सैनी जाति का इतिहास : सैनी जाति प्राचीन सनातनी जाती है , इस जाति में शूरवीर योद्धाओं ने जन्म लिया और इस जाति का संबंध भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण है
सैनी उत्तर भारत में पाई जाने वाली एक क्षत्रिय जाति है. सैनी जाति का इतिहास गौरवशाली, महान और प्राचीन है. स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता मिलने के बाद देश के निर्माण में सैनी समाज का योगदान सराहनीय रहा है. यह परंपरागत रूप से जमींदार और किसान थे. एक वैधानिक कृषि जनजाति और एक निर्दिष्ट मार्शल रेस के रूप में सैनी मुख्य रूप से कृषि और सैन्य सेवाओं में लगे हुए थे. आजादी के बाद उन्होंने विविध प्रकार के नौकरी, पेशा और रोजगार में शामिल होने लगे . अंग्रेजों ने विभिन्न जिलों में कुछ सैनी जमींदारों को जैलदार या राजस्व संग्राहक (Revenue Collector) के रूप में नियुक्त किया था. आइए जानते हैं सैनी जाति का इतिहास सैनी शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?
सैनी जाति:
कृषि, परंपरा व गौरवशाली इतिहास का अध्ययन हमें यह समझने में मदद करता है कि यह समुदाय केवल भूमि और कृषि से ही नहीं, बल्कि अपने गौरवशाली अतीत, सामाजिक संगठन और सांस्कृतिक विरासत से भी पहचाना जाता है। सैनी समुदाय का इतिहास भारतीय संस्कृति और सभ्यता के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। यह जाति पारंपरिक रूप से भूमि-स्वामी, कृषक और बागवानी में दक्ष रही है। इनकी जड़ें प्राचीन काल में यदुवंशी क्षत्रियों से जुड़ी मानी जाती हैं और समय के साथ इन्होंने समाज को कृषि, सेना, स्वतंत्रता आंदोलन और शिक्षा जैसे विभिन्न क्षेत्रों में योगदान देकर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई।
पौराणिक और ऐतिहासिक उत्पत्ति-
सैनी जाति की उत्पत्ति का संबंध प्राचीन यदुवंशी क्षत्रियों और महाराज शूरसेन से माना जाता है। सैनी समुदाय स्वयं को “शूरसैनी” वंश का उत्तराधिकारी मानता है। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार, ब्रिटिश शासनकाल में सैनी जाति को कृषक और मार्शल रेस की श्रेणी में मान्यता प्राप्त थी। ब्रिटिश भारत के Punjab District Gazetteers और Imperial Gazetteer of India में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि सैनी समुदाय पारंपरिक रूप से कृषि और बागवानी में दक्ष था और युद्ध क्षेत्र में भी सक्षम माना जाता था। इन दस्तावेज़ों में सैनी जाति को न केवल भूमि-स्वामी और कृषक के रूप में प्रमाणित किया गया है, बल्कि उनकी सामाजिक संरचना और सामुदायिक भूमिका को भी दर्ज किया गया है।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सैनी जाति का गौरवशाली इतिहास ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और सामुदायिक परंपराओं दोनों पर आधारित है। पौराणिक रूप से यदुवंशी और शूरसेन वंश से जुड़ा होना समुदाय की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है, जबकि ब्रिटिश और आधुनिक दस्तावेज़ इसकी ऐतिहासिक भूमिका और सामाजिक योगदान को प्रमाणित करते हैं।
कृषि और बागवानी परंपरा-
सैनी समुदाय की सबसे बड़ी पहचान उनकी कृषि और बागवानी में विशेषज्ञता रही है। उत्तर भारत की उपजाऊ भूमि पर इस जाति ने धान, गेहूं, मक्का, गन्ना, मूंगफली और सब्जियों जैसी अनेक फसलें उगाईं। इसके अलावा फलों की खेती, विशेषकर बागवानी में इनकी खासी दक्षता रही है। यही कारण है कि कई क्षेत्रों में सैनी बागवानी और फलोत्पादन के अग्रणी माने जाते हैं।
ग्रामीण भारत में जब हरित क्रांति का दौर आया, तब सैनी किसानों ने नई कृषि तकनीकों को अपनाकर उत्पादन में वृद्धि की। आधुनिक खेती, सिंचाई और उन्नत बीजों का प्रयोग करने में इस समाज ने हमेशा अग्रणी भूमिका निभाई। इस प्रकार, सैनी समुदाय ने न केवल अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
भौगोलिक वितरणआज सैनी जाति मुख्य रूप से उत्तर भारत के कई राज्यों में पाई जाती है। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली और राजस्थान में इनकी बड़ी आबादी है। पंजाब और हरियाणा में यह जाति विशेष रूप से किसानों और सैनिकों के रूप में प्रसिद्ध है, जबकि उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी यह समुदाय कृषि और राजनीति में सक्रिय योगदान दे रहा है।
समय के साथ यह समुदाय शहरी क्षेत्रों की ओर भी बढ़ा है। अब कई सैनी परिवार शिक्षा, व्यवसाय, उद्योग और प्रशासनिक सेवाओं में भी उल्लेखनीय स्थान बना चुके हैं।
सामाजिक और सांस्कृतिक योगदान-
सैनी जाति केवल कृषि तक सीमित नहीं रही, बल्कि समाज के निर्माण में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। गाँव स्तर पर पंचायत व्यवस्था, सामुदायिक मेलों और धार्मिक उत्सवों में इस समुदाय का संगठन हमेशा मजबूत रहा है।
सामाजिक योगदान के मुख्य बिंदु:गाँव और समाज में एकजुटता बनाए रखना
शिक्षा और सामाजिक सुधार आंदोलनों में भागीदारी
स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान
सेना और सुरक्षा बलों में सेवा
राजनीति और प्रशासन में सक्रिय उपस्थिति परंपराएँ और धार्मिक विश्वाससैनी जाति की परंपराएँ भारतीय संस्कृति की जड़ों से जुड़ी हुई हैं। यह समुदाय देवी-देवताओं की पूजा में गहरा विश्वास रखता है। नाग माता, शीतला माता, चामुंडा माता, जगदम्बा माता आदि की पूजा कई सैनी परिवारों में प्रचलित है।
गोत्र व्यवस्था भी सैनी समाज में महत्वपूर्ण है। विवाह और सामाजिक रिश्तों में गोत्र का विशेष महत्व होता है। इस परंपरा से न केवल सामाजिक अनुशासन बना रहता है बल्कि समुदाय की सांस्कृतिक एकता भी मजबूत होती है।
सैनी किस कैटेगरी में आते हैं?
सैनी जाति को पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, दिल्ली और उत्तर प्रदेश राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है. इन राज्यों में इन्हें ओबीसी कोटे के तहत सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ मिलता है.
पौराणिक और ऐतिहासिक उत्पत्ति-
सैनी जाति की उत्पत्ति का संबंध प्राचीन यदुवंशी क्षत्रियों और महाराज शूरसेन से माना जाता है। सैनी समुदाय स्वयं को “शूरसैनी” वंश का उत्तराधिकारी मानता है। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार, ब्रिटिश शासनकाल में सैनी जाति को कृषक और मार्शल रेस की श्रेणी में मान्यता प्राप्त थी। ब्रिटिश भारत के Punjab District Gazetteers और Imperial Gazetteer of India में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि सैनी समुदाय पारंपरिक रूप से कृषि और बागवानी में दक्ष था और युद्ध क्षेत्र में भी सक्षम माना जाता था। इन दस्तावेज़ों में सैनी जाति को न केवल भूमि-स्वामी और कृषक के रूप में प्रमाणित किया गया है, बल्कि उनकी सामाजिक संरचना और सामुदायिक भूमिका को भी दर्ज किया गया है।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सैनी जाति का गौरवशाली इतिहास ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और सामुदायिक परंपराओं दोनों पर आधारित है। पौराणिक रूप से यदुवंशी और शूरसेन वंश से जुड़ा होना समुदाय की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है, जबकि ब्रिटिश और आधुनिक दस्तावेज़ इसकी ऐतिहासिक भूमिका और सामाजिक योगदान को प्रमाणित करते हैं।
कृषि और बागवानी परंपरा-
सैनी समुदाय की सबसे बड़ी पहचान उनकी कृषि और बागवानी में विशेषज्ञता रही है। उत्तर भारत की उपजाऊ भूमि पर इस जाति ने धान, गेहूं, मक्का, गन्ना, मूंगफली और सब्जियों जैसी अनेक फसलें उगाईं। इसके अलावा फलों की खेती, विशेषकर बागवानी में इनकी खासी दक्षता रही है। यही कारण है कि कई क्षेत्रों में सैनी बागवानी और फलोत्पादन के अग्रणी माने जाते हैं।
ग्रामीण भारत में जब हरित क्रांति का दौर आया, तब सैनी किसानों ने नई कृषि तकनीकों को अपनाकर उत्पादन में वृद्धि की। आधुनिक खेती, सिंचाई और उन्नत बीजों का प्रयोग करने में इस समाज ने हमेशा अग्रणी भूमिका निभाई। इस प्रकार, सैनी समुदाय ने न केवल अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
भौगोलिक वितरणआज सैनी जाति मुख्य रूप से उत्तर भारत के कई राज्यों में पाई जाती है। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली और राजस्थान में इनकी बड़ी आबादी है। पंजाब और हरियाणा में यह जाति विशेष रूप से किसानों और सैनिकों के रूप में प्रसिद्ध है, जबकि उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी यह समुदाय कृषि और राजनीति में सक्रिय योगदान दे रहा है।
समय के साथ यह समुदाय शहरी क्षेत्रों की ओर भी बढ़ा है। अब कई सैनी परिवार शिक्षा, व्यवसाय, उद्योग और प्रशासनिक सेवाओं में भी उल्लेखनीय स्थान बना चुके हैं।
सामाजिक और सांस्कृतिक योगदान-
सैनी जाति केवल कृषि तक सीमित नहीं रही, बल्कि समाज के निर्माण में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। गाँव स्तर पर पंचायत व्यवस्था, सामुदायिक मेलों और धार्मिक उत्सवों में इस समुदाय का संगठन हमेशा मजबूत रहा है।
सामाजिक योगदान के मुख्य बिंदु:गाँव और समाज में एकजुटता बनाए रखना
शिक्षा और सामाजिक सुधार आंदोलनों में भागीदारी
स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान
सेना और सुरक्षा बलों में सेवा
राजनीति और प्रशासन में सक्रिय उपस्थिति परंपराएँ और धार्मिक विश्वाससैनी जाति की परंपराएँ भारतीय संस्कृति की जड़ों से जुड़ी हुई हैं। यह समुदाय देवी-देवताओं की पूजा में गहरा विश्वास रखता है। नाग माता, शीतला माता, चामुंडा माता, जगदम्बा माता आदि की पूजा कई सैनी परिवारों में प्रचलित है।
गोत्र व्यवस्था भी सैनी समाज में महत्वपूर्ण है। विवाह और सामाजिक रिश्तों में गोत्र का विशेष महत्व होता है। इस परंपरा से न केवल सामाजिक अनुशासन बना रहता है बल्कि समुदाय की सांस्कृतिक एकता भी मजबूत होती है।
सैनी किस कैटेगरी में आते हैं?
सैनी जाति को पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, दिल्ली और उत्तर प्रदेश राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है. इन राज्यों में इन्हें ओबीसी कोटे के तहत सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ मिलता है.
आधुनिक पहचान और शिक्षा-
आज के दौर में सैनी समुदाय कृषि के साथ-साथ शिक्षा और व्यवसाय में भी आगे बढ़ रहा है। स्वतंत्र भारत में इस जाति को कई राज्यों में “अन्य पिछड़ा वर्ग” (OBC) की श्रेणी में शामिल किया गया, जिससे इन्हें शिक्षा और रोजगार में आरक्षण का लाभ मिला। इसका परिणाम यह हुआ कि सैनी समाज के कई युवा उच्च शिक्षा प्राप्त कर प्रशासनिक सेवाओं, राजनीति, सेना, पुलिस, शिक्षा, व्यापार और आईटी जैसे क्षेत्रों में आगे बढ़े।
सैनी जाति और राजनीति
कई दशकों में सैनी समाज ने राजनीति में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। पंचायत स्तर से लेकर राज्य और केंद्र स्तर तक इस जाति के लोग सक्रिय रहे हैं। उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में कई सैनी नेता राजनीति में मजबूत भूमिका निभा चुके हैं। इससे न केवल इस समाज की सामाजिक पहचान मजबूत हुई, बल्कि इनके मुद्दों को सरकार तक पहुँचाने का रास्ता भी खुला।
सैनी किस धर्म को मानते हैं?-आज के दौर में सैनी समुदाय कृषि के साथ-साथ शिक्षा और व्यवसाय में भी आगे बढ़ रहा है। स्वतंत्र भारत में इस जाति को कई राज्यों में “अन्य पिछड़ा वर्ग” (OBC) की श्रेणी में शामिल किया गया, जिससे इन्हें शिक्षा और रोजगार में आरक्षण का लाभ मिला। इसका परिणाम यह हुआ कि सैनी समाज के कई युवा उच्च शिक्षा प्राप्त कर प्रशासनिक सेवाओं, राजनीति, सेना, पुलिस, शिक्षा, व्यापार और आईटी जैसे क्षेत्रों में आगे बढ़े।
सैनी जाति और राजनीति
कई दशकों में सैनी समाज ने राजनीति में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। पंचायत स्तर से लेकर राज्य और केंद्र स्तर तक इस जाति के लोग सक्रिय रहे हैं। उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में कई सैनी नेता राजनीति में मजबूत भूमिका निभा चुके हैं। इससे न केवल इस समाज की सामाजिक पहचान मजबूत हुई, बल्कि इनके मुद्दों को सरकार तक पहुँचाने का रास्ता भी खुला।
सैनी हिंदू और सिख दोनों धर्मों को मानते हैं, लेकिन दोनों एक दूसरे की धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं का सम्मान करते हैं. यहां यह बता देना जरूरी है कि अधिकांश सैनी हिंदू हैं जिन्हें अपने वैदिक सनातनी अतीत और परंपराओं पर गर्व है.
15वीं सदी में सिख धर्म के उद्भव के साथ कई सैनियों ने सिख धर्म अपना लिया. आज पंजाब में सिख सैनियों की बड़ी आबादी है. हिंदू और सिख सैनियों में सीमांकन की रेखा बहुत धुंधली है. यह आपस में सहजता से अंतर विवाह करते हैं.
सैनी के उप कुल-
सैनी समुदाय में कई उप कुल हैं। आम तौर पर सबसे आम हैं: हल्दोनिया(भागीरथी), कारोड़िया, सिंगोदिया, अन्हेआर्यन, कोड़ेवाल, कछवाहा,बिम्ब (बिम्भ), घाटावाल, रोष, बदवाल,बलोरिया, बंवैत (बनैत), बागड़ी, बंगा, बसुता (बसोत्रा), बाउंसर, बाण्डे,भेला, बोला, भोंडी (बोंडी), मुंध.चेर,चेपरू(चौपर), चंदेल, चिलना, दौले (दोल्ल), दौरका, धक, धम्रैत, धनोटा (धनोत्रा), धौल, धेरी, धूरे, दुल्कू, दोकल, फराड, महेरू, मुंढ (मूंदड़ा) मंगर, मंगोल ,मांगियान ,मसुटा (मसोत्रा), मेहिंद्वान, गेहलेन (गहलोत/गिल), गहिर (गिहिर), गहुनिया (गहून/गहन), गिर्ण, गिद्दा, जदोरे, जादम, जप्रा, जगैत (जग्गी), जंगलिया, कल्याणी, कालियान,कलोती (कलोतिया), कबेरवल (कबाड़वाल), खर्गल, खेरू, खुठे, कुहडा (कुहर), लोंगिया (लोंगिये), सतरावला,सागर, सहनान (शनन), सलारिया (सलेहरी), सूजी, ननुआ (ननुअन), नरु, पाबला, पवन, पीपल, पम्मा (पम्मा/पामा), पंग्लिया, पंतालिया, पर्तोला, तम्बर (तुम्बर/तंवर/तोमर), गागिंया,थिंड, टौंक (टोंक/टांक/टौंक/टक), तोगर ,(तोगड़/टग्गर), उग्रे,अम्बवाल(अम्बियांन), वैद, तुसड़िये, तोंदवाल, टोंडमनिहारिये, रोहलियान, गदरियांन, भोजियान विरखेडिया, भगीरथ ,राज़ोरिया ,अनिजरिया ,खेड़ीवाल बबेरवाल हल्दोनिया आदि.।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें