28.7.25

ब्राह्मण वंशावली (गोत्र प्रवर परिचय)

 

मित्रों ,भारत जाति व्यवस्था वैदिक का से ही प्रचलन मे है | आज हम ब्राहमण वंशावली के अंतर्गत गोत्र प्रवर की जानकारी दे रहे हैं |

ब्राह्मण वंशावली (गोत्र प्रवर परिचय)

सरयूपारीण ब्राह्मण या सरवरिया ब्राह्मण या सरयूपारी ब्राह्मण सरयू नदी के पूर्वी तरफ बसे हुए ब्राह्मणों को कहा जाता है। यह कान्यकुब्ज ब्राह्मणो की ही शाखा है। श्रीराम ने लंका विजय के बाद कान्यकुब्ज ब्राह्मणों से यज्ञ करवाकर उन्हे सरयु पार स्थापित किया था। सरयु नदी को सरवार भी कहते थे। ईसी से ये ब्राह्मण सरयुपारी ब्राह्मण कहलाते हैं। सरयुपारी ब्राह्मण पूर्वी उत्तरप्रदेश, उत्तरी मध्यप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में भी होते हैं। मुख्य सरवार क्षेत्र पश्चिम मे उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या शहर से लेकर पुर्व मे बिहार के छपरा तक तथा उत्तर मे सौनौली से लेकर दक्षिण मे मध्यप्रदेश के रींवा शहर तक है। काशी, प्रयाग, रीवा, बस्ती, गोरखपुर, अयोध्या, छपरा इत्यादि नगर सरवार भूखण्ड में हैं।
एक अन्य मत के अनुसार श्री राम ने कान्यकुब्जो को सरयु पार नहीं बसाया था बल्कि रावण जो की ब्राह्मण थे उनकी हत्या करने पर ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए जब श्री राम ने भोजन ओर दान के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित किया तो जो ब्राह्मण स्नान करने के बहाने से सरयू नदी पार करके उस पार चले गए ओर भोजन तथा दान समंग्री ग्रहण नहीं की वे ब्राह्मण सरयुपारीन ब्राह्मण कहे गए।
सरयूपारीण ब्राहमणों के मुख्य गाँव :
गर्ग (शुक्ल- वंश)
गर्ग ऋषि के तेरह लडके बताये जाते है जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल बंशज कहा जाता है जो तेरह गांवों में बिभक्त हों गये थे| गांवों के नाम कुछ इस प्रकार है|
(१) मामखोर (२) खखाइज खोर (३) भेंडी (४) बकरूआं (५) अकोलियाँ (६) भरवलियाँ (७) कनइल (८) मोढीफेकरा (९) मल्हीयन (१०) महसों (११) महुलियार (१२) बुद्धहट (१३) इसमे चार गाँव का नाम आता है लखनौरा, मुंजीयड, भांदी, और नौवागाँव| ये सारे गाँव लगभग गोरखपुर, देवरियां और बस्ती में आज भी पाए जाते हैं।
उपगर्ग (शुक्ल-वंश):
उपगर्ग के छ: गाँव जो गर्ग ऋषि के अनुकरणीय थे कुछ इस प्रकार से हैं|
(१)बरवां (२) चांदां (३) पिछौरां (४) कड़जहीं (५) सेदापार (६) दिक्षापार
यही मूलत: गाँव है जहाँ से शुक्ल बंश का उदय माना जाता है यहीं से लोग अन्यत्र भी जाकर शुक्ल वंश का उत्थान कर रहें हैं यें सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं।
गौतम (मिश्र-वंश):
गौतम ऋषि के छ: पुत्र बताये जातें हैं जो इन छ: गांवों के वाशी थे|
(१) चंचाई (२) मधुबनी (३) चंपा (४) चंपारण (५) विडरा (६) भटीयारी
इन्ही छ: गांवों से गौतम गोत्रीय, त्रिप्रवरीय मिश्र वंश का उदय हुआ है, यहीं से अन्यत्र भी पलायन हुआ है ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं।
उप गौतम (मिश्र-वंश):
उप गौतम यानि गौतम के अनुकारक छ: गाँव इस प्रकार से हैं|
(१) कालीडीहा (२) बहुडीह (३) वालेडीहा (४) भभयां (५) पतनाड़े (६) कपीसा
इन गांवों से उप गौतम की उत्पत्ति मानी जाति है।
वत्स गोत्र (मिश्र- वंश):
वत्स ऋषि के नौ पुत्र माने जाते हैं जो इन नौ गांवों में निवास करते थे|
(१) गाना (२) पयासी (३) हरियैया (४) नगहरा (५) अघइला (६) सेखुई (७) पीडहरा (८) राढ़ी (९) मकहडा
बताया जाता है की इनके वहा पांति का प्रचलन था अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है।
कौशिक गोत्र (मिश्र-वंश):
तीन गांवों से इनकी उत्पत्ति बताई जाती है जो निम्न है।
(१) धर्मपुरा (२) सोगावरी (३) देशी
वशिष्ठ गोत्र (मिश्र-वंश):
इनका निवास भी इन तीन गांवों में बताई जाती है।
(१) बट्टूपुर मार्जनी (२) बढ़निया (३) खउसी
शांडिल्य गोत्र ( तिवारी,त्रिपाठी वंश)
शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताये जाते हैं जो इन बारह गांवों से प्रभुत्व रखते हैं।
(१) सांडी (२) सोहगौरा (३) संरयाँ (४) श्रीजन (५) धतूरा (६) भगराइच (७) बलूआ (८) हरदी (९) झूडीयाँ (१०) उनवलियाँ (११) लोनापार (१२) कटियारी, लोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित है।
इन्ही बारह गांवों से आज चारों तरफ इनका विकास हुआ है, यें सरयूपारीण ब्राह्मण हैं। इनका गोत्र श्री मुख शांडिल्य त्रि प्रवर है, श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है जिसमे राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ घराना, मणी घराना है, इन चारों का उदय, सोहगौरा गोरखपुर से है जहाँ आज भी इन चारों का अस्तित्व कायम है।
उप शांडिल्य ( तिवारी- त्रिपाठी, वंश):
इनके छ: गाँव बताये जाते हैं जी निम्नवत हैं।
(१) शीशवाँ (२) चौरीहाँ (३) चनरवटा (४) जोजिया (५) ढकरा (६) क़जरवटा
भार्गव गोत्र (तिवारी या त्रिपाठी वंश):
भार्गव ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिसमें चार गांवों का उल्लेख मिलता है|
(१) सिंघनजोड़ी (२) सोताचक (३) चेतियाँ (४) मदनपुर।
भारद्वाज गोत्र (दुबे वंश):
भारद्वाज ऋषि के चार पुत्र बाये जाते हैं जिनकी उत्पत्ति इन चार गांवों से बताई जाती है|
(१) बड़गईयाँ (२) सरार (३) परहूँआ (४) गरयापार
कन्चनियाँ और लाठीयारी इन दो गांवों में दुबे घराना बताया जाता है जो वास्तव में गौतम मिश्र हैं लेकिन इनके पिता क्रमश: उठातमनी और शंखमनी गौतम मिश्र थे परन्तु वासी (बस्ती) के राजा बोधमल ने एक पोखरा खुदवाया जिसमे लट्ठा न चल पाया, राजा के कहने पर दोनों भाई मिल कर लट्ठे को चलाया जिसमे एक ने लट्ठे के सोने वाला भाग पकड़ा तो दुसरें ने लाठी वाला भाग पकड़ा जिसमे कन्चनियाँ व लाठियारी का नाम पड़ा, दुबे की गादी होने से ये लोग दुबे कहलाने लगें। सरार के दुबे के वहां पांति का प्रचलन रहा है अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है।
सावरण गोत्र ( पाण्डेय वंश)
सावरण ऋषि के तीन पुत्र बताये जाते हैं इनके वहां भी पांति का प्रचलन रहा है जिन्हें तीन के समकक्ष माना जाता है जिनके तीन गाँव निम्न हैं|
(१) इन्द्रपुर (२) दिलीपपुर (३) रकहट (चमरूपट्टी)
सांकेत गोत्र (मलांव के पाण्डेय वंश)
सांकेत ऋषि के तीन पुत्र इन तीन गांवों से सम्बन्धित बाते जाते हैं|
(१) मलांव (२) नचइयाँ (३) चकसनियाँ
कश्यप गोत्र (त्रिफला के पाण्डेय वंश)
इन तीन गांवों से बताये जाते हैं।
(१) त्रिफला (२) मढ़रियाँ (३) ढडमढीयाँ
ओझा वंश
इन तीन गांवों से बताये जाते हैं।
(१) करइली (२) खैरी (३) निपनियां
चौबे -चतुर्वेदी, वंश (कश्यप गोत्र)
इनके लिए तीन गांवों का उल्लेख मिलता है।
(१) वंदनडीह (२) बलूआ (३) बेलउजां
एक गाँव कुसहाँ का उल्लेख बताते है जो शायद उपाध्याय वंश का मालूम पड़ता है।
ब्राह्मणों की वंशावली
भविष्य पुराण के अनुसार ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से दोनों कुरुक्षेत्र वासनी
सरस्वती नदी के तट पर गये और कण् व चतुर्वेदमय सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें
वरदान दिया। वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका क्रमानुसार नाम था👉
उपाध्याय,
दीक्षित,
पाठक,
शुक्ला,
मिश्रा,
अग्निहोत्री,
दुबे,
तिवारी,
पाण्डेय,
और
चतुर्वेदी।



इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदा देवी ने अपनी कन्याए प्रदान की।
वे क्रमशः
उपाध्यायी,
दीक्षिता,
पाठकी,
शुक्लिका,
मिश्राणी,
अग्निहोत्रिधी,
द्विवेदिनी,
तिवेदिनी
पाण्ड्यायनी,
और
चतुर्वेदिनी कहलायीं।
फिर उन कन्याआं के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम -
कष्यप,
भरद्वाज,
विश्वामित्र,




गौतम,
जमदग्रि,
वसिष्ठ,
वत्स,
गौतम,
पराशर,
गर्ग,
अत्रि,

भृगडत्र,
अंगिरा,
श्रंगी,
कात्याय,
और
याज्ञवल्क्य।
इन नामो से सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं।
मुख्य 10 प्रकार ब्राम्हणों ये हैं-
(1) तैलंगा,
(2) महार्राष्ट्रा,
(3) गुर्जर,
(4) द्रविड,
(5) कर्णटिका,
यह पांच "द्रविण" कहे जाते हैं, ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाय जाते हैं। तथा विंध्यांचल के उत्तर मे पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राम्हण
(1) सारस्वत,



(2) कान्यकुब्ज,
(3) गौड़,
(4) मैथिल,
(5) उत्कलये,
उत्तर के पंच गौड़ कहे जाते हैं। वैसे ब्राम्हण अनेक हैं जिनका वर्णन आगे लिखा है।
ऐसी संख्या मुख्य 115 की है। शाखा भेद अनेक हैं । इनके अलावा संकर जाति ब्राम्हण अनेक है।
यहां मिली जुली उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हणों की नामावली 115 है जो एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं,
फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हण की संख्या शाखा भेद से 230 के लगभग है। तथा और भी शाखा भेद हुए हैं, जो लगभग 300 के करीब ब्राम्हण भेदों की संख्या का लेखा पाया गया है। उत्तर व दक्षिणी ब्राम्हणां के भेद इस प्रकार है 81 ब्राम्हाणां की 31 शाखा कुल 115 ब्राम्हण संख्या, मुख्य है -
(1) गौड़ ब्राम्हण,
(2)गुजरगौड़ ब्राम्हण (मारवाड,मालवा)



(3) श्री गौड़ ब्राम्हण,
(4) गंगापुत्र गौडत्र ब्राम्हण,
(5) हरियाणा गौड़ ब्राम्हण,
(6) वशिष्ठ गौड़ ब्राम्हण,
(7) शोरथ गौड ब्राम्हण,
(😎 दालभ्य गौड़ ब्राम्हण,
(9) सुखसेन गौड़ ब्राम्हण,
(10) भटनागर गौड़ ब्राम्हण,
(11) सूरजध्वज गौड ब्राम्हण(षोभर),
(12) मथुरा के चौबे ब्राम्हण,
(13) वाल्मीकि ब्राम्हण,



(14) रायकवाल ब्राम्हण,
(15) गोमित्र ब्राम्हण,
(16) दायमा ब्राम्हण,
(17) सारस्वत ब्राम्हण,
(18) मैथल ब्राम्हण,
(19) कान्यकुब्ज ब्राम्हण,



(20) उत्कल ब्राम्हण,
(21) सरवरिया ब्राम्हण,
(22) पराशर ब्राम्हण,
(23) सनोडिया या सनाड्य,
(24)मित्र गौड़ ब्राम्हण,
(25) कपिल ब्राम्हण,
(26) तलाजिये ब्राम्हण,
(27) खेटुवे ब्राम्हण,
(28) नारदी ब्राम्हण,




(29) चन्द्रसर ब्राम्हण,
(30)वलादरे ब्राम्हण,
(31) गयावाल ब्राम्हण,
(32) ओडये ब्राम्हण,
(33) आभीर ब्राम्हण,
(34) पल्लीवास ब्राम्हण,
(35) लेटवास ब्राम्हण,
(36) सोमपुरा ब्राम्हण,



(37) काबोद सिद्धि ब्राम्हण,
(38) नदोर्या ब्राम्हण,
(39) भारती ब्राम्हण,
(40) पुश्करर्णी ब्राम्हण,
(41) गरुड़ गलिया ब्राम्हण,
(42) भार्गव ब्राम्हण,



(43) नार्मदीय ब्राम्हण,
(44) नन्दवाण ब्राम्हण,
(45) मैत्रयणी ब्राम्हण,
(46) अभिल्ल ब्राम्हण,
(47) मध्यान्दिनीय ब्राम्हण,
(48) टोलक ब्राम्हण,
(49) श्रीमाली ब्राम्हण,




(50) पोरवाल बनिये ब्राम्हण,
(51) श्रीमाली वैष्य ब्राम्हण
(52) तांगड़ ब्राम्हण,
(53) सिंध ब्राम्हण,
(54) त्रिवेदी म्होड ब्राम्हण,
(55) इग्यर्शण ब्राम्हण,
(56) धनोजा म्होड ब्राम्हण,
(57) गौभुज ब्राम्हण,
(58) अट्टालजर ब्राम्हण,
(59) मधुकर ब्राम्हण,
(60) मंडलपुरवासी ब्राम्हण,
(61) खड़ायते ब्राम्हण,




(62) बाजरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
(63) भीतरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
(64) लाढवनिये ब्राम्हण,
(65) झारोला ब्राम्हण,
(66) अंतरदेवी ब्राम्हण,
(67) गालव ब्राम्हण,
(68) गिरनार ब्राम्हण



ब्राह्मण गौत्र और गौत्र कारक 115 ऋषि
(1). अत्रि, (2). भृगु, (3). आंगिरस, (4). मुद्गल, (5). पातंजलि, (6). कौशिक,(7). मरीच, (8) च्यवन (9). पुलह, (10). आष्टिषेण, (11). उत्पत्ति शाखा, (12). गौतम गोत्र,(13). वशिष्ठ और संतान (13.1). पर वशिष्ठ, (13.2). अपर वशिष्ठ, (13.3). उत्तर वशिष्ठ, (13.4). पूर्व वशिष्ठ, (13.5). दिवा वशिष्ठ, (14). वात्स्यायन,



(15). बुधायन, (16). माध्यन्दिनी, (17). अज, (18). वामदेव, (19). शांकृत्य, (20). आप्लवान, (21). सौकालीन, (22). सोपायन, (23). गर्ग, (24). सोपर्णि, (25). शाखा, (26). मैत्रेय, (27). पराशर, (28). अंगिरा, (29). क्रतु, (30. अधमर्षण, (31). बुधायन, (32). आष्टायन कौशिक, (33). अग्निवेष भारद्वाज, (34). कौण्डिन्य, (34). मित्रवरुण,(36). कपिल, (37). शक्ति, (38). पौलस्त्य, (39). दक्ष, (40). सांख्यायन कौशिक, (41). जमदग्नि, (42). कृष्णात्रेय, (43). भार्गव, (44). हारीत, (45). धनञ्जय, (46). पाराशर,



(47). आत्रेय, (48). पुलस्त्य, (49). भारद्वाज, (50). कुत्स, (51). शांडिल्य, (52). भरद्वाज, (53). कौत्स, (54). कर्दम, (55). पाणिनि गोत्र, (56). वत्स, (57). विश्वामित्र, (58). अगस्त्य, (59). कुश, (60). जमदग्नि कौशिक, (61). कुशिक, (62). देवराज गोत्र, (63). धृत कौशिक गोत्र, (64). किंडव गोत्र, (65). कर्ण, (66). जातुकर्ण, (67). काश्यप, (68). गोभिल, (69). कश्यप, (70). सुनक, (71). शाखाएं, (72). कल्पिष, (73). मनु, (74). माण्डब्य, (75). अम्बरीष, (76). उपलभ्य, (77). व्याघ्रपाद, (78). जावाल, (79). धौम्य, (80). यागवल्क्य,




(81). और्व, (82). दृढ़, (83). उद्वाह, (84). रोहित, (85). सुपर्ण, (86). गालिब, (87). वशिष्ठ, (88). मार्कण्डेय, (89). अनावृक, (90). आपस्तम्ब, (91). उत्पत्ति शाखा, (92). यास्क, (93). वीतहब्य, (94). वासुकि, (95). दालभ्य, (96). आयास्य, (97). लौंगाक्षि, (98). चित्र, (99). विष्णु, (100). शौनक,




(101).पंचशाखा, (102).सावर्णि, (103).कात्यायन, (104).कंचन, (105).अलम्पायन, (106).अव्यय, (107).विल्च, (108). शांकल्य, (109). उद्दालक, (110). जैमिनी, (111). उपमन्यु, (112). उतथ्य, (113). आसुरि, (114). अनूप और (110). आश्वलायन।
कुल संख्या 108 ही हैं, लेकिन इनकी छोटी-छोटी 7 शाखा और हुई हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इनकी पूरी सँख्या 115 है।
ब्राह्मण कुल परम्परा के 11 कारक
(1) गोत्र:-




व्यक्ति की वंश-परम्परा जहाँ और से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। इन गोत्रों के मूल ऋषि :– विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप। इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भरद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है।
(2)प्रवर:-




अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हैं। अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्त की गई श्रेष्ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए, वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि कुल परम्परा में गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे।
(3) वेद:-


वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है। इनको सुनकर कंठस्थ किया जाता है। इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया, इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे, तदनुसार वेदाभ्यासी कहलाते हैं। प्रत्येक का अपना एक विशिष्ट वेद होता है, जिसे वह अध्ययन-अध्यापन करता है। इस परम्परा के अन्तर्गत जातक, चतुर्वेदी, त्रिवेदी, द्विवेदी आदि कहलाते हैं। 👉
(4) उपवेद :- प्रत्येक वेद से सम्बद्ध विशिष्ट उपवेद का भी ज्ञान होना चाहिये।
(5) शाखा ;-



वेदों के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है। कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था, तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्होंने जिसका अध्ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।
6) सूत्र:-




प्रत्येक वेद के अपने 2 प्रकार के सूत्र हैं। श्रौत सूत्र और ग्राह्य सूत्र यथा शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है।
(7)छन्द - उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को अपने परम्परा सम्मत छन्द का भी ज्ञान होना चाहिए।
(8) शिखा:-अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा-चुटिया को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बाँधने की परम्परा शिखा कहलाती है|
(9) पाद:- अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं। ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है। अपने-अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं।
(10) देवता :-


प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते हैं, वही उनका कुल देवता यथा भगवान् विष्णु, भगवान् शिव, माँ दुर्गा, भगवान् सूर्य इत्यादि देवों में से कोई एक आराध्य देव हैं।
(11 )द्वार या दिशा :-यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा कही जाती है।
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4.7.25

कौन हैं भगवान परशुराम, जिन्होंने पिता के कहने पर कर दिया था मां का वध,




पौराणिक कहानियां के विडिओ की शृंखला मे आज की कहानी का शीर्षक है कौन हैं भगवान परशुराम जिन्होंने पिता के कहने पर अपनी ही माता का सिर काट दिया?
भगवान परशुराम  की कहानी
किनके पुत्र एवं भाई हैं भगवान परशुराम?
भगवान परशुराम विष्णु के छठे अवतार हैं। उनके पिता का नाम जमदग्नि तथा माता का नाम रेणुका है। वे अपने चार बड़े भाइयों तथा माता-पिता के साथ गंगा नदी से कुछ दूरी पर अपने आश्रम में रहते थे। भगवान परशुराम के चार बड़े भाइयों के नाम हैं: रुक्मवान, सुषेणु, वसु और विश्वावसु। भगवान परशुराम अपने माता पिता के आदेश का अक्षरसह पालन करते थे। माता पिता के प्रति उनकी श्रद्धा अथाह थी।
माता से अथाह प्रेम करने वाले भगवान परशुराम ने आखिर क्यों किया अपनी माता का वध?
एक दिन की बात है, माता रेणुका हवन पूजन के लिए गंगा तट पर जल लाने गई थीं। जल लेकर लौटते समय उनका ध्यान जलविहार करते राजा चित्र रथ एवं अप्सराओं पर पड़ा। वे इस दृश्य को देखते रह गई और एक लंबा समय इसमें बीत गया। महर्षि जमदग्नि हवन पूजन हेतु बैठे हुए थे और उन्हें देर हो रही थी। तभी उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से जानना चाहा कि आखिर देवी रेणुका को इतना विलंब क्यों हो रहा है? यह सब जानते ही वह अति क्रोधित हो उठे। जब तक देवी रेणुका आश्रम पहुंची तब तक पूजन हवन में विलंब हो चुका था और महर्षि जमदग्नि आग बबूला थे। क्रोध में उन्होंने अपनी पत्नी को मर्यादा विरोधी आचरण करने हेतु दंड दिया। महर्षि जमदग्नि एवं माता रेणुका के सभी पुत्र वहां उपस्थित थे। उन्होंने एक-एक कर अपने पुत्रों को अपनी माता का वध करने का आदेश दे दिया।

        भूत भविष्य जानने वाले विष्णु अवतार भगवान परशुराम



अपने पिता की अवेहलना कर उनके चार पुत्रों ने माता का वध करने से मना कर दिया। पिता की आज्ञा विमुख होने के कारण महर्षि जमदग्नि में अपने चार पुत्रों को विचार शून्य होने का श्राप दे दिया। यह सब भगवान परशुराम देख रहे थे। तभी महर्षि जमदग्नि ने अपने सबसे छोटे पुत्र भगवान परशुराम से माता का वध करने को कहा। 
तब भूत भविष्य जानने वाले भगवान परशुराम ने बिना एक क्षण समय व्यतीत किए, अपनी माता का सर काट कर उनका वध कर दिया। यह देख महर्षि जमदग्नि अति प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने बेटे परशुराम से तीन वरदान मांगने को कहा। तब इन सब बातों को पहले से जानने वाले भगवान परशुराम ने तीन वरदान मांगे।

         परशुराम और उनकी माता रेणुका हिमाचल का मंदिर 


कौन से तीन वरदान मांगे भगवान परशुराम ने अपने पिता महर्षि जमदग्नि से?
पहला, माता रेणुका पुनर्जीवित हों और उनके चारों भाई स्वस्थ हो जाएं। दूसरा, इनमें से किसी को भी इन बातों की स्मृति ने रहे। तीसरा, वे दीर्घायु एवम अजय हों। भगवान परशुराम की मांग सुनकर महर्षि जमदग्नि को अपने क्रोध का एहसास हुआ। तथास्तु कह कर उन्होंने अपने पुत्र को तीनों वरदान दे दिए। महर्षि जमदग्नि समझ चुके थे की, कोई भी पुत्र ऐसे अपनी माता का वध नहीं कर सकता। जब तक वह स्वयं भूत भविष्य जानने वाला ना हो। मन ही मन उन्होंने पुत्र धन रूप में प्राप्त भगवान विष्णु को प्रणाम किया।
यह घटना परशुराम के महान पितृभक्ति और आज्ञाकारिता को दर्शाती है, लेकिन साथ ही, यह उनके जीवन में एक दुखद और महत्वपूर्ण मोड़ भी थी।

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25.6.25

ब्राह्मण गोत्रावली : सप्त ऋषियों की वंशावली /All about Brahman gotras


मित्रों जाति इतिहास के विडिओ की शृंखला मे आज का विषय है "ब्राह्मण गोत्रावली : सप्त ऋषियों की वंशावली "

ब्राह्मण गोत्रावली का विडिओ 




ब्राह्मण जाति में प्रमुख गोत्रों में अत्रि, भारद्वाज, गौतम, जमदग्नि, कश्यप, वशिष्ठ, और विश्वामित्र शामिल हैं। ये गोत्र उन ऋषियों के नाम पर हैं जिनसे ब्राह्मणों की वंशावली मानी जाती है। इनमें से प्रत्येक गोत्र को आगे उप-गोत्रों में विभाजित किया गया है जिन्हें प्रवर कहा जाता है।
ब्राह्मणों में 7 प्रमुख गोत्र माने जाते हैं, जिनसे अन्य सभी गोत्र निकले हैं:

1. अत्रि:

इस गोत्र का संबंध महर्षि अत्रि से है।

                                       महर्षि अत्रि

अत्रि गोत्र, ऋषि अत्रि और उनकी पत्नी देवी अनुसूया के वंशजों से संबंधित है। अत्रि ऋषि को ब्रह्मा के पुत्र और सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। इस गोत्र में कई उपनाम शामिल हैं, जिनमें अत्रि, अत्रे, और आत्रेय प्रमुख हैं। अत्रि गोत्र के लोग भारत के विभिन्न हिस्सों जैसे उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और नेपाल में पाए जाते हैं।
अत्रि गोत्र की वंशावली:
ऋषि अत्रि:
ब्रह्मा के पुत्र और सप्तर्षियों में से एक।
पत्नी:
देवी अनुसूया।

                                         देवी अनुसूया

पुत्र:
दत्तात्रेय, दुर्वासा और चंद्र 
अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति:
अत्रि गोत्र से संबंधित कई अन्य ऋषि, शासक, और प्रजापति भी माने जाते हैं
अत्रि गोत्र से जुड़े उपनाम:
अत्रि, अत्रे, आत्रेय, गौड़ा, रेड्डी, मोदी, अग्रवाल, वर्मा, नाइक, शेठ.
अत्रि गोत्र का महत्व:
अत्रि गोत्र का हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है।
ऋषि अत्रि और देवी अनुसूया को हिंदू धर्म में उच्च सम्मान दिया जाता है।
अत्रि गोत्र के लोग भारत के विभिन्न हिस्सों में पाए जाते हैं और विभिन्न व्यवसायों में शामिल हैं।
अत्रि गोत्र की वंशावली, ऋषि अत्रि और देवी अनुसूया के वंशजों से जुड़ी है, और इसमें कई महत्वपूर्ण व्यक्ति और उपनाम शामिल हैं।

2. भारद्वाज:

यह गोत्र महर्षि भारद्वाज से संबंधित है।

                                    महर्षि भारद्वाज


भारद्वाज गोत्र, हिंदू धर्म में एक प्रसिद्ध गोत्र है, जिसकी उत्पत्ति महर्षि भारद्वाज से मानी जाती है। यह गोत्र वैदिक काल से ही महत्वपूर्ण रहा है और कई प्रसिद्ध ऋषियों और विद्वानों से जुड़ा है। भारद्वाज गोत्र के अंतर्गत कई उपगोत्र और शाखाएं भी आती हैं।
भारद्वाज गोत्र की वंशावली:
मूल ऋषि:
भारद्वाज गोत्र के मूल ऋषि महर्षि भारद्वाज हैं, जो सप्त ऋषियों में से एक हैं.
वंश:
भारद्वाज ऋषि के वंशज भारद्वाज गोत्र के रूप में जाने जाते हैं.
प्रवर:
भारद्वाज गोत्र के प्रवर में अंगिरस, बार्हस्पत्य और भारद्वाज शामिल हैं.
उपगोत्र:
भारद्वाज गोत्र के अंतर्गत कई उपगोत्र और शाखाएं आती हैं, जैसे गोयल, बंसल, मित्तल, जिंदल, गर्ग आदि.
प्रसिद्ध व्यक्ति:
भारद्वाज गोत्र से कई प्रसिद्ध व्यक्ति जुड़े हैं, जिनमें ऋषि भारद्वाज, द्रोणाचार्य

                                 गुरु द्रोणाचार्य 

और अश्वत्थामा शामिल हैं.
कुलदेवी:
भारद्वाज गोत्र की कुलदेवी के रूप में बिन्दुक्षणी माता को माना जाता है, जो गुजरात के पाटण शहर में स्थित हैं, 
महत्व:
भारद्वाज गोत्र का हिंदू धर्म और इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। यह गोत्र वैदिक परंपराओं और आध्यात्मिक ज्ञान से जुड़ा हुआ है.
भारद्वाज गोत्र के कुछ प्रमुख उपगोत्र:
गोयल, बंसल, कुच्छल, मित्तल, सिंगल, जिंदल, बिंदल,  गर्ग, अयन, मधुकुल, मानिक्य, नंगल, मंगल, भंदल, धरण, गोयन, भारन.

3. गौतम:


                                            महर्षि गौतम  


गौतम गोत्र, महर्षि गौतम के वंशजों से संबंधित है, जो सप्तर्षियों में से एक थे। यह गोत्र ब्राह्मणों और राजपूतों दोनों में पाया जाता है।

गौतम गोत्र का महत्व:
ब्राह्मण:
गौतम गोत्र के ब्राह्मणों में, यह माना जाता है कि वे सरयूपारी ब्राह्मणों की एक शाखा हैं, और उनकी कुलदेवी शीतला माता हैं।
क्षत्रिय (राजपूत):
गौतम गोत्र के राजपूतों का संबंध गौतम बुद्ध से माना जाता है, और वे मुख्य रूप से उत्तरी भारत में पाए जाते हैं।
गौतम गोत्र के कुछ प्रसिद्ध व्यक्ति:
गौतम बुद्ध:



बौद्ध धर्म के संस्थापक, जो शाक्य कुल से थे और उनका गोत्र गौतम था।
इंद्रभूति गौतम:
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर के प्रमुख शिष्य।
इस गोत्र का संबंध महर्षि गौतम से है।

4. जमदग्नि:
                                      महर्षि जमदग्नि 


यह गोत्र महर्षि जमदग्नि से संबंधित है।
जमदग्नि गोत्र, ऋषि जमदग्नि से संबंधित है, जो भृगुवंशी ऋचीक के पुत्र थे और सप्तऋषियों में गिने जाते हैं। उनकी पत्नी रेणुका से पांच पुत्र थे, जिनमें से सबसे छोटे परशुराम थे, जो भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं.
जमदग्नि गोत्र की वंशावली:
ऋषि जमदग्नि:
भृगुवंशी ऋचीक के पुत्र और रेणुका के पति, जिन्हें सप्तऋषियों में गिना जाता है.
पत्नी:
रेणुका, जो राजा प्रसेनजित की पुत्री थीं.
पुत्र:
जमदग्नि और रेणुका के पांच पुत्र थे: ऋषभानु, सुहोत्र, वसु, विश्वावसु, और परशुराम.
परशुराम:



जमदग्नि के सबसे छोटे पुत्र, जिन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है.
जमदग्नि गोत्र के ब्राह्मण, ऋषि जमदग्नि के वंशज माने जाते हैं और उनकी आध्यात्मिक शिक्षाओं को आगे बढ़ाने का दावा करते हैं.

5. कश्यप:

यह गोत्र महर्षि कश्यप से संबंधित है।
                                      महर्षि कश्यप 

  कश्यप गोत्र, हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण गोत्र है जो महर्षि कश्यप से संबंधित है। कश्यप गोत्र की वंशावली में अदिति, दिति, दनु, कद्रू, सुरसा, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, विश्वा और मुनि जैसी पत्नियों से उत्पन्न विभिन्न संतानों का उल्लेख है। यह गोत्र ऋषियों, देवताओं, और मनुष्यों सहित कई प्राणियों का पूर्वज माना जाता है।
महर्षि कश्यप:
कश्यप गोत्र का नाम महर्षि कश्यप के नाम पर पड़ा है, जो एक प्रसिद्ध ऋषि थे और वेदों के ज्ञाता माने जाते थे।
विभिन्न संताने:
 कश्यप ऋषि  की कई पत्नियाँ थीं जिनसे  कई संताने हुईं, जिनमें देवता, असुर, नाग, पक्षी, और अन्य प्राणी शामिल हैं।
सूर्यवंश:
कश्यप ऋषि के पुत्र सूर्य  हुए जिनसे सूर्यवंश की शुरुआत मानी जाती है, जिसमें इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ जैसे महान राजा हुए.

6. वशिष्ठ:



यह गोत्र महर्षि वशिष्ठ से संबंधित है।
वशिष्ठ गोत्र, हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण गोत्र है, जो महर्षि वशिष्ठ से जुड़ा है। यह गोत्र ब्राह्मणों में पाया जाता है और इसके कई उपगोत्र भी हैं। वशिष्ठ गोत्र की वंशावली में कई प्रसिद्ध ऋषि और राजा शामिल हैं।
वशिष्ठ गोत्र की वंशावली:
महर्षि वशिष्ठ:
वशिष्ठ गोत्र के संस्थापक माने जाते हैं। वे ब्रह्मा के मानस पुत्र थे और भगवान राम के गुरु थे।
शक्ति:
वशिष्ठ के पुत्र थे, जिनका विवाह अदृश्यन्ती से हुआ था।
पराशर:
शक्ति के पुत्र और वेद व्यास के पिता थे।
वेद व्यास:
जिन्होंने महाभारत की रचना की, वशिष्ठ गोत्र से ही थे।
अन्य ऋषि:
वशिष्ठ गोत्र में अन्य कई ऋषि भी हुए हैं, जैसे कि आपव, देवराज, आदि।
शाखाएँ:
वशिष्ठ गोत्र की कई शाखाएँ हैं, जैसे कि माध्यंदिन, पिप्पलादि, आदि.
प्रवर:
वशिष्ठ गोत्र के तीन प्रवर हैं: वशिष्ठ, मित्रवरुण, और भृगु.
वंशज:
वशिष्ठ गोत्र के वंशज आज भी भारत और दुनिया भर में पाए जाते हैं।
वशिष्ठ गोत्र का महत्व:
गुरु-शिष्य परंपरा:
वशिष्ठ गोत्र, गुरु-शिष्य परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, क्योंकि महर्षि वशिष्ठ भगवान राम के गुरु थे।

7. विश्वामित्र:

यह गोत्र महर्षि विश्वामित्र से संबंधित है।
                                  महर्षि विश्वामित्र


 विश्वामित्र, जन्म से क्षत्रिय थे , लेकिन बाद में अपनी तपस्या से ब्रह्मर्षि बने। उनकी वंशावली इस प्रकार है: 
ब्रह्मा से अत्रि, 
अत्रि से चंद्र, 
चंद्र से बुध, 
बुध से पुरुवा, 
पुरुवा से विजय, 
विजय से होत्रक, 
होत्रक से जाह्नु, 
जाह्नु से पुरु,
 पुरु से बालक, 
बालक से अजक, 
अजक से कुश, 
कुश से कुशनाभ, 
कुशनाभ से गाधि, 
और गाधि से विश्वामित्र, 
विश्वामित्र को कौशिक भी कहा जाता है, क्योंकि वे कुश वंश में उत्पन्न हुए थे, 
विश्वामित्र के पिता राजा गाधि थे, जो क्षत्रिय वंश के थे, लेकिन उन्होंने ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया,  विश्वामित्र के पुत्रों में शुनःशेफ, देवरात, देवश्रवा, हिरण्याक्ष, गालव, जय, अष्टक, कच्छप, नारायण, और नर शामिल थे,
विश्वामित्र के वंश में कई ऋषि हुए, जैसे कि देवरात, वैकृति, गालव, वतनद, शालंका, अभय, आयतयान, श्यामायन, याज्ञवल्क्य, जाबाला, सैंधवायन, वाभ्रव्य, करिश, संश्रुत्य, संश्रुत, उलूप, औपाहावा, पयोडा, जनपदपा, खरबाका, हलायमा, संधता, और वास्तुकौशिका,. विश्वामित्र, देवरात, और उद्दाल को प्रवर ऋषि माना जाता है,

                           विश्वामित्र की पुत्री शकुंतला

विश्वामित्र की एक पुत्री भी थी, जिसका नाम शकुंतला था,शकुंतला का विवाह राजा दुष्यंत से हुआ था, और उनके पुत्र भरत के नाम पर देश का नाम भारत पड़ा,
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मीणा जाति की उत्पत्ति ,संस्कृति ,इतिहास :संघर्ष और उत्थान की कहानी



मित्रों ,जाती इतिहास के विडियो की श्रृंखला में आज का विषय है "मीणा जाति की उत्पत्ति ,संस्कृति ,इतिहास :संघर्ष और उत्थान की कहानी "
मीणा समाज भारत की एक प्राचीन और गौरवशाली जनजाति है, जिसकी उत्पत्ति, संस्कृति और इतिहास अत्यंत समृद्ध और रोचक है।
 मीणा इतिहास और मीणा समाज के विविध पहलुओं की जानकारी से हमें इस समुदाय की समृद्धि और उनकी संस्कृति को समझने में सहायता मिलती है।


 
उत्पत्ति

"मीणा" शब्द संस्कृत के "मीन" (मछली) से लिया गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, मीणा समाज की उत्पत्ति भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार से मानी जाती है। ऋग्वेद में वर्णित मत्स्य जनपद को मीणा समुदाय का ऐतिहासिक केंद्र माना जाता है, जिसकी राजधानी विराट नगर (वर्तमान बैराठ, जयपुर) थी

इतिहास



प्राचीन काल में मीणा समुदाय राजस्थान के कई हिस्सों में शासक रहा। आमेर (जयपुर), बूंदी, अलवर, और सवाई माधोपुर जैसे क्षेत्रों में मीणा राजाओं का शासन था। ब्रिटिश काल में उन्हें "आपराधिक जनजाति" घोषित किया गया, जो एक राजनीतिक साजिश मानी जाती है स्वतंत्रता के बाद 1952 में यह टैग हटा दिया गया और मीणा समाज को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा मिला।

संस्कृति




मीणा समाज की संस्कृति में लोकनृत्य, पारंपरिक वेशभूषा, और कुलदेवियों की पूजा प्रमुख है। पन्ना मीणा की बावड़ी

                            पन्ना मीणा की बावड़ी का दृश्य 


,                                        दांत माता मंदिर


और 
                                          बांकी माता मंदिर


 जैसे धार्मिक और स्थापत्य स्थल इनके सांस्कृतिक गौरव को दर्शाते हैं। समाज में गोत्र प्रणाली प्रचलित है, जिसमें 12 पाल, 32 तड़ और 5248 गोत्रों का उल्लेख मिलता है।

 संघर्ष और उत्थान

मीणा समाज ने सामाजिक न्याय और अधिकारों के लिए कई आंदोलनों में भाग लिया। मीणा जनजाति आंदोलन ने उन्हें शिक्षा, नौकरियों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आगे बढ़ने का अवसर दिया।

1. प्राचीन ग्रंथों में मीणा जाति का उल्लेख

मीणा जाति का वर्णन प्राचीन भारतीय ग्रंथों और पुराणों में मिलता है। ये ग्रंथ इस समुदाय के इतिहास को उजागर करते हैं और बताते हैं कि मीणा समाज का समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह जानकारी मीणा इतिहास को और भी मजबूती प्रदान करती है।

2. वैज्ञानिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

वैज्ञानिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से मीणा जाति के उद्भव पर कई शोध और अध्ययन हुए हैं। ये अध्ययन दर्शाते हैं कि मीणा समाज ने समय के साथ कई बदलाव देखे हैं, जैसे कि सामाजिक ढाँचा, आर्थिक गतिविधियाँ, और सांस्कृतिक पहचान।

3. नामकरण और गोत्र

मीणा जाति के नामकरण की प्रक्रिया और इसके विभिन्न गोत्रों की विशेषताएँ समाज में उनकी विविधता को दर्शाती हैं। प्रत्येक गोत्र का अपना इतिहास और पहचान होती है, जो मीणा समाज की सामाजिक संरचना को स्पष्ट करती है।

4. मीणा जाति का विस्तार

मीणा जाति का फैलाव मुख्य रूप से राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में हुआ है। समय के साथ, यह जाति अन्य राज्यों में भी फैली है। उनके निवास स्थानों की भौगोलिक विविधता और सामाजिक संबंधों ने मीणा समाज के विकास में योगदान दिया है।

5. मीणा जाति और फादर हैगस का योगदान

फादर हैगस एक प्रमुख व्यक्ति थे जिन्होंने मीणा जाति के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके प्रयासों से मीणा समुदाय ने शिक्षा और सामाजिक सुधार की दिशा में कदम बढ़ाए, जिससे उनकी पहचान को नई मजबूती मिली।

6. मीणा सरदारों के प्रमुख निवास स्थान

                               महाराज बूंदा की तस्वीर 

मीणा सरदारों का इतिहास इस जाति की शक्ति और प्रतिष्ठा को दर्शाता है। उनके निवास स्थान (अथवा मेबासे) न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में भी उनकी भूमिका अहम रही है।

7. मीणा समुदाय के प्रमुख स्थल

                             मीणा राजा का किला 


मीणा जाति के प्रमुख गाँव और शहर जैसे दौसा, अलवर, और जयपुर उनकी सांस्कृतिक पहचान को दर्शाते हैं। यहाँ के रीति-रिवाज, त्योहार, और लोक कला मीणा समाज की समृद्धि का प्रतीक हैं।
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21.6.25

दर्जी जाति का गौरवशाली इतिहास : पीपा ,छीपा ,नामदेव ,दामोदर वंशी और उपजातियों की जानकारी

  



मित्रों ,भारत मे जाति व्यवस्था वैदिक काल से ही अस्तित्व मे है|जाति इतिहास के विडिओ के अंतर्गत आज "दर्जी जाति का इतिहास और जानकारी'  विषय पर चर्चा करेंगे 

दर्जी जाति का इतिहास उतना ही पुराना है जितना की मानव का इतिहास।

विश्व इतिहास में यह माना गया है कि कपास का सर्वप्रथम उपयोग भारत में ही हुआ था अतः यह कहना सार्थक होगा की धागा बनाना और कपड़ा बनाना भी भारत में ही आरम्भ हुआ यही कला चीनियों ने भारत से सीखी किंतु वे इस कला को और अधिक विकसित कर सके |
जाति इतिहास लेखक डॉ ,दयाराम  आलोक के मतानुसार  2500 ईसा पूर्व से ही मनुष्य प्रजाति का एक तबका वस्त्र निर्माण और उसकी  डिजाइन बनाने के कार्य में लग गया| कालांतर में भारत में वैदिक और उत्तर वैदिक काल में जाति व्यवस्था प्रकाश में आई और दर्जी जाति भी इसी काल में आई। जाति व्यवस्था प्रचलित होने पर कपड़े से सम्बंधित कार्य करने वालो को दर्जी कहा गया लेकिन यह जाति बिना पहचान के ही सेकड़ो वर्षो पूर्व से ही कार्य में लगी हुई है।
Darji History Video in Hindi 



अब यह जाति अपने द्वारा सीखी गयी कलाकारी को अपनी सन्तानो को भी देने लगे और अगली पीढ़ी भी उन्नत कलाकारी कर पाई जिसमे कपड़ा निर्माण, छपाई, रँगाई, वस्त्र निर्माण आदि कार्य शामिल है और इसी कार्य से सम्बंधित लोगो में वैवाहिक सम्बन्ध होने लगे। यह जाति एक विकसित जाति रही जिसके प्रमाण इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजा और सम्पन्न लोग अपने पर्सनल दर्जी रखते थे और यही प्रथा आधुनिक काल में अंग्रेजो ने भी रखी उन्होंने दर्जी जाति को भारत में टेलर नाम दिया।आज भी दर्जी जाति के लोग इस कार्य को बखूबी कर रहे है | 

पीपा क्षत्रिय दर्जी समाज

गागरोन रियासत के प्रतापी शासक जो राजा से बने संत




पीपा क्षत्रिय दर्जी समाज का इतिहास, संत पीपाजी महाराज से जुड़ा हुआ है, जो 14वीं शताब्दी के एक महान संत और भक्ति आंदोलन के नेता थे. वे गागरोनगढ़ के एक राजपूत राजा थे जिन्होंने बाद में सिंहासन त्यागकर संत बनने का फैसला किया.पीपा वंशीय दर्जी समाज क्षत्रीय गोत्र वाला सबसे अधिक संख्या वाला दर्जी  समाज है जो पीपा जी महाराज के अनुयायी हैं। 

दामोदर वंशी दर्जी समुदाय की जानकारी 



   दामोदर वंशी दर्जी समाज एक पारंपरिक भारतीय समुदाय है जो मुख्य रूप से मध्य प्रदेश और राजस्थान में पाया जाता है। यह समुदाय अपनी विशिष्ट संस्कृति, परंपराओं और व्यवसाय के लिए जाना जाता है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं जो दामोदर वंशी दर्जी समाज के बारे में बताती हैं:
1. उत्पत्ति: दामोदर वंशी दर्जी समाज की उत्पत्ति गुजरात से हुई है, जहाँ से वे मुस्लिम शासकों के अत्याचारों और जबरन इस्लामीकरण के दबाव के कारण पलायन कर मध्य प्रदेश और राजस्थान में बस गए।
2. व्यवसाय: दामोदर वंशी दर्जी समाज का मुख्य व्यवसाय दर्जी का काम है, जिसमें वे कपड़े सिलते और बनाते हैं।
3. संस्कृति: दामोदर वंशी दर्जी समाज की संस्कृति में हिंदू परंपराएं और रीति-रिवाज शामिल हैं, जिनमें वे अपने आराध्य संत दामोदर जी महाराज  की पूजा करते हैं और उनकी जयंती और  निर्वाण तिथि  मनाते है | 
   जूनागढ़ के मुस्लिम शासकों के अत्याचारों और जबरन इस्लामीकरण की वजह से दामोदर वंशीय दर्जी समाज के दो जत्थे गुजरात को छोड़कर मध्य प्रदेश और राजस्थान में विस्थापित हुए।
 पहला जत्था 1505 ईस्वी में महमूद बेगड़ा के शासनकाल में विस्थापित हुआ, और दूसरा जत्था 1610 ईस्वी में नवाब मिर्जा जस्साजी खान बाबी के शासनकाल में विस्थापित हुआ।
इन दोनों जत्थों के लोगों की बोली और संस्कृति में अंतर होने के कारण, पहले जत्थे के लोग "जूना गुजराती" और दूसरे जत्थे के लोग "नए गुजराती" कहलाने लगे।
  दामोदर वंशी दर्जी समाज के परिवारों की गौत्र क्षत्रियों की है, जिससे यह ज्ञात होता है कि इनके पुरखे क्षत्रिय थे। और जूना गुजराती समाज के लोग "सेठ" उपनाम का उपयोग करते हैँ 



उल्लेख योग्य है कि वैश्विक स्तर पर दर्जी समाज की सबसे बड़ी और सबसे अधिक पाठकों वाली website का Address

https://damodarjagat.blogspot.com

जिसकी पाठक  संख्या करीब  साढ़े पाँच  लाख है
ज्ञातव्य है कि डॉ. दयाराम आलोक ने दर्जी समाज के उत्थान और विकास के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने समाज को संगठित करने और उसकी गतिविधियों को सही दिशा देने के लिए अखिल भारतीय दामोदर दर्जी महासंघ का गठन 1965 मे  किया, जो एक महत्वपूर्ण कदम था। इस संस्था का  प्रधान कार्यालय 14,जवाहर मार्ग शामगढ़ है । 
   उन्होंने समाज की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए सामूहिक विवाह की परंपरा शुरू की, जिसमें 9 सामूहिक विवाह आयोजित किए गए। 2010 में उन्होंने स्ववित्त पोषित निशुल्क सामूहिक विवाह का आयोजन किया, जो एक बहुत ही सराहनीय कदम था।

नामदेव दर्जी समाज 




   सन्त नामदेव जो दर्जी जाति से थे उन्होंने भक्ति की पराकाष्ठा को पार कर ईश्वर को भोज कराया ततपश्चात नामदेव दर्जी जाति व अन्य जातियों के सन्त बन गए और मुख्य रूप से दर्जी जाति के लोगो ने तो नाम के साथ नामदेव लगाना भी आरंभ कर दिया वर्तमान में नामदेव समाज प्रकाश में आया जो कि  आधुनिक महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में विकसित हुआ।
दर्जी  जाति और समाज ने कलात्मक और आर्थिक रूप से राष्ट्र विकास में अहम भूमिका अदा की और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कला से जुड़ाव होने के कारण यह समाज किसी भी आपराधिक गतिविधियों से अछूता ही रहा, सरकारी नीतियों  के कुछ  नकारात्मक प्रभाव  इस जाति पर होने पर भी कभी विरोध के स्वर इस जाति में सुनाई नही पड़े। आज इस समाज ने यथार्थ  मानवतावाद को चरितार्थ किया


  सन्यासी दर्जी 

"सन्यासी दर्जी" शब्द का अर्थ है एक ऐसा दर्जी (दर्जी) जो संन्यास (सन्यास) के जीवन को अपनाता है। यह एक ऐसा व्यक्ति है जो दर्जी के रूप में काम करने के साथ-साथ आध्यात्मिक मार्ग पर भी चलता है।यह दर्जी समुदाय अधिकांशत:  दक्षिण भारत के  राज्यों  मे निवास करता है 

काकुतस्थ  दर्जी - 

  काकुस्थ (Kakustha) वंश, जिसे दर्जी जाति भी कहा जाता है, सूर्यवंशी क्षत्रिय (सूर्यवंश के राजा) माने जाते हैं, जो अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश से संबंधित हैं. वे अपने आप को महाराज पुरंजय के वंशज मानते हैं और सूचीकार (दर्जी) भी कहलाते हैं. यह समाज संत नामदेव को भी अपने समाज का मानते हैं.

सोरठिया  दर्जी -

  सोरठिया दर्जी, गुजरात में पाई जाने वाली अहीर/यादव जाति का एक वंश है। वे यदुवंशी अहीरों के वंशज माने जाते हैं और उनके 484 उपनाम हैं, जो किसी भी अन्य गुजराती अहीर/यादव शाखा से अधिक हैं। वे मुख्य रूप से किसान और जमींदार हैं, लेकिन परिवहन और भारी निर्माण मशीनरी व्यवसाय में भी सक्रिय हैं|
दक्षिण भारत में दर्जी समुदाय को अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे कि दर्जी, चित्तार, सना, चिकवा आदि.
पिस्से (Pissey) कर्नाटक में दर्जी समुदाय का एक उपनाम है, जिसे वेड, काकाडे, और सन्यासी के साथ उपयोग किया जाता है.

टाँक ,रूहेल ,इदरिसी 

  रूहेला दर्जी समुदाय, जिसे "टांक" या "इदरीसी" दर्जी भी कहा जाता है, एक भारतीय समुदाय है जो दर्जी (सिलाई) का काम करता है। वे मूल रूप से क्षत्रिय राजपूत वंश से माने जाते हैं। कुछ इतिहास के अनुसार, वे अफगानिस्तान के रोह क्षेत्र से आए थे और 18वीं शताब्दी में रोहिलखंड क्षेत्र में बस गए थे। दर्जी समुदाय में, वे वस्त्र निर्माण और सिलाई के काम के लिए जाने जाते हैं।
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Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे। 

14.6.25

युधिष्ठिर ने स्त्रियों को क्या श्राप दिया था? औरतों के पेट में इसलिए नहीं पचती कोई बात.

 Mahabharat

विडिओ मे कहानी -


से जुड़े कई किस्से ऐसे हैं जो हैरान करने के साथ-साथ सीख भी देते हैं। ऐसा ही एक किस्सा युधिष्ठिर और मां कुंती से जुड़ा है। 


मित्रों ,पौराणिक कथा कहानियाँ के विडिओ की शृंखला मे आज का टॉपिक है
"युधिष्ठिर ने स्त्रियों को क्या श्राप दिया था? औरतों के पेट में इसलिए नहीं पचती कोई बात." 
  महाभारत के युद्ध को जीतने के बाद इसे धर्म की विजय माना गया लेकिन जीत के बावजूद भी धर्मराज युधिष्ठिर को अत्यंत दुख से गुजरना पड़ा था. धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी ही मां कुंती और संसार की सभी नारियों  को श्राप दे दिया था. आइए जानते हैं कि आखिर युधिष्ठिर ने ऐसा क्यों किया था.
  इतिहास (History) के सबसे बड़े युद्ध के रुप में जाने जानें वाले द्वापर युग के महाभारत की कहानियां आज भी लोगों की जुबान पर है। इस युद्ध से जुड़े कई किस्से अक्सर ही सुनने को मिलते हैं, जो न सिर्फ व्यक्ति को हैरान कर जाते हैं, बल्कि वह जीवन की सीख भी देते हैं। वहीं कई बार इन किस्सों के जरिए कुछ ऐसी बातों का भी पता चलता है, जो आज के युग यानी कलयुग में भी देखने को मिलती है। ऐसा ही एक किस्सा पांडव के जेष्ठ पुत्र यानी धर्मराज युधिष्ठिर से भी जुड़ा है। जिसे जानकर आप भी हैरान हो जाएंगे। आइए उसके बारे में जानते हैं।
पौराणिक कथाओं (Mythology) के मुताबिक, द्वापर युग में हुआ महाभारत का युद्ध 18 दिनों तक चला था और युद्ध के हर दिन कुछ न कुछ विशेष घटना घटित हुई थी, जो लोगों के लिए आज भी शिक्षा, संदेश और उपदेश की तरह है। वहीं इस युद्ध के अंत में धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी ही मां कुंती को एक भयंकर श्राप तक दे दिया था, जिसका परिणाम महिलाएं आज तक भुगत रही हैं। तो चलिए जानते हैं कि वह कौन सा श्राप था और युधिष्ठिर ने अपनी ही मां को क्यों दिया था?
अपनी ही मां कुंती को युधिष्ठिर ने क्यों दिया था श्राप, क्या है कहानी?

दरअसल युद्ध में कौरवों और पांडवों दोनों ही पक्ष के इतने परिजन मारे गए थे कि मात्र एक दिन में किसी का भी तर्पण करना संभव न था। धीरे-धीरे दिन बीतते गए और पांडव एक-एक कर कौरव पक्ष एवं पांडव पक्ष के परिजनों और सगे सम्बन्धियों का तर्पण करते गए।एक माह पूरे होने के साथ-साथ सभी रिश्तेदारों का तर्पण हो गया लेकिन कर्ण का तर्पण युधिष्ठिर ने नहीं किया। युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण और माता कुंती को यह कहते हुए कर्ण का तर्पण करने के लिए मना कर दिया कि वह न तो कोई परिजन था और न ही रिश्तेदार।
  माता कुंती यह सुन व्याकुल हो उठीं। वह चाहती थीं कि पांडवों द्वारा कर्ण का भी तर्पण हो क्योंकि कर्ण वास्तव में पांडवों का भाई थे लेकिन वह इस सत्य को अपने पांचों पुत्रों को बताने से भयभीत हो रही थीं।लेकिन  श्री कृष्ण अपनी बुआ यानी कि माता कुंती की दुविधा समझ गए थे।
  श्री कृष्ण ने माता कुंती को विश्वास दिलाया कि वह उनके साथ हैं और माता कुंती अब अपने पुत्रों को कर्ण का सत्य बता दें। माता कुंती ने भी अपना हृदय कठोर कर पांडवों को इस बात का बोध कराया कि कि कर्ण पांडवों का भाई और माता कुंती का पुत्र था।कथा के अनुसार, जब कर्ण (Karna) की मृत्यु के बाद माता कुंती कर्ण के शव को अपनी गोद में लेकर रो रही थीं, तो पांडवों ने इसे देखा और कारण पूछा। कुंती ने उन्हें बताया कि कर्ण उनका सबसे बड़ा पुत्र था, जिसे उन्होंने छुपकर जन्म दिया था। वह यह रहस्य लंबे समय तक छुपाए रखी थीं, क्योंकि कर्ण को द्रुपद के घर में छोड़ दिया गया था और वह नहीं चाहती थीं कि यह तथ्य कभी सामने आए।

युधिष्ठिर ने मां कुंती को क्या श्राप दिया था?


 माता कुंती की बातें सुनकर युधिष्ठिर को क्रोध आ गया और उन्होंने अपनी माता से कहा कि आपने  इतनी बड़ी बात हमसे छिपाकर रखी |हमे  अपने बड़े भाई कर्ण का  हत्यारा बना दिया.उन्होंने अपनी माता कुंती सहित संपूर्ण स्त्री जाति को श्राप दे दिया और कहा कि आज मैं संपूर्ण स्त्री जाति को श्राप देता हूं कि वे चाहकर भी अपने दिल में कोई बात छिपाकर नहीं रख पाएंगी।
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