का एक दोहा प्रसिद्ध है --
भक्त के वश में भगवान को बताया गया है। इन मान्यताओं का कारण एक ही है कि प्रेम की हिलोरें जिस अन्तरात्मा में उठ रही होंगी उसका स्तर साधारण न रहेगा। जिसमें दिव्य गुण, दिव्य स्वभाव का आविर्भाव होगा, वह दिव्य कर्म ही कर सकेगा। ऐसे ही व्यक्तियों को देवता कहकर पुकारा जाता है। जहाँ देवता रहेंगे वहाँ स्वर्ग तो अपने आप ही होगा।
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