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महिषासुर मर्दिनी की कथा /Story of Mahishasur Mardini

Story of Mahishasur Mardini  video




महिषासुर एक संस्कृत शब्द है जो महिष अर्थात "भैंस" और असुर अर्थात "राक्षस" से मिलकर बना है, जिसका अनुवाद "भैंस राक्षस" होता है। एक असुर के रूप में, महिषासुर ने देवताओं के विरुद्ध युद्ध किया , क्योंकि देवता और असुर सदैव संघर्ष में रहते थे। महिषासुर को वरदान प्राप्त था कि कोई भी मनुष्य उसे नहीं मार सकता। देवों और दानवों (असुरों) के बीच युद्ध में, इंद्र के नेतृत्व में देवता , महिषासुर से हार गए। हारने के कारण, देवता पहाड़ों में इकट्ठे हुए जहाँ उनकी संयुक्त दिव्य ऊर्जा देवी दुर्गा में मिल गई । नवजात दुर्गा ने शेर पर सवार होकर महिषासुर के खिलाफ युद्ध का नेतृत्व किया और उसे मार डाला। इसके बाद, उनका नाम महिषासुरमर्दिनी रखा गया, जिसका अर्थ है महिषासुर का वध करने वाली । लक्ष्मी तंत्र के अनुसार , यह देवी लक्ष्मी ही हैं जो महिषासुर का तत्काल वध करती हैं, और उनके पराक्रम का गुणगान करते हुए चिरस्थायी वर्चस्व प्रदान करने का वर्णन किया गया है। 

महिषासुर का जन्म

महिषासुर एक असुर था। महिषासुर के पिता रंभ, असुरों का राजा था जो एक बार जल में रहने वाले एक भैंस से प्रेम कर बैठा और इन्हीं के योग से महिषासुर का आगमन हुआ। इस वजह से वश महिषासुर इच्छानुसार जब चाहे भैंस और जब चाहे मनुष्य का रूप धारण कर सकता था।
महिषासुर सृष्टिकर्ता ब्रम्हा का महान भक्त था और ब्रम्हा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि कोई भी देवता या दानव उसपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। महिषासुर बाद में स्वर्ग लोक के देवताओं को सताने लगा और पृथ्वी पर भी उत्पात मचाने लगा। उसने स्वर्ग पर एक बार अचानक आक्रमण कर दिया और इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया और सभी देवताओं को वहां से खदेड़ दिया। देवगण परेशान होकर त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुंचे। सारे देवताओं ने फिर मिलकर उसे परास्त करने के लिए युद्ध किया परंतु वे फिर हार गए।

महिषासुर मर्दिनी

देवता सर्वशक्तिमान होते हैं, लेकिन उनकी शक्ति को समय-समय पर दानवों ने चुनौती दी है। कथा के अनुसार, दैत्यराज महिषासुर ने तो देवताओं को पराजित करके स्वर्ग पर अधिकार भी कर लिया था। उसने इतना अत्याचार फैलाया कि देवी भगवती को जन्म लेना पड़ा। उनका यह रूप 'महिषासुर मर्दिनी' कहलाया।

देवताओं का तेज

देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा है। भगवान विष्णु और भगवान शिव अत्यधिक क्रोध से भर गए। इसी समय ब्रह्मा, विष्णु और शिव के मुंह से क्रोध के कारण एक महान तेज प्रकट हुआ। अन्य देवताओं के शरीर से भी एक तेजोमय शक्ति मिलकर उस तेज से एकाकार हो गई। यह तेजोमय शक्ति एक पहाड़ के समान थी। उसकी ज्वालायें दसों-दिशाओं में व्याप्त होने लगीं। यह तेजपुंज सभी देवताओं के शरीर से प्रकट होने के कारण एक अलग ही स्वरूप लिए हुए था।

महिषासुर के अंत के लिए हुई उत्पत्ति

इन देवी की उत्पत्ति महिषासुर के अंत के लिए हुई थी, इसलिए इन्हें 'महिषासुर मर्दिनी' कहा गया। समस्त देवताओं के तेज पुंज से प्रकट हुई देवी को देखकर पीड़ित देवताओं की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। भगवान शिव ने त्रिशूल देवी को दिया। भगवान विष्णु ने भी चक्र देवी को प्रदान किया। इसी प्रकार, सभी देवी-देवताओं ने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र देवी के हाथों में सजा दिये। इंद्र ने अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घंटा देवी को दिया। सूर्य ने अपने रोम कूपों और किरणों का तेज भरकर ढाल, तलवार और दिव्य सिंह यानि शेर को सवारी के लिए उस देवी को अर्पित कर दिया। विश्वकर्मा ने कई अभेद्य कवच और अस्त्र देकर महिषासुर मर्दिनी को सभी प्रकार के बड़े-छोटे अस्त्रों से शोभित किया।

फिर हुआ महिषासुर से युद्ध

थोड़ी देर बाद महिषासुर ने देखा कि एक विशालकाय रूपवान स्त्री अनेक भुजाओं वालीं और अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर शेर पर बैठकर अट्टहास कर रही हैं। महिषासुर की सेना का सेनापति आगे बढ़कर देवी के साथ युद्ध करने लगा। उदग्र नामक महादैत्य भी 60 हजार राक्षसों को लेकर इस युद्ध में कूद पड़ा। महानु नामक दैत्य एक करोड़ सैनिकों के साथ, अशीलोमा दैत्य पांच करोड़ और वास्कल नामक राक्षस 60 लाख सैनिकों के साथ युद्ध में कूद पड़े। सारे देवता इस महायुद्ध को बड़े कौतूहल से देख रहे थे। दानवों के सभी अचूक अस्त्र-शस्त्र देवी के सामने बौने साबित हो रहे थे, लेकिन देवी भगवती अपने शस्त्रों से राक्षसों की सेना को नष्ट करने लगी 

इस युद्ध में महिषासुर का वध तो हो ही गया, साथ में अनेक अन्य दैत्य भी मारे गए। इन सभी ने तीनों लोकों में आतंक फैला रखा था। सभी देवी-देवताओं ने प्रसन्न होकर आकाश से फूलों की वर्षा की।

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मौर्य, मुराव ,मुराई, मोरी ,मोरे समाज का गौरवशाली इतिहास ,मौर्य कुल की गोत्र सूचि

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  मौर्य कौन सी जाति है: मौर्य समुदाय उत्तर प्रदेश और बिहार में कुशवाहा समुदाय द्वारा प्रयोग किया जाने वाला एक उपनाम है। इस समुदाय के लोग कोएरी, कछी,शाक्य, मुराव और सैनी नाम से भी जाना जाता है यह एक क्षत्रिय जाति है ।
मौर्य शब्द का मतलब है क्षत्रियों का एक वंश और राजा या नेता। मौर्य साम्राज्य, प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली राजवंश था। इसकी स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने की थी
इनका बिहार और उत्तर प्रदेश में यादवों के बाद दूसरा सबसे बड़ा OBC समुदाय है और ये जाट, यादव और कुर्मियों के बाद भारत में सबसे अधिक राजनीतिक रूप से संगठित किसान समुदाय में से एक हैं । बिहार में वे एक प्रमुख जाति हैं और राज्य की जनसंख्या का लगभग 9 प्रतिशत हिस्सा रखते हैं । उनका बिहार में 63 विधान सभा सीटों और कुछ सांसद सीटों पर प्रभाव होता है ।
मौर्य साम्राज्य, प्राचीन भारत के सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली साम्राज्यों में से एक था , जिसने देश के इतिहास और संस्कृति को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य की सहायता से साम्राज्य की स्थापना की और फिर उसका विस्तार किया , 
मुराव ,मौर्य,मोरी यह एक क्षत्रिय और कृषक जाति है जो मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में पाया जाने वाला एक जाति समुदाय हैं। जिन्हे मौर्य नाम से जाना जाता है। 
 मुराव जाति को कोइरी की उपजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है जो कुशवाहा नामक एक बड़े समुदाय का हिस्सा है जिसमें कछवाहा,‌ कोइरी, काछी व मुराव जातियां शामिल है। 
 जाति  इतिहासकार डॉ दयाराम आलोक  के अनुसार मुराव पारंपरिक रूप से जमींदार थे वर्तमान में इस समुदाय की ज्यादातर सदस्य जीवन यापन के लिए कृषि पर निर्भर हैं इनमें से कई पशुपालन व्यवसाय से भी जुड़े हुए हैं इनमें से कई शिक्षा और रोजगार के आधुनिक अवसरों का लाभ उठाकर विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं। मुराव जाति को उत्तर प्रदेश और बिहार में मौर्य, मुराई, मोरी नाम से भी जाना जाता है। यह प्राचीन मोरिय जनजाति के वंशज हैं जो शाक्य जनजाति की एक शाखा है चंद्रगुप्त मौर्य को मोरिय गणराज्य के राजा चंद्रवर्धन मौर्य का पुत्र माना जाता है, जो बाद में मौर्य साम्राज्य की स्थापना करते हैं। मौर्य शाक्यों की एक शाखा है, जो पिपलीवन में आकर मौर्य कहलाए जो बाद में समय अनुसार बदलकर मुराव बन गए।
  इतिहासकार गंगा प्रसाद गुप्त ने मुराव,कोइरी,काछी जाति को एक ही माना है। तथा महान इतिहासकार व साहित्य के प्रकांड विद्वान डॉक्टर शिवपूजन सिंह कुशवाहा ने अपनी किताब 'कुशवाहा क्षत्रियोंत्पत्ति मीमांसा' में कोइरी, काछी,मुराव जो कुशवाहा नाम से भी जानी जाती है। 

मुराव जाति का इतिहास

मुराव मौर्य जाति का इतिहास बहुत ही गौरवशाली रहा है। शाक्य गणराज्य में आने के कारण कुछ(काशी महाजनपद) के लोग अब शाक्य जाति के कहलाने लगे थे। बाद में शाक्य कुल में राजा शुद्धोधन का जन्म होता है जिनकी शादी कोलिय कुल के राजा अंजन की दो पुत्री महामाया व प्रजापति से होती है। शुद्धोधन महामाया से शाक्यमुनि गौतम बुद्ध सिद्धार्थ का जन्म होता है। जिन्होंने पूरे मानव कल्याण के लिए अपना सारा जीवन लगा दिया। शाक्य कुल में भगवान बुद्ध का जन्म होने के कारण शाक्य गणराज्य की गरिमा पूरे जम्मू द्वीप  में और बढ़ गई थी।   पिपलीवन में अधिक मात्रा में मोर के पक्षियों के पाए जाने के कारण इसे मोरीय गणराज्य कहा जाने लगा धीरे-धीरे शाक्य भी मोरिय कहे जाने लगे और अपनी पूर्व पहचान को भुलाकर खुद को मोरीय बताने लगे।
    शाक्य जाति के लोगों के पीपलीवन में आकर बस जाने के कारण यह लोग मौर्य कहलाए क्योंकि पिपली वन में मोर पक्षियों की संख्या अधिक थी जिसके कारण शाक्यों को भी मौर्य कहा जाने लगा [मौर्य (संस्कृत),मोरिय (पाली)] शाक्य गणराज्य से विस्थापित चंद्रवर्धन मौर्य मोरीय गणराज्य के राजा हुआ करते थे। बौद्ध ग्रंथ ''उत्तरबिहारट्टकथायम्'' ( लेखक- थेर महिंद्र, सम्राट अशोक के पुत्र) के अनुसार मोरिय गणराज्य पर खत्तिय राजा चंद्रवर्धन   शासन था| इनकी प्रधान रानी धम्म मोरिया बनी। उनके पुत्र चंद्रगुप्त पैदा हुए। चंद्रगुप्त मौर्य के पिता राजा चंद्रवर्धन 340 ईसा पूर्व 34 वर्ष की आयु में मगध के विस्तारवादी सीमा संबंधी युद्ध में मारे गए तथा मोरिय गणराज्य पर महापदमनंद का अधिकार हो गया| इस घटना के बाद रानी धम्म मोरिया बच निकली और अपने भाइयों की सहायता से पुत्र के साथ पुष्पपुर आ गई| यहीं पर चंद्रगुप्त मौर्य का बचपन मयूर पालको, शिकारियों तथा ग्वालो अर्थात चरवाहों के मध्य व्यतीत हुआ। वहीं से नंदो के द्वारा अपमानित चाणक्य ने चंद्रगुप्त को देखा तो वह समझ गया कि यह कोई साधारण बालक नहीं है। तथा चंद्रगुप्त को अपने साथ तक्षशिला ले जाते हैं और युद्ध विद्या की शिक्षा कूटनीति आदि ज्ञान देकर चंद्रगुप्त को अखंड भारत पर विजय प्राप्त करने के काबिल बनाते हैं। चंद्रगुप्त मौर्य ने अपनी वीरता का परिचय देते हुए नंदों के साम्राज्य का अंत कर अखंड भारत का निर्माण कर दिया। उसके बाद चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म को अपना कर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। चंद्रगुप्त मौर्य के पुत्र बिंदुसार हुए जिन्होंने अपने पिता के साम्राज्य को आगे बढ़ाते हुए अपने पुत्र सम्राट अशोक को राजा बना दिया। सम्राट अशोक इस पूरी दुनिया का सबसे महान राजाओं में से एक हैं। जिन्होंने संपूर्ण मानव जगत की कल्याण के लिए अनेकों कार्य किए। कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपना कर तथा उसके प्रचार प्रसार में अपना सारा जीवन व्यतीत किया। वैदिक धर्म को त्याग कर सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म अपनाने की बात ब्राह्मणों को रास नहीं आई। इसीलिए कई सारे ब्राह्मणों ने अपनी किताबों में मौर्य को शूद्र घोषित करने की चेष्टा की है|  सम्राट अशोक ने अपने शिलालेखों में खुद को क्षत्रिय व बुद्ध शाक्य का वशंज बताया है।  
  चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में मगध राजवंश पर नंद राजाओं का शासन था और यह राजवंश उत्तर का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। चाणक्य नामक एक ब्राह्मण मंत्री, जिसे कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है, ने मौर्य परिवार के चंद्रगुप्त को प्रशिक्षित किया था। चंद्रगुप्त ने अपनी सेना संगठित की और नंद राजा को उखाड़ फेंका।
इसलिए, चंद्रगुप्त मौर्य को मौर्य वंश का पहला राजा और संस्थापक भी माना जाता है। उनकी माता का नाम मुर था, इसलिए उन्हें संस्कृत में मौर्य कहा जाता था, जिसका अर्थ होता है मुर का पुत्र और इस प्रकार उनका वंश मौर्य वंश कहलाया।

मौर्य गोत्र सूची

चित्तोडिया(क्षत्रिय) कराडिया राजपूत(गुजरात),परमार,सक्तिया(सकटा) , भक्तिया(भगता) , ठाकुरिया , शाक्यसेनी , हल्दिया(मुराव) , पुर्विया , कछवाहा , उत्तराहा , दखिनाहा , प्रयागहा , तनराहा, कनौजिया , भदौरिया , ढंकुलिया , इत्यादि मौर्यों में पीरीवाल २३२ गोत्र हैं

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5.4.25

आदिशक्ति माँ दुर्गा की कथा ?माँ दुर्गा को बुलाने के मंत्र

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  दुर्गा या आदिशक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी मानी जाती हैं जिन्हें माता, नवदुर्गा, देवी, शक्ति, आध्या शक्ति, भगवती, माता रानी, पार्वती , जगत जननी जग्दम्बा, परमेश्वरी, परम सनातनी देवी आदि नामों से भी जाना जाता हैं। शाक्त सम्प्रदाय की वह मुख्य देवी हैं। दुर्गा को आदि शक्ति, परम भगवती परब्रह्म बताया गया है। वह अंधकार व अज्ञानता रुपी राक्षसों से रक्षा करने वाली, ममतामई, मोक्ष प्रदायनी तथा कल्याणकारी हैं। उनके बारे में मान्यता है कि वे शान्ति, समृद्धि तथा धर्म पर आघात करने वाली राक्षसी शक्तियों का विनाश करतीं हैं।[

दुर्गा का निरूपण सिंह पर सवार एक देवी के रूप में की जाती है। दुर्गा देवी आठ भुजाओं से युक्त हैं जिन सभी में कोई न कोई शस्त्रास्त्र होते है। उन्होने महिषासुर नामक असुर का वध किया। महिषासुर (= महिष + असुर = भैंसा जैसा असुर) करतीं हैं। जिन ज्योतिर्लिंगों में देवी दुर्गा की स्थापना रहती है उनको सिद्धपीठ कहते है। वहाँ किये गए सभी संकल्प पूर्ण होते है। माता का दुर्गा देवी नाम दुर्गम नाम के महान दैत्य का वध करने के कारण पड़ा। माता ने शताक्षी स्वरूप धारण किया और उसके बाद शाकंभरी देवी के नाम से विख्यात हुई शाकंभरी देवी ने ही दुर्गमासुर का वध किया। जिसके कारण वे समस्त ब्रह्मांड में दुर्गा देवी के नाम से भी विख्यात हो गई। माता के देश में अनेकों मंदिर हैं कहीं पर महिषासुरमर्दिनि शक्तिपीठ तो कहीं पर कामाख्या देवी। यही देवी कोलकाता में महाकाली के नाम से विख्यात और सहारनपुर के प्राचीन शक्तिपीठ मे शाकम्भरी देवी के रूप में ये ही पूजी जाती हैं।

हिन्दुओं के शक्ति साम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है (शाक्त साम्प्रदाय ईश्वर को देवी के रूप में मानता है)। वेदों में तो दुर्गा का व्यापाक उल्लेख है, किन्तु उपनिषद में देवी "उमा हैमवती" (उमा, हिमालय की पुत्री) का वर्णन है। पुराण में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है। दुर्गा असल में शिव की पत्नी आदिशक्ति का एक रूप हैं, शिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकाररहित बताया गया है। एकांकी (केंद्रित) होने पर भी वह माया शक्ति संयोगवश अनेक हो जाती है। उस आदि शक्ति देवी ने ही सरस्वती(ब्रह्मा जी की पहली पत्नी), लक्ष्मी, और मुख्य रूप से पार्वती(सती) के रूप में जन्म लिया और उसने ब्रह्मा, विष्णु और महेश से विवाह किया था। तीन रूप होकर भी दुर्गा (आदि शक्ति) एक ही है।

देवी दुर्गा के स्वयं कई रूप हैं (सावित्री, लक्ष्मी एव पार्वती से अलग)। मुख्य रूप उनका "गौरी" है, अर्थात शान्तमय, सुन्दर और गोरा रूप। उनका सबसे भयानक रूप "काली" है, अर्थात काला रूप। विभिन्न रूपों में दुर्गा भारत और नेपाल के कई मन्दिरों और तीर्थस्थानों में पूजी जाती हैं।भगवती दुर्गा की सवारी शेर है।

मार्कण्डेय पुराण में ब्रहदेव ने मनुष्‍य जाति की रक्षा के लिए एक परम गुप्‍त, परम उपयोगी और मनुष्‍य का कल्‍याणकारी देवी कवच एवं व देवी सुक्‍त बताया है और कहा है कि जो मनुष्‍य इन उपायों को करेगा, वह इस संसार में सुख भोग कर अन्‍त समय में बैकुण्‍ठ को जाएगा। ब्रहदेव ने कहा कि जो मनुष्‍य दुर्गा सप्तशती का पाठ करेगा उसे सुख मिलेगा। भगवत पुराण के अनुसार माँ जगदम्‍बा का अवतरण श्रेष्‍ठ पुरूषो की रक्षा के लिए हुआ है। जबकि श्रीं मद देवीभागवत के अनुसार वेदों और पुराणों की  रक्षा के और दुष्‍टों के दलन के लिए माँ जगदंबा का अवतरण हुआ है। इसी तरह से ऋगवेद के अनुसार माँ दुर्गा ही आदि-शक्ति है, उन्‍ही से सारे विश्‍व का संचालन होता है और उनके अलावा और कोई अविनाशी नही है।

इसीलिए नवरात्रि के दौरान नव दुर्गा के नौ रूपों का ध्‍यान, उपासना व आराधना की जाती है तथा नवरात्रि के प्रत्‍येक दिन मां दुर्गा के एक-एक शक्ति रूप का पूजन किया जाता है। और जय अम्बे गौरी आरती माँ दुर्गा की सबसे प्रसिद्ध आरती में से एक है। मां अम्बे की यह प्रसिद्ध आरती मां दुर्गा जी से जुड़े ज्यादातर मौकों पर पढ़ी जाती है।
मां दुर्गा को बुलाने के लिए कई मंत्र हैं. इनमें से कुछ मंत्र ये हैं:

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोऽस्तुते।।

ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।

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3.4.25

इन्द्र ने छल से कैसे बनाया अहिल्या से अनैतिक संबंध |गौतम ऋषि का श्राप कैसे दूर हुआ?

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अहिल्या एक बहुत ही सुंदर स्त्री थी. अहिल्या को ये वरदान मिला हुआ था कि उसका योवन सदा बना रहेगा. अहिल्या की सुंदरता के आगे तो स्वर्ग की अप्सराएं भी कमतर थी, इसलिए देवता भी अहिल्या के कायल हुआ करते थें. लेकिन एक श्राप के कारण अहिल्या पत्थर की शिला में तब्दील हो गई थी.
  पुराणों के अनुसार अहिल्या ब्रह्मा की पुत्री थी. इसलिए वो काफी ज्ञानी और सुंदर थीं. अहिल्या के बड़ी होने पर ब्रह्माजी ने उनकी शादी किसी साधु से ही करने का फैसला किया. लेकिन शर्त यह रखी कि जो कोई पृथ्वी का चक्कर लगाकर सबसे पहले आएगा, उसी का विवाह अहिल्या से होगा.अति सुंदर अहिल्या को पाने के लिए सभी देवता और अन्य गणमान्य लोग शर्त पूरी करने के लिए निकल पड़ते हैं. लेकिन अहिल्या का ध्यान गौतम ऋषि की ओर जाता है. अहिल्या उनके चेहरे से इतनी प्रभावित होती हैं कि गौतम ऋषि से ही शादी करने की बात कहती है.

विवाह से इंद्र हुए नाराज : 

महर्षि गौतम और अहिल्या का आपस में विवाह होता है. लेकिन दूसरे देवता इस शादी से बिल्कुल भी खुश नहीं होते हैं और ऐसा भी कहा जाता है कि देवराज इंद्र को भी अहिल्या काफी पसंद थी .इसीलिए जब उन्हें अहिल्या प्राप्त नहीं हुई तो इंद्र ने अपनी वासना को शांत करने के लिए एक षड्यंत्र रचा. 
  गौतम रोजाना भोर होने से पहले जग जाते और अपने नित्यकर्म निपटाने के लिए नदी किनारे जाते थे। वहां 2-3 घंटे का समय बिताकर फिर कुटिया में आते थे। इंद्र ने इसी मौके का फायदा उठाने की योजना बनाई। एक रात जब गौतम ऋषि और अहिल्या सो गए, फिर कुछ समय बाद इंद्र ने अपनी शक्ति से भोर होने का कृत्रिम वातावरण रच दिया । ऋषि गौतम को लगा कि सुबह होने को है, वे रोजाना की तरह उठ गए और नित्यकर्म के लिए निकल पड़े।
  इधर इंद्र ने गौतम ऋषि का भेस धारण कर कुटिया में प्रवेश किया। अहिल्या को लगा कि उनके पति नित्यकर्म से निपटकर आ गए हैं। फिर इंद्र ने गौतम ऋषि के भेस में अहिल्या से प्यार भरी बातें की और उसके साथ समागम किया । दूसरी ओर, जब ऋषि नदी किनारे पहुंचे तो वहां के जनजीवन को देखकर उन्हें आभास हो गया कि किसी ने धोखे से सुबह का होने वातावरण बनाया है। वे तुरंत अपनी कुटिया में पहुंचे, जहां उनके भेस में इंद्र उनकी पत्नी के साथ सो रहे थे।

गौतम ऋषि ने दिया श्राप

अहिल्या के साथ समागम करने के बाद इंद्र आश्रम से निकले. इंद्र को अपने ही आश्रम से निकलते हुए गौतम ऋषि ने देख लिया, एक ही बार में उन्हें सारी बात समझ में आ गई. इसलिए उन्होंने बिना किसी से कारण जाने अहिल्या को पत्थर(शिला) बनने का श्राप दे दिया. 
अहिल्या ने गौतम ऋषि से कहा कि उन्हें बिल्कुल भी यह एहसास नहीं हुआ कि उनके भेस में कोई और शख्स उनके साथ सोया है। इसमें उनकी कोई गलती नहीं थी। उनके मन में छल की कोई भावना नहीं थी। गौतम ऋषि ने अहिल्या को वरदान दिया कि कालांतर में भगवान विष्णु का अवतार राम तुम्हारे पास आएंगे  और उनके छूने से तुम फिर से पहले जैसी बन जाओगी। सालों बाद श्रीराम ने विष्णु के अवतार के रूप में धरती पर जन्म लिया। राम ने ही बाद में अहिल्या को छूकर उन्हें श्राप से मुक्त किया।

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1.4.25

राजा शिवि और बाज की पौराणिक कहानी



दानवीर महाराजा शिवि की कहानी 

भारतीय धार्मिक कहानियों में महाराजा शिवि की कहानी (प्रमुख है। पुरुवंश में जन्मे उशीनर देश के राजा शिवि बड़े ही परोपकारी और धर्मात्मा थे । परम दानवीर राजा शिवि के द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं जाता था। प्राणियों के प्रति राजा शिवि का बड़ा स्नेह था। उनके राज्य में हमेशा सुख – शांति और स्नेह का वातावरण बना रहता था। ईश्वर भक्त राजा शिवि की चर्चा स्वर्गलोक तक होती थी। देवताओं के मुख से राजा शिवि की इस प्रसिद्धि के बारे में सुनकर इंद्र और अग्नि को विश्वास नहीं होता था। अतः उन्होंने उशीनर  नरेश की परीक्षा करने की ठानी और एक युक्ति निकाली।

महाराजा शिवि की परीक्षा

अग्नि ने कबूतर का रूप धारण किया और इंद्र ने एक बाज का रूप धारण किया। दोनों उड़ते – उड़ते राजा शिवि के राज्य में पहुँचे। उस समय राजा शिवि एक धार्मिक यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे। कबूतर उड़ते – उड़ते आर्तनाद करता हुआ राजा शिवि की गोद में आ गिरा और मनुष्य की भाषा में बोला – “ राजन ! मैं आपकी शरण आया हूँ, मेरी रक्षा कीजिये।”
थोड़ी ही देर में कबूतर के पीछे – पीछे बाज भी वहाँ आ पहुँचा और बोला – “ राजन ! निसंदेह आप धर्मात्मा और परोपकारी राजा है। आप कृतघ्न को धन से, झूठ को सत्य से, निर्दयी को क्षमा से और क्रूर को साधुता से जीत लेते है, इसलिए आपका कोई शत्रु नहीं इसलिए आप अजातशत्रु नाम से प्रसिद्ध है। आप अपकार करने वाले का भी उपकार करते है, आप दोष खोजने वालों में भी गुण खोजते है। ऐसे महान होकर आप यह क्या कर रहे है ?
मैं क्षुधा से व्याकुल होकर भोजन की तलाश में भटक रहा था। तभी संयोग से मुझे यह पक्षी मिला और आप इसे शरण दे रहे है। यह आप अधर्म कर रहे है। कृपा करके यह कबूतर मुझे दे दीजिये। यह मेरा भोजन है।” इतने में कबूतर बोला – “ शरणार्थी की प्राण रक्षा करना आपका धर्म है । अतः आप इस बाज की बात कभी मत मानिये। यह दुष्ट बाज मुझे मार डालेगा।”

धर्मपरायण महाराजा शिवि  का जवाब


दोनों की बात सुनकर राजा शिवि बाज से बोले – “ हे बाज ! यह कबूतर तुम्हारे भय से भयभीत होकर मेरी शरण आया है, अतः यह मेरा शरणार्थी है। मैं अपनी शरण आये शरणार्थी का त्याग कैसे कर सकता हूँ ? जो मनुष्य भय, लोभ, ईर्ष्या, लज्जा या द्वेष से शरणागत की रक्षा नहीं करते या उसे त्याग देते है उन्हे ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है। सभी जीवों को अपने प्राण प्रिय होते हैं। समर्थ और बुद्धिमान मनुष्यों को चाहिए कि असमर्थ व मृत्युभय से भयभीत जीवों की रक्षा करें। अतः हे बाज ! मृत्यु के भय से भयभीत यह कबूतर मैं तुझे नहीं दे सकता। इसके बदले तुम जो चाहो खाने के लिए मांग सकते हो। मैं तुझे वह अभीष्ट वस्तु देने को तैयार हूँ ।”
तब बाज बोला – “हे राजन ! मैं क्षुधा से पीड़ित हूँ । आप तो जानते ही है, भोजन से ही जीव उत्पन्न होता है और बढ़ता है। यदि मैं क्षुधा से मरता हूँ तो मेरे बच्चे भी मर जायेंगे। आपके एक कबूतर को बचाने से कई जीवों के प्राण जाने की संभावना है। हे राजन ! आप ऐसे कैसे धर्म का अनुसरण कर रहे है जो अधर्म को जन्म देने वाला है। बुद्धिमान मनुष्य उसी धर्म का अनुसरण करते है जो दुसरे धर्म का हनन न करें। आप अपने विवेक के तराजू से तोलिये और जो धर्म आपको अभीष्ट हो वह मुझे बताइए।”

शरणार्थी की रक्षा धर्म है

राजा शिवि बोले – “ हे बाज ! भय से व्याकुल हुए शरणार्थी की रक्षा करने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। जो मनुष्य दया और करुणा से द्रवित होकर जीवों को अभयदान देता है, वह देह के छूटने पर सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है। धन, वस्त्र, गौ और बड़े बड़े यज्ञों का फल यथासमय नष्ट हो जाता है किन्तु भयाकुल प्राणी को दिया अभयदान कभी नष्ट नहीं होता। अतः मैं अपने सम्पूर्ण राज्य और इस देह का त्याग कर सकता हूँ, परन्तु इस भयाकुल पक्षी को नहीं छोड़ सकता।”

हे बाज ! तुझे आहार ही अभीष्ट है सो जो चाहो सो आहार के लिए मांग लो।” बाज बोला – “ हे राजन ! प्रकृति के विधान के अनुसार कबूतर ही हमारा आहार है, अतः आप इसे त्याग दीजिये।“राजा बोला – “ हे बाज ! मैं भी विधान के विपरीत नहीं जाता । शास्त्र कहता है दया धर्म का मूल है, परोपकार पूण्य है और दूसरों को पीड़ा देना पाप है। अतएव तुम जो चाहो सो दे सकता हूँ, परन्तु ये कबूतर नहीं दे सकता।”

कहानी विडिओ मे देखें 


बाज की मांग

तब बाज बोला – “ ठीक है राजन ! यदि आपका इस कबूतर के प्रति इतना ही प्रेम है तो मुझे ठीक इसके बराबर तोलकर अपना मांस दे दीजिये, जिससे मैं अपनी क्षुधा शांत कर सकूं। मुझे इससे अधिक और कुछ नहीं चाहिए ”। प्रसन्न होते हुए राजा शिवि ने कहा – “ हे बाज ! तुम जितना चाहो, उतना मांस मैं देने को तैयार हूँ। यदि यह क्षणभंगुर देह धर्म के काम न आ सके तो इसका होना व्यर्थ है।” यह कहकर राजा ने तराजू मंगवाया और उसके एक पलड़े में कबूतर को बिठा दिया और दुसरे पलड़े में वह अपना मांस काटकर रखने लगे। लेकिन कबूतर का पलड़ा जहाँ का तहाँ ही रहा। तब अंत में राजा शिवि स्वयं उस पलड़े में बैठ गये और बोले – “हे बाज ! ये लो मैं तुम्हारा आहार तुम्हारे सामने बैठा हूँ।”

पुष्प वर्षा और महाराजा शिवि 

इतने में आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी, मृदंग बजने लगे। स्वयं भगवान अपने भक्त के इस अपूर्व त्याग को देखकर प्रसन्न हो रहे थे। यह देखकर राजा शिवि विस्मय से सोचने लगे कि इस सबका क्या कारण हो सकता है ? इतने मैं वह दोनों पक्षी अंतर्ध्यान हो गये और अपने असली रूप में प्रकट हो गये।
इंद्र ने कहा – “ हे राजन ! आपके जैसा धर्म परायण और त्यागी मैंने कभी नहीं देखा। मैं इंद्र हूँ जो बाज बना था और ये अग्नि देव हैं जो कबूतर बने थे। हम दोनों तुम्हारे त्याग की परीक्षा लेने आये थे। हे राजन ! ऐसे मनुष्य विरले ही होते है जो दूसरों के उपकार के लिए अपने प्राणों का भी मोह न करें। ऐसा मनुष्य उस लोक को जाता है, जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता है। अपना पेट पालने के लिए तो पशु भी जीते है, किन्तु अभिनंदनीय तो वही मनुष्य है जो दूसरों के हित के लिए जीता है।” इतना कहकर इंद्र और अग्नि देव स्वर्ग को चले गये। राजा शिवि ने अपना यज्ञ पूरा और कई वर्षो तक पृथ्वी का राज्य भोगने के बाद परमपद को प्राप्त हुए।

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