28.3.18

हिन्दी साहित्य: काव्य जगत का इतिहास



काव्य इतिहास

आदिकाल (650 ई०-1350 ई०)
हिन्दी साहित्येतिहास के विभिन्न कालों के नामकरण का प्रथम श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को है।
हिन्दी साहित्येतिहास के आरंभिक काल के नामकरण का प्रश्न विवादास्पद है। इस काल को ग्रियर्सन ने 'चरण काल', मिश्र बंधु ने 'प्रारंभिक काल', महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'बीज वपन काल', शुक्ल ने 'आदिकाल: वीर गाथाकाल', राहुल सांकृत्यायन ने 'सिद्ध- सामंत काल', राम कुमार वर्मा ने 'संधिकाल' व 'चारण काल', हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'आदिकाल' की संज्ञा दी है।
आदिकाल में तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ मिलती है- धार्मिकता, वीरगाथात्मकता व श्रृंगारिकता।
प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ : रासो काव्य, कीर्तिलता , कीर्तिपताका इत्यादि।
मुक्तक काव्यकृतियाँ : खुसरो की पहेलियाँ, सिद्धों-नाथों की रचनाएँ, विद्यापति की पदावली इत्यादि।
विद्यापति ने 'कीर्तिलता' व 'कीर्तिपताका' की रचना अवहट्ट में और 'पदावली' की रचना मैथली में की।
आदिकाल में दो शैलियाँ मिलती हैं डिंगल व पिंगल। डिंगल शैली में कर्कश शब्दावलियों का प्रयोग होता है जबकि पिंगल शैली में कर्णप्रिय शब्दावलियों की। कर्कश शब्दावलियों के कारण डिंगल शैली अलोकप्रिय होती चली गई। जबकि कर्णप्रिय शब्दावलियों के कारण पिंगल शैली लोकप्रिय होती चली गई और आगे चलकर इसका ब्रजभाषा में विगलन हो गया।

'पृथ्वी राज रासो' कथानक रूढ़ियों का कोश है। [(कथानक रूढ़ि (Motiff)- एक प्रकार का प्रतीक जिसके साथ एक पूरी की पूरी कथा जुड़ी हो)]
अपभ्रंश में 15 मात्राओं का एक 'चउपई' छंद मिलता है। हिन्दी ने चउपई में एक मात्रा बढ़ाकर 'चौपाई' के रूप में अपनाया अर्थात चौपाई 16 मात्राओं का छंद है।
आदिकाल में 'आल्हा' छंद (31 मात्रा) बहुत प्रचलित था। यह वीर रस का बड़ा ही लोकप्रिय छंद था।
दोहा, रासा, तोमर, नाराच, पद्धति, पज्झटिका, अरिल्ल आदि छंदों का प्रयोग आदिकाल में मिलता है।
चौपाई के साथ दोहा रखने की पद्धति 'कडवक' कहलाती है। कडवक का प्रयोग आगे चलकर भक्ति काल में जायसी और तुलसी ने किया।

                                                          

अमीर खुसरो को 'हिन्द-इस्लामी समन्वित संस्कृति का प्रथम प्रतिनिधि' कहा जाता है।
आदिकालीन साहित्य के तीन सर्वप्रमुख रूप है- सिद्ध-साहित्य, नाथ-साहित्य एवं रासो साहित्य।
सिद्धों द्वारा जनभाषा में लिखित साहित्य को 'सिद्ध-साहित्य' कहा जाता है। यह साहित्य बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा का प्रचार करने हेतु रचा गया।
सिद्धों की संख्या 84 मानी जाती है। तांत्रिक क्रियाओं में आस्था तथा मंत्र द्वारा सिद्धि चाहने के कारण इन्हें 'सिद्ध' कहा गया। 84 सिद्धों में सरहपा, शबरपा, कण्हपा, लुइपा, डोम्भिपा, कुक्कुरिपा आदि प्रमुख हैं। सरहपा प्रथम सिद्ध है। इन्हें सहजयान का प्रवर्तक कहा जाता है।
सिद्ध कवियों की रचनाएँ दो रूपों में मिलती है 'दोहा कोष' और 'चर्यापद' । सिद्धाचार्यों द्वारा रचित दोहों का संग्रह 'दोहा कोष' के नाम से तथा उनके द्वारा रचित पद 'चर्या पद' के नाम से प्रसिद्ध है।
सिद्ध-साहित्य की भाषा को अपभ्रंश एवं हिन्दी के संधि काल की भाषा मानी जाती है इसलिए इसे 'संधा' या 'संध्या' भाषा का नाम दिया जाता है।
10 वीं सदी के अंत में शैव धर्म एक नये रूप में आरंभ हुआ जिसे 'योगिनी कौल मार्ग', 'नाथ पंथ' या 'हठयोग' कहा गया। इसका उदय बौद्ध-सिद्धों की वाममार्गी भोग-प्रधान योगधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ।
अनुश्रुति के अनुसार 9 नाथ हैं- आदि नाथ (शिव), जलंधर नाथ, मछंदर नाथ, गोरखनाथ, गैनी नाथ, निवृति नाथ आदि। लेकिन नाथ-साहित्य के प्रवर्तक गोरखनाथ ही थे।
बौद्ध-सिद्धों की वाणी में पूर्वीपन का पुट है तो शैव-नाथों की वाणी में पश्चिमीपन का।
'रासो' शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है।
रासो-काव्य को मुख्यतः 3 वर्गों में बाँटा जाता है-
(1) वीर गाथात्मक रासो काव्य : पृथ्वीराज रासो, हम्मीर रासो, खुमाण रासो, परमाल रासो, विजयपाल रासो।
(2) शृंगारपरक रासो काव्य : बीसल देव रासो, सन्देश रासक, मुंज रासो।
(3) धार्मिक व उपदेशमूलक रासो काव्य : उपदेश रसायन रास, चन्दनबाला रस, स्थूलिभद्र रास, भरतेश्वर बाहुबलि रास, रेवन्तगिरि रास।
पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई) : रासो काव्य परंपरा का प्रतिनिधि व सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ, आदिकाल का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ, काव्य-रूप-प्रबंध, रस-वीर व श्रृंगार, अलंकार- अनुप्रास व यमक (चंदबरदाई के प्रिय), छंद- विविध छंद (लगभग 68), गुण-ओज व माधुर्य, भाषा-राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा, शैली-पिंगल।
पृथ्वीराज रासो में चौहान शासक पृथ्वीराज के अनेक युद्धों और विवाहों का सजीव चित्रण हुआ है।
पृथ्वीराज रासो एक अर्द्धप्रामाणिक रचना है।
परमाल रासो (जगनिक) : मूल रूप से उपलब्ध नहीं है लेकिन इसका एक अंश उपलब्ध है जिसे 'आल्हा खंड' कहा जाता है। इसका छंद आल्हा या वीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
संदेश रासक (अब्दुल रहमान) : एक विरह काव्य है।
रासो काव्य की सामान्य विशेषताएँ :
(1) ऐतिहासिकता व कल्पना का सम्मिश्रण
(2) प्रशस्ति काव्य
(3) युद्ध व प्रेम का वर्णन
(4) वैविध्यपूर्ण भाषा
(5) डिंगल-पिंगल शैली का प्रयोग
(6) छंदों का बहुमुखी प्रयोग

                                                         

चंदबरदाई दिल्ली के चौहान शासक पृथ्वी राज-III चौहान के सामंत व राजकवि थे।
अमीर खुसरो का मूल नाम अबुल हसन था। दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन खल्जी ने उनकी कविता से खुश होकर उन्हें 'अमीर' का ख़िताब दिया और 'खुसरो' उनका तखल्लुस (उपनाम) था। इस प्रकार वे बन गए-अमीर खुसरो। बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत एवं हिन्दी के विद्वान थे। उन्होंने फारसी में ऐतिहासिक-साहित्यिक पुस्तकें लिखीं, व्रजभाषा में गीतों-कव्वालियों की रचना की और खड़ी बोली में पहेलियाँ-मुकरियाँ बुझाई। संगीत के क्षेत्र में उन्हें कव्वाली, तराना गायन शैली एवं सितार वाद्य यंत्र का जन्मदाता माना जाता है।

                                                        

विद्यापति बिहार के दरभंगा जिले के बिसफी गाँव रहनेवाले थे। उन्हें मिथिला के महाराजा कीर्ति सिंह और शिव सिंह का संरक्षण प्राप्त था।

जिस रचना के कारण विद्यापति 'मैथिल कोकिल' कहलाए वह उनकी मैथिली में रचित 'पदावली' है। यह मुक्तक काव्य है और इसमें पदों का संकलन है। पूरी पदावली भक्ति व श्रृंगार की धूपछांही है।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ
बारह बरस लौं कूकर जीवै अरु तेरह लौं जिये सियार/बरस अठारह क्षत्रिय जीवै आगे जीवन को धिक्कार -जगनिक
भल्ला हुआ जो मारिया बहिणी म्हारा कंतु/लज्जेजंतु वयस्सयहु जइ भग्गा घरु एंतु (अच्छा हुआ जो मेरा पति युद्ध में मारा गया; हे बहिन ! यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्काओं (सहेलियों) के सम्मुख लज्जित होती।) -हेमचंद्र
बालचंद्र विज्जवि भाषा/दुनु नहीं लग्यै दुजन भाषा (जिस तरह बाल चंद्रमा निर्दोष है उसी तरह विद्यापति की भाषा; दोनों का दुर्जन उपहास नहीं कर सकते) -विद्यापति
षटभाषा पुराणं च कुराणंग कथित मया (मैंने अपनी रचना षटभाषा में की है और इसकी प्रेरणा पुराण व कुरान दोनों से ली है) -चंदरबरदाई
'मैंने एक बूंद चखी है और पाया है कि घाटियों में खोया हुआ पक्षी अब तक महानदी के विस्तार से अपरिचित था' (संस्कृत साहित्य के संबंध में) -अमीर खुसरो
पंडिअ सअल सत्य वक्खाणअ/देहहिं बुद्ध बसन्त न जाणअ। [पंडित सभी शास्त्रों का बखान करते हैं परन्तु देह में बसने वाले बुद्ध (ब्रह्म) को नहीं जानते।] -सरहपा

जोइ जोइ पिण्डे सोई ब्रह्माण्डे (जो शरीर में है वही ब्रह्माण्ड में है) -गोरखनाथ
गगन मंडल मैं ऊँधा कूबा, वहाँ अमृत का बासा/सगुरा होइ सु भरि-भरि पीवै, निगुरा जाइ पियासा -गोरखनाथ
काहे को बियाहे परदेस सुन बाबुल मोरे (गीत) -अमीर खुसरो
बड़ी कठिन है डगर पनघट की (कव्वाली)-अमीर खुसरो
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके (पूर्वी अवधी में रचित कव्वाली) -अमीर खुसरो
एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा/चारो ओर वह थाल फिरे, मोती उससे एक न गिरे (पहेली) -अमीर खुसरो
नित मेरे घर आवत है रात गये फिर जावत है/फंसत अमावस गोरी के फंदा हे सखि साजन, ना सखि, चंदा (मुकरी/कहमुकरनी) -अमीर खुसरो
खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय।
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय। ला पानी पिला।
(ढकोसला) -अमीर खुसरो
जेहाल मिसकीं मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ;/के ताब-ए-हिज्रा न दारम-ए-जां न लेहु काहे लगाय छतियाँ- प्रिय मेरे हाल से बेखबर मत रह, नजरों से दूर रहकर यूँ बातें न बनाओ कि मैं जुदाई को सहने की ताकत नहीं रखता, मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते (फारसी-हिन्दी मिश्रित गजल) -अमीर खुसरो
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस/चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस (अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर) -अमीर खुसरो
[नोट : सूफी मत में आराध्य (भगवान, गुरु) को स्त्री तथा आराधक (भक्त, शिष्य) को पुरुष के तीर पर देखने की रचायत है।]
खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वाकी धार।
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।। -अमीर खुसरो
खुसरो पाती प्रेम की, बिरला बांचे कोय।
वेद कुरआन पोथी पढ़े, बिना प्रेम का होय।। -अमीर खुसरो
खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीव को दोऊ भय एक रंग।। -अमीर खुसरो
तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब
(अर्थात मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ।) -अमीर खुसरो
''मैं हिन्दुस्तान की तूती ('तूती-ए-हिन्दुस्तान') हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो, तो हिंदवी में पूछो, मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा।'' -अमीर खुसरो
न लफ्जे हिंदवीस्त अज फारसी कम 

(अर्थात हिंदवी बोल फारसी से कम नहीं।) -अमीर खुसरो
आध बदन ससि विहँसि देखावलि आध पिहिलि निज बाहू/कछु एक भाग बलाहक झाँपल किछुक गरासल राहू- नायिका ने अपना चेहरा हाथ से छिपा रखा है। कवि कहता है कि उसका चंद्रमुख आधा छिपा है और आधा दिख रहा है। ऐसा लगता है मानो चंद्रमा के एक भाग को बादल ने ढँक रखा है और आधा दिख रहा है ('पदावली' से) -विद्यापति
'आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों को 'गीत गोविन्द' (जयदेव) के पदों में आध्यात्मिकता दिखती है वैसे ही 'पदावली' (विद्यापति) के पदों में।' -रामचन्द्र शुक्ल
प्राइव मुणि है वि भंतडी ते मणिअडा गणंति/अखइ निरामइ परम-पइ अज्जवि लउ न लहंति।- प्रायः मुनियों को भी भ्रांति हो जाती है, वे मनका गिनते है। अक्षय निरामय परम पद में आज भी लौ नहीं लगा पाते। -हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
पिय-संगमि कउ निददडी पिअहो परोक्खहो केम/मइँ विन्निवि विन्नासिया निदद न एम्ब न-तेम्ब-प्रिय के संगम में नींद कहाँ ? प्रिय के परोक्ष में (सामने न रहने पर) नींद कहाँ ? मैं दोनों प्रकार से नष्ट हुई ? नींद न यों, न त्यों। -हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु/तसु हउँ कलजुगि दुल्लहहो बलि किज्जऊँ सुअणस्सु।- जो अपना गुण छिपाए, दूसरे का प्रकट करे, कलियुग में दुर्लभ सुजन पर मैं बलि जाउँ। -हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
माधव हम परिनाम निरासा -विद्यापति
कनक कदलि पर सिंह समारल ता पर मेरु समाने -विद्यापति
जाहि मन पवन न संचरई
रवि ससि नहीं पवेस -सरहपा
अवधू रहिया हाटे वाटे रूप विरष की छाया।
तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया।। -गोरखनाथ
पुस्तक जल्हण हाथ दै चलि गज्जन नृप काज -चंदबरदाई
मनहु कला सभसान कला सोलह सौ बन्निय -चंदरबरदाई
आदिकालीन रचना एवं रचनाकार
रचनाकाररचनास्वयंभू पउम चरिउ, रिट्ठणेमि चरिउ (अरिष्टनेमि चरित)
सरहपा दोहाकोष
शबरपा चर्या पद

कण्हपा कण्हपाद गीतिका, दोहा कोश
गोरखनाथ (नाथ सबदी, पद, प्राण संकली, सिष्या दासन पथ के प्रवर्तक)
चंदरबरदाई पृथ्वीराज रासो (शुक्ल के अनुसार-हिन्दी का प्रथम महाकाव्य)
शार्ङ्गधर हम्मीर रासो
दलपति विजय खुमाण रासो
जगनिक परमाल रासो
नल्ह सिंह भाट विजयपाल रासो
नरपति नाल्ह बीसल देव रासो
अब्दुर रहमान संदेश रासक
अज्ञात मुंज रासो
देवसेन श्रावकाचार
जिन दत्त सूरी उपदेश रसायन रास
आसगु चन्दनबाला रस
जिनधर्म सूरी स्थूलिभद्र रास
शलिभद्र सूरी भारतेश्वर बाहुबली रास
विजय सेन रेवन्तगिरि रास
सुमतिगणि नेमिनाथ रास
हेमचंद्र सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन
विद्यापति पदावली (मैथली में) कीर्तिलता व कीर्तिपताका (अवहट्ट में) लिखनावली (संस्कृत में)
कल्लोल कवि ढोला मारू रा दूहा
मधुकर जयमयंक जस चंद्रिका
भट्ट केदार जयचंद प्रकाश
पूर्व मध्य काल/भक्ति काल (1350ई०-1650 ई०)
भक्ति काल को 'हिन्दी साहित्य का स्वर्ण काल' कहा जाता है।
भक्ति काल के उदय के बारे में सबसे पहले जार्ज ग्रियर्सन ने मत व्यक्त किया। वे ही 'ईसायत की देन' मानते हैं।

ताराचंद के अनुसार भक्ति काल का उदय 'अरबों की देन' है।
                                                                 
                                           
रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार, 'देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उनके देव मंदिर गिराए जाते थे, देव मूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। ..... अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शरणागति में जाने के अलावा दूसरा मार्ग ही क्या था ?......
भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।'
'जिस तरह के उन्मुक्त समाज की कल्पना अंग्रेज कवि शेली ने की है ठीक उसी तरह का उन्मुक्त समाज है गोपियों का।' -आचार्य शुक्ल
'गोपियों का वियोग-वर्णन, वर्णन के लिए ही है उसमें परिस्थितियों का अनुरोध नहीं है। राधा या गोपियों के विरह में वह तीव्रता और गंभीरता नहीं है जो समुद्र पार अशोक वन में बैठी सीता के विरह में है।'-आचार्य शुक्ल
अति मलीन वृषभानु कुमारी।/छूटे चिहुर वदन कुभिलाने, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी। -सूरदास
ज्यों स्वतंत्र होई त्यों बिगड़हिं नारी
(जिमी स्वतंत्र भए बिगड़हिंनारी) -तुलसीदास
सास कहे ननद खिजाये राणा रहयो रिसाय
पहरा राखियो, चौकी बिठायो, तालो दियो जराय। -मीरा
संतन ठीग बैठि-बैठि लोक लाज खोई -मीरा
या लकुटि अरु कंवरिया पर
राज तिहु पुर को तजि डारो -रसखान
काग के भाग को का कहिये,
हरि हाथ सो ले गयो माखन रोटी -रसखान
मानुस हौं तो वही रसखान बसो संग गोकुल गांव के ग्वारन -रसखान
'जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गानेवाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का। वास्तव में ये हिन्दी काव्यगगन के सूर्य और चंद्र है।' -आचार्य शुक्ल
रचि महेश निज मानस राखा
पाई सुसमय शिवासन भाखा -तुलसीदास
मंगल भवन अमंगल हारी
द्रवहु सुदशरथ अजिर बिहारी -तुलसीदास

सबहिं नचावत राम ग़ोसाई
मोहि नचावत तुलसी गोसाई -फादर कामिल बुल्के
'बुद्ध के बाद तुलसी भारत के सबसे बड़े समन्वयकारी है' -जार्ज ग्रियर्सन
'मानस (तुलसी) लोक से शास्त्र का, संस्कृत से भाषा (देश भाषा) का, सगुण से निर्गुण का, ज्ञान से भक्ति का, शैव से वैष्णव का, ब्राह्मण से शूद्र का, पंडित से मूर्ख का, गार्हस्थ से वैराग्य का समन्वय है।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
बहुरि वदन विधु अँचल ढाँकी, पिय तन चितै भौंह करि बांकी खंजन मंजु तिरीछे नैननि, निज पति कहेउं तिनहहिं सिय सैननि। (ग्रामीण स्त्रियों द्वारा राम से संबंध के प्रश्न पूछने पर सीता का आंगिक लक्षणों से जवाब) -तुलसीदास
हे खग हे मृग मधुकर श्रेणी क्या तूने देखी सीता मृगनयनी -तुलसीदास
पूजिये विप्र शील गुण हीना, शूद्र न गुण गन ज्ञान प्रवीना -तुलसीदास
छिति, जल, पावक, गगन, समीरा
पंचरचित यह अधम शरीरा। -तुलसीदास
कत विधि सृजी नारी जग माहीं, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं -तुलसीदास
अखिल विश्व यह मोर उपाया
सब पर मोहि बराबर माया। -तुलसीदास
काह कहौं छवि आजुकि भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक तव नवै धरो धनुष शर हाथ।। -तुलसीदास
सब मम प्रिय सब मम उपजाये
सबते अधिक मनुज मोहिं भावे -तुलसीदास
मेरी न जात-पाँत, न चहौ काहू की जात-पाँत -तुलसीदास
सुन रे मानुष भाई,
सबार ऊपर मानुष सत्य
ताहार ऊपर किछु नाई। -चण्डी दास
बड़ा भाग मानुष तन पावा,
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा -तुलसीदास
'जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तः करणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्ति युग कहते हैं। निश्चित ही वह हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग था।' -श्याम सुन्दर दास
'हिन्दी काव्य की सब प्रकार की रचना शैली के ऊपर गोस्वामी तुलसीदास ने अपना ऊँचा आसन प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं।' -रामचन्द्र शुक्ल
जनकसुता, जगजननि जानकी।
अतिसय प्रिय करुणानिधान की। -तुलसीदास
तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही। -तुलसीदास
अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम बेल बोई।
सावन माँ उमग्यो हियरा भणक सुण्या हरि आवण री। -मीरा
घायल की गति घायल जानै और न जानै कोई। -मीरा
मोर पंखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढि पिताबंर लै लकुटी बन गोधन ग्वालन संग फिरौंगी।
भावतो सोई मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी। - रसखान
जब जब होइ धरम की हानि। बढ़हिं असुर महा अभिमानी।।
तब तब धरि प्रभु मनुज सरीरा। हरहिं सकल सज्जन भवपीरा।। -तुलसीदास
'समूचे भारतीय साहित्य में अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अती सांकरी, ता में दो न समाहि।। -कबीर

मो सम कौन कुटिल खल कामी -सूरदास
भरोसो दृढ इन चरनन केरो -सूरदास
धुनि ग्रमे उत्पन्नो, दादू योगेंद्रा महामुनि -रज्जब
सब ते भले विमूढ़ जन, जिन्हें न व्यापै जगत गति -तुलसीदास
केसव कहि न जाइ का कहिए।
देखत तब रचना विचित्र अति, समुझि मनहि मन रहिए।
('विनय पत्रिका') -तुलसीदास
पुष्टिमार्ग का जहाज जात है सो जाको कछु लेना हो सो लेउ -विट्ठलदास
हरि है राजनीति पढ़ि आए -सूरदास
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।। -मलूकदास
हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास।
सब जग जलता देख, भया कबीर उदास।। -कबीर
विक्रम धँसा प्रेम का बारा, सपनावती कहँ गयऊ पतारा। -मंझन
कब घर में बैठे रहे, नाहिंन हाट बाजार
मधुमालती, मृगावती पोथी दोउ उचार। -बनारसी दास
मुझको क्या तू ढूँढे बंदे, मैं तो तेरे पास रे। -कबीर
रुकमिनि पुनि वैसहि मरि गई
कुलवंती सत सो सति भई -कुतबन
बलंदीप देखा अँगरेजा, तहाँ जाई जेहि कठिन करेजा -उसमान
जानत है वह सिरजनहारा, जो किछु है मन मरम हमारा।
हिंदु मग पर पाँव न राखेऊ, का जो बहुतै हिंदी भाखेऊ।।
('अनुराग बाँसुरी') -नूर मुहम्मद
यह सिर नवे न राम कू, नाहीं गिरियो टूट।
आन देव नहिं परसिये, यह तन जायो छूट।। -चरनदास
सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहत अस होय।
गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय।। -रहीम
मो मन गिरिधर छवि पै अटक्यो/ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै, चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो -कृष्णदास
कहा करौ बैकुंठहि जाय
जहाँ नहिं नंद, जहाँ न जसोदा, नहिं जहँ गोपी, ग्वाल न गाय -परमानंद दास
बसो मेरे नैनन में नंदलाल
मोहनि मूरत, साँवरि सूरत, नैना बने रसाल -मीरा
लोटा तुलसीदास को लाख टका को मोल -होलराय
साखी सबद दोहरा, कहि कहिनी उपखान।
भगति निरूपहिं निंदहि बेद पुरान।। -तुलसीदास
माता पिता जग जाइ तज्यो
विधिहू न लिख्यो कछु भाल भलाई -तुलसीदास
निर्गुण ब्रह्म को कियो समाधु
तब ही चले कबीरा साधु। -दादू
अपना मस्तक काटिकै बीर हुआ कबीर -दादू
सो जागी जाके मन में मुद्रा/रात-दिवस ना करई निद्रा -कबीर
काहे री नलिनी तू कुम्हलानी/तेरे ही नालि सरोवर पानी। -कबीर
कलि कुटिल जीव निस्तार हित वाल्मीकि तुलसी भयो -नाभादास
नैया बिच नदिया डूबति जाय -कबीर
भक्तिहिं ज्ञानहिं नहिं कछु भेदा -तुलसी
प्रभुजी मोरे अवगुन चित्त न धरो -सूर
अब लौ नसानो अब न नसैहों [अब तक का जीवन नाश (बर्बाद) किया। आगे न करूँगा।] -तुलसी
अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे -कबीर
संत हृदय नवनीत समाना -तुलसी
रामझरोखे बैठ के जग का मुजरा देख -कबीर
निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोई।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि-मन भ्रम होई।। -तुलसी
गौर किमि कहौं बखानी।
गिरा अनयन नयन बिनु बानी।। -तुलसी
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे मांहि।
ज्यों रहीम नटकुंडली, सिमिट कूदि चलि जांहि।। -रहीम
प्रेम प्रेम ते होय प्रेम ते पारहिं पइए -सूर
तब लग ही जीबो भला देबौ होय न धीम।
जन में रहिबो कुँचित गति उचित न होय रहीम।। -रहीम
सेस महेस गनेस दिनेस, सुरेसहुँ जाहि निरंतर गावैं।
जाहिं अनादि अनन्त अखंड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं।। -रसखान
बहु बीती थोरी रही, सोऊ बीती जाय।
हित ध्रुव बेगि विचारि कै बसि बृंदावन आय।। -ध्रुवदास
पूर्व-मध्यकालीन/भक्तिकालीन रचना एवं रचनाकार
(A) संत काव्य
बीजक (1. रमैनी 2. सबद 3. साखी; संकलन धर्मदास) कबीरदास
बानी रैदास
ग्रंथ साहिब में संकलित
(संकलन-गुरु अर्जुन देव) नानक देव
सुंदर विलाप सुंदर दास
रत्न खान, ज्ञानबोध मलूक दास
(B) सूफी काव्य
हंसावली असाइत
चंदायन या लोरकहा मुल्ला दाऊद
मधुमालती मंझन
मृगावती कुतबन
चित्रावती उसमान
पद्मावत, अखरावट, आखिरी कलाम, कन्हावत जायसी
माधवानल कामकंदला आलम
ज्ञान दीपक शेख नबी
रस रतन पुहकर
लखमसेन पद्मावत कथा दामोदर कवि
रूप मंजरी नंद दास
सत्यवती कथा ईश्वर दास
इंद्रावती, अनुराग बाँसुरी नूर मुहम्मद
(C) कृष्ण भक्ति काव्य
सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, भ्रमरगीत (सूरसागर से संकलित अंश) सूरदास
फुटकल पद कुंभन दास
परमानंद सागर परममानंद दास
जुगलमान चरित्र कृष्ण दास
फुटकल पद गोविंद स्वामी
द्वादशयश, भक्ति प्रताप, हितजू को मंगल चतुर्भुज दास
रास पंचाध्यायी, भंवर गीत (प्रबंध काव्य) नंद दास
युगल शतक श्री भट्ट
हित चौरासी हित हरिवंश
हरिदास जी के पद स्वामी हरिदास
भक्त नामावली, रसलावनी ध्रुव दास
नरसी जी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद मीराबाई
प्रेम वाटिका, सुजान रसखान, दानलीला रसखान
सुदामा चरित नरोत्तमदास
(D) राम भक्ति काव्य
राम आरती रामानंद
रामाष्टयाम, राम भजन मंजरी अग्र दास
भरत मिलाप, अंगद पैज ईश्वर दास
रामचरित मानस (प्र०), गीतावली, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली, कृष्ण गीतावली,
पार्वती मंगल, जानकी मंगल, बरवै रामायण (प्र०), रामाज्ञा प्रश्नावली,
वैराग्य संदीपनी, राम लला नहछू तुलसीदास
भक्त माल नाभादास
रामचन्द्रिका (प्रबंध काव्य) केशव दास
पौरुषेय रामायण नरहरि दास
(E) विविध
पंचसहेली छीहल
हरिचरित, भागवत दशम स्कंध भाषा लालच दास
रुक्मिणी मंगल, छप्पय नीति, कवित्त संग्रह महापात्र नरहरि बंदीजन
माधवानल कामकंदला आलम
शत प्रश्नोत्तरी मनोहर कवि
हनुमन्नाटक बलभद्र मिश्र
कविप्रिया, रसिक प्रिया , वीर सिंह, देव चरित(प्र०),
विज्ञान गीता, रतनबावनी, जहाँगीर जस चंद्रिका केशव दास
रहीम दोहावली या सतसई, बरवै नायिका भेद, श्रृंगार सोरठा,
मदनाष्टक, रास पंचाध्यायी, रहीम रत्नावली रहीम (अब्दुर्रहीम खाने खाना)
काव्य कल्पद्रुम सेनापति
रस रतन पुहकर कवि
सुंदर श्रृंगार सुंदर
पद्दिनी चरित्र लालचंद
'अष्टछाप' के कवि
बल्लभाचार्य के शिष्य (1) सूरदास (2) कुंभन दास (3) परमानंद दास (4) कृष्ण दास
बिट्ठलनाथ के शिष्य (5) छीत स्वामी (6) गोविंद स्वामी (7) चतुर्भुज दास (8) नंद दास
उत्तर-मध्यकाल/रीतिकाल (1650ई० - 1850ई०)
नामकरण की दृष्टि से उत्तर-मध्यकाल विवादास्पद है। इसे मिश्र बंधु ने 'अलंकृत काल', रामचन्द्र शुक्ल ने 'रीतिकाल' और विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने 'श्रृंगार काल' कहा है।
रीतिकाल के उदय के संबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है : 'इसका कारण जनता की रूचि नहीं, आश्रयदाताओं की रूचि थी, जिसके लिए वीरता और कर्मण्यता का जीवन बहुत कम रह गया था। .... रीतिकालीन कविता में लक्षण ग्रंथ, नायिका भेद, श्रृंगारिकता आदि की जो प्रवृत्तियाँ मिलती हैं उसकी परंपरा संस्कृत साहित्य से चली आ रही थीं।
डॉ० नगेन्द्र का मत है, 'घोर सामाजिक और राजनीतिक पतन के उस युग में जीवन बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर घर की चारदीवारी में कैद हो गया था। घर में न शास्त्र चिंतन था न धर्म चिंतन। अभिव्यक्ति का एक ही माध्यम था-काम। जीवन की बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर मन नारी के अंगों में मुँह छिपाकर विशुद्ध विभोर तो हो जाता था' ।
हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, 'संस्कृत के प्राचीन साहित्य विशेषतः रामायण और महाभारत से यदि भक्तिकाल के कवियों ने प्रेरणा ली तो रीतिकाल के कवियों ने उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य से प्रेरणा व प्रभाव लिया। ...... लक्षण ग्रंथ, नायिका भेद, अलंकार और संचारी आदि भावों के पूर्वनिर्मित वर्गीकरण का आधार लेकर ये कवि बंधी-सधी बोली में बंधे-सधे भावों की कवायद करने लगे' ।
समग्रतः रीतिकालीन काव्य जनकाव्य नहीं है बल्कि दरबारी संस्कृति का काव्य है। इसमें श्रृंगार और शब्द-सज्जा पर जोर रहा। कवियों ने सामान्य जनता की रुचि को अनदेखा कर सामंतों एवं रईसों की अभिरुचियों को कविता के केन्द्र में रखा। इससे कविता आम आदमी के दुख एवं हर्ष से जुड़ने के बजाय दरबारों के वैभव व विलास से जुड़ गई।
रीतिकाल की दो मुख्य प्रवृत्तियाँ थीं-
(1) रीति निरूपण
(2) श्रृंगारिकता।
रीति निरूपण को काव्यांग विवेचन के आधार पर दो वर्गो में बाँटा जा सकता है
(1) सर्वाग विवेचन : सर्वाग विवेचन के अन्तर्गत काव्य के सभी अंगों (रस, छंद, अलंकार आदि) को विवेचन का विषय बनाया गया है। चिन्तामणि का 'कविकुलकल्पतरु', देव का 'शब्द रसायन', कुलपति का 'रस रहस्य', भिखारी दास का 'काव्य निर्णय' इसी तरह के ग्रंथ हैं।
(ii) विशिष्टांग विवेचन : विशिष्टांग विवेचन के तहत काव्यांगों में रस, छंद व अलंकारों में से किसी एक अथवा दो अथवा तीनों का विवेचन का विषय बनाया गया है। तीनों में रस में और रस में भी श्रृंगार रस में रचनाकारों ने विशेष दिलचस्पी दिखाई है। 'रसविलास' (चिंतामणि), 'रसार्णव' (सुखदेव मिश्र), 'रस प्रबोध' (रसलीन), 'रसराज' (मतिराम), 'श्रृंगार निर्णय' (भिखारी दास), 'अलंकार रत्नाकर' (दलपति राय), 'छंद विलास' (माखन) आदि इसी श्रेणी के ग्रंथ हैं।
रीति निरूपण की परिपाटी बहुत सतही है। रीति निरूपण में रीति कालीन रचनाकारों की रूचि शास्त्र के प्रति निष्ठा का परिणाम नहीं है बल्कि दरबार में पैदा हुई रचनात्मक आवश्यकता है। इनका उद्देश्य सिर्फ नवोदित कवियों को काव्यशास्त्र की हल्की-फुल्की जानकारी देना है तथा अपने आश्रयदाताओं पर अपने पांडित्य का धौंस जमाकर अर्थ दोहन करना है।
रीतिकालीन कवियों को तीन वर्गों में बाँटा जाता है- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध एवं रीतिमुक्त।
(i) रीतिबद्ध कवि : रीतिबद्ध कवियों (आचार्य कवियों) ने अपने लक्षण ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से रीति परम्परा का निर्वाह किया है; जैसे- केशवदास, चिंतामणि, मतिराम, सेनापति, देव, पद्माकर आदि। आचार्य राचन्द्र शुक्ल ने केशवदास को 'कठिन काव्य का प्रेत' कहा है।
(ii) रीतिसिद्ध कवि : रीतिसिद्ध कवियों की रचनाओं की पृष्ठभूमि में अप्रत्यक्ष रूप से रीति परिपाटी काम कर रही होती है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से साफ पता चलता है कि उन्होंने काव्य शास्त्र को पचा रखा है। बिहारी, रसनिधि आदि इस वर्ग में आते है।
(iii) रीतिमुक्त कवि : रीति परंपरा से मुक्त कवियों को रीतिमुक्त कवि कहा जाता है। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा, द्विजदेव आदि इस वर्ग में आते हैं।
रीतिकालीन आचार्यों में देव एकमात्र अपवाद है जिन्होंने रीति निरूपण के क्षेत्र में मौलिक उद्भावनाएं की।
रीतिकाल की दूसरी मुख्य प्रवृत्ति श्रृंगारिकता थी।
(i) रीतिबद्ध कवियों की श्रृंगारिकता :रीतिबद्ध कवियों ने काव्यांग निरूपण करते हुए उदाहरणस्वरूप श्रृंगारिकता रचनाएँ प्रस्तुत की है। केशवदास, चिंतामणि, देव, मतिराम आदि की रचनाओं में इसे देखा जा सकता है।
(ii) रीतिसिद्ध कवियों की श्रृंगारिकता : रीतिसिद्ध कवियों का काव्य रीति निरूपण से तो दूर है, किन्तु रीति की छाप लिए हुए है। बिहारी, रसनिधि आदि की रचनाओं में इसे देखा जा सकता है।
(iii) रीतिमुक्त कवियों की श्रृंगारिकता : रीतिमुक्त कवियों की श्रृंगारिकताविशिष्ट प्रकार की है। रीतिमुक्त कवि 'प्रेम की पीर' के सच्चे गायक थे। इनके श्रृंगार में प्रेम की तीव्रता भी है एवं आत्मा की पुकार भी। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा आदि की रचनाओं में इसे महसूस किया जा सकता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है : ''श्रृंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान 'बिहारी सतसई' का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है। .... बिहारी ने इस सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है। .... मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई संदेह नहीं।
जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समाहार शक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या है रस के छोटे-छोटे छीटें है।''
थोड़े में बहुत कुछ कहने की अदभुत क्षमता को देखते हुए किसी ने कहा है-
सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगे, घाव करै गंभीर।।
अर्थात जिस तरह नावक अर्थात तीरंदाज के तीर देखने में छोटे होते हैं पर गंभीर घाव करते हैं, उसी तरह बिहारी सतसई के दोहे देखने में छोटे लगते है पर अत्यंत गहरा प्रभाव छोड़ते हैं।
रीतिकाल की गौण प्रवृत्तियाँ थीं- भक्ति वीरकाव्य/राज प्रशस्ति व नीति।
रीतिकाल में भक्ति की प्रवृत्ति मंगलाचरणों, ग्रंथों की समाप्ति पर आशीर्वचनों, काव्यांग विवेचन संबंधी ग्रंथों में दिए गए उदाहरणों आदि में मिलती है।
रीतिकाल में लाल कवि, पद्माकर भट्ट, सूदन, खुमान, जोधराज आदि ने जहाँ प्रबंधात्मक वीर-काव्य की रचना की, वहीं भूषण, बाँकी दास आदि मुक्तक वीर-काव्य की। इन कवियों ने अपने संरक्षक राजाओं का ओजस्वी वर्णन किया है।
रीतिकाल में वृन्द, रामसहाय दास, दीन दयाल गिरि, गिरिधर, कविराय, घाघ-भड्डरि, वैताल आदि ने निति विषयक रचनाएँ रची।
रीतिकालीन शिल्पगत विशेषताएँ :
(1) सतसई परम्परा का पुनरुद्धार
(2) काव्य भाषा-वज्रभाषा (श्रुति मधुर व कोमल कांत पदावलियों से युक्त तराशी हुई भाषा)
(3) काव्य रूप-मुख्यतः मुक्तक का प्रयोग
(4) दोहा छंद की प्रधानता (दोहे 'गागर में सागर' शैली वाली कहावत को चरितार्थ करते है तथा लोकप्रियता के लिहाज से संस्कृत के 'श्लोक' एवं अरबी-फारसी के शेर के समतुल्य है।); दोहे के अलावा 'सवैया' (श्रृंगार रस के अनुकूल छंद) और 'कवित्त' (वीर रस के अनुकूल छंद) रीति कवियों के प्रिय छंद थे। केशवदास की 'रामचंद्रिका' को 'छंदों' का अजायबघर' कहा जाता है।
रीतिमुक्त/रीति स्वच्छन्द काव्य की विशेषताएँ : बंधन या परिपाटी से मुक्त रहकर रीतिकाव्य धारा के प्रवाह के विरुद्ध एक अलग तथा विशिष्ट पहचान बनाने वाली काव्यधारा 'रीतिमुक्त काव्य' के नाम से जाना जाता है। रीतिमुक्त काव्य की विशेषताएँ थीं :

(1) रीति स्वच्छंदता
(2) स्वअनुभूत प्रेम की अभिव्यक्ति
(3) विरह का आधिक्य
(4) कला पक्ष के स्थान पर भाव पक्ष पर जोर
(5) पृथक काव्यादर्श/प्राचीन काव्य परम्परा का त्याग

21.3.18

शिवाजी महाराज का इतिहास:Shivaji ka jeevan parichay

                                                              



शिवाजी भारत के महान् योद्धा एवं रणनीतिकार थे, जिन्होंने 1674 ई. में पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। उन्होंने कई वर्ष औरंगज़ेब के मुग़ल साम्राज्य से संघर्ष किया। सन 1674 में रायगढ़ में उनका राज्याभिषेक हुआ और वे छत्रपति बने। शिवाजी ने अपनी अनुशासित सेना एवं सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों की सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया। उन्होंने समर-विद्या में अनेक नवाचार किये तथा छापामार युद्ध की नयी शैली (शिवसूत्र) को विकसित किया। उन्होंने प्राचीन हिन्दू राजनैतिक प्रथाओं तथा दरबारी शिष्टाचारों को पुनर्जीवित किया और फ़ारसी के स्थान पर मराठी एवं संस्कृत को राजकाज की भाषा बनाया।
                                       
मराठा राज्य के प्रथम शासक थे शिवाजी महाराज |शिवाजी का जन्म ६ अप्रैल १६२७ को शिवनेर के दुर्ग में हुआ था . शिवाजी के पिता का नाम शाहजी भोंसले और माता का नाम जीजाबाई था . शाहजी भसले पहले अहमदनगर के निजाम थे और बाद में बीजापुर के दरबार में नौकरी करने लगे | शिवाजी के पालन पोषण का दायित्व पूरा उनकी माता जीजाबाई पर था | शिवाजी बचपन से ही बहुत साहसी थे | कहा जाता है उनकी माता बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की थी , जिनका प्रभाव भी शिवाजी पर पड़ा | माता जीजाबाई बचपन में शिवाजी को वीरता की कहानिया सुनाया करती , जिसका प्रभाव शिवाजी पर पडा | शिवाजी के गुरु थे स्वामी रामदास जिन्होंने शिवाजी की निर्भीकता , अन्याय से जूझने की सामर्थ्य और संगठनात्मक योगदान का विकास किया |
शिवाजी राजे के कुछ बढे होने पर शाहजी ने शिवाजी को अपनी एक जागीर पुणे दे दी | शिवाजी बहुत साहसी थे और सोचते थे की वह दूसरे राजायो की सेवा क्यों करे . शिबवाजी का सपना था मराठो का अलग राज्य हो , इसी सपने को लेकर शिवाजी १८ साल की उम्र से ही सेना इकठा करने लगे . धीरे धीरे एक अलग मराठा राज्य बनाने के उद्देश्य से शिवाजी ने आस पास के छोटे छोटे राज्यो पर आक्रमण करना शुरू कर दिया और उन्हें जीत लिया | शिवाजी ने पुणे के आस पास के कई किलो को जीत लिया और नए किलों का निर्माण भी कराया जैसे ‘ रायगढ़ का किला ‘
शिवाजी को स्वत्रंत राज्य की स्थापना करने में दक्षिण में बीजापुर और अहमदाबाद के सुल्तान और दिल्ली में मुग़ल बादशाह से संघर्ष करना पढ़ा |
शिवाजी को मारने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अपने प्रमुख सेनापति अफजल को एक विशाल सेना के साथ पुणे की तरफ भेजा | अफजल खान ने शिवाजी को मारने के लिए चालाकी से उन्हें अपने तम्बू में संधि करने बुलाया | शिवाजी अपने कुछ सिपाहियों के साथ अफजल से मिलने गए | अफजल शिवजी महाराज को मारता इससे पहले ही शिवाजी ने उसे मार गिराया | शिवाजी की बढ़ती हुई ताकत को देखकर मुग़ल बादशाह शिवाजी को खतरे के रूप में देखने लगा . औरंगजेब ने शिवाजी को मारने के लिए सूबेदार शाहिस्ता खान को भेजा | शिवाजी ने उसे भी हरा दिया |
उसके बाद औरंगजेब ने जयसिंह को शिवाजी के पास भेजा | जयसिंह के समझने पर शिवाजी औरंगजेब से संधि करने औरंगजेब के दरवार में आ गए |वहां औरंगजेब ने शिवाजी को कैद कर दिया | शिवाजी कुछ समय बाद औरंगजेब की कैद से योजना बनाकर निकल गए | इसके बाद १६७० में सूरत पर आक्रमण करके उन्होंने बहुत सी संपत्ति इक्कठी कर ली | शिवाजी का रायगढ़ में पंडित गंगाभट्ट द्वारा राज्याभिषेक हुआ और शिवाजी "छत्रपती शिवाजी महाराज" हो गए | शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के कुछ दिन बाद ही उनकी माता जीजाबाई का देहांत हो गया | शिवाजी ने अपने गुरु की चरण पादुका रखकर शासन किया और अपने गुरु के नाम पर ही सिक्के बनवाये | 1680 में शिवाजी महाराज का देहांत हो गया |
शिवाजी की शासन प्रणाली
शिवाजी महाराज एक कुशल शासक, योग्य सेनापति थे , शिवाजी ने अपनी योग्यता के बल पर मराठो को संगठित करके अलग मराठा साम्राज्य की स्थापना की .
शिवाजी ने अपनी राज्य व्यवस्था के लिए 8 मंत्री नियुक्त किये | उन्हें अष्ट प्रधान कहा जाता था | जिसमे पेशवा का पद सबसे महत्वपूर्ण होता था
साम्राज्य की सुरक्षा के लिए शिवाजी ने एक अनुशासित सेना बनायीं |उन्होंने एक जहाजी बेडा भी बनाया इसलिए शिवाजी को आधुनिक नौ सेना का जनक भी कहा जाता है | शिवाजी छापामार युद्ध प्रणाली का प्रयोग करते थे | भूमि कर मराठा राज्य की आय का मुख्य स्रोत्र था |
मराठा प्रणाली के ८ मुख्य पद
1. पेशवा (प्रधानमंत्री )
2.अमात्य ( मजूमदार )
3.मंत्री
4.सचिव
5.सुमंत
6.सेनापति
7.पंडित राव
8.न्यायधीश
शिवाजी महाराज के उत्तारधिकारी
शिवाजी महाराज के पौत्र शाहू ने एक ब्राह्मण बालाजी विश्वनाथ को अपना पेशवा नियुक्त किया | बालाजी विश्वनाथ ही राज्य की सभी व्यवस्था देखते थे | बालाजी विश्वनाथ ने अपनी योग्यता और कुशलता के बल पर मराठा शासन को मजबूत बनाया . उन्होंने मुग़ल शासक मोह्म्मद शाह रंगीला से दक्षिण इलाके से चौथे और सरदेशमुखी कर बसूलना शुरू कर दिया | और उन सब इलाको पर पुनः अधिकार कर लिया जिसे मुगलो ने अपने अधिकार में ले लिया था | सैनिक और आर्थिक दृस्टि से मराठो ने अपनी शक्ति बढ़ा ली अब वह मुग़ल सेना का सामना भली भांति कर सकते थे | मुगलो के साथ युद्ध करने में मराठो ने छापामार प्रणाली अपनायी .
बालाजी विश्वनाथ के बाद उनका पुत्र बाजीराव ( Peshwa Bajirao )प्रथम को पेशवा के पद पर नियुक्त किया गया | बाजीराव एक कुशल सेनापति व उच्च कोटि का कूटनीतिज्ञ थे | बाजीराव प्रथम के बाद बाजीराव के पुत्र बाजीराव द्वितीय को पेशवा बनाया गया|
बाजीराव द्वितीय का अफगानिस्तान के शासक अब्दाली से पानीपत में युद्ध हुआ | इस युद्ध में मराठाओ की हर हुई | और मराठा साम्राज्य का पतन हुआ |
शिवाजी महाराज की विशेषता
1. अच्छी संगठन शक्ति का होना
शिवाजी ने बिक्री हुए मराठाओ को इक्कठा करके उनकी शक्ति को एक जुट कर एक महान मराठा राज्य की स्थापना की|
2. वीर सैनिक
शिवाजी जैसे वीर भारत देश में बहुत कम हुए हैं , आज भी उनकी वीरता की कहानियो लोगो के उत्साह को बढ़ा देती हैं
3. महान मार्गदर्शक
शिवाजी ने मुगलो के राज्य में हिन्दू साम्राज्य स्थापित करने वाले एक मात्र राजा थे , उन्होंने केवल मराठाओ को ही नहीं वल्कि सभी भारतवासियो को भी नयी दिशा दिखाई|
4.आज्ञाकारी पुत्र और शिष्य
कहा जाता है शिवाजी अपनी माता की हर आज्ञा का पालन करते थे|
शिवाजी महाराज से जुडी महत्वपूर्ण जानकारियां
1. उनका जन्म 6 अप्रैल 1627 को शिवनेर के दुर्ग में हुआ था .
2. शिवाजी की पत्नी का नाम सइबाई था
3. उन्होंने मात्र 18 साल की उम्र में मराठा सेना बनाकर स्वत्रंत मराठा राज्य बनाना प्रारम्भ कर दिया|
4. 1674 में उन्हें छत्रपति की उपाधि दी गयी
5. 1680 में शिवाजी महाराज का देहांत हो गया |
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14.3.18

बेरवा समाज का की उत्पत्ति और इतिहास

                                                 

 



बैरवा जाति / समाज मूलतः राजस्थान की मूल निवासी मानी जाती है। हिन्दू धर्म में बैरवा समाज को अनुसूचित जाति वर्ग में माना जाता हैं और कहीं-कहीं ये पिछड़ी जाति के अन्तर्गत आते हैं।
  बैरवा समाज का मुख्य व्यवसाय कृषि , पशुपालन और भवन निर्माण से जुड़े कार्य ही रहा है। वर्तमान में देशभर में बैरवा समाज के लोग हर प्रांत और कस्बे में मिल जाएंगें। लेकिन कहा जाता है कि बैरवा समाज के लोग राजस्थान से ही खाने – कमाने के लिए दूसरे प्रदेशों में गए थे और अब वहीं के होकर रह गए। वर्तमान में देशभर में बैरवा समाज की आबादी करीब 40 लाख बताई हैं।स्वर्गीय बनवारी लाल बैरवा राजस्थान के उप मुख्यमंत्री रहे हैं।

बैरवा समाज में एकल विवाह ही प्रचलन में हैं। हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत लोग विवाह करते हैं। पूर्व में लड़के या लड़की की रिश्तेदार शादियां तय करके विवाह करा देते थे। लेकिन अब समय के साथ बदलाव आया हैं। बैरवा समाज के युवक- युवतियां एक – दूसरे को देखने समझने के बाद ही विवाह के लिए हां करने पर ही परिजन उनका विवाह करते हैं। बैरवा समाज में दहेज प्रथा का भी प्रचलन हैं। लोग अपनी हैसियत के अनुसार लड़के वाले को उपहार देता हैं। नाता प्रथा का भी बैरवा समाज में प्रचलन हैं। 
बैरवा समाज में रिती रिवाज के नाम पर हिन्दू धर्म की सभी रिती रिवाज मानते हैं। विवाह के समय लग्न भेजना, टीका करना , सगाई करना, चाक –भात,  और कपड़ों का लेन देन करने और रुपये पैसे देने की रिवाज हैं। विवाह में सात फेरे लेने और सनातन धर्म का पालन करना श्रेष्ठ माना जाता हैं। समाज में आज भी मृत्यु भोज का रिवाज हैं। हालांकि अब ये सीमित हो गया हैं। कुछ लोग इसे सिंबोलिक करने लगे हैं। 

बैरवा  समाज की उत्पत्ति का विडिओ 



  बैरवा समाज के लोग हिन्दू धर्म के सभी देवी- देवताओं की पूजा पाठ करते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा महर्षि बालिनाथ जी को मानते हैं। महर्षि बालीनाथ जी मानने वाले ही बैरवा है। लेकिन फिर भी बैरवा समाज के लोगों में भैरव, पितृ ,भोमिया, शहीद, सातों बहिनें, दुर्गा माता, वैष्णों माता, काली माता, बालाजी, शिवजी , गंगा मैय्या, तेजाजी महाराज, बाबा रामदेव की पूजा पाठ अधिक की जाती हैं। गांवों में लोग बीमार होने पर डाक्टर के पास जाने के बजाय आज भी पहले भैरु – भोमिया या माता के थड़े पर जाना पसंद करते हैं। हालांकि पिछले कुछ सालों में लोगों का इनसे मोह भंग होने लगा है। और अब बैरवा समाज के लोग राधा स्वामी, धन- धन सतगुरु, जय गुरुदेव, निरंकारी बाबा , मुरारी बापू, के शिष्य बन गए। बैरवा समाज की आधी से ज्यादा आबादी इन सतगुरुओं को मानने लगी हैं। इसका सकारात्मक प्रभाव भी लोगों पर पड़ा। लोग शाकाहार को अपनाने लगे है। 
    अब लोगों पर बौद्ध धर्म का प्रभाव भी पड़ने लगा हैं। कुछ लोगों ने हिन्दू धर्म की भेदभाव की नीतियों से परेशान होकर कई स्थानों पर बौद्ध धर्म भी अंगीकार कर लिया हैं। कई लोग बौद्द  धर्म का प्रचार – प्रसार करने में लगे हैं। लेकिन धर्म के मामले में बैरवा समाज के लोग स्थानीय आधार पर देवी- देवताओं की पूजा पाठ करते हैं।  बाबा रामदेव को सर्वाधिक लोग मानते हैं। इसके पीछे रामदेव की दलित वर्ग के लोगों के लिए किए गए काम हैं। लोगों में संत – महात्माओं का प्रभाव लगातार बढ़ रहा हैं। इन संत – महात्माओं की शिक्षा का ही असर है कि बैरवा समाज के लोग रुढियों और परम्पराओं से दूर हो रहे हैं। समाज में शिक्षा का असर बढ़ रहा हैं। युवा पीढी नशे से भी दूर हो रही हैं। शाकाहार बढ़ने से लोगों का आत्मविश्वास बढ़ा हैं। लोगों में अब ऱाधा स्वामी, धन- धन सतगुरु, निरंकारी , जय गुरुदेव जैसे संत –महात्माओं का प्रभाव बढ़ा हैं। लाखों लोग इनके अनुयायिय बन चुके हैं।
   बैरवा समाज के लोग बाबा साहेब के साथ – साथ महर्षि बालिनाथ जी के अनुयाई हैं। क्योंकि बैरवा समाज में सामाजिक चेतना का काम आजादी से भी पहले बालिनाथ जी महाराज ने शुरु किया था। बताया जाता है कि उन्होंने सबसे पहले 1922 में सबसे पहले उज्जैन से समाज सुधार का बीड़ा उठाया था। इसलिए बैरवा समाज के लोग उन्हें सबसे ज्यादा मानते हैं। उऩ्होंने समाज में व्याप्त मांसाहार और नशे से दूर रहने के लिए प्रेरित किया था। उन्होंने ने ही बेगारी प्रथा और जागीरदारों से मुक्ति के लिए अभियान चलाया था। उनकी शिक्षा का असर आज भी देखा जा सकता है। बैरवा समाज के लोगों की रविदास जी महाराज, कबीर दास जी , महात्मा ज्योबा फूले, सावित्री बाई और रामदेव जी महाराज के प्रति अटूट श्रद्दा हैं।
   बैरवा समाज के लोगों का पहनावा गांवों में पुरुषों का धोती-कमीज और चूंदड़ी या सफेद साफे और पेंट - शर्ट पहनते हैं। वहीं महिलाएं गांवों में घाघरा – लूगड़ी और साड़ी पहनती हैं। लेकिन अब गांवों में भी बैरवा समाज के लोग धोती- कमीज, पेंट – शर्ट –टी शर्ट , कोट, पेंट और सभी तरह के वस्त्र पहनते हैं। गांवों में जो युवाओं में जो धनाढ़य होते हैं कानों में सोने की मुर्कियां पहनने का चलन है।  शहरों में कच्ची बस्तियों में कालोनियों में फ्लैट्स विलास में भी रहने लगे हैं। लेकिन साफ – सुथरा रहना सबकी आदत में शुमार हैं। 
  बेरवा  समाज जाटव, रहगर, रायगर, रामदासी, रविदासी, रामदसिया, मोची के साथ गिना जाता है और जटिया के नाम से जाना जाता है। जिनकी गिनती चमार, चमारी, बैरवा, भांभी, जाटव, मोची, रेगर, नोना, रोहिदास, रामनामी, सतनामी, सूर्यवंशी, सूर्यारामनामी, अहिरवार, जाटव मंगन, रैदास  जाति के अंतर्गत होती है।
जाति इतिहासकार  डॉ.दयाराम  आलोक के अनुसार वर्तमान की बैरवा जाति पहले चँवर_वंश (राजपूत)के नाम से जानी जाती थी। मुगलों ने अत्याचार किया और इन्हें विकृत नाम दिया था ।



बैरवा समाज के गोत्र

क्रम. सं. मूलगोत्र गोत्रों का उपनामी उच्चारणअणिजवाल – अनिजवाल'अनेजा', रणिजवाल, उनिजवाल, आनन्दकर, उज्जवल
अन्धेरिया – ओध, अन्धावत
आकोदिया – अकेश, अरविन्द
अरल्या – अलोरिया, अलोरी, अन्जान, अजय, अलोरया, अलिन्द
उचिण्या – उचिनियाँ, अचिनिया, उज्जेनवाल
उमैणा – उमिणिया, उदभिणा, उदभिणिया
उदाणी – उदित, उद्वाल, उदेईवाल, उदिणिया
कारोल्या – करोल,केरोल, कलोलकर, केलकर, करोला
कांकरवाल – काँकर,कीरवाल,काँकोरिया
कामीवाल – कामीवाल,कामी
कालरवाल – कालरा,कारोलिया
कुवाल – कुलवाल,किवाड,कव्वाल
कुण्डारा – खुण्डारा,कुन्दारे,कुन्दन,कुन्द्रा,कदम,
कोलवाल – कोल, कौल, कोदवाल
खटनावाडिया – कठनवडिया,खटाना,वाडिया
खप्परवाडिया – कफनवाडिया, कक्कनवाडिया, वाडिया
खापरया – खापरयिा, खापर
खोडवाल – खोवाल
गांगिया – गंगवाल, गांगी, गंगवंशी,गंगोत्री , गांगे, गोयल
गजराण्या – गजराना, गजरानिया
गोगडया – गोगडे, गोगाडिया, गोवाडिया, गहलोद
गोठवाल – गोथवाल, गोठीवाल, गोडवाल, गोड, गोयल,
गोमलाडू – गोमा, गोभे, गुलाटी, गौरव, गौतम, गोमावत, गुजराल
घुणावत – घुणावत्या, डोणावत, द्रौड, द्रौणावत
चांचोडया – चांचोडिया
चन्दवाडा – चन्द्रनावत, चन्दन चन्द्रावत,चण्डाल
चैडवाल – चेरवाल, चडवाल
चरावण्ड्या – चन्द्रवाल,चरावण्डिया, चावण्ड, चापड, , चहवाण, चैहान, चरावंडा
जाटवा – यादव, जटवाडिया, जाटव
जारवाल – जरवाल, जेरवाल, जावरवाल
जीणवाल – जीनवाल, जीवनवाल, जीन्वाल, जेनल
जेडिया – जेरिया, जडिया
जोणवाल – जोनवाल ,जोरवाल जानेवाल,जूनवाल, जोनरवाल, जौहर
जाजोरया – जाजोरिया
झांटल – बडगोती, बडगोल्या, बदोतरा, बडोतरा, बडगोत्रा, जटिल
टटवाड्या – टटवाल, टटवाडिया, टाटीवाल, टाटावत, टाटा वाडिया
टाटू – कोइ उपनाम नहीं
टोंटा – टावर, टाँक
टैंटवा – टेंटवाल, टडेल,टेंडुला
ठाकुरिया – ठाकरसी, ठुकरिया, ठाकरिया
डबरोल्या – डबरोलिया, डाबी, डबिया, डाबर, डबोत
डोरेलिया, – डोयाॅ,डोरिया, डोरोल्या, डोरेला, डरोलिया
ढण्डेरवाल – दण्देरवाल,उन्डेरवाल, धन्डेरवाल, थंदेरवाल, दादर,
तलावल्या – तलवल्या, तलवाडियां, तिलकर, लिवालिया, तलवार
तोण्गरया – तोपागरिया, तंवर, तेेन
दोंढिया – कोइ उपनाम नहीं
दबकवाल – दबक, दबोह
देवतवाल – देव, देवतराल देतवाल
ध्यावणा – धावनिया, धावन, देवनिया, देवनियाध, धलय, धवन, धमेणिया
धोरण – धौरण, धोरावत
नंगवाडा – नागरवाल,नागर, निहौर, नागा, नागवंशी, नागेशरव,नागावत,
पचवाडिया – पाँचाल, पचेेर, पचवानियाँ
पराल्या – परालिया, पालीवाल, पाल पीलाडिया
पिडुल्या – पिन्डुलिया
पीलाडिया – कोई उपनाम नहीं
पातलवारया – पातलवाल
परसोया – फरसोया, पारस
पेडला – पेडवा, पेरवा
बन्दावड्या – बन्दावदिया, बैनाडा, बैन्दा बनावडिया, बनेरा, बिडला
बमणावत0 – बमनावत, बह्रमावत, ब्ररूपाल
बडोदया – बडोदिया
बारवाल – बहरवाल, बारूपाल
बन्दरवाल – कोई उपनाम नहीं
बासणवाल – बासनवाल, बंशीवाल, बसन, भसन, बंसल
बासोटया – बासोटिया
बीलवाल – बीलवाल
बुआ – ब्बुबदिया
बुहाडिया – कोई उपनाम नहीं
बैथाडा – बेथेडा, बेतेडा, बैथ, बथानिया, बकेडा
बसुआ – कोइ उपनाम नहीं
बागौरया – बागौरिया, भागोरिया, बागडिया, बागडी, बागवंशी
बौररा – बोर्या ,बोहरा वोहरा
बिनोल्या – बिनोलिया
बखण्ड – भखण्ड, अखण्ड
भदाला – भदावर, भदाले, भदावरिया
भरथूण्या – भ्रथूणिया, भरयूनिया, भारती
भिटोल्य – भीटनवाल, भिटोलिया, ब्ठिालिया
भियाणा – भियाानिया, भियाणिया, बिहाणिया, भ्यााणिया
भैण्डवाल – बैण्डवाल, वेदवाल, वेद, बैद, बेनीवाल
मरमट – मरमढ, मरमिट
मीमरोट – मीमरोठ, नीमरोट, मधुकर, मीरवाल, नीमरोह
मुराडया – मुराडिया, मुरारिया,
मेहरा – मेहर , महर , मेहरा ,मेहरवाल,
माली – मानवीय, मालवीभा, मालवीया,
मीचडवाल – कोइ उपनाम नही
मैनावत – कोइ उपनाम नही
रमण्डवाल – रमन्डवाल, रमनवाल, रमन, रमेटवाल, रमैया,
राजलवाल – राजनवाल , राजावत
राणीवाल – रानीवाल, रानावत, रेनीवाल, राना , रेनवाल
रैसवाल – रेसवाल, रईसवाल, रायसवाल, रेसवाला
रोघिया – रोदिया, रोद, रोड, रल्लावाद, रोलिया
राजौरया – राजोसिया
रेवाड्या – रेवाडिया, रावत, रेवडिया
लकवाल – लांकावाल, लंाका, लक्की,लक्कीवाल
लोटन – कोई उपनाम नही
लोदवाल – लोदीवाल,लोदिया,लोदनवाल,लोघा,लोदी
लोडोत्या – लोडेवा, लालावत,लोखण्डी
लोरवाड्या – लोरवाडिया, लोडवालिया
सरखण्डया – सरकन्डया, सरकाण्डिया, सरखन्डिया,सरेख
सुरेल्या – सुरिला, सुरेलिया, सुरिया
सेकरवाल – सरसूणिया, सरसूनिया
सरसूण्या – सरसूणिया, सारस्वत
सरसूंघा – सरसूतिया, सरस्वत
सरोया – सुरोया , सुरोहिया, सिरोहिया
सीवत्या – सींवतिया, सावत ,सीसोदया
सेररा – शेर,शेरवात,शेरा,शहर
सेवाल्या – सेवालिया,सेवाल,सेवलिया, सहेलिया, शिवाल्या
सुलाण्या – सुलाणिया,सुलानिया,सल्वानिया
सरवडिया – कोई उपनाम नही
वरणमाल – कोई उपनाम नही
हणोत्या – कोई उपनाम नही
हुकीणया – हुकीडिया, हुकीणा
नावलिया

बैरवा समाज में प्रचलित गोत्रों का विवरण:Details of the Gotras in Barwa society





क्रम. सं. मूलगोत्र गोत्रों का उपनामी उच्चारण

अणिजवाल – अनिजवाल, रणिजवाल, उनिजवाल, आनन्दकर, उज्जवल
अन्धेरिया – ओध, अन्धावत
आकोदिया – अकेश, अरविन्द
अरल्या – अलोरिया, अलोरी, अन्जान, अजय, अलोरया, अलिन्द
उचिण्या – उचिनियाँ, अचिनिया, उज्जेनवाल
उमैणा – उमिणिया, उदभिणा, उदभिणिया
उदाणी – उदित, उद्वाल, उदेईवाल, उदिणिया
कारोल्या – करोल,केरोल, कलोलकर, केलकर, करोला
कांकरवाल – काँकर,कीरवाल,काँकोरिया
कामीवाल – कामीवाल,कामी
कालरवाल – कालरा,कारोलिया
कुवाल – कुलवाल,किवाड,कव्वाल
कुण्डारा – खुण्डारा,कुन्दारे,कुन्दन,कुन्द्रा,कदम,खखर
कोलवाल – कोल, कौल, कोदवाल
खटनावाडिया – कठनवडिया,खटाना,वाडिया
खप्परवाडिया – कफनवाडिया, कक्कनवाडिया, वाडिया
खापरया – खापरयिा, खापर
खोडवाल – खोवाल
गांगिया – गंगवाल, गांगी, गंगवंशी,गंगोत्री , गांगे, गोयल
गजराण्या – गजराना, गजरानिया
गोगडया – गोगडे, गोगाडिया, गोवाडिया, गहलोद
गोठवाल – गोथवाल, गोठीवाल, गोडवाल, गोड
गोमलाडू – गोमा, गोभे, गुलाटी, गौरव, गौतम, गोमावत, गुजराल
घुणावत – घुणावत्या, डोणावत, द्रौड, द्रौणावत
चांचोडया – चांचोडिया
चन्दवाडा – चन्द्रनावत, चन्दन चन्द्रावत,चण्डाल
चैडवाल – चेरवाल, चडवाल
चरावण्ड्या – चन्द्रवाल,चरावण्डिया, चावण्ड, चापड, , चहवाण, चैहान, चरावंडा
जाटवा – यादव, जटवाडिया, जाटव
जारवाल – जरवाल, जेरवाल, जावरवाल
जीणवाल – जीनवाल, जीवनवाल, जीन्वाल, जेनल
जेडिया – जेरिया, जडिया
जोणवाल – जोनवाल ,जोरवाल जानेवाल,जूनवाल, जोनरवाल, जौहर
जाजोरया – जाजोरिया
झांटल – बडगोती, बडगोल्या, बदोतरा, बडोतरा, बडगोत्रा, जटिल
टटवाड्या – टटवाल, टटवाडिया, टाटीवाल, टाटावत, टाटा वाडिया
टाटू – कोइ उपनाम नहीं
टोंटा – टावर, टाँक
टैंटवा – टेंटवाल, टडेल,टेंडुला
ठाकुरिया – ठाकरसी, ठुकरिया, ठाकरिया
डबरोल्या – डबरोलिया, डाबी, डबिया, डाबर, डबोत
डोरेलिया, – डोयाॅ,डोरिया, डोरोल्या, डोरेला, डरोलिया
ढण्डेरवाल – दण्देरवाल,उन्डेरवाल, धन्डेरवाल, थंदेरवाल, दादर,
तलावल्या – तलवल्या, तलवाडियां, तिलकर, लिवालिया, तलवार
तोण्गरया – तोपागरिया, तंवर, तेेन
दोंढिया – कोइ उपनाम नहीं
दबकवाल – दबक, दबोह
देवतवाल – देव, देवतराल देतवाल
ध्यावणा – धावनिया, धावन, देवनिया, देवनियाध, धलय, धवन, धमेणिया
धोरण – धौरण, धोरावत
नंगवाडा – नागरवाल,नागर, निहौर, नागा, नागवंशी, नागेशरव,नागावत,
पचवाडिया – पाँचाल, पचेेर, पचवानियाँ
पराल्या – परालिया, पालीवाल, पाल पीलाडिया
पिडुल्या – पिन्डुलिया
पीलाडिया – कोई उपनाम नहीं
पातलवारया – पातलवाल
परसोया – फरसोया, पारस
पेडला – पेडवा, पेरवा
बन्दावड्या – बन्दावदिया, बैनाडा, बैन्दा बनावडिया, बनेरा, बिडला
बमणावत0 – बमनावत, बह्रमावत, ब्ररूपाल
बडोदया – बडोदिया
बारवाल – बहरवाल, बारूपाल
बन्दरवाल – कोई उपनाम नहीं
बासणवाल – बासनवाल, बंशीवाल, बसन, भसन, बंसल
बासोटया – बासोटिया
बीलवाल – बीलवाल
बुआ – ब्बुबदिया
बुहाडिया – कोई उपनाम नहीं
बैथाडा – बेथेडा, बेतेडा, बैथ, बथानिया, बकेडा
बसुआ – कोइ उपनाम नहीं
बागौरया – बागौरिया, भागोरिया, बागडिया, बागडी, बागवंशी
बौररा – बोर्या ,बोहरा वोहरा
बिनोल्या – बिनोलिया
बखण्ड – भखण्ड, अखण्ड
भदाला – भदावर, भदाले, भदावरिया
भरथूण्या – भ्रथूणिया, भरयूनिया, भारती
भिटोल्य – भीटनवाल, भिटोलिया, ब्ठिालिया
भियाणा – भियाानिया, भियाणिया, बिहाणिया, भ्यााणिया
भैण्डवाल – बैण्डवाल, वेदवाल, वेद, बैद, बेनीवाल
मरमट – मरमढ, मरमिट
मीमरोट – मीमरोठ, नीमरोट, मधुकर, मीरवाल, नीमरोह
मुराडया – मुराडिया, मुरारिया,
मेहर – मेहरवाल, मेहरा
माली – मानवीय, मालवीभा, मालवीया,
मीचडवाल – कोइ उपनाम नही
मैनावत – कोइ उपनाम नही
रमण्डवाल – रमन्डवाल, रमनवाल, रमन, रमेटवाल, रमैया,
राजलवाल – राजनवाल , राजावत
राणीवाल – रानीवाल, रानावत, रेनीवाल, राना , रेनवाल
रैसवाल – रेसवाल, रईसवाल, रायसवाल, रेसवाला
रोघिया – रोदिया, रोद, रोड, रल्लावाद, रोलिया
राजौरया – राजोसिया
रेवाड्या – रेवाडिया, रावत, रेवडिया
लकवाल – लांकावाल, लंाका, लक्की,लक्कीवाल
लोटन – कोई उपनाम नही
लोदवाल – लोदीवाल,लोदिया,लोदनवाल,लोघा,लोदी
लोडोत्या – लोडेवा, लालावत,लोखण्डी
लोरवाड्या – लोरवाडिया, लोडवालिया
सरखण्डया – सरकन्डया, सरकाण्डिया, सरखन्डिया,सरेख
सुरेल्या – सुरिला, सुरेलिया, सुरिया
सेकरवाल – सरसूणिया, सरसूनिया
सरसूण्या – सरसूणिया, सारस्वत
सरसूंघा – सरसूतिया, सरस्वत
सरोया – सुरोया , सुरोहिया, सिरोहिया
सीवत्या – सींवतिया, सावत ,सीसोदया
सेररा – शेर,शेरवात,शेरा,शहर
सेवाल्या – सेवालिया,सेवाल,सेवलिया, सहेलिया, शिवाल्या
सुलाण्या – सुलाणिया,सुलानिया,सल्वानिया
सरवडिया – कोई उपनाम नही
वरणमाल – कोई उपनाम नही
हणोत्या – कोई उपनाम नही
हुकीणया – हुकीडिया, हुकीणा
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10.3.18

कलवार, कलाल व कलार जाति का इतिहास

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भारत वर्ष में जाति प्रथा आदि काल से चली आ रही हैं. प्रारंभ की वर्ण व्यवस्था आज जातियों व उपजातियो में बिखर चुकी हैं। दिन प्रतिदिन यह लघु रूपों में बिखरती जा रही हैं। आज की कलवार, कलाल या कलार जाति जो कभी क्षत्रिय थी, आज कई राज्यों में वैश्यों के रूप में पहचानी जाती हैं। यह हैहय वंश या कलचुरि वंश की टूटती हुई श्रंखला की कड़ी मात्र हैं। इसे और टूटने से बचाना हैं।

       वर्ण व्यवस्था वेदों की देन हैं, तो जातियाँ व उपजातियाँ सामाजिक व्यवस्था की उपज हैं।
कलवार वंश का अतीत गौरवशाली व यशपूर्ण रहा हैं। यह गौरव की बात हैं। वेदों से प्रमाण मिलता हैं कि कलवार वंश का उदगम विश्वविख्यात चन्द्र वंशी क्षत्रिय कुल में हुआ हैं। इसी चन्द्र वंश में कार्तवीर्य सहस्त्रबाहु हुये हैं। जिस चन्द्र वंश ने अपनी पताका पूरे संसार में फैलाई, वही चन्द्र वंश कालप्रेरित होकर आपस में लड़ भिड कर मिटने लगा। परशुराम द्वारा भी इस वंश को नष्ट करने का प्रयास किया गया। राज कुल में पले बढे कलवारो के सामने जीवन निर्वाह की समस्या खड़ी हो गई। अतः क्षत्रिय धर्म कर्म छोड़कर वैश्य कर्म अपना लिया, व्यवसाय करने के कारण वैश्य या बनिया कहलाने लगे, इनमे से अधिकतर शराब का व्यवसाय करने लगे।
कलवार शब्द की उत्पत्ति
मेदिनी कोष में कल्यपाल शब्द का ही अपभ्रंश कलवार है। पद्मभूषण डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक "अशोक का फूल" में लिखा हैं कि कलवार हैहय क्षत्रिय थे। सेना के लिए कलेऊ की व्यवस्था करते थे, इसीलिए, कालांतर में वैश्य कहलाये। क्षत्रियो के कलेवा में मादक द्रव्य भी होता था, इसी लिए ये मादक द्रव्यों का कारोबार करने लगे। 
श्री नारायण चन्द्र साहा की जाति विषयक खोज से यह सिद्ध होता हैं की कलवार उत्तम क्षत्रिय थे। जब गजनवी ने कन्नौज पर हमला किया तो उसका मुकाबला कालिंदी पार के कलवारों ने किया था, जिसके कारण इन्हें कलिंदिपाल भी बोलने लगे। इसी कलिंदिपाल का अपभ्रंश ही कलवार हैं। अनुसंधानों से पता चलता हैं कि कलवार जाति के तीन बड़े - बड़े हिस्से हुए हैं, वे हैं प्रथम पंजाब दिल्ली के खत्री, अरोरे कलवार यानि की कपूर, खन्ना, मल्होत्रा, मेहरा, सूरी, भाटिया , कोहली, खुराना, अरोरा ...... इत्यादि। दूसरा हैं राजपुताना के मारवाड़ी कलवार यानि अगरवाल, वर्णवाल, लोहिया ..... आदि। तीसरा हैं देशवाली कलवार जैसे अहलूवालिया, वालिया, बाथम, शिवहरे, माहुरी, शौन्द्रिक, साहा, गुप्ता, महाजन, कलाल, कराल, कर्णवाल, सोमवंशी, सूर्यवंशी, जैस्सार, जायसवाल, व्याहुत, चौधरी, प्रसाद, भगत ..... आदि।
     कश्मीर के कुछ कलवार बर्मन तथा कुछ शाही उपनाम धारण करते हैं। झारखण्ड के कलवार प्रसाद, साहा, चौधरी, सेठ, महाजन, जायसवाल, भगत, मंडल .... आदि प्रयोग करते हैं। नेपाल के कलवार शाह उपनाम का प्रयोग करते हैं। जैन पंथ वाले जैन कलवार कहलाये।
      ब्रह्ममा से भृगु, भृगु से शुक्र, शुक्र से अत्री ऋषि , अत्री से चन्द्र देव, चन्द्र से बुद्ध, बुद्ध से सम्राट पुरुरवा, पुरुरवा से सम्राट आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से पुरु, पुरु से चेदी कल्यपाल, कलचुरी कलवार वंश चला जो की जायसवाल, कलवार, शौन्द्रिक, जैस्सार, व्याहुत कहलाये।
     इस प्रकार से हम देखते हैं की कलवार/ कलाल / कलार जाति की उत्पत्ति बहुत ही गौरव पूर्ण रही हैं। जिसका हमें सभी को गर्व करना चाहिए। यह समाज आज 356 उपनामों में विभक्त हो चुका है और सभी में रोटी बेटी का सम्बन्ध कायम होना चाहिए। यह उल्लेखनीय है कि हमारी आबादी लगभग 25 करोड़ हैं।भगवान् सहस्त्रबाहू की महिमा और कलार शब्द का अर्थ
      कलार शब्द का शाब्दिक अर्थ है मृत्यु का शत्रु, या काल का भी काल, अर्थात हैहय वंशियों को बाद में काल का काल की उपाधि दी जानें लगी जो शाब्दिक रूप में बिगड़ते हुए काल का काल से कल्लाल हुई और फिर कलाल और अब कलार हो गई.
    आज भगवान् सहस्त्रबाहू की जयंती सम्पूर्ण हिन्दू समाज मनाता है. भगवान् सहस्त्रबाहू को वैसे तो सम्पूर्ण सनातनी हिन्दू समाज अपना आराध्य और पूज्य मान कर इनकी जयंती पर इनका पूजन अर्चन करता है किन्तु हैहय कलार समाज इस दिवस को विशेष रूप से उत्सव-पर्व के रूप में मनाकर भगवान् सहस्र्त्रबाहू की आराधना करता है. भगवान् सहस्त्रबाहू के विषय में शास्त्रों और पुराणों में अनेकों कथाएं प्रचलित है. किंवदंती है कि, राजा सहस्त्रबाहू ने विकट संकल्प लेकर शिव तपस्या प्रारम्भ की थी एवं इस घोर तप के दौरान वे के प्रतिदिन अपनी एक भुजा काटकर भगवान भोले भंडारी को अर्पण करते थे इस तपस्या के फलस्वरूप भगवान् नीलकंठ ने सहस्त्रबाहू को अनेकों दिव्य, चमत्कारिक और शक्तिशाली वरदान दिए थे.
     हरिवंश पुराण के अनुसार महर्षि वैशम्पायन ने राजा भारत को उनके पूर्वजों का वंश वृत्त बताते हुए कहा कि राजा ययाति का एक अत्यंत तेजस्वी और बलशाली पुत्र हुआ था “यदु”. यदु के पांच पुत्र हुए जो सहस्त्रद, पयोद, क्रोस्टा, नील और अंजिक कहलाये. इनमें से प्रथम पुत्र प्रथम पुत्र सहस्त्रद के परम धार्मिक ३ पुत्र “हैहय”, हय तथा वेनुहय नाम के हुए थे. हैहय के ही प्रपोत्र राजा महिष्मान हुए जिन्होंने महिस्मती नाम की पुरी बसाई, इन्ही राजा महिष्मान के वशंज कृतवीर्य के पुत्र अर्जुन हुए जो सहस्त्रबाहू अर्थात सहस्त्रार्जुन नाम से विख्यात है. यही सहस्त्रबाहू सूर्य से दैदीप्यमान और दिव्य रथ पर चढ़कर सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत कर सप्तद्वीपेश्वर कहलाये और सम्पूर्ण विश्व में अधिष्ठित हुए. कहा जाता है कि सहस्त्र बाहू ने अत्रि पुत्र दत्तात्रेय की आराधना दस हजार वर्षो तक कर परम कठिन तपस्या की और कई दिव्य व चमत्कारिक वरदान प्राप्त किये.
    वीर राजा हैहय के प्रपौत्र महिष्मान ने महिस्मती नामक जो धर्म नगरी बसाई थी वह आज भी धर्मध्वजा को लहरा रही है एवं मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में महेश्वर के नाम से प्रसिद्द है. महेश्वर शहर मध्य प्रदेश के खरगोन जिलें में माँ नर्मदा के किनारें स्थित है. राजा सहस्त्रार्जुन या सहस्त्रबाहू जिन्होनें राजा रावण को पराजित कर उसका मान मर्दन कर दिया था उन्होंने इस महेश्वर नगर की स्थापना कर इसे अपनी राजधानी घोषित किया था. यही प्राचीन नगर महेश्वर आज भी मध्यप्रदेश में शिवनगरी के नाम से जाना जाता है और जिसे पवित्र नगरी का राजकीय सम्मान भी प्राप्त है, पूर्व में महान देवी अहिल्याबाई होल्कर की भी राजधानी रहा है. 
वास्तुकला और स्थापत्य कला के उच्च मान दंडों के अनुसार निर्मित यह नगर अपनें भव्य, विशाल और तंत्र-यंत्र पूर्ण किन्तु कलात्मक शिवमंदिरों और मनोरम घाटों के लिए विख्यात है. हैहय राजा महिस्मान द्वारा बसाई गई यह महेश्वर नगरी जहां कि आदिगुरु शंकराचार्य तथा पंडित मण्डन मिश्र का एतिहासिक, बहुचर्चित व प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ था आज भी अपनें पुरातात्विक धरोहरों और सांस्कृतिक व पौराणिक विरासतों को अपनें आप में समेटें हैहय राजाओं का इतिहास गान कर रही है और अपनें पौराणिक महत्व का बखान कर रही है.
भगवान् सहस्त्रबाहू के विषय में एक कथा यह भी प्रचलित है कि इन्ही राजा यदु से यदुवंश प्रचलित आ था, जिसमे आगे चलकर भगवन श्री कृष्णा ने जन्म लिया था. शास्त्रों में कहा गया है कि यदु के समकालीन ही भगवान् विष्णु एवं माँ लक्ष्मी के नियोग के फलस्वरूप एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ और भगवान् विष्णु ने इस बालक को भगवान् शंकर जी को सौप दिया. भगवान् शंकर जी ने इस बालक की उज्जवल भविष्य रेखाओ और तेजस्वी ललाट को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए, और उसकी भुजा पर अपने त्रिभुज से “एकाबीर हैहय” लिख दिया. इसी से बालक का नाम “हैहय” हुआ, जो आज भी एक कुल नाम या जाति के रूप में प्रचलित है. देवी भागवत में यह कथा अत्यंत विस्तार व यश-महिमा के साथ उल्लेखित है.
भगवान् सहस्त्रबाहू को आराध्य मानने वाले कलार या हैहय समाज की तेजस्विता, बल और शोर्य का वर्णन करते हुए किसी कवि ने इन समाज बंधुओं के विषय कहा है कि-
हैहय वंशी जगे तो, लाते है भयंकरता,
शिव साज तांडव सा, युद्ध में सजाते है।
शत्रु तन खाल खींचा, मांस को उलीच देत,
गीध, चील, कौए तृप्त , ‘प्रचंड’ हो जाते है।।
रुंड , मुंड, काट-काट , रक्त मज्जा मेदा युक्त,
अरि सब रुंध-रुंध, गार सी मचाते है।।
बढ़ाते शक्ति उर्बर, भावी संतान हेतु,
मातृ-ऋण उऋण कर, मुक्त हो जाते है।।
भगवान् सहस्त्रबाहू के वंशजों के जाति नाम या कुल नाम या गोत्र नाम “कलार” शब्द के विषय में जो एक भ्रान्ति प्रचलित है उसका भी स्पष्टीकरण आवश्यक हो जाता है. यह शब्द कलाल, कलार या कलवार एक स्थान विशेष या क्षेत्र विशेष का नाम है जो चंद्रवंशी (सोमवंशी) कलवार राजपूतों और राजस्थान के कलवार ठिकाना के ठाकुरों का निवास क्षेत्र रहा है. उल्लेखनीय है कि इतिहास कारों के अनुसार अखंड भारत के समय कलवार राजस्थान के अलावा पाकिस्तान और अज़रबैजान में कलाल; ईरान और ईराक में कलार; अफ़ग़ानिस्तान अल्जेरिया बहरीन बर्मा ईरान इराक सऊदी अरबिया टूनीसिया सिरिया में कलाट आदि शब्दों को भी आज के कलारी अथवा कलाली से ही सम्बंधित माना जाता है.
मध्यकालीन इतिहास के वृतांतों में कलाल शबद का प्रयोग पाकिस्तान के कलाल क्षेत्र में निवासरत जातियों के सम्बन्ध में किया जाता है. उस समय मुस्लिम आक्रमणों के चलते इन जातियों का जबरन धर्मांतरण भी हुआ जिनकी वंशज जातियां अब भी उस क्ष्रेत्र में निवासरत हैं जिसे कलाल क्षेत्र कहा जाता था.
कलार शब्द का शाब्दिक अर्थ है मृत्यु का शत्रु, या काल का भी काल, अर्थात हैहय वंशियों को बाद में काल का काल की उपाधि दी जानें लगी जो शाब्दिक रूप में बिगड़ते हुए काल का काल से कल्लाल हुई और फिर कलाल और अब कलार हो गई. ज्ञातव्य है कि भगवान शिव के कालांतक या मृत्युंजय स्वरूप को बाद में अपभ्रंश रूप में कलाल कहा जानें लगा. वस्तुतः भगवान् शिव के इसी कालांतक स्वरुप का अपभ्रंश शब्द ही है “कलार”. इस कलवार या कलाल या कलार जैसे भगवान् शंकर के नाम के पवित्र शब्द का शराब के व्यापारी के अर्थों या सामानार्थी शब्द के रूप में प्रयोग संभवतः इस समाज के शराब के व्यवसाय के कारण उपयोग किया जानें लगा जो कि घोर अनुचित है. भगवान् सहस्त्रबाहू के वंशज, पुरातन या मध्यकालीन युग में कलाल या कलार इस देश के बहुत से हिस्सों के शासक रहे और उन्होंने बड़ी ही बुद्धिमत्ता, वीरता से न्यायप्रिय शासन किया किन्तु कालांतर में ये मधु या शराब का व्यवसाय करनें लगे. यद्दपि आज के युग में यह समाज शराब के अतिरिक्त और भी कई प्रकार के प्रतिष्ठा पूर्ण व्यवसायों में संलग्न होकर राष्ट्र निर्माण में अग्रणी भूमिका निभा रहा है तथापि इस समाज की सामाजिक पहचान अब भी इस व्यवसाय से ही जुड़ी हुई है.
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30.12.17

महान संस्कृत कवि भर्तृहरि का जीवन परिचय:kavi bharathari jevan parichay




 

भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी है।
जनश्रुति और परम्परा के अनुसार भर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अग्रज माने जाते हैं। विक्रमसंवत् ईसवी सन् से 56 वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है, जो विक्रमादित्य के प्रौढ़ावस्था का समय रहा होगा। भर्तृहरि विक्रमादित्य के अग्रज थे, अतः इनका समय कुछ और पूर्व रहा होगा। विक्रमसंवत् के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन् 78 और कुछ लोग ईसवी सन् 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। ये दोनों मत भी अग्राह्य प्रतीत होते हैं। फारसी ग्रंथ कलितौ दिमनः में पंचतंत्र का एक पद्य शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श का भाव उद्धृत है। पंचतंत्र में अनेक ग्रंथों के पद्यों का संकलन है। संभवतः पंचतंत्र में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा। फारसी ग्रंथ 571 ईसवी से 581 ई० के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था। इसलिए राजा भर्तृहरि अनुमानतः 550 ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आए थे। भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा थे। ये विक्रमादित्य उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई थे। इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था। पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे। इन्होंने सुन्दर और रसपूर्ण भाषा में नीति, वैराग्य तथा शृंगार जैसे गूढ़ विषयों पर शतक-काव्य लिखे हैं। इस शतकत्रय के अतिरिक्त, वाक्यपदीय नामक एक उच्च श्रेणी का व्याकरण ग्रन्थ भी इनके नाम पर प्रसिद्ध है। कुछ लोग भट्टिकाव्य के रचयिता भट्टि से भी उनका एक्य मानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के यह ही प्रवर्तक थे। चीनी यात्री इत्सिंग और ह्वेनसांग के अनुसार इन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। परंतु अन्य सूत्रों के अनुसार ये अद्वैत वेदान्ताचार्य थे। चीनी यात्री इत्सिंग के यात्रा विवरण से यह ज्ञात होता है कि 651 ईस्वी में भर्तृहरि नामक एक वैयाकरण की मृत्यु हुई थी। इस प्रकार इनका काल सातवीं शताब्दी का प्रतीत होता है, परन्तु भारतीय पुराणों में इनके सम्बन्ध में उल्लेख होने से संकेत मिलता है कि इत्सिंग द्वारा वर्णित भर्तृहरि कोई अन्य रहे होंगे। महाराज भर्तृहरि निःसन्देह विक्रमसंवत की पहली सदी से पूर्व में उपस्थित थे। वे उज्जैन के अधिपति थे। उनके पिता महाराज गन्धर्वसेन बहुत योग्य शासक थे। उनके दो विवाह हुए। पहले से विवाह से महाराज भर्तृहरि

और दूसरे से महाराज विक्रमादित्य हुए थे। पिता की मृत्यु के बाद भर्तृहरि ने राजकार्य संभाला। विक्रम के सबल कन्धों पर शासनभार देकर वह निश्चिन्त हो गए। उनका जीवन कुछ विलासी हो गया था। वह असाधारण कवि और राजनीतिज्ञ थे। इसके साथ ही संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। उन्होंने अपने पाण्डित्य और नीतिज्ञता और काव्य ज्ञान का सदुपयोग शृंगार और नीतिपूर्ण रचना से साहित्य संवर्धन में किया।
   एक बार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिये गये हुए थे। वहाँ काफी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। जिसके आगे एक मृग चल रहा था।भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज, यह मृगराज ७ सौ हिरनियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिये आप उसका शिकार न करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और हिरन को मार डाला जिससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा। प्राण छोड़ते-छोड़ते हिरन ने राजा भर्तृहरि से कहा-तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूँ उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगीबाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे दो। हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। हिरन का कलेवर घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे।

रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई। भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरन को जीवित करने की प्रार्थना की। इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूँ कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली।
   भर्तृहरि ने वैराग्य क्यों ग्रहण किया यह बतलाने वाली अन्य किंवदन्तियां भी हैं जो उन्हें राजा तथा विक्रमादित्य का ज्येष्ठ भ्राता बतलाती हैं। इनके ग्रंथों से ज्ञात होता है कि इन्हें ऐसी प्रियतमा से निराशा हुई थी जिसे ये बहुत प्रेम करते थे। नीति-शतक के प्रारम्भिक श्लोक में भी निराश प्रेम की झलक मिलती है। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने प्रेम में धोखा खाने पर वैराग्य जीवन ग्रहण कर लिया था, जिसका विवरण इस प्रकार है। इस अनुश्रुति के अनुसार एक बार राजा भर्तृहरि के दरबार में एक साधु आया तथा राजा के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए उन्हें एक अमर फल प्रदान किया। इस फल को खाकर राजा या कोई भी व्यक्ति अमर को सकता था। राजा ने इस फल को अपनी प्रिय

रानी पिंगला को खाने के लिए दे दिया, किन्तु रानी ने उसे स्वयं न खाकर अपने एक प्रिय सेनानायक को दे दिया जिसका सम्बन्ध राजनर्तिकी से था। उसने भी फल को स्वयं न खाकर उसे उस राजनर्तिकी को दे दिया। इस प्रकार यह अमर फल राजनर्तिकी के पास पहुँच गया। फल को पाकर उस राजनर्तिकी ने इसे राजा को देने का विचार किया। वह राजदरबार में पहुँची तथा राजा को फल अर्पित कर दिया। रानी पिंगला को दिया हुआ फल राजनर्तिकी से पाकर राजा आश्चर्यचकित रह गये तथा इसे उसके पास पहुँचने का वृत्तान्त पूछा। राजनर्तिकी ने संक्षेप में राजा को सब कुछ बतला दिया। इस घटना का राजा के ऊपर अत्यन्त गहरा प्रभाव पड़ा तथा उन्होंने संसार की नश्वरता को जानकर संन्यास लेने का निश्चय कर लिया और अपने छोटे भाई विक्रम को राज्य का उत्तराधिकारी बनाकर वन में तपस्या करने चले गये। इनके तीनों ही शतक उत्कृष्टतम संस्कृत काव्य हैं। इनके अनेक पद्य व्यक्तिगत अनुभूति से अनुप्राणित हैं तथा उनमें आत्म-दर्शन का तत्त्व पूर्णरूपेण परिलक्षित होता है।
   अपने जीवन काल में उन्होंने शृंगार, नीति शास्त्रों की तो रचना की ही थी, अब उन्होंने वैराग्य शतक की रचना भी कर डाली और विषय वासनाओं की कटु आलोचना की। इन तीन काव्य शतकों के अलावा व्याकरण शास्त्र का परम प्रसिद्ध ग्रन्थ वाक्यपदीय भी उनके महान पाण्डित्य का परिचायक है। वह शब्द विद्या के मौलिक आचार्य थे। शब्द शास्त्र ब्रह्मा का साक्षात् रुप है। अतएव वे शिवभक्त होने के साथ-साथ ब्रह्म रूपी शब्दभक्त भी थे। शब्द ब्रह्म का ही अर्थ रुप नानात्मक जगत-विवर्त है। योगीजन शब्द ब्रह्म से तादात्म्य हो जाने को ही मोक्ष मानते हैं। भर्तृहरि शब्द ब्रह्म के योगी थे। उनका वैराग्य दर्शन परमात्मा के साक्षात्कार का पर्याय है। सह कारण है कि आज भी शब्दो की दुनिया के रचनाकार सदा के अमर हो जाते है। भर्तृहरि एक महान् संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं।

इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक ) की उपदेशात्मक कहानियां भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ का शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था, इसलिए इनका एक लोक प्रचलित नाम बाबा गोपीचन्द भरथरी भी है। भर्तृहरि संस्कृत मुक्तक काव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियां जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।
    भर्तृहरि संस्कृत मुक्तककाव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।
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हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा-

विशिष्ट कवियों की चयनित कविताओं की सूची (लिंक्स)

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से -गोपालदास "नीरज"

वीरों का कैसा हो वसंत - सुभद्राकुमारी चौहान

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा-अल्लामा इकबाल

उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक

जब तक धरती पर अंधकार - डॉ॰दयाराम आलोक

जब दीप जले आना जब शाम ढले आना - रविन्द्र जैन

सुमन कैसे सौरभीले: डॉ॰दयाराम आलोक

वह देश कौन सा है - रामनरेश त्रिपाठी

किडनी फेल (गुर्दे खराब ) की रामबाण औषधि

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ -महादेवी वर्मा

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा

प्रणय-गीत- डॉ॰दयाराम आलोक

गांधी की गीता - शैल चतुर्वेदी

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार -शिवमंगलसिंह सुमन

सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक

जंगल गाथा -अशोक चक्रधर

मेमने ने देखे जब गैया के आंसू - अशोक चक्रधर

सूरदास के पद

रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

घाघ कवि के दोहे -घाघ

मुझको भी राधा बना ले नंदलाल - बालकवि बैरागी

बादल राग -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

आओ आज करें अभिनंदन.- डॉ॰दयाराम आलोक