25.6.21

खाती जाति का इतिहास:khati jati ka itihas





 चंद्रवंशी खाती समाज श्री पुत्र सहस्त्रबाहु के पुत्र है । समाज के इष्टदेव भगवान जगदीश है , कुलदेवी महागौरी अष्टमी है , कुलदेव भैरव देव और आराध्या देव भोले शंकर है । खाती समाज भगवान परशुराम जी के आशीर्वाद से उत्त्पन्न जाती है .।इस जाती के लोग सुन्दर और गोर वर्ण अर्थात ‘गोरे ’आते है । क्षत्रिय खाती समाज जम्मू कश्मीर के अभेपुर और नभेपुर के मूल निवासी है आज भी चंद्रवंशी लोग हिमालय क्षेत्र में केसर की खेती करते है । समाज के लिए दोहे प्रसिद्द है ”उत्तर देसी पटक मूलः ,नभर नाभयपुर रे ,चन्द्रवंश सेवा करी ,शंकर सदा सहाय” और ”चंद्रवंशम गोकुलनंदम जयति ”भगवान जगदीश के लिए ।
समाज १२०० वर्ष पहले से ही कश्मीर से पलायन करने लग गया था और भारत के अन्य राज्यों में बसने लग गया था । समकालीन राजा के आदेश से समाज को राज छोड़ना पड़ा था। खाती समाज के लोग बहुत ही धनि और संपन्न थे , उच्च शिक्षा को महत्व दिया जाता था ।
जम्मू कश्मीर के अलाउद्दीन ख़िलजी ने १३०५ में मालवा और मध्य भारत में विजय प्राप्त की |  चन्द्रवंशी खाती समाज के सैनिक भी सैना का संचालन करते थे विजय से खुश होकर ख़िलजी ने समाज को मालवा पर राज करने को कहा परन्तु समाज के वरिष्ठ लोगो ने सोच विचार कर जमींदारी और खेती करने का निश्चय किया. इस तरह कश्मीर से आने के बाद ३५ वर्ष तक समाज मांडवगढ़ में रहा इसके बाद आगे बढ़कर महेश्वर जिसे महिष्मति पूरी कहते थे वहां आकर रहने लगे महेश्वर चंद्रवंशी खाती समाज के पूर्वज सहस्त्रार्जुन की राजधानी था आज भी महेश्वर में सहस्त्रबाहु का विशाल मंदिर बना है जिसका सञ्चालन कलचुरि समाज करता है।
४५ वर्षो तक रहने के बाद वहाँ से इंदौर, उज्जैन, देवास, धार, रतलाम, सीहोर, भोपाल , सांवेर आदि जिलो में बसते चले गए और खाती पटेल कहलाये । मालवा में खाती समाज के पूर्वजो ने ४४४ गाँव बसाये जिनकी पटेली की दसियाते भी उनके नाम रही।
खाती समाज का गौरव पूर्ण इतिहास रहा है । समाज के कुल १०५ गोत्र है जिसमे से ८४ गोत्र मध्यप्रदेश में है और मध्यप्रदेश के १६ जिलो में है और १२५० गाँवों में निवास करते है । मध्यप्रदेश की धार्मिक राजधानी उज्जैन में चंद्रवंशी खाती समाज के इष्ट देव जगदीश का भव्य प्राचीन मंदिर है जहा हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितिय को भगवान की रथयात्रा निकलती है समाज जन और भक्तजन अपने हाथो से रथ खींचकर भगवान को नगर भ्रमण करवाते है |
चन्द्रवंश या सोमवंश के राजा कीर्तिवीर्य बहुत ही धर्मात्मा हुआ करते थे । उनके पुत्र का नाम सहस्त्रबाहु या सहस्त्रार्जुन रखा गया, सोमवंश के वंशज थे इसलिए राजवंशी खत्री कहलाए ।सहस्त्रार्जुन ने नावों खंडो का राज्य पाने के लिए भगवान रूद्र दत्त का ताप किया और ५०० युगों तक तप किया इस से प्रभावित होकर भगवान शंकर ने उन्हें १ हज़ार भुजा और ५०० मस्तक दिए । उसके बाद उनका सहस्त्रबाहु अर्थात सौ भुजा वाला नाम पड़ा । महेश्वर समाज के पूर्वज सहस्त्रार्जुन की राजधानी रहा जहा ८५००० सालो तक राज्य किया । महेश्वर के निकट सहस्त्रार्जुन ने नर्मदा नदी को अपनी हज़ार भुजाओं के बल से रोकना चाहा परन्तु माँ नर्मदे उसकी हज़ार भुजाओं को चीरती हुई आगे निकल गई इसलिए उस स्थान को सहस्त्रधारा के नाम से जाना जाने लगा जहा आज भी १००० धाराएं अलग अलग दिखाई देती है ।
सहस्त्रार्जुन के लिए दोहा प्रसिद्द है
”नानूनम कीर्तिविरस्य गतिम् यास्यन्ति पार्थिवः ! यज्ञेर्दानैस्तपोभिर्वा प्रश्रयेण श्रुतेन च !
अर्थात सहस्त्रबाहु की बराबरी यज्ञ, दान, तप, विनय और विद्या में आज तक कोई राजा नहीं कर सका ।
एक दिन देवो पर विजय प्राप्त करने के बाद विश्व विजेता रावण ने अर्जुन पर आक्रमण कर दिया परन्तु सहस्त्रार्जुन ने रावण को बंधी बना लिया और रावण द्वारा क्षमा मांगने पर महीनो बाद छोड़ा फिर भगवान नारायण विष्णु के छटवे अंश ने परशुराम जी का अवतार धारण किया और सहस्त्रबाहु का घमंड चूर किया । इस युद्ध स्थल में १०५ पुत्रों को उनकी माता लेकर कुलगुरु की शरण में गई । राजा श्री जनक राय जी ने रक्षा का वचन दिया और १०५ भाइयों को क्षत्रिय से खत्री कहकर अपने पास रख लिया और ब्राह्मण वर्ण अपना कर सत्य सनातन धर्म पर चलने का वादा किया । १०५ भाइयों के नाम से उनका वंश चला और खाती समाज के १०५ गोत्र हुए | चन्द्रवंश की १०५ शाखाये पुरे भारत में राजवंशी खत्री भी कहलाते है । देश में समाज की जनसँख्या २ करोड़ से अधिक मप्र में जनसँख्या । ५० लाख भारत के राज्यों में ।
समाज दिल्ही, हरयाणा, पंजाब, जम्मू कश्मीर, राजस्थान,उत्तर प्रदेश,हिमाचल प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम आदि ….
विदेशो में समाज नेपाल, तजफिस्टन, चिली, अमेरिका, फ्रांस, कनाडा और थाईलैंड में है । चंद्रवंशी क्षत्रिय खाती समाज के इष्टदेव भगवान जगन्नाथ है।जो साधना के देदीप्यमान नक्षत्र है जिनका सत्संग और दर्शन तो दूर नाम मात्र से ही जीवन सफल हो जाता है।
हिन्दू धर्म के चारधाम में एक धाम जगन्नाथपुरी उड़ीसा में है और खाती समाज का भव्य पुरातन व बहुत ही सुन्दर मंदिर पतित पावनि माँ क्षिप्रा के तट पर है । भगवान महाकाल की नगरी अवंतिकापुरी उज्जैन देश की केवल एक मात्र नगरी है जहा संस्कार और संस्कृति का प्रवाह सालभर होता रहता है।यह पर डग डग पर धर्म और पग पग पर संस्कृति मौजूद है ।
खाती समाज का एक महापर्व भगवान जगदीश की रथयात्रा है इस अवसर पर समाज के इष्टदेव भगवान जगन्नाथ पालकी रथ पर विराजते है और नगर भ्रमण करते है ।हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल २ को निकलती है ।इस दिन उज्जैन जगन्नाथपुरी सा दिखाई पड़ता है । भगवान जगन्नाथ भाई बलभद्र , बहिन सुभद्रा की मूर्तियों का आकर्षक श्रृंगार किया जाता है और मंदिर की विद्युत सज्जा की जाती है ।
लाखो हज़ारो भक्तजन भगवान के रथ को खींचकर धन्य मानते है । इस पर्व को लेकर समाज में बहुत उत्साह रहता है भक्तो का सैलाब धार्मिक राजधानी की और बढ़ता है।
इस अवसर पर मंदिर में रातभर विभिन्न मंडलियों द्वारा भजन किये जाते है । रथ के साथ बैंडबाजे ऊंट, हाथी, घोड़े, ढोलक की ताल, अखाड़े,डीजे, झांकिया रथयात्रा की शोभा बढाती है और इस तरह भगवान की शाही यात्रा उज्जैन घूमकर पुनः मंदिर पहुचती है मंदिर में सामूहिक भोज भंडारा भी खाती समाज द्वारा किया जाता है जो भगवान का प्रसाद माना जाता है फिर महा आरती के साथ पुनः भगवान मंदिर में विराजते है कहते है इस दिन भगवान् अपनी प्रजा को देखने के लिए मंदिर से निकलते है जो भी भक्त भगवान् तक नहीं पहुंच सका भगवान खुद उसे दर्शन देने निकलते है ।
महाभारत का युद्ध के बाद भगवान कृष्ण अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ रथ में बैठकर द्वारिका पूरी जाते है और गोपिया उनके रथ को खींचती है ।
जगन्नाथ पूरी में भगवान के रथ को राजा सोने की झाड़ू से रथ को भखरते अर्थात सफाई करते थे उस समय केवल नेपाल के और पूरी के राजा जो की चंद्रवंशी थे वे ही केवल मंदिर की मूर्तियों को छू सकते थे क्योंकि वे चन्द्र कुल अर्थात चन्द्रवंश से थे ।
खाती समाज की कुलदेवी महागौरी है जो दुर्गाजी का आठवा रूप है ।इसे समाज की शक्ति उपासना का पर्व माना जाता है ।महिनो पहले से ही गौरी माँ की पूजन की तैयारिया शुरू हो जाती है । देश विदेश से लोग अष्टमी पूजन के लिए घर आ जाते है इस उत्सव को विशेष महत्व दिया जाता है भगवान वेदव्यास जी ने कहा है की ”है माता तू स्मरण मंत्र से ही भयो का विनाश कर देती है। ” माता महागौरी की पूजा गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेध से की जाती है ममता, समता और क्षमता की त्रिवेणी का नाम माँ है | पुत्र कुपुत्र हो सकता है माता कुमाता नहीं पूजा के अंत में क्षमा मांगी जाती है।
Disclaimer: इस  content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे.
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