आस्था और अंधविश्वास के बीच बेहद महीन रेखा होती है, पता ही नहीं चलता कि कब आस्था अंधविश्वास में तब्दील हो गई. विज्ञान, वकील ,डॉक्टर की डिग्री होने के बावजूद ऐसे कई लोग गले मे काला डोरा या ताबीज धारण करते हैं और राशिफल,कुंडली के चक्कर से बाहर नहीं निकल पाते हैं -Dr.Dayaram Aalok,M.A.,Ayurved Ratna,D.I.Hom(London)
ब्रह्मा के मुख से उत्पत्ति: पुराणों के अनुसार, ब्रह्मा जी के मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई थी। यह एक पौराणिक कथा है जो ब्राह्मणों को समाज में एक विशेष स्थान देने के लिए प्रस्तुत की गई थी।
ब्राह्मण (आर्य) जाति एक विदेशी जाति है जो ईरान से भारत की तरफ आए और भारत में बस गए और वैदिक धर्म (हिन्दू धर्म) का निर्माण किया। क्युकी भारत में पहले से द्रविड़ जाति के लोग रहते थे इस हिसाब से भारत के मूल निवासी द्रविड़ (ओबीसी,एससी,एसटी) है और आर्य
विदेशी है। ब्राह्मणों को पट्कर्मा भी कहा जाता है. ब्राह्मणों के कर्म हैं - अध्यापन, अध्ययन, यजन, दान, और प्रतिग्रह. माना जाता है कि सप्तऋषियों की संतानें हैं ब्राह्मण। ब्राह्मण समुदाय वैदिक युग के पहले सात ब्राह्मण संतों (सप्तर्षि) से उतरा है. इन सात ब्राह्मण संतों के नाम हैं - विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम, अत्रि, उप्रेती, वशिष्ठ, और कश्यप. माना जाता है कि जाति के हर सदस्य का वंश इन सातों संतों में से किसी एक से जुड़ा है. ब्राह्मणों का गोत्र किसी व्यक्ति की पितृवंश को ट्रैक करने का साधन है. ब्राह्मण जाति का इतिहास प्राचीन भारत से जुड़ा है और वैदिक काल से भी पुराना माना जाता है. ब्राह्मणों को भारत की आज़ादी में भी अहम योगदान रहा है. ब्राह्मण, भारत की चार हिंदू जातियों में सबसे ऊंची जाति है. ब्राह्मणों का व्यवहार का मुख्य स्रोत वेद हैं.
वेदों के अनुसार ब्राह्मण कौन है?
ब्राह्मण हिंदू धर्म में एक वर्ण है जो पीढ़ियों से पवित्र साहित्य के पुजारी, संरक्षक और प्रेषक के रूप में सिद्धांत रूप में विशेषज्ञता रखता है । ब्राह्मण वेदों के भीतर ग्रंथों की चार प्राचीन परतों में से एक हैं।
ब्राह्मणों का पारंपरिक व्यवसाय अध्यापन, पौरोहित्य कर्म, और यज्ञ करना है. ब्राह्मणों को आध्यात्मिक शिक्षक (गुरु या आचार्य) के रूप में भी काम किया है. ब्राह्मणों के कर्म हैं वेद का पठन-पाठन, दान देना, दान लेना, यज्ञ करना, यज्ञ करवाना इत्यादि. ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट् या ब्रह्म के मुख से कही गई है. ब्राह्मणों के मुख में गई हुई सामग्री देवताओं को मिलती है. ब्राह्मणों के कई अलग सरनेम होते हैं और सबके अलग गोत्र होते हैं. ब्राह्मण जाति से जुड़े कुछ राजवंशः भूर्षुत राजवंश, पल्लव राजवंश, परिव्राजक राजवंश, पटवर्धन राजवंश, वाकाटक राजवंश.
गीता में ब्राह्मणों के बारे में क्या लिखा है?
भगवद गीता में श्री कृष्ण ने ब्राह्मण की क्या व्याख्या दी है? भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार “शम, दम, करुणा, प्रेम, शील (चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण है”
ब्राह्मणों का पारंपरिक काम अध्यापन, पूजा-पाठ, और यज्ञ करना होता है. ब्राह्मणों को चार सामाजिक वर्गों में सर्वोच्च अनुष्ठान का दर्जा दिया जाता है. ब्राह्मणों को आध्यात्मिक शिक्षक (गुरु या आचार्य) के रूप में भी जाना जाता है. ब्राह्मणों के कर्म हैं- वेद का पठन-पाठन, दान देना, दान लेना, यज्ञ करना, यज्ञ करवाना इत्यादि. ब्राह्मणों को सर्वोच्च सत्ता का प्रतीक माना जाता है. ब्राह्मणों के पूर्वज विश्वामित्र, जमदग्नि, उप्रेती, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ और कश्यप थे. ब्राह्मणों के नायक इंद्र थे.
वेदों में ब्राह्मण कौन है?
जो व्यक्ति विद्वान होते थे चाहें वो किसी भी कुल में पैदा हुआ हो, वो व्यक्ति वेदों के अनुसार ब्राह्मण है।
ब्राह्मणों ने सरकार, शिक्षा, कला, व्यवसाय और अन्य क्षेत्रों में भी कई पदों पर काम किया है. प्राचीन भारत के कई विद्वान, खगोल शास्त्री, लेखक और आचार्य ब्राह्मण जाति से ही थे. स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है:-
मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि।
इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।
ब्राह्मण उच्च जातियों के लिए पारिवारिक पुजारी के रूप में कार्य कर सकते हैं, लेकिन निम्न जातियों के लिए नहीं। वे धार्मिक स्थलों और मंदिरों में तथा प्रमुख त्योहारों से जुड़े अनुष्ठानों में भाग ले सकते हैं। वे विवाह में किए जाने वाले सभी अनुष्ठानों का संचालन करते हैं, महत्वपूर्ण धार्मिक अवसरों पर उपस्थित होते हैं और वेदों और अन्य पवित्र संस्कृत ग्रंथों के अंश पढ़ते हैं तथा पुराणों और रामायण और महाभारत का पाठ करते हैं। ब्राह्मणों को कभी-कभी उनकी सेवाओं के लिए पैसे के बजाय गायों से भुगतान किया जाता है
राजपूत शब्द की सर्वप्रथम उत्पत्ति 6ठी शताब्दी ईस्वी में हुई थी. राजपूतों ने 6ठी शताब्दी ईस्वी से 12वीं सदी के बीच भारतीय इतिहास में एक प्रमुख स्थान प्राप्त किया था. राजपूतों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में विद्वानों ने कई सिद्धांत का उल्लेख किया हैं. श्री कर्नल जेम्स टॉड द्वारा दिए गए सिद्धांत के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी मूल की थी. उनके अनुसार राजपूत कुषाण,शक और हूणों के वंशज थे. उनके अनुसार चूँकि राजपूत अग्नि की पूजा किया करते थे और यही कार्य कुषाण और शक भी करते थे. इसी कारण से उनकी उत्पति शको और कुषाणों से लगायी जाती थी. इसी तरह दूसरे सिद्धांत के अनुसार राजपूतों को किसी भी विदेशी मूल से सम्बंधित नहीं किया जाता है. बल्कि उन्हें क्षत्रिय जाति से सम्बंधित किया जाता है. इस सन्दर्भ में यह कहा जाता है की चूँकि उनके द्वारा अग्नि की पूजा की जाती थी जोकि आर्यों के द्वारा भी सम्पादित किया जाता था. अतः राजपूतों की उत्पत्ति भारतीय मूल की थी. तीसरे सिद्धांत के अनुसार राजपूत आर्य और विदेशी दोनों के वंशज थे. उनके अन्दर दोनों ही जातियों का मिश्रण सम्मिलित था. चौथा सिद्धांत अग्निकुल सिद्धांत से संबंधित है. चंदवरदायी द्वारा १२वीं शताब्दी के अन्त में रचित ग्रन्थ 'पृथ्वीराज रासो' में चालुक्य (सोलंकी), प्रतिहार, चहमान तथा परमार राजपूतों की उत्पत्ति आबू पर्वत के अग्निकुण्ड से बतलाई है, किन्तु इसी ग्रन्थ में एक अन्य स्थल पर इन्हीं राजपूतों को "रवि - शशि जाधव वंशी" कहा है. इन तमाम विद्वानों के तर्को के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि राजपूत क्षत्रियों के वंशज थे, फिर भी उनमें विदेशी रक्त का मिश्रण था. अतः वे न तो पूर्णतः विदेशी थे, न तो पूर्णत भारतीय.
राजपूत, क्षत्रिय वर्ण के लोग हैं. राजपूत शब्द, संस्कृत के 'राज-पुत्र' शब्द से बना है, जिसका मतलब है 'राजा का पुत्र'. राजपूतों को उनके साहस, वफ़ादारी, और राजशाही के लिए जाना जाता है. राजपूतों की जाति में गोत्र, वंश, और शाखाएं उनके सामाजिक और भौगोलिक विभाजन के आधार पर बनी हैं. राजपूतों को उनके साहस, वफ़ादारी और राजशाही के लिए सराहा गया. राजपूतों ने राजस्थान और सौराष्ट्र की रियासतों में बीसवीं शताब्दी में सीमित बहुमत में शासन किया.
राजपूत और क्षत्रिय में क्या अंतर है?
राजपूत क्षत्रिय या क्षत्रियों के वंशज होने का दावा करते हैं , लेकिन उनकी वास्तविक स्थिति बहुत भिन्न है, जो राजसी वंश से लेकर आम किसानों तक फैली हुई है। राजस्थान के राजपूत अन्य क्षेत्रों के विपरीत विशिष्ट पहचान रखने के लिए जाने जाते हैं। इस पहचान को आमतौर पर "राजपूताना के गर्वित राजपूत" के रूप में वर्णित किया जाता है।
राजपूत और ठाकुर दोनों ही क्षत्रिय जाति के लोग होते हैं. राजपूत शब्द का मतलब है 'राजा का पुत्र'. राजपूत योद्धाओं की एक उप-वंशावली को राजपूत जाति कहते हैं. वहीं, ठाकुर शब्द का इस्तेमाल बड़े क्षत्रिय ज़मींदारों के लिए किया जाता था.
राजपूत और ठाकुर में अंतरः
राजपूत शब्द, राज शब्द से लिया गया है जिसका मतलब है 'राजा' और पूत का मतलब है 'पुत्र'. ठाकुर शब्द का इस्तेमाल बड़े क्षत्रिय ज़मींदारों के लिए किया जाता था. बी.डी. चट्टोपाध्याय के मुताबिक, 700 ईस्वी से उत्तर भारत में राजनीतिक और सैन्य परिदृश्य पर बड़े क्षत्रिय ज़मींदारों का दबदबा था. इन ज़मींदारों में से कुछ पशुपालक जनजातियों और मध्य एशियाई आक्रमणकारियों के वंशज थे. ये लोग बाद में राजपूत के नाम से जाने गए. कई इतिहासकारों का मानना है कि क्षत्रिय जाति ही बाद में जाकर राजपूत जाति में बदली.
हिंदू धर्म में, क्षत्रिय समाज के लोग योद्धा जाति के प्रतिनिधि होते हैं. वे वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों के बाद दूसरी सबसे ऊंची जाति हैं. क्षत्रिय समाज के लोग देश के रक्षक और शासक होते हैं.
क्षत्रिय समाज के लोगों के कर्तव्य:
गांवों, कबीलों, और राज्यों की रक्षा करना वेदाध्ययन करना प्रजापालन करना दान करना यज्ञ करना विषयवासना से दूर रहना शस्त्राभ्यास करना भारतीय पौराणिक कथाओं के मुताबिक, महाराज पृथु संसार के पहले क्षत्रिय थे. मनु-स्मृति और दूसरे धर्मशास्त्रों के मुताबिक, क्षत्रिय समाज के लोगों का कर्तव्य वेदाध्ययन, प्रजापालन, दान, और यज्ञ करना था. क्षत्रिय समाज के लोगों का मुख्य व्यवसाय अध्ययन, शस्त्राभ्यास, और प्रजापालन था. क्षत्रिय समाज के लोगों को ब्राह्मणों की सेवा करनी थी. क्षत्रिय समाज के लोगों को राज्य के संवर्धन और शत्रुओं से रक्षा के लिए युद्ध करना था. राजपूतों ने पश्चिमी, पूर्वी, और उत्तरी भारत के साथ-साथ पाकिस्तान के क्षेत्रों में शासन किया. राजपूतों के समय में प्राचीन वर्ण व्यवस्था खत्म हो गई थी और कई जातियां और उपजातियां बन गई थीं. राजपूतों में विभिन्न सामाजिक समूहों और शूद्रों और आदिवासियों सहित विभिन्न वर्णों का मिश्रण था. राजपूतों में ठाकुर, सिसोदिया, कुशवाहा, पापा खुश, वसूल, राठौर जैसी कई जातियां शामिल हैं.
नाम के पीछे सिंह लगाने की वजह है - शौर्य, वीरता, और शक्ति का प्रतीक होना. यह शब्द संस्कृत के 'सिम्हा' शब्द से लिया गया है, जिसका मतलब होता है 'शेर'. सिंह शब्द का इस्तेमाल राजपूत और सिख पुरुषों के नामों में किया जाता है.
राजपूत के गुण क्या हैं?
मध्यकाल में राजपूतों को निडर, साहसी और साहसिक गुणों से जोड़ा जाता था। उन्होंने अरबों, तुर्कों, अफ़गानों और मुगलों जैसे कई दुश्मनों के खिलाफ़ कई लड़ाइयाँ और युद्ध लड़े।
क्या राजपूत जनेऊ पहनते हैं?
जनेऊ समारोह राजपूत और ब्राह्मण संस्कृति में एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है । इस समारोह के दौरान, पुरुष बच्चे द्वारा एक पवित्र धागा पहना जाता है, जो सीखने और आध्यात्मिक शिक्षा की दुनिया में उसकी दीक्षा का प्रतीक है।
नाम के पीछे सिंह क्यों लगाते हैं?
सिंह शब्द का इस्तेमाल करने की वजह: सिंह शब्द का इस्तेमाल शौर्य और वीरता को दिखाने के लिए किया जाता है. सिंह को शक्ति और साहस का प्रतीक माना जाता है.
राजपूत में कितने वंश होते हैं?
राजपूतों में तीन मूल वंश (वंश या वंश) हैं। इनमें से प्रत्येक वंश कई कुलों (कुल) (कुल 36 कुलों) में विभाजित है
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वैश्य हिंदू वर्ण व्यवस्था के चार वर्णों में से एक है। वैश्य हिन्दू जाति व्यवस्था के अंतर्गत वर्णाश्रम का तृतीय एवं महत्त्वपूर्ण स्तंभ है। इस समुदाय में प्रधान रूप से किसान, पशुपालक, और व्यापारी समुदाय शामिल हैं। संस्कृत मे विश् शब्द का तात्पर्य है प्रजा। प्राचीन काल में प्रजा (अर्थात समाज) को विश् नाम से संबोधित किया जाता था। इसके मुख्य संरक्षक को विशपति (यानि राजा) कहते थे, मनु के अनुसार चार प्रधान सामाजिक वर्ण शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण थे, जिनमें सभ्यता के विकास के संग-संग नए व्यवसाय भी बाद में जुड़ते चले गए थे।
व्युत्पत्ति
मनुस्मृति के मुताबित वैश्यों की उत्पत्ति ब्रह्मा के उदर अर्थात पेट से हुई है। हालाकि कुछ अन्य विचारों के अनुसार ब्रह्मा से जन्मने वाले ब्राह्मण हुए और विष्णु भगवान से पैदा होने वाले वैश्य कहलाये और शंकर जी से जिनकी उत्पत्ति हुई वो क्षत्रिय कहलाए. आज भी इसलिये ब्राह्मण माँ सरस्वती (विद्या की देवी), वैश्य माँ लक्ष्मी (धन की देवी), क्षत्रिय माँ दुर्गे (दुष्टों को विनाश करने वाली) को पूजते है।
वैश्य वर्ण का इतिहास
ज्यों-ज्यों क्षमता और सामर्थ्य बढ़ा, उसी के मुताबित नये किसान व्यवसायी समुदाय के पास शूद्रों की तुलना मे ज्यादा साधन आते गये और वह एक ही जगह पर निवास कर सुखमय जीवन व्यतीत करने लगे। अब उनका प्रमुख उद्देश्य ज्यादा सुख-सम्पदा एकत्रित करना था। इस व्यवसाय को संचालित करने हेतु व्यापारिक कौशल्या, सूझबूझ, व्यवहार-कुशलता, वाक्पटुता, परिवर्तनशीलता, खतरा अथवा जोखिम उठाने की क्षमता व साहस, धीरज, परिश्रम की जरुरत थी। जिन्होंने इस प्रकार की क्षमता हासिल कर ली थी, वह वैश्य वर्ग में शामिल हो गया। वैश्य कृषि-खेती, उत्पादक वितरण, पशुपालन और कृषि से जुडी औज़ारों व उपकरणों के संधारण (रखरखाव) तथा क्रय-विक्रय का व्यवसाय करने लगे। उनका जीवन शूद्र वर्ग के लोगो से अधिक आरामदायक हो गया और उन्होंने शूद्र जाति के लोगो को अनाज, कपड़ा, रहने का व्यवस्था आदि की जरुरी सुविधायें प्रदान कर अपनी मदद के लिये निजी अधिकार में रखना प्रारंभ कर दिया।
बनिया के पूर्वज कौन थे?
बनियों का मानना है कि इस समुदाय की उत्पत्ति 5000 साल पहले हुई थी, जब अग्रोहा, हरियाणा के पूर्वज महाराजा अग्रसेन (या उग्रसैन) ने वैश्य (हिंदू वर्ण व्यवस्था में तीसरा) समुदाय को 18 कुलों में विभाजित किया था। वैश्य वर्ग को 'कोमाटी' या 'कोमाटिगा' भी कहा जाता है. उत्तर भारत में इन्हें 'बनिया' कहा जाता है. वहीं, दक्षिण भारत के व्यापारियों को चेट्टी या चेट्टियार कहा जाता है. वैश्यों को पौराणिक राजा वैश्रवण के वंशज माना जाता है. वैश्यों ने भारत के आर्थिक विकास में अहम भूमिका निभाई. वैश्यों ने राज्य के प्रशासन में भी अहम भूमिका निभाई. वैश्यों ने कर संग्रहकर्ता, लेखाकार, और अन्य प्रशासनिक पदों पर काम किया. वैश्यों ने मुगल साम्राज्य के दौरान साहूकार, व्यापारी, और किसान के रूप में काम किया. वैश्यों में कई लोग वित्त, आईटी, और विनिर्माण जैसे विभिन्न उद्योगों में लगे हुए हैं.
क्या बनिया वैश्य हैं?
बनिया शब्द का इस्तेमाल आम तौर पर उत्तर और मध्य भारत में व्यापारिक जातियों के लिए किया जाता है और इन जातियों को वर्ण व्यवस्था में वैश्य का दर्जा दिया गया है.बनिया ( जिसे वानिया भी कहते हैं) शब्द संस्कृत के शब्द वणिज से लिया गया है, जिसका अर्थ है "व्यापारी।" इस शब्द का इस्तेमाल भारत की पारंपरिक व्यापारिक या व्यवसायिक जातियों के सदस्यों की पहचान करने के लिए व्यापक रूप से किया जाता है। इस प्रकार, बनिया लोग साहूकार, व्यापारी और दुकानदार होते हैं।
वैश्य वर्ण के लोग कैसे होते हैं?
अपने दृष्टिकोण पर ईमानदारी से काम करते हुए, एक वैश्य खुद को क्षत्रिय या ब्राह्मण जैसी उच्च चेतना में बदल सकता है। वैश्य के मामले में, वे जो भी काम या पेशा करते हैं, उनका मुख्य लक्ष्य अपने और अपने परिवार के लिए धन और संपत्ति अर्जित करना होता है।
बनिया जाति में कुल 56 उपजातियां हैं.
इनमें से कुछ प्रमुख उपजातियां ये हैं:
अग्रवाल, गुप्ता, खंडेलवाल, माहेश्वरी, राजशाही, राघव, भाटी, जायसवाल, मेहता, केजरीवाल. बनिया जाति के लोग मुख्य रूप से गुजरात और राजस्थान के रहने वाले हैं. इसके अलावा, ये लोग उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और अन्य उत्तरी राज्यों में भी रहते हैं. बनिया जाति के लोग धार्मिक रूप से आम तौर पर जैन या हिंदू होते हैं. ये लोग औपचारिक शुद्धता का पालन करने में सख्त होते हैं. बनिया जाति के लोग व्यापार, बैंकिंग, साहूकारी और वाणिज्यिक उद्यमों के मालिक होते हैं. ये लोग देश की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा हैं. बनिया जाति को हिंदू जाति व्यवस्था में तीसरे स्तर का दर्जा प्राप्त है. वे शूद्रों से ऊपर हैं, लेकिन ब्राह्मणों और क्षत्रियों से नीचे हैं.
बनिया और जैन में क्या अंतर है?
जैन का अर्थ है जैन धर्म को मानने वाला . बनिया शब्द संस्कृत के वणिक शब्द का अपभ्रंश या देशी रूप है जिसका अर्थ है वणिज या व्यापार करने वाला . बनिया लोग सभी धर्मों में होते हैं
वैश्यों का गोत्र क्या है?
वैश्य समाज के लोगों के कई गोत्र होते हैं, जैसे कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, गौतम, जमदग्नि, वशिष्ठ, और विश्वामित्र. गोत्र ऋषियों के संस्कृत नामों के समतुल्य होते हैं.
आर्य वैश्यों के 102 गोत्र हैं.
आर्य वैश्य अपने अनुष्ठानों के लिए 102 ऋषियों का अनुसरण करते थे. सभी आर्य वैश्यों की पहचान और वर्गीकरण के लिए उपनाम गोत्र और ऋषि एक ही हैं. भारत में गोत्र पद्धति के ज़रिए आपके वंश का पता चलता है. यह बहुत प्राचीन भारतीय पद्धति है.. वैश्य समाज के लोग पारंपरिक रूप से व्यापारी हैं. वैश्य समाज के लोग व्यापार या अन्न से जुड़े काम करके लोगों का पेट भरते हैं. उत्तर भारत में वैश्य समाज के लोगों को 'बनिया' कहा जाता है. दक्षिण भारत में वैश्य समाज के लोगों को 'चेट्टी' या 'चेट्टियार' कहा जाता है. महावर वैश्य समुदाय के लोगों को महाजन के नाम से भी जाना जाता है.
Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।
बलाई समुदाय के लोग विगत वर्षों मे मालवीय अथवा मेहर सरनेम से भी पुकारे जाने लगे हैं| वे माँ दुर्गा, माँ चामुंडा, और माँ कालरात्रि के भक्त हैं. वे बाबा रामदेव जी को भी श्रद्धांजलि देते हैं. कालरात्रि को अपनी कुलदेवी मानते हैं. बलाई समाज के लोग पारंपरिक हिंदू त्योहार मनाते हैं जैसे होली, दिवाली, और नवरात्रि. बलाई समाज के लोग अपने मृतकों को दफ़नाते हैं. बलाई जाति के लोग कई गोत्रों में बंटे हैं, जैसे चौहान, राठौर, परिहार, परमार, सोलंकी, मरीचि, अत्रि, अगस्त, भारद्वाज, मतंग, धनेश्वर, महाचंद, जोगचंद, जोगपाल, मेघपाल, गर्वा, और जयपाल. बलाई/बलाही/मैहर जाति भारत के मध्य प्रदेश राजस्थान पंजाब दिल्ली और उत्तर प्रदेश राज्यों में पाई जाती है
पौराणिक आख्यान-
इस जाती की अतीत में वणकर के रूप में उत्पत्ति हुई जिसे म्रकंड ऋषि का वंशज कहा जाता है ।। म्रकंड ऋषि को आधुनिक बुनाई का जनक माना जाता है जो मारकंडे ऋषि के पिता भी थे जिनका मार्कंडेय पुराण में वर्णन किया है इनका जन्म भृगु ऋषि के काल में हुआ था ।। रेशम बुनकरों को ऋषि म्रकंड का वंशज माना जाता है ।
बलाई समाज के कुछ महापुरुषों के नाम ये रहे: राजेंद्र मालवीय - अखिल भारतीय बलाई समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष थावर गोबाजी - बलाई समाज के एक व्यक्ति जिसकी बेटी के विवाह के मौके पर आचार्य नानालाल महाराज ने कुव्यसन छोड़ने का संकल्प दिलाया था सीताराम, धूलजी, देवीलाल - बलाई समाज के वरिष्ठ लोग जिन्होंने आचार्य नानालाल महाराज की वाणी को अपने जीवन में अपनाया
बलाही समाज धर्म से हिंदू है उनकी कुलदेवी मां चामुंडा /कालरात्रि /महाकाली है यह जाती अपनी इच्छा पूर्ति या सफलता हेतु अपनी कुलदेवी से मन्नते करती थी और मन्नत में पशु बलि भेड़ बकरी इत्यादि पशुओं की बलि देने को शुभ मानती थी यह जाती पारंपरिक रूप से मांसाहारी रही है पशु बलि में विश्वास रखती है कुछ लोग धार्मिक होने के कारण पशु बलि के स्थान पर श्रीफल एवं पूजा पद्धति को सही मानता है कई पढ़े लिखे लोग धर्म को त्याग कर अन्य धर्म के अनुयाई बन गए हैं ।। राजस्थान में बहुतायत में मेघवाल जाति के लोग हैं जो अपने आप को बलाई नाम अंगीकार करते हैं राजस्थान में इन्हें मेघवंशी बलाई कहा जाता है
बलाई जाति की उत्पत्ति कैसे हुई?
इसके बारे में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है; लेकिन राजपूताने (राजस्थान) में 19वीं शताब्दी के मध्य में बलाई शब्द का प्रचलन हो चुका था और 20 वीं शताब्दी में जनसंख्या रिपोर्ट्स में यह एक अलग समूह या जाति के रूप में दर्ज की जाने लगी थी। तब से बलाई जाति का अलग से अस्तित्व है।
बलाई समाज के गुरु कौन थे?
बलाई समाज के गुरु बालक दास जी है जिनका जन्म 18 अगस्त 1805 ई को हुआ था और उनकी मृत्यु 28 मार्च 1860 ई को हुई थी
राधाकिशन मालवीय के पुत्र राजेंद्र मालवीय को अखिल भारतीय बलाई समाज का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
बलाई समाज के देवता कौन थे? बलाई समाज के आराध्य देवता दानवीर राजा बली माने जाते हैं|
बलाई जाति के लोग अपने बच्चों का विवाह अपने गोत्र में नहीं करते । बलाई बुनकर जाति के लोग सुत लाकर के गांव देहात में कपड़ा बुनाई का कार्य करता था बलाई समाज का पारंपरिक व्यवसाय खेती/ पशुपालन/ बूनाई /चौकीदारी /चौबदारी /कोटवारी /सुरक्षा/ कृषि मजदूरी /लकड़ी की नक्काशी /कढ़ाई /सूती वस्त्र बुनना/राज मिस्त्री इत्यादि व्यवसाय करता है ।
बलई/बलाई/बलाही/मैहर यह शुद्र जाति मानी जाती है इस जाति पर बहुत अत्याचार हुए हैं इस जाति के लोगों से बेगारी /बेकारी के कार्य कराए जाते थे गांव में मजरो/टोलों में बलाई समुदाय के लोगों को गांव से बाहर पूर्व या पश्चिम में डेरों में निवास करना होता था इस जाति को छुआछूत अस्पृश्यता सामाजिक नीचता एवं घृणा की दृष्टि से देखा जाता था आर्थिक कमजोरी भुखमरी के कारण मृत पशुओं का मांस खाकर भी जीविका चलाते थे
राजा महाराजाओं के शासनकाल में इस जाति के लोगों को राजाओं के /गुप्तचर /सुरक्षा सैनिक/ करतब दिखाना/ मनोरंजन करना /आदि कार्य करवाए जाते थे खानाबदोश जिंदगी जीना होता था इस जाति की निर्धन गरीब बहन बेटियों महिलाओं के साथ अत्याचार किए जाते थे और उनसे देह व्यापार कराया जाता था ।। विपरीत परिस्थितियों का सफर रहा है बलाही समाज का लेकिन बदलते परिवेश में आज सामाजिक शैक्षणिक आर्थिक व्यवसायिक राजनेतिक प्रशासनिक सभी व्यवस्थाओं और हर क्षेत्र में इस जाती के लोग अग्रणी है
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नायक एक हिंदू जाति है जो भारत और पाकिस्तान में पाई जाती है. नायक समाज के बारे में ज़रूरी जानकारी इस प्रकार है- नायक समाज की कुलदेवी "वन माता "है. नायक समाज के आराध्य देव पाबूजी महाराज हैं. नायक समाज के कुछ गोत्र हैं- साँखला, चाँवरिया, पँवार, लौहरा, सिसोदीया, सारासर, क्षेत्रपाल, अठवाल, बोहित, चण्डालिया, घौरण, आलसिका, बारवासिया, गरासिया, चारण, राड़ोदीया, डाबला, बगडीया, खारडु, डगला, भावरिया, हौबाणि. नायक समाज के लोग भील जनजाति के बड़े उपजाति वर्ग से आते हैं. नायक समाज के लोग भारत के शासक वर्ग के नज़दीक थे. नायक समाज के लोग सेना में नायक और सेना नायक जैसे पद प्राप्त करने के कारण अपनी जनजाति में एक विशेष पहचान और रुतबा कायम किया. नायक समाज के लोग अपनी जनजाति के समानांतर पूरे भारत में अपनी अलग पहचान रखते हैं. नायक समाज के लोग अपने को भीलों का योद्धा और श्रेष्ठ वर्ग मानते हैं. नायक समाज के लोग मुख्य रूप से हिन्दू धर्म का पालन करते हैं. नायक जाति के लोग अपने को भीलों का योद्धा और श्रेष्ठ वर्ग मानते हैं.
रामदयाल मुंडा ने भी नायक जाति को आदिवासी समाज का सांस्कृतिक गुरु बताया था. नायक जाति के लोग आधुनिक चिकित्सा देखभाल का मध्यम उपयोग करते हैं. वे अभी भी अंधविश्वासों में विश्वास करते हैं और छोटी बीमारियों के लिए अपने भुवा (पवित्र विशेषज्ञ) के पास जाते हैं. प्रजनन आयु की अधिकांश महिलाएँ नसबंदी करवा लेती हैं. परिवार के आकार को सीमित करने के लिए स्वदेशी तरीकों का भी उपयोग करती हैं.
नायक जाति के कई प्रकार होते हैं, जैसे कि नायरा, नायक बढ़ा, नायक चोली वाला, नायक कापड़िया, नायक मोटा, लभाना, भोपा, बंजारा, तांडे, भील नाईक वगैरह.
नायक जाति के लोग राजपूत भी कहलाते थे. नायक जाति के लोग युद्ध में सेना का संचालन करते थे. नायक जाति के लोग गवर्नर के रूप में शासन करते थे. नायक जाति के लोग वर्तमान में कृषि करते हैं और सरकारी-या प्राइवेट नौकरी करते हैं.
नायक समाज के कुल देवता कौन थे?
भगवान विष्णु की पूजा बाबा नायक के रूप में की जाती है। उन्हें तैली वैश्य व वणिक समुदाय का सृष्टिकर्ता माना जाता है। नायक कौन सी जाति है?
कर्नाटक के मुस्लिम सिद्दी लोग नायक उपनाम का इस्तेमाल करते हैं जो उन्हें बीजापुर के राजाओं से उपाधि के रूप में मिला था। महाराष्ट्र में नायक और नाइक उपनाम का इस्तेमाल क्षत्रिय मराठा, सीकेपी, सारस्वत ब्राह्मण और देशस्थ ब्राह्मण समुदाय करते हैं।
प्रमुख नायक साम्राज्य
मदुरै नायक , 16वीं-18वीं सदी के तमिलनाडु के तेलुगु शासक। तंजावुर नायक , 16वीं-17वीं सदी के तंजावुर , तमिलनाडु के तेलुगु शासक। गिंगी (सेनजी) के नायक , 16वीं-17वीं सदी के तमिलनाडु के तेलुगु शासक, जो पहले विजयनगर साम्राज्य के गवर्नर थे।
नायक जाति के राजा कौन थे?
कृष्ण देव राय : नरसा नायक का पुत्र तालुव वंश का प्रथम शासक। मदुरै नायक राजवंश [[१]]) मदुरै नगर में केन्द्रित इस राजवंश ने १७७ वर्ष राज किया।
नायक कौन से वर्ग में आते हैं?
राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और भारत के अन्य राज्यों में नायक जाति को अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है और इसका उल्लेख अनुसूचित जनजाति सूची में भी है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं।
नायक के बीच कोई उपजातियां नहीं हैं, और अधिकांश संसा नायक एक ही कबीले, मालगट के हैं। इस बात के काफी प्रमाण हैं कि नायक जाति आदिवासी, पूर्व-आर्यन मूल की है। साधारण प्रेक्षक भी यह नोटिस करेगा कि नायक औसतन राजपूतों और अधिकांश अन्य स्थानीय जातियों की तुलना में सावले और अधिक गहरे रंग के होते हैं।
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रैगर (जिसे रायगर , रेगर , रायगढ़ , रानीगर और रेहगढ़ भी कहा जाता है,भारत का एक जाति समूह है। उन्हें कभी-कभी चमार जाति से जोड़ा जाता है लेकिन समाजशास्त्री बेला भाटिया उन्हें अलग मानती हैं। रैगर पंजाब , हरियाणा , गुजरात , हिमाचल प्रदेश और राजस्थान राज्यों में पाए जाते हैं।
रैगर समाज के बारे में जानकारी देते हुए, स्वामी आत्मारामजी के लेख में बताया गया है कि चित्तौड़गढ़ के युद्ध में रैगर क्षत्रियों ने हथियार लेकर हिस्सा लिया था. इससे पता चलता है कि रैगर समाज में क्षत्रिय संस्कार विद्यमान हैं.
रैगर समाज की उत्पत्ति और इतिहास के बारे में जानकारीः
रैगर समाज के इतिहास के बारे में जानकारी के लिए, डॉ. पीएन रछौया की किताब 'रैगर जाति की उत्पत्ति व संपूर्ण इतिहास' का अध्ययन किया जा सकता है.
रैगर समाज को कभी-कभी चमार जाति से जोड़ा जाता है, लेकिन समाजशास्त्री बेला भाटिया उन्हें अलग मानती हैं.
रैगर समाज के लोग पंजाब, हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, और राजस्थान में पाए जाते हैं.
राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में उन्हें रैगर के नाम से जाना जाता है.
रैगर समाज के इतिहास के बारे में जो भी लिखा गया है, उसमें ऐतिहासिक तथ्यों की खोज न कर मनगढ़त और काल्पनिक बातों का ज़्यादा ज़िक्र किया गया है.
रैगर समाज के इतिहास की रचना के लिए, ऐतिहासिक और भौगोलिक आधार पर सही प्रमाण दिए गए हैं.
रैगर समाज के इतिहास की रचना के लिए, राजस्थान सरकार के गजट का भी आधार लिया गया है.
‘रैगर’ शब्द की तरह रैगर जाति की उत्पत्ति के संबंध में भी विद्वानों के विभिन्न मत है ।
इस संबंध में इतिहास में उपलब्ध सामग्री के आधार पर हम यहां विचार करेंगे । खोज करने से पता चला कि चन्द्रवती के राज अग्रसेन के नाम पर आगरा और अग्रोहा नगर बसाये गए । अग्रोहा (पंजाब) पर राजा नन्दराज के समय सिकन्दर महान् ने आक्रमण किया था । मगर पूर्ण विजय प्राप्त नहीं कर सका ।
पं. ज्वाला प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘जाति भास्कर’ तथा रमेशचन्द्र गुणार्थी ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थानी जातियों की खोज’ में लिखा है कि सम्वत् 1250 के लगभग शहाबुद्दीन गौरी ने अग्रोहा के राजा दिवाकर देव पर आक्रमण करके नगर को तहस-नहस कर दिया । राजा दिवाकर देव सपरिवार धर्म परिवर्तन कर जैनी हो गया । वहां के अग्रवाल जो सगरवंशी पुकारे जाते थे, वे भाग कर पंजाब के भटिण्डा और आस-पास के 22 गांवों – करटड़ी, खीबर, ज्ञानमण्ड, चंडुमण्ड, जगमोहनपुरा, टोपाटी, डमानु, ताला, दामनगढ़, धौलागढ़, नेनपाल, पीपलसार, फरदीना, बरबीना, भूदानी, मैनपाल, रतनासर, लुबान, सिंहगौड़, हरणोद, आवा और उदयसर आदि में आकर बस गए और अपने को रंगड़ राजपूत कहने लगे ।
जाति इतिहास विद डॉ . दयाराम आलोक के अनुसार सन 1308 में फिरोजशाह तुगलक दिल्ली की गद्दी पर बैठा । उसने भटिण्डा पर आक्रमण किया और एक घण्टे में दस हजार हिन्दुओं को मौत के घाट उतारा । हिन्दुओं को गौ मांस खाने के को बाध्य किया गया । रंगड़ राजपूतों पर भी इसी तरह के भारी अत्याचार किए गए । इन्हीं रंगड़ राजपूतों को ‘रैगर’ शब्द से सम्बोधित किया गया जो आज भी प्रचलित है । रैगर जाति की उत्पत्ति रंगड़ राजपूतों से हुई है और रैगर सगरवंशी है ।
श्री बजरंगलाल लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थान की जातियां’ में रेहगर (रैगर) नाम जाति की उत्पत्ति निम्नानुसार बताई है- ”मालवा प्रांत के मदूगढ़ स्थान में स्थित रैदास जाति के लोगों से रेहगर जाति के लोग अपनी जाति की उत्पत्ति बताते हैं । ……….. इस नाम की उत्पत्ति रैदास के नाम पर आश्रित है इसी नाम से जयपुर में विख्यात है । जोधपुर नगर में तथा मारवाड़ के अन्य भागों में यह लोग जटिये कहलाते हैं । संभवत: इसका कारण यह है कि जाटों के साथ रहने के कारण इनकी स्त्रियां जाट स्त्रियों के सद्दश्य वेश में रहने लगी है । पशुओं की खालों को रंगने के कारण बीकानेर में यह रंगिये कहलाते है । राजस्थान के रेहगर जनेऊ पहनते है और सात फेरों की प्रथा से विवाह करते हैं ।” श्री बजरंगलाल लोहिया का यह मत सही नहीं है, कपोल कल्पित है । रैगर जाति की उत्पत्ति रैदासजी के पैदा होने से 1400 वर्षों से भी अधिक पहले हो चुकी थी तथा रैदासजी जाति से चमार थे ।
जनगणना राजस्थान मारवाड़ सन् 1891 में रैगर या जटिया जाति की उत्पत्ति के संबंध में लिखा है कि ”रैदास के दो औरतें थी । एक की औलाद चमार रही और दूसरी की रैगर हुई ।कोई यह भी कहते है कि भगत कहलाने से पहले रैदास चमार कहलाते थे
तथा भगत कहलाने के पीछे की रैगर कहलाई ।
रैगर जाती को जटिया कहे जाने की वजह यह है कि इनकी औरतें जाटनियों की तरह पॉंव में पीतल के पगरिये और घागरे की जगह धाबला पहनती है । जटियों को बीकानेर में रंगिये और मेवाड़ में बूला कहते है । रैगर वैष्णव धर्म रखते है । रैगर जनेउ पहिनते है तथा गंगाजी को अपने अरस-परस समझते है ।” मरदुम शुमारी की इस रिपोर्ट में रैगर जाति की उत्पत्ति संबंधीत जो भी उल्लेख किया गया है वो बेवुनियाद और भ्रांतियां उत्पन्न करने वाला है । रैदासजी के एक ही औरत थी जिसका नाम लोना था तथा एक ही औलाद थी जिसका नाम विजयदास था ।
इस रिपोर्ट में रैगर जाति की उत्पत्ति के संबंध में लिखते समय इतिहास के तथ्यों को भी भुला दिया गया ।
श्री ओमदत्त शर्मा गौड़ ने अपनी पुस्तक ‘लुणिया जाति-निर्णय’ में लिखा है- कि ”लुणिया, लूनिया, नूनिया, नौनिया, नूनगर, शोरगर, नमकगर, रेहगर, खाखाल, खारौल, लवाणा, लबाणा, लबाजे, लवणिया, लोयाना, लोहाणे, लोयाणे, नूनारी, नूनेरा, आगरी आदि कई जातियॉं न होकर भारत वर्ष की प्रसिद्ध क्षत्रिय जाति के एक भेद के ही भिन्न-भिन्न नाम हैं, जो प्राचीन विपत्तियों के फलस्वरूप उद्योग-धन्धे अपना लेने तथा भिन्न-भिन्न जगहों में रहने व पुकारे जाने के कारण पड़ गए हैं ।” लेखक ने लूणिया जाति को सूर्यवंशी सिद्ध किया है । इस मत के अनुसार भी रेहगर (रैगर) क्षत्रिय हैं तथा सूर्यवंशी हैं ।
राजस्थान प्रान्तीय हिन्दू महासभा अजमेर ने कई प्रमाण देकर रैगरों की उत्पत्ति ‘गर’ क्षत्रियों से बताते हुए उनके साथ क्षत्रियों जैसा व्यवहार करने की अपील जारी की थी । यह अपील निम्नानुसार है- ”यह प्रमाणित किया जाता है कि शास्त्रों, इतिहास और प्राचीन ग्रन्थों के अनुशीलन से यह सिद्ध होता है कि यह रैगर जाति ‘गर’ क्षत्रियों से उत्पन्न हुई है । अत: सब हिन्दू (आर्य) नर-नारियों से निवेदन है कि वे इनके साथ क्षत्रियों के समान पूर्ण व्यवहार करें ।
” यह अपील साप्ताहिक ‘आवाज’ दिनांक 28 जुलाई, 1941, वर्ष 2 अंक 42 में जारी की गई थी । इसमें रैगर जाति की उत्पत्ति ‘गर’ क्षेत्रियों से मानी है ।
प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने गर, गौर, गोरा तथा गौड़ को एक ही माना है और इतिहास से एक ही प्रमाणित किया है । गौड़ चन्द्रवंश की शाखा है । अत: गर क्षत्रिय चन्द्रवंशी हैं जबकि
इतिहास से यह प्रमाणित हो चुका है कि रैगर सूर्यवंशी क्षत्रीय हैं ।
अत: गर क्षत्रियों से रैगर जाति की उत्पत्ति संबंधी यह मत सही नहीं है । रैगर गर क्षत्रिय नहीं है ।
रैगर जाति के संबंध में एक मत यह भी है कि कई स्वतन्त्र जातियों ने युद्ध में हारी हुई जातियों को अपने कार्य हेतु, अपने में मिला लिया । जैसे जटिया जाटों से ही संबंधित है । मगर यह मत सही नहीं है । जटिया रैगर का पर्यायवाची शब्द है तथा जटिया शब्द क्षेत्रीय प्रभावों से जुड़ गया है । रैगर जाति की उत्पत्ति रंगड़ राजपूतों से हुई है, जाटों से नहीं ।
पं. ज्वाला प्रसाद तथा रमेशचन्द्र गुणार्थी ने अपनी पुस्तकों में रैगर जाति की उत्पत्ति इतिहास के तथ्यों के आधार पर दी है । इन्होंने रैगर जाति की उत्पत्ति इतिहास के तथ्यों के आधार पर दी है । इन्होंने रैगर जाति की उत्पत्ति आज से लगभग 600 वर्ष पहले होना प्रमाणित किया है मगर यह तथ्य सही नहीं है ।
हुरड़ा का शिलालेख प्रकाश में आ चुका है । यह शिलालेख लगभग 1003 वर्ष प्राचीन है । इस शिलालेख से यह ठोस रूप से प्रमाणित होता है कि आज से 1003 वर्ष पूर्व भी यह जाति ‘रैगर’ नाम से पुकारी जाती थी तथा यह जाति आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भी अस्तित्व में थी ।
इसके अलावा फागी के बही भाटों की पोथियों में इस बात का विस्तृत उल्लेख है कि विश्व विख्यात तीर्थराज पुष्कर का प्रसिद्ध गऊघाट गुन्दी निवासी बद्री बाकोलिया ने सम्वत् 989 में बनवाया । इस तथ्य को अजमेर के न्यायालय ने भी माना है । गऊघाट का निर्माण आज से 1050 वर्ष पूर्व हुआ था । अत: यह जाति और गौत्र 1050 वर्ष पूर्व भी मोजूद थी ।
बही भाटों की पोथियों में रैगरों का विस्तृत और विश्वसनीय वर्णन है । इन सब तथ्यों को देखने यह प्रमाणिक रूप से कहा जा सकता है कि रैगर जाति हजारों वर्ष प्राचीन जाति है । शिलालेखों तथा बही भाटों की पोथियों को गलत नहीं माना जा सकता ।
यह तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि रैगर जाति की प्राचीनता हजारों वर्षों की है मगर पं. ज्वाला प्रसाद तथा रमेशचन्द्र गुणार्थी के मत से यह अवश्य प्रकट होता है कि इस जाति ने सम्वत् 1408 के बाद ही निम्न कर्म अपनाए यद्यपि इससे पहले भी यह जाति अस्तित्व में थी मगर इस जाति के कर्म उच्च थे ।
बही भाट स्वयं यह मानते हैं तथा उनकी पोथियों में स्पष्ट उल्लेख है कि इस जाति के कर्म पहले उच्च थे तथा कालांतर में किन्हीं परिस्थितियों के कारण निम्न कर्म अपना लिए । इन सब तथ्यों से ऐसा प्रकट होता है कि इस जाति ने आज से लगभग 600 वर्ष पूर्व निम्न कर्म अपनाए और इससे पहले अपने क्षत्रिय कर्म को ही अपनाए हुए थे ।
पं. ज्वाला प्रसाद तथा रमेशचन्द्र गुणार्थी का मत रैगर जाति की उत्पत्ति का नहीं बल्कि रैगर जाति के कर्म परिवर्तन का मत प्रतीत होता है । पं. ज्वाला प्रसाद तथा रमेशचन्द्र गुणार्थी ने सम्वत् 1250 तथा सम्वत् 1408 में हुए मुगल आक्रमणों का वर्णन दिया है उन पर दृष्टि डालें तो वह काल कर्म परिवर्तन का जेहाद छेड़ रखा था । उन परिस्थितियों में क्षत्रिय निम्न कर्म अपना कर या धर्म परिवर्तन कर ही जीवित रह सकते थे । अत: उस समय के हालात को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वह काल कर्म और धर्म परिवर्तन का काल था । इसलिए यह ज्यादा उचित प्रतीत होता है कि इस काल में इन रैगर क्षत्रियों ने अपने क्षत्रिय कर्म बदल कर निम्न कर्म अपना लिए तभी से इन को निम्न जातियों में शुमार कर दिया गया ।
शूद्रों की उत्पत्ति के सम्बंध में खोज पर सर्वप्रथम शूद्रों के महान नायक डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कलम उठाई थी । उन्होंने 1947 में Who were the Sudras ग्रन्थ लिखा जिसमें अपने सम्पूर्ण जीवन के अनुभव एवं अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि शूद्रों की उत्पत्ति आर्य क्षत्रियों के उस सूर्यवंशी वर्ग में से हुई है जिनका ब्राह्मणों ने वैमनस्य के कारण उपनयन संस्कार करने से करने से मनाही कर दी थी । महाभारत के शान्तिपर्व (बारह-60, 38-40) में वर्णन आया है कि पैजवन शूद्र राजा था और उसने यज्ञ करवाया था । ब्राह्मणों ने उसे उपनयन (यज्ञोपवित संस्कार) के अधिकार से वंचित कर दिया था ।
डॉ. अम्बेडकर द्वारा उपरोक्त पुस्तक लिखे जाने के बाद शूद्रों की उत्पत्ति के विषय में नई ऐतिहासिक खोजें हुई है । ‘सिंधु घाटी सभ्यता के सृजनकर्ता शूद्र और वणिक ॽ’ के
लेखक नवल वियोगी का मत है कि- ”शूद्रों की उत्पत्ति क्षत्रियों में से हुई मगर वे क्षत्रिय आर्य नहीं अनार्य थे । वे सिंधु घाटी के वीर शासक आयुद्ध जीवी वर्ग की संतान थे ।” रामशरण शर्मा ने अपने ग्रन्थ ‘शूद्रों का प्राचीन इतिहास’ तथा सुन्दरलाल सागर ने अपनी पुस्तक ‘द्रविड़ और द्रविड़ स्थान’ में शूद्रों की उत्पत्ति द्रविड़ों से मानी है जो सिंधु घाटी के सृजनकर्त्ता थे ।
वे अनार्य क्षत्रीय आयुद्धधारी, वीर योद्धा और बलवान थे । अत: अधिकांश विद्वान इस बात को मानते है कि शूद्र अनार्य (द्रविड़) क्षत्रीय थे । उनमें क्षत्रियों के गुण थे । इस आधार पर भी रैगरों की उत्पत्ति क्षत्रियों से ही प्रमाणित होती है ।
डॉ. अम्बेडकर ने शूद्रों की उत्पत्ति सूर्यवंशी क्षत्रियों से मानी है । इसलिए रैगर भी सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं । बही भाटों की पोथियों का उल्लेख किये बिना रैगर जाति की उत्पत्ति के संबंध में निष्कर्ष निकालना न्याय संगत नहीं है । इतिहास की पुस्तकों में रैगर जाति का कहीं भी उल्लेख नहीं है । रैगरों के बही भाटों की पोथियॉं ही एक मात्र ऐसे लिखित दस्तावेज हैं जिसमें इस जाति के बारे में सब कुछ तथा विस्तृत रूप से लिखा हुआ है । उन्हें समझने की आवश्यकता है ।
जब से बही भाटों ने पोथियॉं लिखनी शुरू की है तब से आज दिन तक उनकी पोथियों में रैगरों के गोत्रों तथा वंशावलियों का विस्तृत वर्णन है । बही भाट रैगरों के कुल 356 गोत्र बताते हैं । प्रत्येक गोत्र का इतना विस्तृत वर्णन दिया हुआ है कि उसकी उत्पत्ति किस स्थान से तथा किस वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) से हुई । उस मूल वर्ण में रहते उनकी इष्ट देवी कौन थी, कौन सी पीढ़ि में निम्न कर्म अपनाये आदि उल्लेख है ।
बही भाटों से यदि यह पूछा जाय कि रैगर जाति की उत्पत्ति कब हुई तथा इसने निम्न कर्म कब अपनाए तो वे इसका जवाब नहीं दे सकते । इसका कारण यह है कि हर गोत्र की उत्पत्ति अलग-अलग समय और स्थान से हुई तथा अलग-अलग समय में कर्म परिर्वतन किये । रैगरों के तमाम गोत्रों का विस्तृत वर्णन उनकी पोथियों में मौजूद है । उन्हीं को समझ कर सही निष्कर्ष निकाला जा सकता है । अत: रैगर जाति की उत्पत्ति की सही जानकारी बही भाटों की पोथियों में ही मिल सकती है । मैंने (चन्दनमल नवल) उनकी बहियों से यह जानकारी लेने की कोशिश भी की मगर निम्न कारणों से यह जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी ।
पहला कारण तो यह है कि रैगरों की तमाम 356 गोत्रों की जानकारी बही भाटों की एक पोथी में उपलब्ध नहीं है । इनकी पोथियॉं पीढ़ि दर पीढ़ि बढ़ती जाती है । आज एक बही भाट के पास एक गोत्र की पोथी है । वह जिस गोत्र को मांगता है उसी गोत्र की पोथी उसके पास है । इस तरह पूरे भारत में घूम कर सभी बही भाटों से जानकारी लेना किसी एक व्यक्ति के लिये संभव नहीं है । दूसरा कारण यह है कि बही भाट किसी एक व्यक्ति विशेष को गोत्रों की जानकारी देने को तैयार नहीं हैं । उनका कहना है कि रैगर जाति में कई ऐसे गोत्र है जो निम्न जातियों से आकर मिले हैं । उन गोत्रों की उत्पत्ति के सही कारण बताने पर यजमान नाराज होंगे जिसका सीधा असर हमारी रोजी-रोटी पर पड़ेगा । मगर वे इस बात के लिए तैयार है कि यदि अखिल भारतीय रैगर महासभा या प्रान्तीय रैगर महासभा आदेश दें तो पोथियों उनके सामने किसी भी समय पेशकर सकते है ।
रैगर जाति की उत्पत्ति का सही स्त्रोत बहीभाटों की पोथिया ही हैं ।
अखिल भारतीय रैगर महासभा तथा प्रान्तीय रैगर महासभा जब महा सम्मेलनों पर लाखों रूपये खर्च कर सकती है तो इस महत्वपूर्ण काम को अविलम्ब प्राथमिकता के आधार पर हाथ में लेना चाहिये ।
इतिहास की किताबों में रैगर जाति की उत्पत्ति ढूंढना अंधेरे में हाथ मारने के समान है । रैगर जाति की उत्पत्ति की सही जानकारी बही भाटों की पोथियों में ही मिल सकती है ।
रैगरों में काफी लोग उच्च शिक्षा प्राप्त कर सरकारी नौकरियों में उच्च पदों पर पहुँचे हैं । आज सरकारी सेवाओं में अखिल भारतीय एवम् प्रांतीय स्तर के सर्वेच्च पदों पर रैगर नियुक्त हैं और सफलतापूर्वक अपने दायित्वों को निभा रहे हैं ।