खत्री जाति व्यापारी समुदाय है | 1947 मे भारत -पाकितान बटवारे के फलस्वरूप इस समुदाय के लोग भारत मे विभिन्न राज्यों आकर बस गए। इस
जाति के लोगों के गोत्र यहाँ दिए जा रहे है
मलहोत्रा, महरोत्रा, कपूर, खन्ना, खुराना, पुरी, सूद, सूरी, मेहता
सेठ, सेठी, चावला, गुलाटी, चढ्ढा, चट्टा, बिन्द्रा, मुख्खी,
सिक्का, मुन्जाल, मुद्गिल, नागपाल, सरधाना, जावा, बहल,
साहनी, वैद, आनन्द, मोहन, कोहली, कात्याल, मलिक, हाण्डा,
होरा, ढाण्डा, दूवा, सचदेवा, टंडन, नन्दा, धूपिया, चोपड़ा, धोपड़ा,
घई, सिब्बल, दत्त या दत्ता, रेखी, लेखी, जेटली, सरीन, पाहवा,
बजाज, कथूरिया, खजूरिया, छाबड़ा, जौहर, जौहल, सोढी, ग्रोवर,
भाटिया, भट्टल, बक्सी, सहगल, दुग्गल, मनोचा, मनचंदा, चंदोक,
मधोक, बत्रा, खेड़ा, ओबराय, स्वराज, सबरवाल, कक्कड़,
मक्कड़, धींगड़ा, वाधवा, बढेरा, महता, विज, शोहरी, मुन्द्रा,
कुन्द्रा, मदान, खट्टर, वोहरा, खुल्लर, छिब्बर, चुग, उप्पल,
तिरखा, तलवार, भल्ला, ढल्ला, धीर, वासन, भसीन, बाली, डांग,
चंदा, चानना, खेमका, खासा, पसरीजा, वाही, राही, शाही, नरूला,
बावा, वालिया, नय्यर, कौशल, कोचर, सच्चर, कालरा, भान,
भतग, जगत, बेदी, थापर, गुजराल, गुलजार, अधलखा, नारंग,
धवन, तुली, लूथरा, मेहरा, बेदी, दीवान, सेतिया, मिड्ढा, मरवाह,
खोसला, मैनी, घेरा, हाड़ा, कपिला, जग्गा, लाल, रूंगटा, टमटा, बेरी,
पोपली, रतड़ा, खासा व सारदा आदि-आदि।
अपवाद के तौर पर कुछ गोत्र जाट और दूसरी जातियों में भी है
जैसे कि मलिक, ढांडा, मेहरा, गुजराल व उप्पल आदि |
खत्री जाति एक प्राचीन और विशिष्ट जाति है। म्रिश्र के लगभग दो हजार वर्ष पूर्व हुए भूगोल वेत्ता टालमी ने भी ईसा की दूसरी शताब्दी में 'खत्रियाओं' राज्य होने का उल्लेख किया है। खत्रियों का मूल स्थान सारस्वत प्रदेश है और आजतक इस प्रदेश के सारस्वत ब्राह्मणों तथा खत्रियों में खान पान का जो पारस्परिक संबंध है , वैसा भारत के किसी प्रदेश के ब्राह्मण का किसी दूसरी जाति के साथ नहीं है .
खत्री धर्म और संसकृति के आधार पर वेदों को मानने वाली धर्म निष्ठ जाति है। खत्री मुख्य रूप से शक्ति के उपासक हैं। सभी खत्री किसी न किसी नाम से शक्ति की पूजा करते हैं , शक्ति की पूजा करते हैं , शक्ति ही उनकी कुल देवी है। वैसे ये गणपति , शिव , सूर्य , शक्ति और विष्णु सभी को मानते और उपासना करते हैं। खत्री धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से परंपरावादी है। वे शास्त्रो में वर्णित नैमित्तिक कर्मों संस्कार आदि का पूर्ण पालन करते हैं। भाषा और बोली में अंतर होने के कारण संस्कारों के नाम बदल दिए गए हैं। परंतु हर जगह सभी संस्कार अरोये , भोडे , देवकाज और मुंछन , यज्ञोपवीत तथा विवाह आदि किए जाते हैं। खत्रियों में विवाह के संबंध में कोई करार या लेन देन की बातें तय नहीं होती। विवाह सादगी से होता है और विवाह के समय दोनो ही पक्ष अपनी सामर्थ्य के अनुसार खर्च करते हैं।
विवाह के अवसर पर कन्या मामा के द्वारा मंसा गया सौभाग्य का प्रतीक हाथी दांत का लाल रंग का चूडा और सालू की ओढनी विशेष तौर पर पहनती है। वर जामा पहनकर हाथ में तलवार लेकर , मस्तक पर पंचदेव से सुशोभित मुकुट और फूलों का सेहरा बांधकर घोडी पर चढकर वीर भेष में विवाह हेतु आता है। विवाह कार्य केले के चार खम्बों और फूलों , खिलौनो आदि से सजी वेदी , जिसके ऊपर सालू और फूलों का चंदोवा टंगा रहता है , में ब्राह्म विधि से किया जाता है। विवाह के पहले कन्या द्वारा वर के गले में जयमाल डालने की परंपरा भी बहुत पुरानी है। खत्रियों में प्रथम संतान के मुंडन के पूर्व देवकाज का विशेष महत्व है , इस अवसर पर ही प्रथमाचार कुलदेवी का दर्शन किया जाता है।