संत नामदेव की जाति-
संत शिरोमणि श्री नामदेवजी का जन्म महाराष्ट्र में "26 अक्टूबर, 1270, कार्तिक शुक्ल एकादशी संवत् 1327, रविवार" को हुआ था तथा 3 जुलाई सन 1350 शनिवार आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी विक्रम संवत 1407 को सपरिवार संजीवन समाधि लेकर मोक्ष प्राप्त किया । | नामदेवजी के जीवन काल में गुलाम वंश (1206-1290), खिलजी वंश (1290 to 1320) एवं तुग़लक़ वंश (1321-1414 ) का शासन रहा | फिरोज़ शाह तुग़लक़ (1351 से 1388 ) ने अपनी हुकूमत के दौरान कई हिंदुओं को मुस्लिम धर्म अपनाने पर मजबूर किया। फिरोज़ शाहतुग़लक़ को कुछ इतिहासकार धर्मांध एवं असहिष्णु शासक मानते हैं | उसने हिन्दू जनता को जिम्मी(इस्लाम धर्म स्वीकार न करने वाले) कहा और हिन्दू ब्राह्मणों पर जजिया कर लगाया। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने कहा है कि, "फिरोज़ शाह इस युग का सबसे धर्मान्ध एवं इस क्षेत्र में सिकंदर लोदी एवं औरंगज़ेब का अप्रगामी था।' इसी काल में भारत में भक्ति आंदोलन (800-1700) भी चला संत नामदेव ने अपने भक्ति आंदोलन की सहायता से हिंदुओं को नैतिक समर्थन प्रदान किया तथा अपने चमत्कारों से मुस्लिम शासकों को हिंदुओं पर किए जा रहे अत्याचारों पर रोक लगाने काप्रयत्न किया |नामदेव जी का जन्म जिस घर में हुआ था वहां छपाई व सिलाई दोनों कार्य होते थे, निश्चित रूप इस कार्य को करने वाले को हीनता की दृष्टि देखते होंगे इसीलिए उन्होंने अपनी रचना में लिखा है-"हसत खेलत तेरे देहुरे आया |
भक्ति करत नामा पकरि उठाया
हीनडी जाति मेरी आदम राइया,
छीपे के जन्म काहे कउ आइया" |नामदेवजी ने अपने जातीय व्यवसाय के बारे में लिखा है-" मन मेरा सुई, तन मेरा डोरा,खेचर जी के चरण पर नाम सीपी लागा "इससे सिद्ध होता है कि नामदेवजी छीपा - दजी समाज के ही हैं | उनके जन्म के बाद समाज ने |750 वर्ष की विकास यात्रा तय कर ली | इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि अब अधिकांश स्व-जाति समूह अपने आप को संत नामदेव से जोडने लग गए |समाज के अन्य घटक / खांपे : उपर्युक्त पांचों खांपो के अलावा भारत में संत नामदेव की भक्ति धर्म परिवर्तन व अन्य कारणों से छीपा व दर्जी समाज के साथ निम्न समूह जुड़ गए |1. सिख छीपा ( छिम्बा):
सिखों के धार्मिक ग्रंथ "गुरु ग्रंथ साहिब" में संत शिरोमणि नामदेव जी महाराज द्वारा रचित 61 अभंग (पद) उपलब्ध हैं | नामदेवजी का पंजाब में भी कार्य क्षेत्र रहा है, उनसे प्रभावित होकर कई सिख बंधु नामदेवजी के भक्त हो गए | पंजाब में वे अपने आप को छिम्बा लिखते हैं तथा रंगाई छपाई के कार्य से जुड़े रहे |2. मेरु / दर्जी / छिपोलू (meru or darjii or chippollu):तेलंगाना प्रांत में सिलाई / छपाई कार्य करने वालों को मेरु/दर्जी / छिपोलू कहा जाता है |हैदराबाद समाज की कल्याणकारी गतिविधियां मेरु कला समकक्षमा संगम द्वारा संचालित है | ये शैव भक्त हैं, नामदेवजी को नहीं मानते |3. शिंपी:-
महाराष्ट्र में छीपा समाज " शिंपी "नाम से जाना जाता है जिसका कपड़े, सिलाई, रंगाई, फैशन डिजाइनिंग व्यवसाय से संबंध है। शिंपी को महाराष्ट्र में अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। शिंपी की भी महाराष्ट्र में कई श्रेणिया हैं जैसे – मराठा शिम्पी, नामदेव शिम्पी, सैतवाल शिम्पी, रंगारी शिम्पी, मेरु क्षत्रिय शिम्पी, क्षत्रिय अहिर शिम्पी, वैष्णव शिम्पी, भावसार शिम्पी।
वे पूरे भारत में भी मौजूद हैं और उत्तर भारत, कर्नाटक में खत्री और दक्षिण भारत में मेरु / छिप्पोलु, गुजरात और राजस्थान में भावसार, छीपा, टाक छीपा जैसे विभिन्न नामों से जाने जाते हैं।
4. कोकुत्स्थ:-
काकुत्स्थ क्षत्रिय समाज अपने आप को अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश से जोड़ते हैं एवं महाराज पुरंजय के वंशज मानते हैं। वे अपने आप को सूचीकार ( दर्जी) कहते हैं | इस समाज का वर्ण परिवर्तन के पीछे पौराणिक आख्यान लगभग छीपा समाज जैसा ही है। यह समाज भी संत नामदेव को अपने समाज का मानते हैं। काकुत्स्थ क्षत्रिय समाज की सामाजिक गतिविधियों का संचालन 1895 में बनी काकुतस्थ क्षत्रिय महासभा करती है।
छीपा /छीपी जाति की तरह काकुत्स्थ जाति भी उत्तर प्रदेश में ओबीसी श्रेणी में आती है|
5. रोहिला टांक क्षत्रिय :-
“रोहिला-टांक क्षत्रियों के क्रमबद्ध इतिहास" का गहन अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि रोहिला - टांक क्षत्रिय समाज स्वयं अपने आप से आज तक अनभिज्ञ रहा है । समाज का आम व्यक्ति आज तक यही जानता रहा है कि रोहिला केवल मुसलमान पठान ही थे और उन्हीं के द्वारा कठेहर प्रदेश का नाम रुहेल खंड के नाम से विख्यात हुआ है । कालांतर में सभी क्षत्रिय वंशों में रोहिला शाखा सम्मिलित रही है और उसका अलग अस्तित्व रहा है । जैसे कि पृथ्वी राज रासौ में 36कुलों की गणना और 36शाही खानदानों तथा वर्तमान के आधार पर 36 राजवंश से यह प्रमाणित हो जाता है कि रोहिला शाखा भी राजवंशों में सम्मिलित रही है ।
पृथ्वीराज चौहान के परममित्र और कवि चन्द्रबरदाई ने अन्य वर्गों के राजपूतों के साथ-साथ रोहिला क्षत्रियों का वर्णन किया है जो पृथ्वीराज के दरबार के प्रमुख सौ वीरों में स्थान प्राप्त थे जिसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है :
वज्जिथ जयचन्द चलऊ दिल्ली सुर पेषण,
चन्द वर दिया साधि बहुत सामन्त सूर धन,
चहूं प्रान राठवर जाति पुंडेर गुहिला,
बड़ गूजर पामार कुरभ जांगरा रोहिला ।
इत्ते सवहित भूपति चलऊ उड़ी रेन किन्नऊ नभऊं
एकु-एकु लष्य लष्य बह चले साथ राजपूत सऊ ।।
प्राचीन काल में रोहिला क्षत्रियों का स्थान बहुत ऊंचा था जिसका विस्तृत वृतांत आइने-ए-अकबरी में किया गया है ।
कालांतर में राजा सहारन द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बाद टांकों में हीनता प्रविष्ट हो गई और आत्मग्लानि के कारण टांक लिखना बंद कर दिया । टांकों ने अपमानमय समझते हुए संपन्नता को त्याग कर गरीबी को अधिक महत्व दिया । इसके पश्चात टांक क्षत्रियों का नाम शाही राजपूत परिवारों से हटा दिया गया । अतः जिन टांक बंधुओं ने अपने मूल धर्म और संस्कृति की रक्षार्थ संपूर्ण सांसारिक सुखों को तिलांजलि दे दी । उस टांक क्षत्रिय जाति के वे वीर धन्य हैं ।
इस प्रकार रोहिला और टांक क्षत्रियों के प्राचीन व्यवहार को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने अपने आप को खान-पान, विवाह संबंध, कर्मकांड आदि के मामले में अन्य किसी के साथ नहीं जोड़ा, उन्होंने ये कार्य केवल धर्मांतरण से बचे अपने समुदाय दर्जी, छींपी समाज के मनुष्यों में ही किया । अतः दूसरी जाति के रक्त से मिलकर अपने रुधिर में कोई विकार उत्पन्न नहीं होने दिया । इस पवित्रता की दशा में इनका क्षत्रियपन ज्यों का त्यों चला आ रहा है।
आधुनिक काल अर्थात वर्तमान समय
कालांतर में मुसलमानों के आक्रमण और उनके द्वारा किए गए अत्याचार के कारण बहुत सारे हिन्दू रोहिला टांक क्षत्रिय बचकर कही छिप गए और उन्होंने अपने भरण- पोषण तथा अस्मिता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए छोटे-छोटे कुटीर उद्योग, समाज के हितार्थ छोटे कार्य अपना लिए जिसके चलते शेष हिन्दू - रोहिला टांक क्षत्रिय ने दर्जी, कपड़ों की छपाई - रंगाई इत्यादि कारोबार को अपना लिया । इसके साथ छोटे-छोटे गांवों, कस्बों, शहरों में इस व्यवसाय- कारोबार के नाम पर ही जांत-पांत स्थापित होती चली गई और वे अब पूरी तरह से प्रचलन में है । उसी जाति के अनुसार हिन्दू समाज के लोगों की एक बड़ी पहचान बन चुकी है जिसको कोई भी नहीं नकार सकता है और न ही कोई अपने आपको छिपा सकता है।
इसी कड़ी में दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में से रोहिला-टांक समाज के मूल निवासियों को अपने पूर्वजों से जो संस्कारवश पहचान मिली है उसे वे बिल्कुल भी छोड़ने के लिए तैयार नहीं है ।
रोहिले -
राजपूत प्राचीन काल से ही सीमा- प्रांत, मध्य देश (गंगा यमुना का दोआब ), पंजाब, काश्मीर, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश में शासन करते रहे हैं । जबकि मुस्लिम-रोहिला साम्राज्य अठारहवी शताब्दी में इस्लामिक दबाव के पश्चात् स्थापित हुआ. मुसलमानों ने इसे उर्दू में “रूहेलखण्ड” कहा ।
1702 से 1720 ई तक रोहिलखण्ड में रोहिले राजपूतो का शासन था. जिसकी राजधानी बरेली थी।
रोहिल्ला उपाधि –
शूरवीर, अदम्य साहसी विशेष युद्ध कला में प्रवीण, उच्च कुलीन सेनानायको, और सामन्तों को उनके गुणों के अनुरूप क्षत्रिय वीरों को तदर्थ उपाधि से विभूषित किया जाता था – जैसे – रावत महारावत, राणा, महाराणा, ठाकुर, नेगी, रावल,रहकवाल, रोहिल्ला, समरलछन्द, लखमीर, ( एक लाख का नायक) आदि।
चहूँप्रान, राठवर, जाति पुण्डीर गुहिल्ला । बडगूजर पामार, कुरभ, जागरा, रोहिल्ला
“पृथ्वीराज रासो” की इस कविता से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में रोहिला - क्षत्रियों का स्थान बहुत ऊँचा था। रोहिला रोहिल्ल आदि शब्द राजपुत्रों अथवा क्षत्रियों के ही ध्योतक थे । इस कविता की प्रमाणिकता “आइने अकबरी', 'सुरजन चरित' भी सिद्ध करते हैं । युद्ध में कमानी की तरह (रोह चढ़ाई करके) शत्रु सेना को छिन्न-भिन्न करने वाले को रहकवाल, रावल, रोहिल्ला, महाभट्ट कहा गया है।
महाराज पृथ्वीराज चौहान की सेना में पांच गोत्रों के रावल थे-
रावल – रोहिला
रावल – सिन्धु
रावल - घिलौत (गहलौत )
रावल काशव या कश्यप
रावल - बलदया बल्द
मुग़ल बादशाह अकबर ने भी बहादुरी की रोहिला उपाधि को यथावत बनाए रखा | जब अकबर की सेना दूसरे राज्यों को जीत कर आती थी तो अकबर अपनी सेना के सरदारों को एवं बहादुर जवानों को बहादुरी के पदक (ख़िताब, उपाधि) देता था। एक बार जब महाराणा मानसिंह काबुल जीतकर वापिस आए तो अकबर ने उसके बाइस राजपूत सरदारों को यह ख़िताब दिया | सौजन्य से “अखिल विश्व नामदेव क्षत्रिय महासभा "
6. पीपा क्षत्रिय दर्जी-
पीपा क्षत्रिय दर्जी मूलतः राजस्थान तथा भारत के अन्य राज्यों जैसे गुजरात और मध्य प्रदेश इत्यादि के निवासी हैं। पीपा क्षत्रिय हिन्दू धर्म के क्षत्रिय वर्ण की शाखा हैं। पीपा के प्रमुख चार वंश : सूर्यवंश, चन्द्रवंश, अग्निवंश एवं ऋषिवंश हैं, जो विभिन्न उपखण्डों : पंवार, सोलंकी, परमार, दहिया, चौहान, गोयल, राकेचा, परिहार और टाक इत्यादि में विभाजित हैं। इनकी मातृभाषा से क्षेत्रानुसार : मारवाड़ी, मेवाड़ी, वागड़ी और गुजराती हैं। हिन्दी भाषा सभी को जोड़ती है। वे मुख्य रूप से शाकाहारी जीवन यापन करते हैं, परन्तु कुछ क्षेत्रों में गैर- शाकाहारी भी। जीवन निर्वहन हेतु इनका पारिवारिक व्यवसाय सिलाई है जो कि एक अहिंसक कार्य है लेकिन इन दिनों सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में जैसे कि चिकित्सा, अभियान्त्रिकी एवं प्रबंधन में भी कार्यरत हैं।
राजा राव प्रताप सिंह खींची चौहान को जगतगुरु रामानंद जी ने अपना शिष्य बनाया था तब रामानंद जी ने एक श्लोक दिया उसके अनुसार उनका नाम संत पीपा हो गया। यह नाम उनके अनुयायियों द्वारा कहा गया हैं संत पीपा राजपाट त्याग करके धर्म की रक्षा के लिए संत बन गए थे और पीपाजी के अनुयाई राजपूत राजाओं ने पीपाजी महाराज को अपना गुरु माना वही से ये समुदाय आज विख्यात है |
पीपा क्षत्रिय के नाम से यह समुदाय राजपूतो का अहिंसक समुदाय है। धर्म की रक्षा के लिए राजाओं ने राजपाट को त्याग कर अहिंसक जीवन यापन करने का मार्ग चुना और आज भी यह समुदाय किसी भी प्रकार की हिंसा का कार्य नहीं करता है। इस समुदाय का अहिसंक राजपूत समुदाय, शुद्ध रूप से राजपूत समाज कहा जाता है एवं यह समाज शुद्ध रूप क्षत्रिय है।
दर्जी समुदाय के लोग संत पीपा जी को अपना आराध्य देव मानते हैं
समदड़ी कस्बे में संत पीपा का एक विशाल मंदिर बना हुआ है, जहाँ हर वर्ष विशाल मेला लगता है। इसके अतिरिक्त गागरोन (झालावाड़) एवं मसुरिया (जोधपुर) में भी इनकी स्मृति में मेलों का आयोजन होता है। संत पीपा मध्यकालीन राजस्थान में भक्ति आन्दोलन के प्रमुख संतों में से एक थे। वे देवी दुर्गा के भक्त बन गए थे। बाद के समय में उन्होंने रामानंद जी को अपना गुरु मान लिया। फिर वे अपनी पत्नी सीता के साथ राजस्थान के टोडानगर में एक मंदिर में रहने लगे थे।
संत पीपा जी का जन्म 1426 ईसवी में राजस्थान में कोटा से 45 मील पूर्व दिशा में गाग्रौनगढ़ रियासत में हुआ था।
पीपाजी ने रामानंद से दीक्षा लेकर राजस्थान में निर्गुण भक्ति परम्परा का सूत्रपात किया था। संत पीपाजी ने "चिंतावानी जोग" नामक गुटका की रचना की थी, जिसका लिपि काल संवत 1868 दिया गया है।
पीपा जी ने अपना अंतिम समय टोंक के टोडा गाँव में बिताया था और वहीं पर चैत्र माह की कृष्ण पक्ष नवमी को इनका निधन हुआ, जो आज भी पीपाजी की गुफ़ा' के नाम से प्रसिद्ध है। गुरु नानक देव ने इनकी रचना इनके पोते अनंतदास के पास से टोडा नगर में ही प्राप्त की थी। इस बात का प्रमाण अनंतदास द्वारा लिखित 'परचई' के पच्चीसवें प्रसंग से भी मिलता है। इस रचना को बाद में गुरु अर्जुन देव ने 'गुरु ग्रंथ साहिब' में जगह दी थी।
7. मुस्लिम छीपा / दर्जी -
भारत भूमि पर आक्रमण करने वाला प्रथम मुस्लिम आक्रांता मुहम्मद बिन कासिम था । वह अरब के खलीफा का नुमाइंदा था। वह 712 ईस्वी में भारत आया था। कासिम ने सिंध और पंजाब को जितने के बाद यहाँ भारी लूटपाट की और निर्दोष हिन्दू लोगों का नरसंहार किया व धर्मांतरण किया । मुहम्मद बिन कासिम के सिंध के राजा दाहिर को पराजित करने के बाद 9वी 10वी शताब्दी में मुस्लिम समुदाय के संपर्क में आने तथा सूफी संतो से प्रभावित होकर इस्लाम स्वीकार किया। मोतीलाल बड़वा ( भाट ) के अनुसार 16 अप्रैल 1353 को दिल्ली सुल्तान फिरोज शाह तुगलक के समक्ष नागौर (राजस्थान )में 14 छीपा समाज के गोत्र वाले समाज बंधुओं (टांक, मोलानी, देवड़ा, चौहान भाटी आदि ) ने सर्व प्रथम हिन्दू धर्म परिवर्तन कर इस्लाम धर्म स्वीकार किया तब से वे 16 अप्रैल को छीपा दिवस के रूप में मनाते हैं | राजस्थान में मुस्लिम छीपा महासभा नाम की संस्था कार्यरत है | अन्य प्रांतो में भी इनके संगठन हैं |
रंगरेज / नीलगर / लीलगर-
धर्म परिवर्तन के कारण समाज के रंगारा छीपा रंगरेज / नीलगर / लीलगर बन गए |
भारत प्राचीन काल से ही कृषि प्रधान देश है | हमारे देश में नील की खेती होती थी । नील को ही अंग्रेजी में इंडिगो कहा जाता है। रंगारा छीपा समाज द्वारा नील के पौधों को काट कर पानी की बडी होद में गलाया जाता था। पौधों के गल सड जाने के बाद होद में उतर कर हाथों से मथा जाता था, कचरा निकाल कर होद का पानी क्रमश: दूसरी तीसरी....होद में छोडकर पानी में घुली नील को नीचे बैठने / नितरने पर पानी को अगली होद में छोड़ा जाता था। नीचे नील के पौधों का सत मिलता उसे बट्टियों के रूप में सुखाकर नील तैयार की जाती थी,जो भारतीयो के कपडों की ही चमक नही पूरी दुनिया में भारत का नाम रोशन करने के साथ भारतीय जनता के खजाने में भी सोने की चमक बढाने का काम करती थी। चूंकि नील को अंग्रेजी में इंडिगो कहा जाता है। नील का व्यापार यूरोप के देशों से हमारे द्वारा किया जाता था। ।छीपा समाज तथा विशेष रूप से रंगारा छीपा समाज द्वारा जंगल से फूल और कुछ जडी बुटियो से अन्य रंग (वानस्पतिक रंग ) बनाया जाता था | मुगलकाल में बलात धर्म परिवर्तन के कारण रंगारा छीपा रंगरेज बन गए | रंगरेज शब्द फारसी भाषा का है| हमारा नील और रंगों का व्यापार पूरी दुनिया में हुआ करता था । इरान, इराकऔर मिश्र में भी हमारा व्यापार होता था। वहां के लोगों के द्वारा ही रंगारा छीपा समाज को रंगरेज कहा जाता था जिसका अर्थ कपडे रंगने वाले से होता है। धर्म परिवर्तन के बाद उन्हे
सब्बाग (नील की खेती करने वाले) भी कहा जाता है।
रंगारा छीपा रंगाई के साथ बंधेज का काम भी करते थे | बंधेज में वे - 1. चुनरी 2. मोठडा 3. पीलिया 4.पोमचा 5. मामापुरिया 6 घाट 7. लहरिया 8. पंतगिया आदि वस्त्रों को बंधेज के साथ रंगने (लूगडे, साडी, साफा, पगडी पर कई तरह के कच्चे-पक्के रंगना) का कार्य भी करते थे | सावन के महीने में लहरिया की तो बात ही निराली होती थी । लहरिया रंगते रंगते / सुखाते(हाथ में सुखाते) समय तो पानी की बरसात होने लगती थी । बसंत के मौसम में बसंती छाटना (कपडे को पीला रंग कर गहरे लाल / गुलाबी रंग के छीटे देकर बसंती कपडा) रंगा जाता था। धर्म परिवर्तन के बाद रंगरेज हमें (उनके पूर्वज ) मुशरिक कह कर पुकारते थे | मुशरिक शब्द “शिर्क" से बना है | शिर्क का मतलब है “साझीदार (शरिक) बनाना” | जो अल्लाह के साथ किसी और को साझीदार बनाता है उसे 'मुशरिक' कहा जाता है | शिर्क को इस्लाम मे सबसे बड़ा पाप कहा गया है | शिर्क मुख्यतः दो तरीके का होता है प्रथम - एक से ज्यादा अल्लाह / ईश्वर / गॉड मे विश्वास करना तथा द्वितीय अल्लाह के गुण ( सिफत) में किसी और को साझीदार बनाना | मूर्तिपूजक अक्सर अल्लाह के गुण में किसी महापुरुष, जानवर, आकृति को साझीदार बना लेता है | उदाहरण के लिये कई मूर्तिपूजक अल्लाह के सिवा किसी और को धन देनेवाला, शक्ति देनेवाला, कण-कण मे समाया हुआ मान लेता है। जबकि सच्चाई यह है कि एक अल्लाह के सिवा कोई धन, शक्ति देनेवाला नही है और ना ही कोई हर जगह मौजूद है | यही कारण है कि मुशरिक शब्द का अनुवाद कई बार 'मूर्तिपूजक' किया जाता है | मुसलमान होने के बाद से ही मुशरिको से अलग रीति रिवाज, शादी-विवाह,खानपान, रहन सहन, नामकरण, मौत, मय्यत, त्यौंहार पहनावे आदि में परिवर्तन आता गया।
भारत की आजादी के समय बहेलियम रंगरेज समुदाय के बहुत से लोग दूसरे देशो में चले गए थे जो अब वहां पर मुहाजिरो में अग्रणी भूमिका अदा करने वाले हैं।
राजस्थान के रंगरेजो में कुछ दावा करते हैं कि मुहम्मद गौरी के समय वे दिल्ली से राजस्थान में आए थे। रंगरेजो का एक गौत्र गौरी भी है। यहां राजस्थान में रंगरेज जयपुर, सीकर, सवाई माधोपुर और अलवर जिले में बहुतायत में पाए जाते हैं।
रंगरेज समुदाय के कई गोत्र है। गौरी चौहान, मंडवारिया, खोखर, भट्टी, बगाडिया, सिंघानिया, सोलंकी, आरबी,बहेलियम आदि | रंगरेज समुदाय मध्य एशिया में पाया जाता है। इसके अधिक तर लोग पूरे भारत में पाए जाते हैं। भारत की आजादी के बाद कुछ लोग पाकिस्तान में चले गए।वहां कराची में जाकर बसे है। खासतौर पर वहां मुहाजिर (पाकिस्तान में उन लोगों
को मुहाजिर या मोहाजिर कहते हैं जो भारत के विभाजन के बाद वर्तमान भारत के किसी भाग से अपना घरबार छोड़कर वर्तमान पाकिस्तान के किसी भाग में आकर बस गये) में खास है। इसके अलावा बंगला देश और टर्की में भी रंगरेज पाए जाते हैं।
भारत में दिल्ली, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में भी रंगरेज - छीपा पाए जाते हैं।
दामोदर वंशी क्षत्रीय दर्जी समाज जाति इतिहास लेखक डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार दामोदर वंशीय दर्जी समाज की गोत्र क्षत्रियों की हैं इसलिए माना जाता है कि इनके पूर्वज क्षत्रिय थे। इस समुदाय को दामोदर वंशी क्षत्रिय दर्जी से संबोधित किया जाता है। इस समाज मे नया गुजराती और जूना गुजराती के दो समुदाय अस्तित्व मे हैं। यह दर्जी समुदाय गुजरात मे मुस्लिम शासकों के अत्याचार और जबरन धर्म परिवर्तन के लिए दवाब के चलते अपने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए जूनागढ़ ,लिमड़ी ,जामनगर आदि स्थानों से भागकर मध्य प्रदेश और राजस्थान मे आकर बस गया । इंदौर ,उज्जैन,रतलाम मे दामोदर वंशी जूना गुजराती ज्यादा संख्या मे हैं। नया गुजराती दामोदर वंशी क्षत्रिय दर्जी समाज संख्या के हिसाब से बहुत छोटा है और अधिकांशत: ग्रामीण क्षेत्रों मे बसा हुआ है लेकिन धीरे धीरे यह समुदाय शामगढ़ ,भवानी मंडी ,रामपुरा, डग ,मंदसौर आदि कस्बों का रुख कर रहा है। नया और जूना गुजराती दर्जी समाज मे फिरका परस्ती छोड़कर परस्पर विवाह होने की कई घटनाएं प्रकाश मे आई हैं।
वर्तमान स्थिति
आज देश में उपर्युक्त सभी खांपो का अस्तित्व तो हैं परंतु रंगाई, छपाई, सिलाई, बंधाई (बंधेज) कार्य समाज के बहुत कम बंधु करते हैं। हम अपने मूल कर्म को छोड़ कर अन्य कर्मों से जुड़ गए इसका अर्थ यह नहीं है कि ये सभी व्यवसाय बंद हो गए हैं, समाज के मूल व्यवसाय आज भी प्रचलित है |अन्य लोग तकनीकी परिवर्तन के साथ उनको अपनाए हुये हैं तथा अच्छी आय अर्जित कर रहे हैं |सभी समाज बंधु अपनी अपनी खाँप से प्रेम करते हैं तथा उसके विकास के प्रति चिंतित भी हैं अतः यदि सभी खांपे एक मंच पर आती है तो राजनीतिक दृष्टि से यह भारत का सबसे मजबूत एवं सुदृढ़ समाज होगा | इसके लिए जरूरी यह है कि सभी खापे अपने अपने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर एक स्थान पर विचार-विमर्श के लिए एकत्र हों तथा जिन आधारों पर एकजुटता हो सकती है उनका प्राथमिकता से निर्धारण हो | इस विषय पर शोध आगे बढ़े तथा सर्व समाज के कॉमन बिंदुओं पर कार्यवाही शुरू की जाए | अलग अलग स्त्रोतों से इन सभी खांपो से संबंधित साहित्य का संकलन किया जाए। ऐसी पुण्यमयी, कर्म-धर्म प्रधान जाति में उत्पन्न होना परम सौभाग्य, गौरव तथा सम्मान का विषय है। इस जाति को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से ऊंचा उठाना सब का पुनीत कर्तव्य है | Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।